शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ७०)

बन्धन क्या? मुक्ति कैसे?

लालची मक्खी और चींटी की आसक्ति, आतुरता उसे विपत्ति के बन्धनों में जकड़ देती है और प्राण संकट उपस्थित करती है। चासनी को आतुरतापूर्वक निगल जाने के लोभ में यह अबोध प्राणी उस पर बेतरह टूट पड़ते हैं और अपने पंख, पैर उसी में फंसा कर जान गंवाते हैं। मछली के आटे की गोली निगलने और पक्षी के जाल में जा फंसने के पीछे भी वह आतुर अशक्ति ही कारण होती है, जिसके कारण आगा-पीछा सोचने की विवेक बुद्धि को काम कर सकने का अवसर ही नहीं मिलता।

शरीर के साथ जीव का अत्यधिक तादात्म्य बन जाना ही आसक्ति एवं माया है। होना यह चाहिए कि आत्मा और शरीर के साथ स्वामी सेवक का—शिल्पी उपकरण का भाव बना रहे। जीव समझता रहे कि मेरी स्वतन्त्र सत्ता है। शरीर के वाहन, साधन, प्रकृति यात्रा की सुविधा भर के लिए मिले हैं। साधन की सुरक्षा उचित है। किन्तु शिल्पी अपने को—अपने सृजन प्रयोजन को भूल कर—उपकरणों में खिलवाड़ करते रहने में सारी सुधि-बुद्धि खोकर तल्लीन बन जाया तो यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण हो होगी। तीनों शरीर तीन बन्धनों में बंधते हैं। स्थूल शरीर इन्द्रिय लिप्सा में, वासना में। सूक्ष्म शरीर (मस्तिष्क) सम्बन्धियों तथा सम्पदा के व्यामोह में। कारण शरीर-अहंता के आतंक फैलाने वाले उद्धत प्रदर्शनों में। इस प्रकार तीनों शरीर—तीन बन्धनों में बंधते हैं और आत्मा उन्हीं में तन्मय रहने की स्थिति में स्वयं ही भव बंधनों में बंध जाता है। यह लिप्सा लालसायें इतनी मादक होती है कि जीव उन्हें छोड़कर अपने स्वरूप एवं लक्ष्य को ही विस्मृति के गर्त में फेंक देता है। वेणुनाद पर मोहित होने वाले मृग वधिक के हाथों पड़ते हैं। पराग लोलुप भ्रमर-कमल में कैद होकर दम घुटने का कष्ट सहता है। दीपक की चमक से आकर्षित पतंगे की जो दुर्गति होती है व सर्वविदित है। लगभग ऐसी ही स्थिति व्यामोह ग्रसित जीव की भी होती है। उसे इस बात की न तो इच्छा उठती है और न फुरसत होती है कि अपने स्वरूप और लक्ष्य को पहचाने। उत्कर्ष के लिए आवश्यक संकल्प शक्ति जगाई जा सकती तो इस महान प्रयोजन के लिये मिली हुई विशिष्ट क्षमताओं को भी खोजा जगाया जा सकता था। किन्तु उसके लिये प्रयत्न कौन करे? क्यों करे? जब विषयानन्द की ललक ही मदिरा की तरह नस-नस पर छाई हुई है तो ब्रह्मानन्द की बात कौन सोचे? क्यों सोचे?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०८
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६८)

भगवान को भावनाएँ अर्पित करने वाला कहलाता है भक्त
    
इस अनुभूति के साथ उन्होंने ब्रह्मर्षि क्रतु से बड़े विनम्र स्वर में कहा- ‘‘हे ब्रह्मर्षि! इस सूत्र का अनुभव कथन आप स्वयं अपने मुख से कहें।’’ नारद के इस आग्रह को क्रतु अस्वीकार न कर सके और बोले- ‘‘भक्ति एक ऐसा तत्त्व है, जो कहने वाले को और सुनने वाले को, दोनों ही को कृतार्थ करता है। जो इसे कहता है अथवा जो इसे सुनता है, दोनों ही इसके रस से स्वयं को धन्य अनुभव करते हैं। जहाँ तक मेरी बात है, मेरी इस प्रकरण में विशेषज्ञता नहीं है। परन्तु हाँ, मुझे ऐसे ही एक भक्त का सान्निध्य मिला है। यदि आप सभी की अनुमति हो तो मैं उस अनपढ़ भील की कथा अवश्य सुना सकता हूँ।’’ क्रतु के इन वचनों ने सभी के भावों को विभोर करके उनके अन्तर्मन को हर्षित किया। सभी ने एक स्वर में अनुरोध किया कि महर्षि उस भील भक्त की कथा कहें।
    
