गुरुवार, 29 जून 2023

👉 हमारी गलती क्या है?

गलती हमारी ये होती है कि जब हम ये देखते हैं कि ये आदमी आतंकित कर सकता है और हमारा नुकसान कर सकता है तो हम उसकी हाँ में हाँ मिला देते हैं। खु्ल्लमखुल्ला विरोध की शक्ति नहीं रखते। उससे असहयोग कर नहीं सकते बल्कि उसके सहयोगी बन जाते हैं।  मनुष्य की यह कायरता ही गुंड्डागर्दी और पापों को बढ़ाने में समर्थ होती है। मनुष्य अगर सीना तानकर खड़ा हो जाए और ये कहे कि हम आपकी गलत काम में सहायता नहीं कर सकते और हम आपके साथ नहीं हैं और हम आपका समर्थन नहीं कर सकते। ऐसा करने से दुष्टों  की हिम्मत पचास फीसदी कम हो जाती है। 
बहादुरी हममें लड़ने की न हो, तो कोई बात नहीं, पर कहने की तो हो। वोट माँगने के लिए आया, तो कहे कि साहब आपका चाल-चलन ऐसा नहीं है और आप इस लायक नहीं हैं  कि हम आपको एसेम्बली में भेजें और हम आपको चुनाव में वोट नहीं देंगे। तो आदमी की आधी हिम्मत कम हो जाती है। हममें से बहुत से लोगों को इस बात का माद्दा ग्रहण करना ही चाहिए कि जो आदमी सही काम नहीं कर सकते हैं और जो गलत रास्ते पर जा रहे हैं, उनके साथ में हर आदमी राजी नामा न करें, समझौता न करें, समर्थक न बनें। उसकी हाँ में हाँ न मिलाएँ। 
ठीक है, अगर विरोध करने की शक्ति अपने अन्दर नहीं है और लड़ने की शक्ति नहीं है तो कुछ देर के लिए चुप भी बैठ सकते हैं और उस लड़ाई के वक्त का इन्तजार भी कर सकते हैं। लेकिन समर्थन तो किसी भी हालत में नहीं करना चाहिए और सहयोग तो किसी भी हालत में नहीं करना चाहिए। उसका मित्र बनकर तो किसी भी हालत में नहीं रहना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि हम अनैतिकता का पोषण करते हैं, अनैतिकता का समर्थन करते हैं। 
संघर्ष यहाँ से शुरू होता है।  संघर्ष की पहली प्रक्रिया वह है कि हम किसी बुरे आदमी का सहयोग न करें। कोई  जुआरी हमसे उधार माँगने आये कि हम  ब्याज से  पैसे दे देंगे, कहें कि हम पैसे नहीं दे सकते।  ये असहयोग हुआ। जो आदमी बुरा है उसे बुरा कहना, अच्छा है उसे अच्छा कहना । नम्र शब्दों में हम कहें, ठीक है। इज्जत खराब न करें, ये भी ठीक है। लेकिन हमको जो बात है-जो फैक्ट है उसको खोल ही देना चाहिए। खोल देने से अच्छाई रहेगी। 
यदि कोई बुरा आदमी सज्जनता की बाना पहने हैं, एक सियार-शेर का चमड़ा ओढ़कर रहता है और उसके बारे में लोगों की आँखें खुल जाएगी, तो क्या हर्ज की बात है? हमको सही कहना, अच्छे को अच्छा कहना, बुरे को बुरा कहना सीखना चाहिए और हमको गलत आदमियों का असहयोग करना सीखना चाहिए। उनके साथ में हम सहयोग न करें। 
यहाँ से लड़ाई शुरू होती है और लड़ाई में दोनो तरफ के लोग घायल होते हैं। सामने वाला ही घायल हो जाये और अपने को चोट नहीं आयेगी ये कै से हो सकता है? अपने आपको भी चोट आ सकती है, ये मानकर लड़ाई के मैदान में आना चाहिए। संघर्ष के मोर्चे पर सिर्फ उसी को आना चाहिए, जो इस बात के लिए तैयार हो कि मैं एक ऐसा काम करने जा रहा हूँ, जिसमें मुझे लड़ाई-झगड़ा करना पड़ेगा। लड़ाई-झगड़ा करने में सामने वाला ही मारा जाता हो, सामने वाला ही घायल होता हो, सामने वाले को ही हरा दिया जाता हो, ऐसी बात तो नहीं है न। जो आदमी लड़ाई लड़ता है वो भी इस चपेट में आता है, वह भी घायल होता है, जख्म होता है। तो हमारे विरोध करने की कीमत पर अगर दूसरे लोग हमारे ऊपर हमला करेंगे, हमें नुकसान पहुँचाएँगे तो उसको भी देखेंगे। उसको भी समझेंगे, उसके लिए भी तैयार हैं। ये हिम्मत आदमी के भीतर उत्पन्न होनी चाहिए। इतनी हिम्मत अगर उत्पन्न हो जाए और आदमी के  असहयोग करने का माद्दा विकसित हो जाए, बुरे को बुरा कहने का माद्दा विकसित हो जाये तो समझना चाहिए कि पाप, अनीति और अनाचार के विरूद्घ संघर्ष करने का पचास फीसदी मोर्चा फतह कर लिया।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 जीवन के उतार-चढावों पर उद्विग्न न हों। (भाग 3)

