गुरुवार, 18 मार्च 2021

👉 Aadha Kilo Aata आधा किलो आटा

एक नगर का सेठ अपार धन सम्पदा का स्वामी था। एक दिन उसे अपनी सम्पत्ति के मूल्य निर्धारण की इच्छा हुई। उसने तत्काल अपने लेखा अधिकारी को बुलाया और आदेश दिया कि मेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति का मूल्य निर्धारण कर ब्यौरा दीजिए, पता तो चले मेरे पास कुल कितनी सम्पदा है।

सप्ताह भर बाद लेखाधिकारी ब्यौरा लेकर सेठ की सेवा में उपस्थित हुआ। सेठ ने पूछा- “कुल कितनी सम्पदा है?” लेखाधिकारी नें कहा – “सेठ जी, मोटे तौर पर कहूँ तो आपकी सात पीढ़ी बिना कुछ किए धरे आनन्द से भोग सके इतनी सम्पदा है आपकी”

लेखाधिकारी के जाने के बाद सेठ चिंता में डूब गए, ‘तो क्या मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मरेगी?’ वे रात दिन चिंता में रहने लगे।  तनाव ग्रस्त रहते, भूख भाग चुकी थी, कुछ ही दिनों में कृशकाय हो गए। सेठानी द्वारा बार बार तनाव का कारण पूछने पर भी जवाब नहीं देते। सेठानी से हालत देखी नहीं जा रही थी। उसने मन स्थिरता व शान्त्ति के किए साधु संत के पास सत्संग में जाने को प्रेरित किया। सेठ को भी यह विचार पसंद आया। चलो अच्छा है, संत अवश्य कोई विद्या जानते होंगे जिससे मेरे दुख दूर हो जाय।

सेठ सीधा संत समागम में पहूँचा और एकांत में मिलकर अपनी समस्या का निदान जानना चाहा। सेठ नें कहा- “महाराज मेरे दुख का तो पार नहीं है, मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मर जाएगी। मेरे पास मात्र अपनी सात पीढ़ी के लिए पर्याप्त हो इतनी ही सम्पत्ति है। कृपया कोई उपाय बताएँ कि मेरे पास और सम्पत्ति आए और अगली पीढ़ियाँ भूखी न मरे। आप जो भी बताएं मैं अनुष्ठान, विधी आदि करने को तैयार हूँ”

संत ने समस्या समझी और बोले- “इसका तो हल बड़ा आसान है। ध्यान से सुनो सेठ, बस्ती के अन्तिम छोर पर एक बुढ़िया रहती है, एक दम कंगाल और विपन्न। उसके न कोई कमानेवाला है और न वह कुछ कमा पाने में समर्थ है। उसे मात्र आधा किलो आटा दान दे दो। अगर वह यह दान स्वीकार कर ले तो इतना पुण्य उपार्जित हो जाएगा कि तुम्हारी समस्त मनोकामना पूर्ण हो जाएगी। तुम्हें अवश्य अपना वांछित प्राप्त होगा।”

सेठ को बड़ा आसान उपाय मिल गया। उसे सब्र कहां था, घर पहुंच कर सेवक के साथ कुन्तल भर आटा लेकर पहुँच गया बुढिया के झोपडे पर। सेठ नें कहा- “माताजी मैं आपके लिए आटा लाया हूँ इसे स्वीकार कीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा आटा तो मेरे पास है, मुझे नहीं चाहिए” 

सेठ ने कहा- “फिर भी रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “क्या करूंगी रख के मुझे आवश्यकता नहीं है”

सेठ ने कहा- “अच्छा, कोई बात नहीं, कुन्तल नहीं तो यह आधा किलो तो रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, आज खाने के लिए जरूरी, आधा किलो आटा पहले से ही  मेरे पास है, मुझे अतिरिक्त की जरूरत नहीं है”

सेठ ने कहा- “तो फिर इसे कल के लिए रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, कल की चिंता मैं आज क्यों करूँ, जैसे हमेशा प्रबंध होता है कल के लिए कल प्रबंध हो जाएगा”  बूढ़ी मां ने लेने से साफ इन्कार कर दिया।

सेठ की आँख खुल चुकी थी, एक गरीब बुढ़िया कल के भोजन की चिंता नहीं कर रही और मेरे पास अथाह धन सामग्री होते हुए भी मैं आठवी पीढ़ी की चिन्ता में घुल रहा हूँ। मेरी चिंता का कारण अभाव नहीं तृष्णा है।

वाकई तृष्णा का कोई अन्त नहीं है। संग्रहखोरी तो दूषण ही है। संतोष में ही शान्ति व सुख निहित है।