अनुरोध के इन स्वरों के साथ महर्षि के अन्तःसरोवर में भावउर्मियाँ थिरक उठीं। उनमे मन में स्मृति की कई रेखाएँ उभर आयीं और उन्होंने कहना शुरू किया- ‘‘उसका नाम कणप्प था। जाति का भील था वह, उसका कबीला विन्ध्यांचल के जंगल में रहता था। अपने कबीले के सरदार का इकलौता पुत्र था वह। कृष्ण वर्ण की बलिष्ठ काया, मुख पर एक ऊर्जा बसा सात्त्विक आकर्षण। उसके उज्ज्वल नेत्रों से सदा ही एक सात्त्विक प्रकाश झरता रहता था। भीलकुमार होते हुए भी उसका रहन-सहन, खान-पान सतोगुणी था। अन्य भीलकुमारों की तरह वह मांसाहारी न था। हालांकि, उसकी कर्मठता एवं बलिष्ठता की कोई भी तुलना न थी। बलवान होने पर भी वह अहंकारी न था। सेवा परायणता उसमें कूट-कूट कर भरी थी। कबीले के कामों एवं पिता की सहायता से उसे जो भी समय मिलता वह उस समय का उपयोग, वनवासी साधु-तपस्वियों की सेवा में करता।
    
इस सेवापरायणता का ही सुफल उसे भक्ति के रूप में मिला था। विन्ध्यांचल के वन में रहने वाले एक तपस्वी साधु ने प्रसन्न होकर उसे पञ्चाक्षर मंत्र प्रदान किया था। ‘ॐ नमः शिवाय’ के उपदेश के साथ उन्होंने उसे भगवान सदाशिव की लीलाकथाएँ सुनाते हुए कहा- पुत्र! भावों की गहराई में डूबकर अपने आराध्य का स्मरण और उन्हीं को अपना सर्वस्व समर्पण ही भक्ति है। जो अपने स्मरण व समर्पण की साधना में जितनी प्रगाढ़ता, प्रखरता एवं परिपक्वता लाता है उसमें भक्ति उतनी ही तीव्रता से प्रकट होती है। इस भक्ति के साधन से कुछ भी असम्भव नहीं है। हाँ! इतना अवश्य ध्यान रखना कि अनन्यता भक्त का अनिवार्य गुण है। जो अपने ईष्ट में अनन्य भाव से डूबा रहता है, वह जीवन के तत्त्व और सत्य को पा जाता है। उसके लिए लोक में कुछ भी असम्भव नहीं है। हालांकि भक्ति अपना फल स्वयं ही है।
    
इन वनवासी साधु वेदव्रत की बात कणप्प को भा गयी। उसने भगवान् शिव के नाम-रूप-गुण एवं उनकी लीलाओं में अपने मन-अन्तःकरण को भिगोना प्रारम्भ कर दिया। वह प्रातः से उठकर सायं तक जो भी करता, केवल अपने प्रभु के लिए करता। कर्त्तव्य संसार के लिए, भावनाएँ भगवान् के लिए। यह उसके जीवन का महामंत्र बन गया। प्रातः सायं वन में जाकर सरिता के किनारे वट वृक्ष की छाया में वह पार्थिव पूजन करता। स्मरण व समर्पण की साधना उसके रोम-रोम में बसने लगी। उसे साधु वेदव्रत का यह कथन हमेशा याद रहता, जो उन्होंने उसे शिव नाम देते हुए कहा था- पुत्र! भक्त वह है जो अपनी भावनाएँ केवल भगवान को देता है। अपनी साधन सम्पत्ति तुम भले ही किसी को दे दो, परन्तु भावनाओं में अन्य किसी की हिस्सेदारी नहीं होनी चाहिए। जिसकी भावनाओं में किसी की भी हिस्सेदारी है, वह कभी भी भक्त नहीं हो सकता। उससे भक्ति की साधना सम्भव नहीं।
    
सरल हृदय भीलकुमार कणप्प को यह बात दिल में लग गयी। उसकी मेधा भले ही प्रखर न थी, परन्तु भाव पवित्र थे। सो शीघ्र ही वह भावों के समर्पण की कला सीख गया। इस भाव अर्पण की निपुणता ने उसके लिए अपने आप ही भावसमाधि के द्वार खोल दिए। भावसमाधि में वह अपने आराध्य के साथ एकाकार होने लगा। भगवान् सदाशिव उसके मन मन्दिर में प्रकट होने लगे। उसकी भक्ति प्रबल होती गयी और भगवान अपने इस अनूठे भक्त के लिए विकल होते गए। एक दिन जब वह निशाकाल में अपने भगवान् के ध्यान में डूबा था- तो भोलेनाथ अपने प्रिय भक्त के सम्मुख प्रकट हो गए। शूलपाणि प्रभु का रूप अनोखा था। परन्तु भक्त कणप्प तो अपनी भक्ति में खोया था। भगवान ने स्वयं उसके शीष पर हाथ रखकर चेताया और कहा- पुत्र! मांगो तुम क्या चाहते हो। अपने भगवान को सम्मुख पाकर कणप्प के आँखों से आँसू बह निकले- बड़ी मुश्किल से वह बोल सका- भक्ति का वरदान दे भगवान! जीवन और परिस्थितियों का स्वरूप जो भी हो, पर मैं भक्ति में डूबा रहूँ। भोलेनाथ ने एवम्वस्तु कहकर उसे आशीष दिया। भक्त और भगवान दोनों ही अनुभव कर रहे थे कि भक्ति स्वयं ही फलरूपा है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १२४

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...