अपनी वर्तमान स्थिति से विगत स्थिति की तुलना करने से क्या लाभ। अतीत काल की वह स्थिति जो वैभवपूर्ण थी, आज लौट कर नहीं आ सकती। हाँ उसकी तरह की स्थिति वर्तमान में बनाई अवश्य जा सकती है। किन्तु यह सम्भव तभी होगा, जब अतीत का रोना छोड़कर वर्तमान के अनुरूप साधनों का सहारा लेकर परिश्रम और पुरुषार्थ किया जाये। केवल अतीत को याद कर−करके दुःखी होने से कोई काम न बनेगा।

जब मनुष्य अपने वैभवपूर्ण अतीत का चिन्तन करके इस प्रकार सोचता रहता है तो उसके हृदय में एक हूक उठती रहती है—एक समय ऐसा था कि हमारा कारोबार जोरों से चलता था। लाखों रुपयों की आय थी। हजारों आदमी अधीनता में काम करते थे। बड़ी−सी कोठी और कई हवेलियाँ थीं। मोटर कार पर चलते थे। मन−माने ढँग से रहते और व्यय करते थे। लेकिन आज यह हाल है कि कारोबार बन्द हो गया है। आय का मार्ग नहीं रह गया। दूसरों की मातहती की नौबत आ गई है। कोठियाँ और हवेलियाँ बिक गईं। मोटर कार चली गई। हम एक गरीब आदमी बन गए। अब तो यह जीवन ही बेकार है। इस प्रकार का चिन्तन करना अपने जीवन में निराशा और दुःख को पाल लेना है।

यदि अतीत का चिन्तन ही करना है तो इस प्रकार करना चाहिए। हमने इस−इस प्रकार से अमुक−अमुक काम किए थे। जिससे इस−इस तरह की उन्नति हुई थी। उन्नति के इस मार्ग में इस−इस तरह के विघ्न आए थे। जिनको हमने इस नीति द्वारा दूर किया था। इस प्रकार का चिन्तन करने से मनुष्य का सफल स्वरूप ही सामने आता है और वह आगे उन्नति करने के लिए प्रेरणा पाता है। विचारों का प्रभाव मनुष्य के जीवन पर बड़ा गहरा पड़ता है। जो व्यक्ति अपनी अवनति और अनिश्चित भविष्य के विषय में ही सोचता रहता है, उसका जीवन चक्र प्रायः उसी प्रकार से घूमने लगता है। इसके विपरीत जो अपनी उन्नति और विकास का चिन्तन किया करता है, उसका भविष्य उज्ज्वल और भाग्य अनुकूलतापूर्वक निर्मित होता है।

मनुष्य की चिन्तन क्रिया बड़ी महत्वपूर्ण होती है। चिन्तन को यदि उपासना की संज्ञा दे दी जाए, तब भी अनुचित न होगा। जो लोग उपासना करते हैं, उन्हें अनुभव होगा कि जब वे अपना ध्यान परमात्मा में लगाते हैं तो अपने अन्दर एक विशेष प्रकार का प्रकाश और पुलक पाते हैं। उन्हें ऐसा लगता है, मानो परमात्मा की करुणा उनकी ओर आकर्षित हो रही है। यह कल्याणकारी अनुभव उस उपासना, उस चिन्तन अथवा उन विचारों का ही फल होता है, जिनके अन्तर्गत कल्याण का विश्वास प्रवाहित होता रहता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 57


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👉 अनीति का प्रतिरोध जरूरी

फिर किस तरीके से क्या किया जाए? रचनात्मक कार्य करने में लोगों का श्रम करने की, रचना करने की और सेवा करने की वृत्ति का विकास तो होता है, इस दृष्टि से तो बहुत अच्छा है, जो कार्य नहीं होते हैं, वो होने लगेंगे। कुछ भाग नहीं हो रहा है, होने लगेगा। जो विकास नहीं हुआ है, होने लगेगा। लेकिन जो निहित स्वार्थ रोड़े की तरह खड़े हुए हैं, उनका क्या किया जाए? इसके लिए और कोई तरीका नहीं है। एक ही तरीका है कि उनका संघर्ष किया जाए, उनको धमकाया जाए, उनको हटाया, उनका मुकाबला किया जाए और मोर्चा लिया जाए।

अब समय ऐसा भी आ गया है जब संघर्ष, एक घनघोर संघर्ष करना पड़ेगा अवांछनीय तत्त्वों के साथ। और ये सहज में निपटने वाले नहीं हैं। शिक्षा से मानने वाले नहीं हैं। ऐसा सन्त कहाँ से आए जो सबको ठीक कर दे? ऋषियों ने बहुतों को समझाया, परन्तु उनमें से कुछ ही समझ सके। बाकी दुष्टों-दुराचारियों को तो उनके हिसाब से ही लगाना पड़ता है। उस हिसाब से लगाने के लिए संघर्ष की बहुत जरूरत पड़ेगी। 

वर्तमान समय में संघर्ष करने के लिए मनुष्य और मनुष्य में टक्कर खाने की जरूरत नहीं है, लेकिन विचार और विचारों में घनघोर टक्कर होने ही वाली है। ये संघर्ष जिसका मैं वर्णन करता रहा हूँ और ये कहता रहा कि युग परिवर्तन के साथ-साथ एक बहुत भारी महाभारत की संभावना जुड़ी हुई है; वो महाभारत के लड़ाई- झगड़े के बारे में मैं नहीं कहता, तोप- तलवारों के बारे में नहीं कहता। तोप-तलवार वाले जो युद्घ होते हैं उससे कोई समस्या का हल नहीं होता बल्कि नयी-नयी समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। कभी भी लड़ाई हुई उससे नयी समस्याएँ पैदा हो गयीं जिससे समाज का ढाँचा लड़खड़ा गया।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...