👉 हम सब परस्पर एकता के सूत्र में जुड़े हैं

समुद्र में असंख्यों लहरें उठती हैं—उनका अस्तित्व अलग-अलग होता है। हर लहर पर एक स्वतन्त्र सूरज चमकता दिखाई देता है, इतने पर भी यदि तात्विक दृष्टि से देखा जाय तो प्रतीत होगा कि इस भिन्नता के भीतर एक अविछिन्न एकता की सत्ता विद्यमान है। सारा समुद्र एक ही है। एक ही सूर्य असंख्यों लहरों पर चमकता है। इन प्रतिबिंबों की अनेकता के कारण कितने ही सूर्यो की सत्ताएँ सिद्ध नहीं होती। हवा और जल के संयोग से उत्पन्न होते रहने वाले बबूले एक-दूसरे से अलग दिखाई भले ही दें वे सुविस्तृत जलाशय से पृथक नहीं माने जा सकते।

मनुष्य की संख्या करोड़ों में है। उनकी देह तथा आकृति-प्रकृति में भी अन्तर है। इतने पर भी वे सभी एक ही अनन्त विश्वात्मा के अविछिन्न अंग अवयव हैं। माला के मध्य पिरोये हुए सूत्र की तरह एक ही आत्मा सबको एकता के बन्धनों में बाँधे हुए है। देखने में हम एक दूसरे से पृथक लग सकते हैं,पर हमारा अस्तित्व पूर्ण तथा एक दूसरे पर निर्भर है। एकाकी जीवन एक क्षण के लिए भी सम्भव नहीं। सकते। दूसरे का सहयोग पाये बिना अपना निर्वाह किसी भी प्रकार नहीं हो सकता।

प्राणिमात्र के भीतर काम करने वाली इस एकात्म चेतना की अनुभूति ही अध्यात्म दर्शन का मूलभूत उद्देश्य है। समष्टि की इकाई ही व्यष्टि हे। समाज का एक पुर्जा ही मनुष्य है। इस मान्यता को अपनाकर आत्मोपभ्येन सर्वत्र की दृष्टि हम विकसित करें और आत्मा को विश्वात्मा का घटक मात्र माने तो वह जीवन लक्ष्य प्राप्त हो सकता है, जिसे ईश्वर की उपलब्धि कहते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1974 पृष्ठ 1

👉 Chintan Ke Kshan चिंतन के क्षण 18 March 2021

◆ स्वार्थी व्यक्ति यों किसी का कुछ प्रत्यक्ष बिगाड़ नहीं करता, किन्तु अपने लिए सम्बद्ध व्यक्तियों की सद्भावना खो बैठना एक ऐसा घाटा है, जिसके कारण उन सभी लाभों से वंचित होना पड़ता है जो सामाजिक जीवन में पारस्परिक स्नेह-सहयोग पर टिके हुए हैं।

◇ ईश्वर को इस बात की इच्छा नहीं कि आप तिलक लगाते हैं या नहीं, पूजा-पत्री करते हैं या नहीं, भोग-आरती करते हैं या नहीं, क्योंकि उस सर्वशक्तिमान् प्रभु का कुछ भी काम इन सबके बिना रुका हुआ नहीं है। वह इन बातों से प्रसन्न नहीं होता, उसकी प्रसन्नता तब प्रस्फुटित होती है जब अपने पुत्रों को पराक्रमी, पुरुषार्थी, उन्नतिशील, विजयी, महान् वैभव युक्त, विद्वान्, गुणवान्, देखता है और अपनी रचना की सार्थकता अनुभव करता है।

◆ आनंद का सबसे बड़ा शत्रु है- असंतोष। हम प्रगति के पथ पर उत्साहपूर्वक बढ़ें, परिपूर्ण पुरुषार्थ करें। आशापूर्ण सुंदर भविष्य की रचना के लिए संलग्न रहें, पर साथ ही यह भी ध्यान रखें कि असंतोष की आग में जलना छोड़ें। इस दावानल में आनंद ही नहीं, मानसिक संतुलन और सामर्थ्य का स्रोत भी समाप्त हो जाता है। असंतोष से प्रगति का पथ प्रशस्त नहीं, अवरुद्ध ही होता है।

◇ किसी को यदि परोपकार द्वारा सुखी करते हैं और किसी को अपने क्रोध का लक्ष्य बनाते हैं, तो एक ओर का पुण्य दूसरी ओर के पाप से ऋण होकर शून्य रह जायेगा। गुण, कर्म, स्वभाव तीनों का सामंजस्य एवं अनुरूपता ही वह विशेषता है, जो जीवन जीने की कला में सहायक होती है।

◆ ऐसे विश्वासों और सिद्धान्तों को अपनाइये जिनसे लोक कल्याण की दिशा में प्रगति होती हो। उन विश्वासों और सिद्धान्तों को हृदय के भीतरी कोने में गहराई तक उतार लीजिए। इतनी दृढ़ता से जमा लीजिए कि भ्रष्टाचार और प्रलोभन सामने उपस्थित होने पर भी आप उन पर दृढ़ रहें, परीक्षा देने एवं त्याग करने का अवसर आवे तब भी विचलित न हों। वे विश्वास श्रद्धास्पद होने चाहिए, प्राणों से अधिक प्यारे होने चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...