मंगलवार, 13 जून 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 13 June 2023

🔷 उन्नति एवं विकास के लिए स्पर्धा तथा प्रतियोगिता की भावना एक प्रेरक तत्त्व है, किन्तु तब, जब उसमें ईर्ष्या अथवा द्वेष का दोष न आने दिया जाये और जीवन मंच पर अभिनेता की भावना रखी जाये। जलन के वशीभूत होकर दूसरों की टांग खींचने के लिए उनके दोष देखना अथवा निन्दा करना छोड़कर अपने से आगे बढ़े हुओं के उन गुणों की खोज करना और उन्हें अपने में विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए, जिनके बल पर अगला व्यक्ति आगे बढ़ा है।

🔶 रोध, अनुरोध एवं प्रतिरोध जैसे हेय शब्द कर्मवीरों के कोश में नहीं, निकम्मों की जीभ पर ही चढ़े होते हैं।  यदि ऐसा होता तो सिकन्दर विश्व विजयी न होता, सीजर रोम साम्राज्य स्थापित न कर पाता, चाणक्य का ध्येय सफल न होता और एक लँगोटीबंद महात्मा गाँधी भारत में ब्रिटिश हुकूमत का तख्ता न उलट देता। ज्ञान के पिपासु फाह्यान एवं ह्वान्सांग का पथ सिन्धु अवश्य रोक लेता और बौद्ध भिक्षुओं को हिमालय आगे न बढ़ने देता, किन्तु अभियानशील को भला कौन कहाँ रोक पाया है।

🔷 जो अकर्मण्य, आलसी हैं वे अपने से पूछें कि बेकार पड़े खाते रहने से उन्हें कोई सुख है? क्या उनकी आत्मा उन्हें अपनी अकर्मण्यता के लिए नहीं धिक्कारती? क्या कभी उन्हें यह विचार नहीं आता-इस बात की ग्लानि नहीं होती कि जब संसार में और लोग परिश्रम कर रहे हैं-पसीना बहा रहे हैं, तब उनका निठल्ले पड़े रहना मूर्खतापूर्ण बेहयाई ही है और बेहयाई की जिन्दगी बिताना मनुष्यता नहीं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 अच्छी आदतें कैसे डाली जायं? (भाग 1)

बिना मनोयोग के कोई काम नहीं होता है। मन के साथ काम का सम्बन्ध होते ही चित्त पर संस्कार पड़ना आरंभ हो जाते हैं और ये संस्कार ही आदत का रूप ग्रहण कर लेते हैं। मन के साथ काम के सम्बन्ध में जितनी शिथिलता होती है, आदतों में भी उतनी ही शिथिलता पाई जाती है। यों शिथिलता स्वयं एक आदत है और मन की शिथिलता का परिचय देती है।

असल में मन चंचल है। इसलिए मानव की आदत में चंचलता का समावेश प्रकृति से ही मिला होता है। लेकिन दृढ़ता पूर्वक प्रयत्न करने पर उसकी चंचलता को स्थिरता में बदला जा सकता है। इसलिए कैसी भी आदत क्यों न डालनी हो, मन की चंचलता के रोक थाम की अत्यन्त आवश्यकता है और इसका मूलभूत उपाय है- निश्चय की दृढ़ता। निश्चय में जितनी दृढ़ता होगी, मन की चंचलता में उतनी ही कमी और यह दृढ़ता ही सफलता की जननी है।

जिस काम को आरम्भ करो, जब तक उसका अन्त न हो जाय उसे करते ही जाओ। कार्य करने की यह पद्धति चंचलता को भगाकर ही रहती है। कुछ समय तक न उकताने वाली पद्धति को अपना लेने पर फिर तो मनोयोग पूर्वक कार्य में लग जाने की आदत हो जाती है। तब मन अपनी आदत को छोड़ देता है अथवा बार बार भिन्न भिन्न चीजों पर वृत्तियाँ जाने की अपेक्षा एक पर ही उसकी प्राप्ति तक दृढ़ रहती है।

मन निरन्तर नवीनता की खोज करता है। यह नवीनता प्रत्येक कार्य में पाई जाती है कार्य की गति जैसे जैसे सफलता की ओर होती है, उसमें से अनेक नवीनताओं के दर्शन होने आरंभ होते हैं। मन की स्थिति उस कार्य पर रहे-उसे छोड़कर दूसरे को ग्रहण करने के लिए नहीं-बल्कि उसी कार्य में अनेक नवीनताओं को देखने के लिए। मन की यह गति जितनी विशाल, जितनी सूक्ष्मदर्शिनी बनेगी, मन की एक काम छोड़कर दूसरे काम को अपनाने की वृत्ति में उतनी ही कमी आवेगी, दृढ़ता उतनी ही अधिक होगी।

.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- सितम्बर 1948 पृष्ठ 16
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1948/September/v1.16

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👉 स्थायी सफलता का राजमार्ग (अंतिम भाग)

मनुष्य को अपनी कार्य-सिद्धि के लिए जैसा उत्साह होता है वैसा उत्साह उसे कर्म-फल के लिए होता है वैसा ही उत्साह उसे कर्म करने में भी होना चाहिये। लोक-सेवा का स्वाभाविक फल यश की प्राप्ति है। अतएव यदि कोई यश प्राप्त करना चाहता है तो उसे लोक-सेवा में भी वैसी ही रुचि प्रदर्शित करनी चाहिए। यदि कोई दानी कहलाने की उत्कट इच्छा रखता है तो उसे दान देते समय अपना हाथ भी न सिकोड़ना चाहिये। किंतु बहुधा यह देखा जाता है कि मनुष्यों में कर्म-फल-भोग के लिए जो उत्साह देखा जाता है वैसा उत्साह कर्म करने के लिए नहीं। जहाँ कर्मोत्साह नहीं होता और कर्म-फल-भोग की भावना प्रबल होती है, वहाँ मनुष्य भटक जाता है और अधर्म करता है।

