शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

👉 नियत मार्ग की मर्यादा

🔶 आकाश में ग्रह और नक्षत्र तूफानी चाल से अपनपी राह चलते हैं। एक सेकेण्ड में हजारों मील की यात्रा पार करते हैं पर चलते अपने नियत मार्ग पर ही हैं। यदि कोई तारा जरा सा भी भटक जाय तो वह दूसरे तारों से टकराकर सृष्टि में भारी उथल पुथल पैदा कर सकता है। हर एक तारा अपने निर्धारित मार्ग पर पूर्ण नियम बद्ध होकर चलता है तभी यह दुनियाँ अपनी जगह पर ठहरी हुई है। यदि मर्यादाओं का पालन छोड़ दिया जाय तो समाज की सारी शृंखला बिखर जाएगी और साथ ही मनुष्य जाति सुख शान्ति से भी वंचित हो जाएगी।

🔷 यदि मनुष्य अपनी बुद्धि की थोड़ी अधिक खींच तान करे तो वह बुरी और गलत से गलत बातों को उचित ठहराने के लिए तर्क और प्रमाण ढूँढ़ सकता है। विश्वासों और भावनाओं को पुष्टि करना बुद्धि का काम है। मस्तिष्क को हृदय का वकील कहा जा सकता है। भीतर से जो आकांक्षा और अभिरुचि उठती है उसी को पुष्ट करने और मार्ग ढूँढ़ने में मस्तिष्क लगे जाता है। चोर के लिए वह चोरी की कला में प्रवीणता प्राप्त करने और उसके लिए अवसर ढूँढ़ देने का काम करता है और साधु के लिए पुण्य परमार्थ के अवसर तथा साधन जुटाने में सफल प्रयत्न करता है।

🔶 इसलिए बुद्धि के चमत्कार से प्रभावित होने की जरूरत नहीं है और न बुद्धि को बहुत मान देने की आवश्यकता है। वह तो एक वेश्या के समान है जो प्रलोभन की ओर फिसलती रहती है। प्रभावित होने योग्य तो केवल एक ही वस्तु हैं, उदारता मिश्रित सचाई। भले ही कोई मूर्ख गिना जाय पर जिसमें उदारता और सच्चाई है वह हजार बुद्धिमानों से अच्छा है।

📖 अखण्ड ज्योति से

👉 भिखारी का आत्मसम्मान

🔶 एक भिखारी किसी स्टेशन पर पेसिलो से भरा कटोरा लेकर बैठा हुआ था। एक युवा व्यवसायी उधर से गुजरा और उसने कटोरे मे 50 रूपये डाल दिया, लेकिन उसने कोई पेँसिल नही ली। उसके बाद वह ट्रेन मे बैठ गया। डिब्बे का दरवाजा बंद  होने ही वाला था कि अधिकारी एकाएक ट्रेन से उतर कर भिखारी के पास लौटा और कुछ पेसिल उठा कर बोला, “मै कुछ पेसिल लूँगा। इन पेँसिलो की कीमत है, आखिरकार तुम एक व्यापारी हो और मै भी।” उसके बाद वह युवा तेजी से ट्रेन मे चढ़ गया।

🔷 कुछ वर्षों बाद, वह व्यवसायी एक पार्टी मे गया। वह भिखारी भी वहाँ मौजूद था। भिखारी ने उस व्यवसायी को देखते ही पहचान लिया, वह उसके पास जाकर बोला-” आप शायद मुझे नही पहचान रहे है, लेकिन मै आपको पहचानता हूँ।”

🔶 उसके बाद उसने उसके साथ घटी उस घटना का जिक्र किया। व्यवसायी  ने कहा-” तुम्हारे याद दिलाने पर मुझे याद आ रहा है कि तुम भीख मांग रहे थे। लेकिन तुम यहाँ सूट और टाई मे क्या कर रहे हो?”

🔷 भिखारी ने जवाब दिया, ” आपको शायद मालूम नही है कि आपने मेरे लिए उस दिन क्या किया। मुझे पर दया करने की बजाय मेरे साथ सम्मान के साथ पेश आये। आपने कटोरे से पेसिल उठाकर कहा, ‘इनकी कीमत है, आखिरकार तुम भी एक व्यापारी हो और मै भी।’

🔶 आपके जाने के बाद मैँने बहूत सोचा, मै यहाँ क्या कर रहा हूँ? मै भीख क्योँ माँग रहा हूँ? मैने अपनी जिदगी को सँवारने के लिये कुछ अच्छा काम करने का फैसला लिया। मैने अपना थैला उठाया और घूम-घूम कर पेंसिल बेचने लगा । फिर धीरे -धीरे मेरा व्यापार बढ़ता गया, मैं कॉपी – किताब एवं अन्य चीजें भी बेचने लगा और आज पूरे शहर में मैं इन चीजों का सबसे बड़ा थोक विक्रेता हूँ।

🔷 मुझे मेरा सम्मान लौटाने के लिये मै आपका तहेदिल से धन्यवाद देता हूँ क्योकि उस घटना ने आज मेरा जीवन ही बदल दिया ।”

