शनिवार, 5 नवंबर 2022

👉 हमारा महान शत्रु-आलस्य (भाग 1)

किसी भी कार्य की सिद्धि में आलस्य सबसे बड़ा बाधक है, उत्साह की मन्दता प्रवृत्ति में शिथिलता लाती है। हमारे बहुत से कार्य आलस्य के कारण ही सम्पन्न नहीं हो पाते। दो मिनट के कार्य के लिए आलसी व्यक्ति फिर करूंगा, कल करूंगा-करते-करते लम्बा समय यों ही बिता देता है। बहुत बार आवश्यक कार्यों का भी मौका चूक जाता है और फिर केवल पछताने के आँतरिक कुछ नहीं रह जाता।

हमारे जीवन का बहुत बड़ा भाग आलस्य में ही बीतता है अन्यथा उतने समय में कार्य तत्पर रहे तो कल्पना से अधिक कार्य-सिद्धि हो सकती है। इसका अनुभव हम प्रतिपल कार्य में संलग्न रहने वाले मनुष्यों के कार्य कलापों द्वारा भली-भाँति कर सकते हैं। बहुत बार हमें आश्चर्य होता है कि आखिर एक व्यक्ति इतना काम कब एवं कैसे कर लेता है। स्वर्गीय पिताजी के बराबर जब हम तीन भाई मिल कर भी कार्य नहीं कर पाते, तो उनकी कार्य क्षमता अनुभव कर हम विस्मय-विमुग्ध हो जाते हैं। जिन कार्यों को करते हुए हमें प्रातःकाल 9-10 बज जाते हैं, वे हमारे सो कर उठने से पहले ही कर डालते थे।

जब कोई काम करना हुआ, तुरन्त काम में लग गये और उसको पूर्ण करके ही उन्होंने विश्राम किया। जो काम आज हो सकता है, उसे घंटा बाद करने की मनोवृत्ति, आलस्य की निशानी है। एक-एक कार्य हाथ में लिया और करते चले गये तो बहुत से कार्य पूर्ण कर सकेंगे, पर बहुत से काम एक साथ लेने से- किसे पहले किया जाय, इसी इतस्ततः में समय बीत जाता है और एक भी काम पूरा और ठीक से नहीं हो पाता। अतः पहली बात ध्यान में रखने की यह है कि जो कार्य आज और अभी हो सकता है, उसे कल के लिए न छोड़, तत्काल कर डालिए, कहा भी है-

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब॥

दूसरी बात ध्यान में यह रखनी है कि एक साथ अधिक कार्य हाथ में न लिये जायं, क्योंकि इससे किसी भी काम में पूरा मनोयोग एवं उत्साह नहीं रहने से सफलता नहीं मिल सकेगी। अतः एक-एक कार्य को हाथ में लिया जाय और क्रमशः सबको कर लिया जाय अन्यथा सभी कार्य अधूरे रह जायेंगे और पूरे हुए बिना कार्य का फल नहीं मिल सकता। जैन धर्म में कार्य सिद्धि में बाधा देने वाली तेरह बातों को तेरह काठियों (रुकावट डालने वाले) की संज्ञा दी गई है। उसमें सबसे पहला काठिया ‘आलस्य’ ही है। बहुत बार बना बनाया काम तनिक से आलस्य के कारण बिगड़ जाता है।

प्रातःकाल निद्रा भंग हो जाती है, पर आलस्य के कारण हम उठकर काम में नहीं लगते। इधर-उधर उलट-पुलट करते-करते काम का समय गंवा बैठते हैं। जो व्यक्ति उठकर काम में लग जाता है, वह हमारे उठने के पहले ही काम समाप्त कर लाभ उठा लेता है। दिन में भी आलसी व्यक्ति विचार में ही रह जाता है, करने वाला कमाई कर लेता है। अतः प्रति समय किसी न किसी कार्य में लगे रहना चाहिए। कहावत भी है ‘बैठे से बेगार भली’। निकम्मे आदमी में कुविचार ही घूमते हैं। अतः निकम्मेपन को हजार खराबियों की जड़ बतलाया गया है।

