शुक्रवार, 24 नवंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 23 Nov 2023

जब क्रोध का आवेग आता है तो उसका एक ही लक्ष्य होता है, जो अपनी कामनाओं में बाधक बना है उसे नुकसान पहुँचाना। मार-पीट कर, सामान को नष्ट कर, काम में रोड़ा अटकाकर जैसे भी बने क्रोध का लक्ष्य दूसरे को हानि पहुँचाना ही होता है। वह भले ही किसी भी रूप में पहुँचाई जाय। कभी-कभी लोग क्रोध से प्रेरित होकर अपना ही सिर फोड़ने लगते हैं। अंग भंग, आत्महत्या तक कर लेने को उद्यत हो जाते हैं, ऐसे लोग। किन्तु इसका आधार भी अपने कुटुम्बियों, स्नेह, सम्बन्धियों को वर्तमान या भविष्य में हानि पहुँचाना ही होता है। स्मरण रहे ऐसी हरकतें बेगानों के साथ कभी नहीं की जातीं। ऐसा मनुष्य तभी करता है जब दूसरों को इस प्रपंच की परवाह होती है वे इस क्रोध प्रदर्शन से प्रभावित होते हैं।

भय के लिये कारण निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं है। मानसिक कमजोरी, दुःख या हानि की काल्पनिक आशंका से ही प्रायः लोग भयभीत रहते हैं। सही कारण तो बहुत थोड़े होते हैं। कोई सह-कर्मचारी इतना कह दे कि आप नौकरी से निकाल दिये जायेंगे, इतने ही से आप डरने लगते हैं। कोई मूर्ख पण्डित कह दे कि अमुक नक्षत्र में अति वृष्टि योग है बस फसल नष्ट होने की आशंका से किसानों का दम फूलने लगता है। नौकरी छूट ही जायेगी या जल गिरेगा ही यह बात यद्यपि निराधार है केवल अपनी कल्पना में ऐसा सत्य मान लिया है, इसी के कारण भयभीत होते हैं। इस अवास्तविक भय का कारण मनुष्य की मानसिक कमजोरी है, इसका निराकरण भी संभव है। मनुष्य इसे मिटा भी सकता है।

जो मनुष्य सामाजिक जीवन में रहकर मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं रखता वन में जीने या घर बार छोड़ देने से उसका मन भी बदल जायगा। वहाँ भी वह अपने पाप के नये-नये तरीके ढूंढ़ लेगा। और नहीं कुविचारों के रहते हुए भला उसे आत्म-शान्ति कैसे मिलेगी ? इधर घर वालों की कलपती हुई आत्माओं से निकली हुई दुर्भावनायें भी क्या उसे चैन से रहने देंगी। सामाजिक जीवन कर्त्तव्य के अनेकों रास्ते होते हैं जिनमें लगा रहकर मनुष्य मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर सकता है और आसानी से अपना पारमार्थिक लक्ष्य पूरा कर सकता है। अन्यत्र रह कर पाप के कीचड़ में फिसल जाने का भी खतरा हो सकता है किन्तु उपयुक्त गृहस्थ जीवन में ऐसी तो कोई भी आशंका नहीं होती।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 क्या कर्म क्या अकर्म?

जो बात एक देश में नीति की समझी जाती है, वही बात दूसरे देश में नीति की बिलकुल विघातक समझी जाती है। कुछ देशों में चचेरी बहिन से विवाह करना साधारण व्यवहार की बात है, किन्तु अन्य कई देशों में यही चाल नीति के बिलकुल विरुद्ध मानी जाती है। कई देशों में साली से विवाह करना पाप समझते हैं, कई में उसे ऐसा नहीं समझते। कई देशों में एक पुरुष के एक समय में एक ही पत्नी होना नीति की बात मानी जाती है- परन्तु दूसरे कई देशों में एक ही समय में चार पाँच अथवा सौ पचास स्त्रियों का होना भी एक साधारण चाल है।

