गुरुवार, 11 अक्तूबर 2018

👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 23)

👉 भक्ति से जुड़ी शक्ति
    
🔷 १९५८ के सहस्रकुण्डीय महायज्ञ के सफल प्रयोग परीक्षण ने अपनी श्रद्धा-विश्वास असंख्य गुना बढ़ा दिया और बाद में निर्देशित हुए कामों का सिलसिला चल पड़ा, जिनका कि उल्लेख पहले भी हो चुका है। साहित्य सृजन, संगठन, केन्द्रों की खर्चीली व्यवस्था, अभावग्रस्तों की सहायता जैसे काम इस प्रकार चलते रहे, मानो वे सभी कार्य किसी दूसरे ने किए हों और अपने सिर पर श्रेय अनायास ही लद गया हो। यह वैयक्तिक सफलता का प्रसंग नहीं माना जाना चाहिए कि यह किसी के पुरुषार्थ का प्रतिफल सामने आया, वरन् यह समझा जाना चाहिए कि भक्ति के साथ शक्ति का भी अविच्छिन्न सामंजस्य हैं। निर्देशक शक्ति अपने संकेतों पर चलने वाले समर्पित व्यक्ति के लिए वैसी ही व्यवस्था भी करती है, जैसी कि मोर्चे पर लड़ने जाने वाले सैनिक के लिए आवश्यक सुविधा सामग्री का प्रबन्ध सेनापति या रक्षा विभाग द्वारा किया जाता है।
  
🔶 वैयक्तिक प्रयास से बन पड़ने में जिन्हें संभव समझा जा सकता है, उन छिटपुट कामों को संपन्न करने के उपरांत निर्देशक ने अपनी कठपुतली में इतनी क्षमता भर दी कि वह संकेतों के इशारे भर से मनमोहक नृत्य अभिनय कर सके। इतना बन पड़ने के उपरान्त वह भारी वजन लादा गया, जिसे सम्पन्न करने की कोई व्यक्ति विशेष कल्पना तक नहीं कर सकता, जिसे वह अदृश्य सत्ता ही कर सकती है, जिसने इतना बड़ा पसारा बनाकर खड़ा किया है और जो मनुष्य को एक सीमा तक नटखटपन बरतने तक की छूट देने के उपरांत जब देखती है कि उद्दण्डता मर्यादा से बाहर जा रही है, तब उसके कान पकड़कर सीधी राह अपनाने के लिए बाधित ही नहीं, प्रताड़ित भी कर सकती है। इसी को युग परिवर्तन की पृष्ठभूमि कहा जा सकता है। यही है इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य की परिकल्पना, महाक्रान्ति की अभूतपूर्व परियोजना।
  
🔷 प्रस्तुत प्रयोजन के लिए जितना कुछ दृश्य रूप में मानवी प्रयत्नों के अन्तर्गत सम्भव था, उसे युग निर्माण योजना के अन्तर्गत पिछले कई वर्षों से किया जाता रहा है। उसमें जो सफलता मिली है, वह लगभग इसी स्तर की मानी जा सकती है जितनी की मानवी पुरुषार्थ के अंतर्गत आने की परिकल्पना की जा सकती है। मानवी पुरुषार्थ और साधना के समन्वय से संसार के इतिहास में बहुत कुछ ऐसा बन पड़ा है, जिसे असाधारण भी कहा जा सकता है और आश्चर्यजनक भी। इसी आधार पर मिशन के दृश्य प्रयास जिस प्रकार बन पड़े हैं और उसके प्रतिफल जिस प्रकार के सामने आए, उन्हीं में इन्हें भी एक गिना जा सकता है।

  .... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 25

👉 सद्गुरु का स्मरण

🔷 राजगृह नगर प्रायः भगवान् तथागत के श्री चरणों के स्पर्श से पावन होता रहता था। नगरवासियों में भगवान् के प्रति सहज प्रीति थी। वे सब उठते, बैठते एक-दूसरे से मिलने पर ‘नमो बुद्धस्स’ कहकर तथागत का स्मरण कर लेते थे। इस नगर में दो बालकों की मित्रता बड़ी चर्चित थी। सुवीर और सुयश यही नाम थे उनके। किशोरवय के ये दोनों बालक भाँति-भाँति के खेल-खेला करते। अचरज की बात यह थी सुयश हमेशा जीतता था और सुवीर हमेशा हार जाता। इसमें सबसे अचरज तो इस बात का था कि जो सदा जीतता था, वह हारने वाले से सभी दृष्टियों से कमजोर था।

