शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ९)

मन मिटे तो मिले चित्तवृत्ति योग का सत्य

परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे- मनुष्य का अभ्यास, उसकी आदतें अपनी समूची ऊर्जा को सोच-विचार बनाने में लगी रहती है। वह जन्मों-जन्मों से, हो सकता है लाखों जन्मों से यही करता रहा है। उसके इस सहयोग से, लगातार ऊर्जा देने से मन की नदी आज बड़े ही वेगपूर्ण ढंग से प्रवाहित हो रही है। अपने अतीत के संवेग के कारण मन भारी वेग और आश्चर्यजनक जादुई समर्थता के साथ बहा जा रहा है। जो योग साधना करना चाहते हैं, उन्हें यह बात भली प्रकार समझ लेनी है।
  
योग साधना का अर्थ है- अपने को इससे अलग करना। मन की क्रिया से अपने जुड़ाव-लगाव को खत्म करना। यदि मन के साथ, उसकी क्रियाशीलता के साथ अपनी आसक्ति समाप्त हो जाए, तो मन को ऊर्जा मिलना बन्द हो जाती है। फिर तो मन बस थोड़ी देर बहेगा, ऊर्जा के अभाव में स्वयं ही थम जाएगा। जब पिछला संवेग चुक जाएगा, जब पिछली ऊर्जा समाप्त हो जायगी, तब मन अपने आप ही रुक जाएगा। और जब मन रुक जाएगा, तब हम योग साधक से योगी होने की ओर कदम बढ़ाते हैं। तब फिर पतंजलि की परिभाषा, परम पूज्य गुरुदेव के द्वारा कराया गया बोध, हमारी खुद की अपनी अनुभूति बन जाएगा। हम समझ जाएँगे कि ‘मन की समाप्ति योग है।’
  
दैनिक जीवन में १५ मिनट से ३० मिनट का समय निकाल कर इसकी अनुभूति पायी जा सकती है। नियत समय एवं नियत स्थान के अनुशासन को स्वीकार कर अपने आसन पर स्थिर होकर बैठें। स्वयं की गहराई में टिकें। पहले ही क्षण मन के वेगपूर्ण प्रवाह की, भारी लहरों की अनुभूति होगी। इस प्रवाह, इसकी लहरों से आकर्षित न हों। स्वयं को इससे असम्बद्ध करें। यह अनुभव करें आप अलग हैं और मन का वेगपूर्ण प्रवाह अलग। जैसे-जैसे यह अनुभव गाढ़ा होगा, मन का वेगपूर्ण  प्रवाह थमता जाएगा। लेकिन ध्यान रहे, बार-बार मुड़-मुड़ कर यह देखना नहीं है कि मन का वेग थमा या नहीं। क्योंकि ऐसा करने से आप फिर से अपनी ऊर्जा मन को देंगे, और वह फिर से प्रचण्ड हो उठेगा। मन से अलग अपने में स्वयं की स्थिरता की अनुभूति का अंकुर जितनी तेजी से बढ़ेगा, उतनी ही ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ की अनुभूति साकार होती जाएगी।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ २१
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 सर्वनिंदक महाराज

एक थे सर्वनिंदक महाराज। काम-धाम कुछ आता नहीं था पर निंदा गजब की करते थे।हमेशा औरों के काम में टाँग फँसाते थे।
  
अगर कोई व्यक्ति मेहनत करके सुस्ताने भी बैठता तो कहते, 'मूर्ख एक नम्बर का कामचोर है। अगर कोई काम करते हुए मिलता तो कहते, 'मूर्ख जिंदगी भर काम करते हुए मर जायेगा।'
   
कोई पूजा-पाठ में रुचि दिखाता तो कहते, 'पूजा के नाम पर देह चुरा रहा है। ये पूजा के नाम पर मस्ती करने के अलावा कुछ नहीं कर सकता।' अगर कोई व्यक्ति पूजा-पाठ नहीं करता तो कहते, 'मूर्ख नास्तिक है! भगवान से कोई मतलब ही नहीं है। मरने के बाद पक्का नर्क में जायेगा।'
   