सच्ची उद्देश्य-सिद्धि न्याय पूर्ण तरीकों से ही हो सकती है। तभी वह स्थायी भी होती है। न्याय-संगत साधनों के प्रयोग से मनुष्य को न केवल साध्य की ही प्राप्ति होती है बल्कि उसे साधनकाल में अनेकों अन्य वस्तुओं की भी प्राप्ति हो जाती है जिनका कि मूल्य कभी-कभी उद्देश्य से भी कई गुना अधिक होता है। जो व्यक्ति न्यायपूर्ण तरीकों से धनी बनना चाहता है वह धन पाने के अतिरिक्त अध्यवसाय, मितव्ययिता आदि सद्गुण भी प्राप्त कर लेता है। जो विद्यार्थी ईमानदारी से परीक्षा पास होना चाहता है वह न केवल बी.ए., एम.ए. आदि उपाधियाँ ही प्राप्त करता है बल्कि ठोस ज्ञान भी प्राप्त करता है। वह एतर्द्थ ब्रह्मचर्य-धारण करना सीखता है, पूर्ण मनोयोग से कार्य करता है एवं अपने चित्त को विषय-विलासों से विरत रखता है। विद्याभ्यास और ब्रह्मचर्य के ही मिस से वह चित्त-संयम अथवा योग साधन में प्रवृत्त होता है जिसका कि मूल्य परीक्षा पास कर उपाधियाँ पाने और नौकरी पाने से कम नहीं।

जिस वस्तु को हम न्यायपूर्ण तरीकों से कमाते हैं उसकी रक्षा की योग्यता को हम अपने वंशजों को भी दे जाते हैं। यदि हम अन्यायपूर्ण तरीकों से कोई धन-राशि संचित करते हैं तो हममें उसको प्राप्ति के लिए जितने अध्यवसाय और आत्म-संयम की मात्रा होना चाहिए वह न होगी और फिर हमारी संतान में भी इन गुणों के होने की कम सम्भावना है। यदि हमारी संतान में आत्म-संयम का गुण न होगा तो वह उस धनराशि का दुरुपयोग कर उसे नष्ट कर डालेगी। इस तरह हम देखते हैं कि जिसमें किसी वस्तु के न्यायोचित ढंग से प्राप्त करने की योग्यता नहीं होती उसमें तथा उसकी संतान में उसकी रक्षा करने की भी सामर्थ्य नहीं रहती। यही कारण है कि हम बहुधा लक्षाधीशों के पुत्रों को अपने जीवन काल में कंगाल होते देखते हैं और भ्रमवश यह समझते हैं कि लक्ष्मी अकारण ही चंचल है।

अखण्ड ज्योति-मार्च 1949 पृष्ठ 25


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👉 स्थायी सफलता का राजमार्ग (भाग 2)

मनुष्य को अपनी कार्य-सिद्धि के लिए जैसा उत्साह होता है वैसा उत्साह उसे कर्म-फल के लिए होता है वैसा ही उत्साह उसे कर्म करने में भी होना चाहिये। लोक-सेवा का स्वाभाविक फल यश की प्राप्ति है। अतएव यदि कोई यश प्राप्त करना चाहता है तो उसे लोक-सेवा में भी वैसी ही रुचि प्रदर्शित करनी चाहिए। यदि कोई दानी कहलाने की उत्कट इच्छा रखता है तो उसे दान देते समय अपना हाथ भी न सिकोड़ना चाहिये। किंतु बहुधा यह देखा जाता है कि मनुष्यों में कर्म-फल-भोग के लिए जो उत्साह देखा जाता है वैसा उत्साह कर्म करने के लिए नहीं। जहाँ कर्मोत्साह नहीं होता और कर्म-फल-भोग की भावना प्रबल होती है, वहाँ मनुष्य भटक जाता है और अधर्म करता है।

जिस मनुष्य के हृदय में अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए जितनी अधिक बलवती इच्छा होती है वह मनुष्य अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए उतनी ही तीव्रगति से अग्रसर होता है, किंतु यदि उसे अधर्म में प्रवृत्त नहीं होना है तो उसे अपने आपको तीव्रगति से कर्म में नियोजित करना चाहिए। उसे उद्देश्य को “येन केन प्रकारेण” सिद्ध कर लेने की इच्छा को भी अपने वश में रखना होगा। इच्छा की तीव्रता के कारण अन्याय-पूर्वक सफलता पा लेने के लोभ का भी संवरण करना होगा।

जोश के साथ यह होश भी उसे रखना होगा कि कहीं वह अनीति की राह पर न चल पड़े। उसे अपना कार्य भी सिद्ध करना है पर इसके लिए अनीति-पूर्ण, सरल और छोटे मार्ग पर भी नहीं चलना है। उसे अपना इष्ट साधन करना है पर उसमें आसक्त भी नहीं होना है। अतएव उसे अपने उद्देश्य को सिद्ध करने के लिए केवल इसी शर्त पर आगे बढ़ना चाहिए कि वह केवल न्याय-संगत साधनों का पर उद्देश्य के सरलतापूर्वक मिल जाने पर भी उसे अस्वीकार कर देगा।

🌹 अखण्ड ज्योति-मार्च 1949 पृष्ठ 24


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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...