सोमवार, 14 मई 2018

👉 आगे के लिये बचाओ।

🔶 एक धनवान मनुष्य था। उसे सब प्रकार के सुख, ऐश्वर्य प्राप्त थे। मखमली वस्त्र और सोने के जेवरों से उसकी देह सजी रहती थी। सारे दिन शौक मौज करने के अतिरिक्त उसके पास और कोई काम न था।

🔷 इलियाजर नामक एक कंगाल उसी धनवान का पड़ौसी था। वृद्धावस्था और बीमारी के कारण बेचारा कुछ कर नहीं सकता था इसलिये अपने धनवान पड़ौसी के द्वार पर जाता और उसकी मेज के नीचे भोजन के जो किनके गिर पड़ते बीन बीन कर पेट में डाल लेता। धनी के पास किसी बात की कमी न थी पर उसने कंगाल की हालत पर न तो कभी तरस खाया और न उसकी कुछ मदद की।

🔶 इलियाजर धर्मात्मा था। गरीबी और अशक्त होने के कारण वह किसी की कुछ सेवा नहीं कर सकता था इससे उसे बड़ा दुख होता। उसके पाँवों में घाव हो गये थे। जब कभी वह कुत्तों को देख पाता तो उन्हें प्यार से बुलाता और अपने घाव उनके चाटने के लिये खोल देता। अपना थोड़ा सा रक्त माँस कुत्तों को दान करके वह अपने दुख को हल्का कर लेता और अपने कष्टों के लिये प्रभु को धन्यवाद देता, जिनके कारण वह ईश्वर को हर घड़ी याद करता रहता है।

🔷 समय आने पर इलियाजर मरा। थोड़े ही दिन बाद उस धनी को भी मरना पड़ा। प्रेत लोक में दोनों ही पहुँचे। धनी को घोर पीड़ाओं से भरे नरक में रखा गया वहाँ वह असहनीय पीड़ायें सहने लगा। ममन्तिक कष्टों से वह तड़प रहा था कि उसकी निगाह दूसरी ओर गई। उसने देखा कि स्वर्ग के देवता इब्राहीम की गोद में इलियाजर बैठा हुआ है और विपुल ऐश्वर्यों का उपभोग कर रहा है।

🔶 धनी का गला भर आया। उसने चीखकर इब्राहीम से कहा-हे पिता! दया कर इलियाजर को मेरे पास भेजिये ताकि वह मेरे जलते हुये गले में कुछ पानी की बूंदें डाल दे मैं प्यास के मारे मरा जा रहा हूँ।

🔷 इब्राहीम ने कहा-पुत्र! प्रभु का न्याय बड़ा कठोर है उसमें पक्षपात को स्थान नहीं है। तू जीते जी अपनी सम्पत्ति पा चुका। अब अधिक तुझे कैसे मिल सकता है? काश, तूने उस समय बचाकर कुछ इस समय के लिये संचित किया होता तो आज इस तरह यहाँ न तड़पता।

📖 अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1940

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 15 May 2018


👉 आज का सद्चिंतन 15 May 2018


👉 Awakening Divinity in Man (Part 1)

Let us begin with the Gayatri mantra:
“Om bhur bhuva¡ swa¡ tatsaviturvareñyam bhargo devasya dhimahi dhiyo yona¡ pracodayat”

🔶 You all must have heard of the grace of God. His manifestations are called “devata” (deity) in the Vedas; devata means “one who gives”.  Many of us pray and worship the deities because we either want something or we need help in adverse moments. Let us discuss about deities.

🔷 There is no doubt that deities do bless us enormously; otherwise they would not have been named as “deities” because by definition deities always give something. There is nothing wrong or unnatural if one requests something from someone who always wants to give. But what do deities give? They give only what they themselves possess. Naturally, one can give only what one has. Deities have only one thing – divinity (devatva). Divinity is the most refined and virtuous form of one’s nature, conduct, qualities and deeds. Deities bestow divinity upon the devotees and become relieved, saying that, “we have given you the best we could; now it is up to you to accept and make use of it in the way you find it suitable and succeed accordingly.”