🔶 सुवीर ने अपने जीतने के लिए सभी उपाय किये। खेलने का ज्यादा अभ्यास किया, परन्तु सफलता न मिली। लेकिन परिणाम पहले की ही भाँति बना रहा। सुवीर को इस बात की भारी चिन्ता था कि आखिरकार सुयश के लगातार जीतने का कारण क्या है? हाँ एक बात सुयश में बड़े ही साफ तौर पर नजर आती थी, कि वह आश्चर्यजनक ढंग से शान्त रहता था। उसमें जीत के लिए कभी कोई आतुरता नहीं झलकती थी। उसमें जीतने के लिए कभी कोई आग्रह नहीं था। वह बस खेलता था, सम्पूर्ण मनोयोग से किन्तु अनाग्रह से।

🔷 कोई फलाकाँक्षा नहीं थी उसमें। इसे देखकर ऐसा लगता था, जैसे वह अपने आप में केन्द्रित है, स्वयं में ठहरा हुआ है। उसमें एक अनोखी गहराई थी। वह ओछा नहीं था, न ही उसमें कोई छिछलापन था। उसके अंतस् में जैसे कोई लौ निष्कम्प जलती थी। उसके चारों ओर एक प्रसादपूर्ण प्रभामण्डल था। शायद इसीलिए बार-बार हारने पर भी सुवीर उसका शत्रु न बन पाया था। उसकी मित्रता कायम थी। सुयश चाहे जितनी बार जीतता, परन्तु उसमें कभी कोई अहंता न आती थी। जीतना जैसे उसके लिए कुछ खास था ही नहीं। खेलना ही उसके लिए सब कुछ था, फिर जीतें या हारें, इससे उसको कोई प्रयोजन नहीं था। फिर भी वह जीतता था।

🔶 सुवीर, सुयश के प्रत्येक व्यवहार को बारीकी से देखता था। इस क्रम में उसने देखा कि सुयश प्रत्येक खेल शुरू करने से पहले आँख बन्द करके एक क्षण को निस्तब्ध हो जाता था। कुछ इस तरह जैसे कि सारा संसार रुक गया हो। हाँ वह अपने होठों में जरूर कुछ बुदबुदाता था। जैसे कि वह कोई प्रार्थना कर रहा हो या कि फिर कोई मंत्रोच्चार करता हो अथवा अपने ईष्ट का स्मरण कर रहा हो।

🔷 अन्ततः एक दिन सुवीर ने सुयश से यह रहस्य पूछा- प्रिय मित्र, तुम खेल शुरू करने से पहले यह क्या करते हो? हर खेल शुरू होने से पहले तुम किस दुनिया में खो जाते हो। सुयश ने कहा- प्रिय मित्र! मैं तो बस भगवान् का स्मरण करता हूँ। ‘नमो बुद्धस्स’ का पाठ करता हूँ। शायद इसीलिए मैं जीत जाता हूँ। परन्तु मुझे हर बार-हर समय यही लगता है कि यह जीत मेरी नहीं, भगवान् की है। मैं नहीं जीत रहा, भगवान् जीत रहे हैं।

🔶 सुयश की बातें सुनकर उस दिन से सुवीर ने भी नमो बुद्धस्स का पाठ शुरू कर दिया। हालाँकि उसे पहले से कोई अभ्यास नहीं था, फिर भी उसे इसमें धीरे-धीरे रस आने लगा। शुरुआत तो तोता रटन्त से ही हुई थी, पर मंत्रोच्चार के परिणाम मन पर दिखाई देने लगे। गहराई में न सही पर सतह पर इसके स्पष्ट फल दिखाई देने लगे। वह थोड़ा शान्त होने लगा। उसकी उच्छृंखलता कम होने लगी। थोड़ा छिछलापन कम होने लगा। उसकी हार की पीड़ा कम होने लगी। जीतने की महत्त्वाकाँक्षा भी थम सी गयी। खेल बस खेलने के लिए है, ऐसा भाव उसमें जागने लगा।

🔷 भगवान् के स्मरण में वह अनजाने ही अपनी अन्तश्चेतना में डूबने लगा। शुरू तो किया था इसलिए कि खेल में जीत जाऊँ। लेकिन धीरे-धीरे जीत-हार की बात ही बिसर गयी। अब तो बस स्मरण में आनन्द बरसने लगा। पहले तो खेल के शुरू-शुरू में याद करता था, पर बाद में जब कभी एकान्त मिल जाता तो बैठकर नमो-बुद्धस्स-नमो बुद्धस्स का जाप करने लगता। यहाँ तक कि कुछ दिन बीतने पर खेल गौण हो गया और जाप प्रमुख हो गया। एक मिश्री सी उसके मुँह में घुलने लगी। सुवीर बुद्ध स्मरण में विभोर होने लगा। नमो बुद्धस्स का जप करते हुए उसे एक खुला आकाश दिखाई पड़ने लगा। धीरे-धीरे उसकी आकाँक्षाएँ खो गयीं। सब समय एक शान्त धारा उसके भीतर बहने लगी।