🔶 मित्रो, आप अपने बारे मे क्या सोचते है? खुद के लिये आप क्या राय स्वयँ पर जाहिर करते है? क्या आप अपने आपको ठीक तरह से समझ पाते है? इन सारी चीजो को ही हम अप्रत्यक्ष रूप से आत्मसम्मान कहते है। दुसरे लोग हमारे बारे मे क्या सोचते है ये बाते उतनी मायने नहीँ रखती या कहे तो कुछ भी मायने नही रखती लेकिन आप अपने बारे मे क्या राय जाहिर करते है, क्या सोचते है ये बात बहूत ही ज्यादा मायने रखती है। लेकिन एक बात तय है कि हम अपने बारे मे जो भी सोचते हैँ, उसका एहसास जाने अनजाने मे दुसरो को भी करा ही देते है और इसमे कोई भी शक नही कि इसी कारण की वजह से दूसरे लोग भी हमारे साथ उसी ढंग से पेश आते है।

🔷 याद रखे कि आत्म-सम्मान की वजह से ही हमारे अंदर प्रेरणा पैदा होती है या कहे तो हम आत्मप्रेरित होते है। इसलिए आवश्यक है कि हम अपने बारे मे एक श्रेष्ठ राय बनाएं और आत्मसम्मान से पूर्ण जीवन जीएं।

👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 7)

👉 प्राणवान् प्रतिभाओं की खोज

🔶 चाणक्य ने चंद्रगुप्त की प्रतिभा को पहचान, उसे अपनी सामर्थ्य का बोध कराया व कुछ पुरुषार्थ कर दिखाने को आगे धकेला तो असमंजस में उलझा नगण्य-सा वह व्यक्ति असामान्य कार्य कर दिखा पाने में समर्थ हुआ। प्राणनाथ महाप्रभु ने वीर छत्रसाल जैसी प्रतिभा को पहचाना व उसे वह शक्ति दी जिसने उसे उत्तर भारत में आक्रांताओं से भारतीय संस्कृति की रक्षा करने का साहस प्रदान किया। विवेकानंद जैसी प्रतिभा नरेंद्र नाम के युवक में छिपी है, यह रामकृष्ण ही जान पाए एवं अपनी शक्ति का अंश देकर वे विश्व को एक महामानव दे गए। समय-समय पर परोक्ष चेतना, समस्याओं के निवारण हेतु प्रतिभाओं को ही खोजती रही है।
  
🔷 इन दिनों व्यक्तिगत समस्याओं का शिकंजा भी कम कसा हुआ नहीं है। आर्थिक, सामाजिक, मानसिक क्षेत्रों में छाई हुई विभीषिकाएँ, सर्वसाधारण को चैन से जी सकने का अवसर नहीं दे रही हैं। इससे भी बढ़कर सार्वजनिक समस्यायें है। संसार के सामने कितनी ही चुनौतियाँ है, बढ़ती हुई गरीबी, बेकारी, बीमारी, प्रदूषण, जनसंख्या वृद्धि, परमाणु विकिरण, युद्धोन्माद का बढ़ता दबाव, अंतरिक्ष क्षेत्र में धूमकेतु की तरह अपनी विकरालता का परिचय दे रहा है। हिमप्रलय, जलप्रलय, दुर्भिक्ष भूकंपों आदि के माध्यम से प्रकृति अपने प्रकोप का परिचय दे रही है। मनुष्य की बौद्धिक भ्रष्टता और व्यवहारिक दुष्टता से, वह भी तो कम अप्रसन्न नहीं है। भविष्यवक्ता इन दिनों की विनाश विभीषिका की संभावना की जानकारी, अनेक स्तरों पर देते रहे हैं। दीखता है कि वह महाविनाश कहीं अगले दिनों घटित ही तो होने नहीं जा रहा है?
  
🔶 पक्ष दूसरा भी है-इक्कीसवीं सदी की ऐसी सुखद संभावना, जिसे सतयुग की वापसी कहा जा सके। इन दोनों ही प्रयोजनों में आवश्यक मानवीय भूमिका का समावेश होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इस कार्य को मूर्द्धन्य प्रतिभाएँ ही संपन्न कर सकेंगी। ईश्वर, धर्म का संरक्षण और अधर्म के विनाश का काम तो करता है, पर अदृश्य प्रेरणा का परिवहन तो शरीरधारी महामानव ही करते हैं। आज उन्हीं की खोज है। उन्हीं को आकुल-व्याकुल होकर ढूँढ़ा जा रहा है। दीन-हीन और पेट-प्रजनन में निरत तो असंख्य प्रजाजन सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। पर वे तो अपने भार से ही दबे हैं, अपनी ही लाश ढो रहे हैं। युग परिवर्तन जैसे सृजन और ध्वंस के महान प्रयोजन की पूर्ति के लिए प्राणवानों की आवश्यकता है। गोताखोर उन्हीं को इस खारे समुद्र में से मणिमुक्तकों की तरह ढूँढ़ निकालने में लगे हुए हैं।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 8