इसी प्रकार नीति के अन्य सिद्धान्तों का भी अव्यवहार्य रूप प्रत्येक देश में भिन्न-भिन्न पाया जाता है, कर्त्तव्य का भी यही हाल है। कई जगह ऐसा समझा जाता है कि मनुष्य यदि कोई एक काम नहीं करता तो वह कर्त्तव्यच्युत हो जाता है। परन्तु अन्य देशों में वही कार्य करने वाला मूर्ख समझा जाता है। यद्यपि वास्तविक दशा ऐसी है, तथापि हम लोग सदैव यही समझते हैं कि साधारणतया नीति और कर्त्तव्य के विचार सम्पूर्ण मानव जाति में एक ही हैं। अब हमारे सामने प्रश्न खड़ा होता है कि, हम अपनी उपर्युक्त समझ और उपर्युक्त बातों के व्यवहार्थ स्वरूप की भिन्नता के अनुभव का मेल कैसे मिलावें। बस परस्पर विरोधी अनुभवों की एक वाक्यता करने के लिये दो मार्ग खुले हुए हैं।

एक मार्ग यह है कि यह समझा जाय कि “मैं जो कुछ कहता अथवा करता हूँ वही ठीक है और वैसा न करने वाले अन्य लोग मूर्ख तथा अनीतिवान है।” परन्तु यह मार्ग मूर्खों का है। चतुरों का मार्ग इससे भिन्न है। वे कहते हैं कि भिन्न-भिन्न देश काल और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के कारण एक ही सिद्धाँत के व्यवहार में भेद दिखाई देते हैं। परन्तु वास्तविक में यह बाहर से दीख पड़ने वाले भेद भाव सच्चे नहीं है। इस सिद्धाँत की निरर्थकता न दिखला कर केवल परिस्थिति की भिन्नता मात्र दिखलाते हैं। पंडितों का मत यह है कि, सिद्धान्त चाहे एक ही हो तो भी उसका व्यावहारिक स्वरूप परिस्थिति के अनुसार बदलना संभव है, न सिर्फ संभव है वरन् आवश्यक भी है।

✍🏻 स्वामी विवेकानन्द
📖 अखण्ड-ज्योति अक्टूबर 1941 पृष्ठ 16

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👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 24 Nov 2023

आत्म-ज्ञान का सम्पादन और आत्म केन्द्र में स्थिर रहना मनुष्य मात्र का पहला और प्रधान कर्तव्य है। आत्मा का ज्ञान चरित्र के विकास से मिलता है। अपनी बुराइयों को छोड़कर सन्मार्ग की ओर चलने की प्रेरणा इसी से दी जाती है कि आत्मा का आभास मिलने लगे। आत्म सिद्धि का एक मात्र उपाय पारमार्थिक भाव से जीव मात्र की सेवा करना है। इन सद्गुणों का विकास न हुआ तो आत्मा की विभूतियाँ मलिनताओं में दबी हुई पड़ी रहेंगी।

क्रोध अन्धा होता है। वह केवल उस ओर देखता है जिसे दुख का कारण समझता है, या अपनी कामनाओं का बाधक मानता है। और उसका नाश हो, उसे हानि, दुःख पहुँचे, क्रोधी का यही लक्ष्य होता है। क्रोधी व्यक्ति कभी अपने बारे में नहीं सोचता। मेरी भी कोई भूल है, कुछ मैंने भी किया है, या जो मैं करने जा रहा हूँ, उसके क्या परिणाम होंगे? इनके बारे में कुछ भी नहीं सोचता। इसके कारण बड़े-बड़े अनर्थ हो जाते हैं।

परिस्थितियों पर विचार करने के लिये मनुष्य को सदैव गंभीरता से काम लेना चाहिये। आज जैसी स्थिति कल भी रहेगी यह सोचना अबुद्धिमत्तापूर्ण है। हम साहस, शौर्य और कर्मठता से काम करें तो असफलता को सफलता में, निर्धनता को धन प्राप्ति में, अस्वस्थता को उत्तम स्वास्थ्य में क्यों नहीं बदल सकते? थोड़ा समय ही तो लगेगा। एक दिन में किसी को सफलता मिली भी हैं? फिर आप ही उतावले क्यों होते है। धैर्य रखिये और कठिनाइयों से लड़ पड़िये। आपका खराब समय जरूर टल जायेगा। गरीबी दूर होगी। जरूर आपके स्वास्थ्य में परिवर्तन होगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...