मानव जीवन बड़ा दुर्लभ होने से उसका प्रति क्षण अत्यन्त मूल्यवान है। जो समय जाता है, वापिस नहीं आता। प्रति समय आयु क्षीण हो रही है, न मालूम जीवन दीप कब बुझ जाय। अतः क्षण मात्र भी प्रमाद न करने का उपदेश भगवान महावीर ने दिया है। महात्मा गौतम गणधर को सम्बोधित करते हुए उन्होंने उत्तराध्ययन-सूत्र में ‘समयं गोयम मा पमायए’ आदि- बड़े सुन्दर शब्दों में उपदेश दिया है। जिसे पुनः-पुनः विचार कर प्रमाद का परिहार कर कार्य में उद्यमशील रहना परमावश्यक है। जैन दर्शन में प्रमाद निकम्मे पन के ही अर्थ में नहीं, पर समस्त पापाचरण के आसेवन के अर्थ में है। पापाचरण करके भी जीवन के बहुमूल्य समय को व्यर्थ ही न गंवाइये।

आलस्य के कारण हम अपनी शक्ति से परिचित नहीं होते- अनन्त शक्ति का अनुभव नहीं कर पाते और शक्ति का उपयोग न कर, उसे कुँठित कर देते हैं। किसी भी यन्त्र एवं औजार का आप उपयोग करते रहते हैं तो ठीक और तेज रहता है। उपयोग न करने से पड़ा-पड़ा जंग लगकर बरबाद और निकम्मा हो जाता है। उसी प्रकार अपनी शक्तियों को नष्ट न होने देकर सतेज बनाइये। आलस्य आपका महान शत्रु है। इसको प्रवेश करने का मौका ही न दीजिए एवं पास में आ जाए तो दूर हटा दीजिए। सत्कर्मों में तो आलस्य तनिक भी न करे क्योंकि “श्रेयाँसि बहु विघ्नानि” अच्छे कामों में बहुत विघ्न जाते हैं। आलस्य करना है, तो असत् कार्यों में कीजिए, जिससे आप में सुबुद्धि उत्पन्न हो और कोई भी बुरा कार्य आप से होने ही न पावे।


📖 अखण्ड ज्योति सितम्बर 1949 पृष्ठ 12


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👉 संतोष का अर्थ

सन्तोष - एक वृत्ति  है तथा सुख और शान्ति उसका परिणाम, किन्तु दुर्भाग्यवश हमारे यहाँ सन्तोष का अर्थ आलस्य और प्रमाद माना जाता है। आलस्य और प्रमाद तो तमोगुण के लक्षण हैं जबकि सन्तोष सतोगुण से उत्पन्न होता है।

सन्तोष का अर्थ यह नहीं है कि हम हाथ पर हाथ रखकर बैठ जायें और गाने लगें 'अजगर करै न चाकरी पंछी करै न काम' वास्तव में सन्तोष का अर्थ है प्रगति पथ पर धैर्य पूर्वक चलते हुए मार्ग में आने वाले कष्टों और कठिनाईयों का प्रभाव  अपने ऊपर न पड़ने देना। संसार के कांटे हम नहीं बीन सकते किन्तु यदि हमने सन्तोष रूपी जूते पहन  रखे हैं, तो  कोई भी कांटा हमारे मार्ग में बाधक नहीं बन सकता।


हम अपनी  शक्ति भर अपनी सर्वांगीण उन्नति के लिए प्रयास करें तथा हर परिस्थिति का दृढ़ता पूर्वक मुकाबला करें तथा हर समय मानसिक शान्ति बनाये रखें यही सन्तोष है।


लोग कामनाओं की पूर्ति से सन्तोष पाना चाहते हैं किन्तु यह मार्ग गलत है। वह तो कामनाओं को समाप्त करने से ही मिलता है।


✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

📖 संस्कृति- संजीवनी श्रीमदभागवत एवं गीता वांग्मय 31 5.10

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👉 समाजनिष्ठा का विकास करें

स्वयं क्रिया कुशल और सक्षम होने के बावजूद भी कितने ही व्यक्ति अन्य औरों से तालमेल न बिठा पाने के कारण अपनी प्रतिभा का लाभ समाज को नहीं दे पाते। उदाहरण के लिए फुटबाल का कोई खिलाड़ी अपने खेल में इतना पारंगत है कि घण्टों गेंद को जमीन पर न गिरने दे परन्तु यह भी हो सकता है कि टीम के साथ खेलने पर अन्य खिलाड़ियों से तालमेल न बिठा पाने के कारण वह साधारण स्तर का भी न खेल सके।

अक्सर संगठनों में यही भी होता है कि कोई व्यक्ति अकेले तो कोई ज़िम्मेदारी आसानी से निभा लेते हैं, किन्तु उनके साथ दो चार व्यक्तियों को और जोड़ दिया जाय तथा कोई बड़ा काम सौंप दिया तो वे ज़िम्मेदारी से कतराने लगते हैं। कुछ व्यक्तियों को यदि किसी कार्य कि ज़िम्मेदारी सौंप दी जाय  तो हर व्यक्ति यह सोच कर अपने दायित्व से उपराम होने की सोचने लगता है कि दूसरे लोग इसे पूरा कर लेंगे।

बौद्ध साहित्य में सामूहिक जिम्मेदारी के आभाव का एक अच्छा प्रसंग आता है। किसी प्रदेश के राजा ने कोई धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए राजधानी के निवासियों को निर्देश दिया कि सभी लोग मिलकर नगर के बाहर तैयार किये गए हौज में एक-एक लोटा दूध डालें। हौज को ढक दिया गया था और निश्चित समय पर जब हौज का ढक्कन हटाया गया तो पता चला कि दूध के भरने के स्थान पर हौज पानी से भरा था। कारण का पता लगाया गया तो मालूम हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति ने यह सोच कर दूध के स्थान पर पानी डाला था कि केवल मैं ही पानी डाल रहा हूँ अन्य और लोग तो दूध ही डाल रहे हैं।

समाज में रहकर अन्य लोगों से तालमेल बिठाने तथा अपनी क्षमता योग्यता का लाभ समाज को देने कि स्थिति भी सामाजिकता से ही प्राप्त हो सकती है।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 जीवन देवता कि साधना-आराधना वांग्मय 2/2.20

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👉 अभागो! आँखें खोलो!!

अभागे को आलस्य अच्छा लगता है। परिश्रम करने से ही है और अधर्म अनीति से भरे हुए कार्य करने के सोच विचार करता रहता है। सदा भ्रमित, उनींदा, चिड़चिड़ा, व्याकुल और संतप्त सा रहता है। दुनिया में लोग उसे अविश्वासी, धोखेबाज, धूर्त, स्वार्थी तथा निष्ठुर दिखाई पड़ते हैं। भलों की संगति उसे नहीं सुहाती, आलसी, प्रमादी, नशेबाज, चोर, व्यभिचारी, वाचाल और नटखट लोगों से मित्रता बढ़ाता है। कलह करना, कटुवचन बोलना, पराई घात में रहना, गंदगी, मलीनता और ईर्ष्या में रहना यह उसे बहुत रुचता है।

ऐसे अभागे लोग इस दुनिया में बहुत है। उन्हें विद्या प्राप्त करने से, सज्जनों की संगति में बैठने से, शुभ कर्म और विचारों से चिढ़ होती है। झूठे मित्रों और सच्चे शत्रुओं की संख्या दिन दिन बढ़ता चलता है। अपने बराबर बुद्धिमान उसे तीनों लोकों में और कोई दिखाई नहीं पड़ता। खुशाकय, चापलूस, चाटुकार और धूर्तों की संगति में सुख मानता है और हितकारक, खरी खरी बात कहने वालों को पास भी खड़े नहीं होने देता नाम के पथ पर सरपट दौड़ता हुआ वह मंद भागी क्षण भर में विपत्तियों के भारी भारी पाषाण अपने ऊपर लादता चला जाता है।