🔶 एक दिन वह अपने पिता के साथ लकड़ी काटने के लिए जंगल गया। लौटने पर पिता-पुत्र दोनों ही रास्ते में श्मशान के पास बैलों को खोलकर थोड़ी देर विश्राम के लिए रुके। भरी दोपहरी थी और वे थक गए थे, इसलिए सो गए। जगने पर देखा उनके बैल नगर में चले गए हैं। पिता ने सुवीर से कहा, बेटा! तुम यहीं रुककर गाड़ी और लकड़ी की रखवाली करो, मैं बैलों को लेकर आता हूँ। काफी खोज-बीन करने पर बैल तो मिल गए, पर तब तक सूर्य ढल चुका था। सूर्य ढलने के साथ ही नगर द्वार बन्द हो गया। अमावस की अंधेरी रात, इकलौता पुत्र अकेला श्मशान में। पिता को भारी चिन्ता हुई, पर क्या करे, विवशता ने उसे जकड़ दिया।

🔷 उधर सुवीर अमावस की अंधेरी रात में मरघट में अकेला था। इतना अकेलापन उसे पहली बार मिला था। पर उसे यहाँ डर लगने के बजाय बड़े आनन्द की अनुभूति हुई। वह भक्ति और प्रीति के साथ ‘नमो बुद्धस्स’ का जप करने लगा। जप करते-करते हृदय के तार जुड़ गए, भक्ति की संगीत जम गया, अन्तश्चेतना की वीणा बजने लगी। पहली दफा उसे ध्यान की झलक मिली। धीरे-धीरे वह ध्यान में डूब गया। यह बड़ी गहरी अनुभूति थी। सब तरफ से सुख बरस रहा था, पर शान्ति उसे भिगो रही थी। शरीर सोया था, अन्तर में जागरण का पर्व था। उजियारा ही उजियारा था। जैसे हजार-हजार सूरज एक साथ जग गए। जीवन सब तरफ से प्रकाशित हो गया। जो घटना किसी के लिए अभिशाप बन सकती थी, उसके लिए वरदान बन गयी।

🔶 अमावस की उस रात्रि में महानिशाकाल होते ही श्मशान जाग्रत् हो उठा। ब्रह्मराक्षस, पिशाच, योगिनियाँ, डाकिनी, शाकिनी, हाकिनी के यूथ वहाँ नृत्य करने लगे। श्मशान का सम्पूर्ण वातावरण भयावह हो गया। परन्तु सुवीर की आत्मचेतना किसी अलौकिक राज्य में निमग्न थी। एक आध्यात्मिक प्रभामण्डल उसे घेरे था। नृत्य कर रही इन सूक्ष्म सत्ताओं ने जब उसकी यह भावदशा देखी, तो उन्होंने अपने को धन्य माना। वे भागे हुए गए और सम्राट के महल से सोने के बर्तनों में भोजन लेकर आए। उन सबने मिलकर उसे भोजन कराया एवं सेवा की। प्रातः होते ही वे सभी सूक्ष्म सत्ताएँ अदृश्य हो गयीं।

🔷 इधर सम्राट के सिपाहियों ने महल के खोये हुए बर्तनों की खोज की। और खोजते हुए उन्होंने सुवीर को पकड़ लिया। बन्दी सुवीर को सम्राट के सामने लाया गया। उन दिनों बिम्बसार का शासन था। वह स्वयं भगवान् तथागत के भक्त थे। उन्होंने सुवीर से सारी बात जाननी चाही। सुवीर ने भी उत्तर में सम्राट बिम्बसार को प्रारम्भ से सारी कथा कह सुनायी। चकित और हतप्रभ सम्राट उस बालक को लेकर भगवान् के पास पहुँचे। भगवान् इन दिनों राजगृह में ही ठहरे हुए थे। सारी बातें सुनकर भगवान् ने कहा- सम्राट! यह बालक ठीक कह रहा है। बुद्धानुस्मृति स्वयं के ही परम रूप की स्मृति है। जब तुम कहते हो ‘नमो बुद्धस्स’ तो तुम अपने ही परम दशा का स्मरण कर रहे हो।

🔶 यह सतह के द्वारा गहराई की पुकार है। यह परिधि के द्वारा केन्द्र का स्मरण है। यह कहते हुए उन्होंने यह धम्म गाथा कही-