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 20 July 2018


👉 आज का सद्चिंतन 20 July 2018


👉 दूषित अहंभाव

🔶 जो अहंभाव जीवात्मा को संसार में फँसाता है, कंचन और कामिनी में लुब्ध कर देता है, वह अहंभाव वास्तव में दूषित है। यही अहंभाव जीव और आत्मा के बीच बहुत बड़ा भेदभाव उत्पन्न कर देता है। यही अहंभाव हमारे भीतर रह कर बोलता रहता है। पानी के ऊपर लाठी से चोट मारने पर उसके दो भाग होते दिखाई पड़ते हैं पर वास्तव में विचार करने पर जल एक ही होता है, केवल लाठी के कारण पृथक दिखाई देने लगता है हमारा अहंभाव लाठी के समान है।

🔷 उस लाठी को त्याग दो तो जल एक ही है। यह दोषयुक्त अहंभाव का स्वरूप क्या है? ‘मैं’ करके बोलता है पर ‘मैं’ का आशय वह नहीं समझता। मेरे पास इतना धन है, मेरे पास इतने बड़े बड़े आदमी आते हैं अगर किसी ने मेरा अपमान कर दिया या कुछ ले लिया तो उसे मारा पीटा जाता है, उसे हर तरह से तंग किया जाता है, मुकदमा चलाया जाता है, उस समय अहंभाव यही कहता है कि इसने मेरा अपमान क्यों किया?

🔶 कुछ लोग साधन, ज्ञान द्वारा अहंभाव को त्यागने का प्रयत्न करते है, पर अधिकाँश लोगों में वह कुछ न कुछ बचा ही रहता है। चाहे जितना ब्रह्म-विचार करो पर अन्त में यह अहंभाव कभी न कभी सर ऊँचा किए बिना नहीं रहता। पीपल के पेड़ को आज काट डालो, पर दूसरे दिन सबेरे देखोगे तो उसमें दो-चार नये अंकुर उगे दिखाई ही पड़ेंगे। इसलिए सच्चे हृदय से ईश्वर का स्मरण करके उनका आश्रय लेने से ही दूषित अहंभाव से छुटकारा मिल सकता है।

✍🏻 रामकृष्ण परमहंस
📖 अखण्ड ज्योति मई 1963 पृष्ठ 3
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1963/May/v1.3

👉 विचारों का अवतार

🔶 इस वक्त लोगों की इच्छा हो रही है कि भगवान अवतार लें जिसे मैं पुरानी भाषा में अवतार प्रेरणा कहता हूँ। तुलसीदास ने वर्णन किया है कि पृथ्वी संत्रस्त होकर गोरूप धारण कर भगवान से प्रार्थना करती है कि हे भगवन् आइये, हमें बचाइये। भारत को आज मैं उस मनःस्थिति में देख रहा हूँ। जिस मनःस्थिति में अवतार की आकाँक्षा होती है। यह जरूरी नहीं है कि मनुष्य का अवतार होगा । विचार का भी अवतार होता है, बल्कि विचार का ही अवतार होता है। लोग समझते हैं कि रामचन्द्र एक अवतार थे, कृष्ण,बुद्ध, अवतार थे। लेकिन उन्हें हमने अवतार बनाया है। वे आपके और मेरे जैसे मनुष्य थे ।

🔷 लेकिन उन्होंने एक विचार संचार सृष्टि में किया और वे उस विचार के मूर्ति रूप बन गए, इसलिए लोगों ने उन्हें अवतार माना। हम अपनी प्रार्थना के समय लोगों से सत्य प्रेम, करुणा का चिन्तन करने के लिए कहते हैं। भारत की तरफ ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो जहाँ सत्य शब्द का उच्चारण होता है वहाँ असंख्य लोगों को प्रभु राम का स्मरण होता है। जहाँ प्रेम शब्द का उच्चारण होता है वहाँ करोड़ों को कृष्ण भगवान की याद आती है और जहाँ करुणा शब्द का उच्चारण होता है वहाँ गौतम बुद्ध का स्मरण होता है। राम, कृष्ण और बुद्ध ये ही तीन अवतार हिन्दुस्तान में माने गए हैं लेकिन वे तो निमित्तमात्र हैं। दरअसल भगवान ने सत्य, प्रेम, करुणा के रूप में अवतार लिया था।

🔶 भगवान किसी न किसी गुण या विचार के रूप में अवतार लेता है और उन गुणों या विचार को मूर्त रूप देने में, जिनका अधिक से अधिक परिश्रम लगता है उन्हें जनता अवतार मान लेती है। यह अवतार मीमाँसा है। अवतार व्यक्ति का नहीं विचार का होता है और विचार के वाहन के तोर पर मनुष्य काम करते हैं। किसी युग में सत्य की महिमा प्रकट हुई, किसी में प्रेम की, किसी में करुणा की तो किसी में व्यवस्था की। इस तरह भिन्न भिन्न गुणों की महिमा प्रकट हुई है।

✍🏻 सन्त बिनोवा
📖 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1963 पृष्ठ 1
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1963/October/v1

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...