माने निंदा के इतने पक्के खिलाड़ी बन गये कि आखिरकार नारदजी ने अपने स्वभाव अनुसार.. विष्णु जी के पास इसकी खबर पहुँचा ही दिया। विष्णु जी ने कहा 'उन्हें विष्णु लोक में भोजन पर आमंत्रित कीजिए।'
   
नारद तुरंत भगवान का न्योता लेकर सर्वनिंदक महाराज के पास पहुँचे और बिना कोई जोखिम लिए हुए उन्हें अपने साथ ही विष्णु लोक लेकर पहुँच गये कि पता नहीं कब महाराज पलटी मार दे।
   
उधर लक्ष्मी जी ने नाना प्रकार के व्यंजन अपने हाथों से तैयार कर सर्वनिंदक जी को परोसा। सर्वनिंदक जी ने जमकर हाथ साफ किया। वे बड़े प्रसन्न दिख रहे थे। विष्णु जी को पूरा विश्वास हो गया कि सर्वनिंदक जी लक्ष्मी जी के बनाये भोजन की निंदा कर ही नहीं सकते। फिर भी नारद जी को संतुष्ट करने के लिए पूछ लिया, 'और महाराज भोजन कैसा लगा?'
   
सर्वनिंदक जी बोले, 'महाराज भोजन का तो पूछिए मत, आत्मा तृप्त हो गयी। लेकिन... भोजन इतना भी अच्छा नहीं बनना चाहिए कि आदमी खाते-खाते प्राण ही त्याग दे।'
   
विष्णु जी ने माथा पीट लिया और बोले, 'हे वत्स, निंदा के प्रति आपका समर्पण देखकर मैं प्रसन्न हुआ। आपने तो लक्ष्मी जी को भी नहीं छोडा़, वर माँगो।'
   
सर्वनिंदक जी ने शर्माते हुए कहा -- 'हे प्रभु मेरे वंश में वृध्दि होनी चाहिए।' तभी से ऐसे निरर्थक सर्वनिंदक बहुतायत में पाए जाने लगे।

सार : हम चाहे कुछ भी कर लें.. इन सर्वनिंदकों की प्रजाति को संतुष्ट नहीं कर सकते! अतः ऐसे लोगों की परवाह किये बिना अपने कर्तव्य पथ पर हमें अग्रसर रहना चाहिए।

👉 उत्थान और आनन्द का मार्ग

इन थोड़ी सी पंक्तियों में यह विस्तारपूर्वक नहीं बताया जा सकता कि मन की मलीनता को हटा देने पर हम पतन और संताप से कितने बचे रह सकते हैं, और मन को स्वच्छ रखकर उत्थान और आनन्द का कितना अधिक लाभ प्राप्त हो सकता है। यह लिखने−पढ़ने और कहने−सुनने की नहीं, करने और अनुभव में लाने की बात है। लौकिक जीवन को आनन्द और उत्थान की दिशा में गतिवान करने का प्रमुख उपाय यह है कि हम अपने मन को स्वच्छ कर उसकी मलीनताओं को हटावें। मनन करने वाले को ही मनुष्य कहते हैं। अपनी भीतरी मलीनताओं को खोजना और उन्हें सुधारने का प्रयत्न करना इस संसार का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। संसार के प्रत्येक महापुरुष को अनिवार्यतः यह पुरुषार्थ करना पड़ा है। क्या यह कोई ऐसा कठिन काम है जो हम नहीं कर सकते? दूसरों को सुधारना कठिन हो सकता है, वह अपना मन अपनी बात न माने, यह कैसे हो सकता है। हम अपने आपको तो सुधार ही सकते हैं, अपने आपको तो समझा ही सकते हैं, अपने को तो सन्मार्ग पर चला ही सकते हैं। इसमें दूसरा कोई क्या बाधा देगा? हम ऊँचे उठना भी चाहते हैं और उसका साधन भी हमारे हाथ में है तो फिर उसके लिए पुरुषार्थ क्यों न करें? आत्म−सुधार के लिए, आत्म निर्माण के लिए, आत्म विकास के लिए क्यों कटिबद्ध न हों?