🔷 सुप्पबुद्धं पबुज्झति सदा गोतम सावका। येसं दिवा च रत्तो च निच्चं बुद्धगता सति॥

🔶 ‘जिनकी स्मृति दिन-रात सदा बुद्ध में लीन रहती है, वे गौतम के शिष्य सदा सुप्रबोध के साथ सोते और जागते हैं।’ भगवान् की इस बात ने सम्राट बिम्बसार को यह बोध दिया कि सद्गुरु के स्मरण से शिष्य सहज ही परम भावदशा को उपलब्ध हो जाता है।

📖 अखण्ड ज्योति सितम्बर 2003

👉 आज का सद्चिंतन 11 October 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 11 October 2018


👉 आश्विन नवरात्रि:- शक्ति आराधना की है यह वेला

🔷 नवरात्रि शक्ति साधना का पर्व है। वैसे तो माता का प्रेम अपनी संतान पर सदा ही बरसता रहता है, पर कभी-कभी यह प्रेम छलक पड़ता है, तब वह अपनी संतान को सीने से लगाकर अपने प्यार का अहसास कराती है। संरक्षण का आश्वासन देती है। नवरात्रि की समयावधि भी आद्यशक्ति की स्नेहाभिव्यक्ति का ऐसा ही विशिष्ट काल है। यही शक्ति विश्व के कण-कण में विद्यमान है। इसी तथ्य को इंगित करते हुए कहा गया है-

🔶 तेजोयस्य विराजते स बलवान स्थूले बुकः प्रत्ययः। - देवी भागवत्

🔷 अर्थात्- शक्ति व तेज से प्रत्येक स्थूल पदार्थ में विद्यमान अतुलित बलशाली परमेश्वरी हमारी रक्षा और विकास करे।

🔶 वर्षा अपने साथ-साथ हरियाली की छटा लेकर आता है। ग्रीष्म की तपती दोपहरी में वृक्षों की छाया मन को कितना सुकून पहुँचाती है। पर कितने लोग वृक्षों की हरियाली को बनाये रखने में योगदान देते हैं। मनुष्य की दुर्बुद्धि तो क्षणिक लाभ के लिए छाया देने वाली वृक्ष को भी जड़ से काटने पर जुटी हुई है। यही व्यवहार हम उस आद्यशक्ति जगन्माता के साथ कर रहे हैं। परिणाम में हमें उनके प्यार-दुलार के बदले उनका प्रलयंकारी विध्वंस देखने को मिल रहा है। जब पुत्र बार-बार समझाने पर भी नहीं मानता तो माता को अपना रौद्र रूप दिखाने के लिए विवश होना ही पड़ता है। आद्यशक्ति जगन्माता भी इन दिनों हमें बार-बार चेतावनी दे रही हैं कि अब आत्मसुधार एवं सत्कर्म के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है।

🔷 उस परम शक्ति की आशा एवं अपेक्षा के अनुरूप स्वयं को गढ़े बिना हमारा त्राण संभव नहीं है। यह पृथ्वी सदाचार पर ही टिकी हुई है। न्याय को अनदेखा नहीं किया जा सकता। सारा विश्व गणित के समीकरण जैसा है, इसे चाहे जैसा उलटो-पलटो, वह अपना संतुलन बनाए रखता है।

🔶 मनुष्य पर दैवी और आसुरी दोनों ही चेतनाओं का प्रभाव है, वह जिस ओर उन्मुख होगा वैसा ही उसका स्वरूप बनता जाएगा। जड़ता एवं माया में लिप्त होते चलने पर वह अधोगति का अधिकारी होता है और पाप, पतन और नर्क की दुर्गति में गिर जाता है। परन्तु यदि वह अपनी मूल प्रकृति सदाचार का निर्वाह करे तो बंधन से मुक्ति निश्चित है। फिर उसे पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती। आवश्यकता अपना सही स्वरूप जानने भर की है।