🔶 There is one thing in the world that indeed yields commendable success and that is excellence of personality. It is the minimum requirement to achieve anything worthwhile and fulfilling. If one has somehow gained something despite having an inferior personality and without demonstrating his talents, hard work and essential qualities, then his success will be short lived and incomplete. If your digestive system is weak then an overdose of eatables is sure to create problems and upset your health. Similarly, if you don’t have wisdom and the ability to make proper use of the resources, facilities and prosperities available to you, then these would trouble you in one way or the other. If there is a lack of virtues and saneness then your inherited or inappropriately earned wealth will act as a catalyst for your evils and weaknesses; these would nurture improper addictions, enhance your ego and sooner or later ruin your life.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 कर्मयोग का रहस्य (अन्तिम भाग)

🔶 जैसा आप चाहते हो कि दूसरे आपके साथ बर्ताव करें वैसा आप भी उनके साथ करो, इस नीतिवाक्य को याद रखो। नित्य के जीवन−व्यवहार में यह आपका आचार−नियम होना चाहिए, समस्त धर्मों का साराँश यही है, आप कोई अनुचित कर्म नहीं करोगे, आपको अमित आनन्द मिलेगा।

🔷 जब तुम बाजार में जाओ तो हमेशा अपनी जेब में कुछ पैसे डाले रखो और उन्हें गरीबों को बाँट दो। रेलवे प्लेटफार्म पर गरीब कुलियों से झगड़ा मत करो, उदार बनो उन्हें चार आने या आठ आने दो। अनुभव करो कि सारी देहों में आप ही रम रहे हो, आपका हृदय विशाल हो जावेगा, आप एकत्व का अनुभव करने लगोगे, आप और भी उदार बन जाओगे।

🔶 आप दवाइयों की एक पेटी अपने साथ रख सकते हो और गरीब रोगियों की चिकित्सा कर सकते हो, होम्योपैथिक दवाइयों का इलाज कोई हानि नहीं करता है। पुस्तक देख देखकर अप दवाई दे सकते हो। किसी बायोकैमिस्ट से मिलकर अपना सन्देह दूर कर सकते हो। ऐसी सेवा से आपको बहुत आनन्द मिलेगा, इससे चित्त−शुद्धि बहुत होती है।
महात्मा गाँधी की आत्मकथा पढ़िए। वह सम्मानित कार्य और तुच्छ नीच सेवा में भेद नहीं समझते थे। उनके लिये झाडू लगाना और टट्टी साफ करना बहुत बड़ा योग है। उन्होंने स्वयं टट्टियाँ साफ की हैं। अनेक प्रकार की सेवाएँ कर करके, उन्होंने इस मोहकारक ‘मैं’ को बिल्कुल ही नष्ट कर रखा है। बहुत से उच्च शिक्षा प्राप्त सज्जन इनके आश्रम में योग सीखने के लिये आये। वे सोचते थे कि महात्मा गाँधी जी उनको एकान्त कमरे में या परदे के पीछे विचित्र रीति से प्राणायाम, ध्यान, प्रत्याहार, कुण्डलिनी, योगादि की शिक्षा देंगे, परन्तु जब उनसे कहा गया कि सबसे पहले टट्टियाँ साफ करो तो उनको बड़ी निराशा हुई और वे एकदम आश्रम छोड़कर चले गये।

🔷 प्रति दिन जितने अधिक सत्कार्य हो सकें करिये, सोते समय अपने दिन भर के कार्यों की परीक्षा कीजिए और नित्य अपनी आध्यात्मिक डायरी नोट कीजिए। सत्कार्य करना ही आध्यात्मिक जीवन का उदय है।

✍🏻 श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज
📖 अखण्ड ज्योति, मार्च 1955 पृष्ठ 9

👉 शक्ति संचय के पथ पर (भाग 1)

🔶 अनेक प्रकार की कठिनाइयों विपत्तियों तथा तथा संकटों का प्रधान कारण निर्बलता है। निर्बल के ऊपर रोग, नुकसान, अपमान आक्रमण आदि के पहाड़ आये दिन टूटते रहते हैं। निर्बलता में एक ऐसा आकर्षण है जिससे विपत्तियाँ अपने आप आकर्षित हो जाती हैं। जिसका कुछ नहीं बिगाड़ा है वह भी निर्बल का शत्रु बन जाता है। बकरी की निर्बलता उसके प्राणों को घातक सिद्ध होती है। जंगली जानवर, मनुष्य यहाँ तक कि देवी देवता भी उसी के रक्त के प्यासे रहते हैं। बदला लेने की शक्ति रखने वाले और आसानी से हाथ न आने वाले सिंह व्याघ्र, भेड़िया आदि का माँस लेने की किसी की इच्छा नहीं होती। देवी देवता भी इनकी ओर आँख उठाकर नहीं देखते।

🔷 हिन्दू जाति बहुत समय से बकरी बनी हुई है। उस पर भीतर और बाहर से लगातार आक्रमण होते रहते हैं। पिछली शताब्दियों की ओर दृष्टिपात करते हैं तो प्रतीत होता है कि उसे बहुत समय से आक्रमणों का शिकार होना पड़ रहा है। यूनानियों ने हिन्दुस्तान पर हमला किया, सिकन्दर ने चढ़ाई करके काफी धन जन की हानि पहुँचाई। इसके बाद मुसलमानों के हमले शुरू हुए, एक के बाद एक हमला हुआ। नये-नये वंश आते रहे और मन चाही लूट खसोट करते रहे। धर्म विस्तार के लिए उन्होंने जो ज्यादतियाँ कीं, हिन्दू अबलाओं जिस प्रकार इज्जत लूटी वह किसी से छिपा नहीं है। इसके बाद अंग्रेज, फ्राँसीसी पोर्तगीज आदि के आक्रमण हुए उन्होंने भी अपने ढंग से हुकूमत चलाई और हुकूमत से मिलने वाले लाभों को खूब लूटा।