हमारे आध्यात्मिक लक्ष की आधारशिला मन की स्वच्छता है। जप, तप, भजन, ध्यान, व्रत, उपवास, तीर्थ, हवन, दान, पुण्य, कथा, कीर्तन सभी का महत्व है पर उनका पूरा लाभ उन्हीं को मिलता है जिनने मन की स्वच्छता के लिए भी समुचित श्रम किया है। मन मलीन हो, दुष्टता एवं नीचता की दुष्प्रवृत्तियों से मन गन्दी कीचड़ की तरह सड़ रहा हो तो भजन, पूजन का भी कितना लाभ मिलने वाला है? अन्तरात्मा की निर्मलता अपने आप में एक साधन है जिसमें किलोल करने के लिए भगवान स्वयं दौड़े आते हैं। थोड़ी साधना से भी उन्हें आत्म−दर्शन का मुक्ति एवं साक्षात्कार का लक्ष सहज ही प्राप्त हो जाता है। स्वल्प साधना भी उनके लिए सिद्धि दायिनी बन जाती है।

“अखण्ड−ज्योति” निर्माण का मिशन लेकर अग्रसर होती है। अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य को इस ओर ध्यान देना होगा। हम अपने मनों को स्वच्छ करें, अपनी मलीनता को बुहारें और अपने समीपवर्ती, संबंधित, परिचित लोगों को भी वैसी ही प्रेरणा करे। अपना आदर्श उपस्थित करके दूसरों को अनुकरण करने के लिए उदाहरण उपस्थित करना प्रचार का सबसे प्रभावशाली तरीका है, पर शिक्षा, उपदेश, प्रचार, अध्ययन, शिक्षण, पठन, श्रवण आदि का भी कुछ तो प्रभाव पड़ता ही है। दोनों ही माध्यमों से हमें लोक शिक्षण के लिए प्रवृत्त होना चाहिए। जन−मानस की स्वच्छता का अभियान संसार की उत्कृष्ट धर्म सेवा और ईश्वर की सच्ची पूजा ही मानी जायगी। इस दिशा में हमारा उत्साह उठना ही चाहिये। हमारा पुरुषार्थ जागना ही चाहिए, हमारा कदम उठना ही चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 Supreme Aim of Human Life is Attainment of Life Eternal

Just as passing through the cycles of days and nights we do not die, we retain our identity; similarly, life does not end with dissolution of the physical body. It is eternal.

Everyday the Sun rises in the East and sets in the West. Moon becomes invisible on the no-moon day and can be seen in its full glow on the full moon day. In between, its phases of brightness go on increasing or decreasing. In spite of this visible change, there is no change in Moon’s original form. The process of birth and death too is similar. This may be called a game of hide and seek between awakening and deep sleep. For the body, the cycle of childhood, youth, old age and death is  natural. Even after bodily death, the self-identity of the soul remains firm like a steady axle.

Why fear death? It is a pleasant change akin to the process of changing old clothes and putting on new ones. No one can stop this process of continuous change . One who takes on mortality through birth in the body will definitely die. In view of this inexorable Law of Nature, there is no need of any fear, grief or sorrow. Wisdom lies in realizing this eternal truth of life and in trying to make each link of this series more organized.

Today’s efforts ought to be directed towards making the tomorrow more joyful and progressive. The aim of our present cycle of physical embodiment should be to consciously and constantly strive to tread on the righteous path towards realization of our true identity as sparks of the Supreme Light and Life Eternal.

~ Pandit Shriram Sharma Acharya

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...