🔷 इसके लिए प्रयास करने का सबसे उपयुक्त समय यही है। शास्त्रकारों से लेकर ऋषि-मनीषियों सभी ने एकमत होकर शारदीय नवरात्रि की महिमा का गुणगान किया है। सामान्यतः गायत्री परिवार से जुड़ा प्रत्येक साधक इस समयावधि में गायत्री महामंत्र के 24 हजार का लघु अनुष्ठान अवश्य ही करता है। अनुष्ठान की विधि-व्यवस्था से भी परिजन अपरिचित नहीं हैं। वैसे इसे गायत्री महाविज्ञान के प्रथम भाग से पढ़कर भी जाना जा सकता है। जप के लिए गायत्री महामंत्र से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। इसे गुरुमंत्र भी कहा गया है। यह महामंत्र बाह्य परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के साथ-साथ अन्तः चेतना के परिष्कार के लिए भी सर्वश्रेष्ठ है। वेदों में सन्निहित ज्ञान-विज्ञान का सारा वैभव बीज रूप में इन थोड़े से अक्षरों में विद्यमान है। साधना का परिणाम सिद्धि है। यह सिद्धियाँ भौतिक प्रतिभा और आत्मिक दिव्यता के रूप में जिन साधना आधारों के सहारे विकसित होती है, उनमें गायत्री महामंत्र के जप को प्रथम स्थान दिया गया है।

🔶 इस बार हमारी साधना बाह्य जड़ता को दूर करने तक ही सीमित न हो। हम अपनी आँतरिक जड़ता को मिटाने का प्रयास करें। व्यर्थ के ईर्ष्या, द्वेष, प्रपंच में निमग्न मन की गतिविधियों को ‘स्व’ की ओर उन्मुख करें। क्योंकि जो जड़ पदार्थों से अधिक प्रेम करेगा, उसे उनका स्वामित्व, संग्रह, उपभोग भी उतना ही उच्चतर लगेगा। मोह और अहंकार के पाश में वे उतनी ही दृढ़ता से बंधेंगे। निर्जीव जड़ पदार्थों से जड़ता ही बढ़ेगी।

🔷 नवरात्रि के पावन पर्व पर देवता अनुदान-वरदान देने के लिए स्वयं लालायित रहते हैं। ऐसे दुर्लभ समय का उपयोग हम जड़ता में अनुरक्त होकर न बिताएँ, चेतना के करीब जाएँ। ईश्वर चेतन है इसीलिए उसका अंश जीव भी चैतन्य स्वरूप है। साथ ही उसमें वे सब विशेषताएँ मौजूद हैं, जो उसके मूल उद्गम परमात्मा में है। वह अपने उद्गम केन्द्र का सत्गुण अपने में गहराई तक धारण किए हुए है। जब भी वह चेतना अशक्त या अस्त-व्यस्त होती है तो शरीर का ढाँचा भी लड़खड़ाने लगता है। यदि सच्ची जिज्ञासा का सहारा लिया जाय, तो इस सत्य को अनुभव भी किया जा सकता है। दैवी अनुशासन के अनुरूप जो अपनी जीवनचर्या का निर्धारण करने में सक्षम होता है वही इस सत्य का साक्षात्कार कर पाता है। इस यात्रा में स्वयं से कठोर संघर्ष करना पड़ता है, पर आत्मबल सम्पन्न साधक लक्ष्य तक पहुँच ही जाते हैं।

🔶 मनुष्य का जीवन प्रतिक्षण गतिशील है, वह जो कुछ है वह नहीं रहता है। उसे जितना भी हो सके आगे बढ़ना है। अपनी वर्तमान परिधि से निकलकर अधिक विस्तृत सीमाओं में प्रवेश करना है। एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाना है। एक स्तर से चलकर दूसरे स्तर तक पहुँचना है। अपने चेतन होने का प्रमाण देना है। उसे इस महापुरुषार्थ को कर दिखाना होगा कि सुरदुर्लभ मानव जीवन तृष्णा एवं वासनाओं की वेदी पर चढ़ा देने के लिए नहीं है, वरन् उच्च आदर्शों की पवित्र वेदिका पर उत्सर्ग कर देने के लिए है। यदि संकल्पपूर्ण पुरुषार्थ एवं लगन हो तो कोई कारण नहीं कि हम अपनी वर्तमान स्थिति से आगे बढ़कर श्रेय प्राप्त न कर सकें।

🔷 नवरात्रि की बेला शक्ति आराधना की बेला है। माता के विशेष अनुदानों से लाभान्वित होने की बेला है। अपनी साधना तपस्या द्वारा हम स्वयं ही अपने बाह्य एवं अंतर को साफ-सुथरा कर लें। अन्यथा जगन्माता को यह कार्य बलपूर्वक करना पड़ेगा। हम चाहें या न चाहें परिवर्तन तो होना ही है, सृष्टि की संचालिनी शक्ति इस विश्व-वसुन्धरा के कल्याण के लिए कटिबद्ध है। आत्मसुधार कर हम भी उसके उद्देश्य में सहयोगी बनें, यही इस नवरात्रि का संदेश है।

📖 अखण्ड ज्योति- सितम्बर 2003 पृष्ठ 28

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/2003/September/v1.37

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...