🔶 इतने बड़े देश पर, इतनी बहु संख्यक जाति पर थोड़े से लोगों ने इस प्रकार आक्रमण किये और ऐसी लूट खसोट मचाई इसे देखकर हैरत होती है। बड़ी संख्या को देखकर छोटी संख्या वाले खुद डर जाते हैं और दुर्व्यवहार करने का दुस्साहस नहीं करते, पर यहाँ तो बिल्कुल उलटा हुआ। मुट्ठी-मुट्ठी भर हमलावरों को तनिक से प्रयत्न में सफलता मिल गई। और वे काफी लंबे समय तक निधड़क होकर कब्जा किये बैठे रहें, यह सचमुच ही एक आश्चर्य की बात है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड-ज्योति 1946 नवम्बर पृष्ठ 3


http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1946/November/v1.3

👉 गुरुगीता (भाग 109)

👉 साधना से सिद्धि में आसन व दिशा का भी महत्त्व

🔶 गुरूगीता में साधना जीवन के रहस्यों का विपुल भण्डार है। यौगिक रहस्य, मांत्रिक रहस्य एवं यांत्रिक रहस्य इसमें अलौकिक रूप से गुँथे हुए हैं। अनुभव सम्पन्न साधक जानते हैं कि साधना, साधक की अपने साध्य के साथ गहरे सामंजस्य, लय और अंततोगत्वा सम्पूर्ण विलय एवं विसर्जित होने का सत्य है। यह लय मूलतः विचारों एवं भावों की होती है। इसकी प्रगाढ़ता एवं परिपक्वता पर ही साधना की सफलता निर्भर है। परन्तु यह कार्य इतना आसान नहीं है। इसमें अनेकों विध्नों, विक्षेपों एवं अंतरायों का सामना करना पड़ता है। इनमें से कई परिस्थितिजन्य होते हैं, तो कई प्रारब्धजन्य। परिस्थितियों मे स्थान, काल, परिवेश एवं घटनाचक्रों की गणना की जा सकती है, तो प्रारब्ध का पूरा दारोमदार सूक्ष्म संस्कारो एवं कर्मबीजों पर निर्भर करता है। प्रकारान्तर से यह प्रारब्ध ही परिस्थितियों का जन्मदाता है। जिनका सदुपयोग अपने विवेक एवं पुरूषार्थ पर निर्भर है।

🔷 विवेक एवं पुरूषार्थ सजग रहे, तो साधना के विध्न शमित हो सकते हैं। किसी दुष्कर प्रारब्धवश इनकी सम्पूर्ण समाप्ति नहीं हो सके, तो भी इन्हें समाप्तप्राय तो किया ही जा सकता है। बस जरूरत सही साधना उपक्रमों के चयन एवं उनके उपयोग की है। इन साधना उपक्रमों में काल, मुहुर्त, मंत्र ,पूजा उपचार के साथ दिशा एवं आसान का चयन भी महत्त्वपूर्ण है। कतिपय ,बुद्धिवादी इस कथन पर संदेह कर सकते हैं। पर जिनकी बुद्धि सूक्ष्मग्राही है, सृष्टि के विभिन्न ऊर्जा प्रवाहों, चुम्बकत्व एवं जैव विद्युत की सामर्थ्य से जो परिचित हैं, उन्हें इस कथन के मर्म तक पहुँचने में समय न लगेगा। पूजा उपचार एवं तत्सम्बन्धी उपक्रम इन्हीं के संतुलित सदुपयोग के लिए है।

🔶 गुरूगीता के पिछले क्रम में भगवान् सदाशिव के वचनों को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि गुरूगीता का विधिवत् अनुष्ठान स्वयं में एक समर्थ उपचार है। यह काल एवं म़त्यु के भय का हरण करने वाला है। सभी संकट इस अनुष्ठान से नष्ट होते हैं। साथ ही इससे यक्ष, राक्षस ,भूत ,चोर एवं व्याघ्र के भय का हरण भी होता है। इसके जप से न केवल व्याधियाँ दूर होती हैं, बल्कि सभी सिद्धियों एवं अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति होती है। यहाँ तक कि इसके जप से सम्मोहन- वशीकरण आदि की तांत्रिक शक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 165

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...