कोई अच्छी बात कहना जानता नहीं तो भी विद्वानों की सभा में वह निर्बलता पूर्वक बेतुका सुर अलापता ही चला आता है। शाम का संचय, परिश्रम, उन्नति का मार्ग निहित है यह बात उसके गले नहीं उतरती और न यह बात समझ में आती है कि अपने अन्दर की त्रुटियों को ढूँढ़ निकालना एवं उन्हें दूर करने का प्रचण्ड प्रयत्न करना जीवन सफल बनाने के लिए आवश्यक है। हे अभागे मनुष्य! अपनी आस्तीन में सर्प के समान बैठे हुए इस दुर्भाग्य को जान। तुम क्यों नहीं देखते? क्यों नहीं पहचानते?

✍🏻 समर्थ गुरु रामदास
📖 अखण्ड ज्योति जून 1943 पृष्ठ 12

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/June/v1.12


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👉 उपासना सच्चे हृदय से कीजिए

उपासना के लिए एक अनिवार्य शर्त यह है सच्चे भाव से चित लगाकर कि जाय। आजकल जिस जिस प्रकार बहुसंख्यक कहलाने वाले व्यक्ति दुनिया का दिखाने के लिए अथवा एक रस्म पूरी करने के लिए मंदिर में जाकर पूरी कर लेते हैं और नियम को पुरा करने के लिए एकाध माला भी जप लेते हैं उससे किसी बड़े सुफल कि आशा नहीं की जा सकती उपासना और साधन तो तभी सच्ची मानी जा सकती है जब कि मनुष्य उस समय समस्त सांसारिक विषयों और आस पास की बातों को भूलकर प्रभु को के ध्यान में निमग्न हो जाए जब मनुष्य इस प्रकार की संलग्नता और एकाग्रता में अपने इष्टदेव की उपासना करता है तभी वह अध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर हो सकता है और तभी वह दैवी कृपा का लाभ प्राप्त कर सकता है इसी तथ्य को समझने के लिए वेदों में बतलाया गया है की जब मनुष्य हृदय और आत्मा से सोम का अभिसव (परमात्मा की उपासना) करता है तव उसे स्वयमेव ईश्वरीय तेज के दर्शन होने लगते हैं और परमात्मा की कृपा अपने चारों तरफ से मेह की तरह बरसती जान पड़ती है।

संसार में जीवन निर्वाह करते हुए एक साधारण मनुष्य को अनेक विघ्न बाधाओं का सामना करना पड़ता है विपरीत परिस्थितियों से होकर गुजरना पड़ता है विरोधियों के साथ संघर्ष करना पड़ता है और लोगों की भली बुरी सब प्रकार की आलोचना को सहन करना पड़ता है इससे उसके जीवन में स्वभावतः उद्वेग अशाँति भय क्रोध आदि के अवसर आते हैं ऐसा मनुष्य अपने कष्टों के निवारणार्थ और मन और आत्मा की शाँति के लिए परमात्मा का आश्रय ग्रहण करता है। मन, वचन और कर्म से उसकी उपासना में संलग्न रहता है। तो उसकी अनास्था में परिवर्तन होने लगता है।

जब साधनों में अग्रसर होकर वह अपने चारों आरे परमात्मा शक्ति की क्रीड़ा अनुभव करता है और वह समझने लगता है कि संसार में जो कुछ हो रहा हैं वह उस प्रभू की प्रेरणा और इच्छा का फल हैं तथा वह जो कुछ करता है उसका अंतिम परिणाम जीव के लिए शुभ होता है, चाहे वह तत्काल उसे न समझ सके, तब उसकी व्याकुलता और अशाँति दूर होने लगती हैं और उसे ऐसा अनुभव होता है मानो ग्रीष्म ऋतु में व्यथित श्राँत क्लाँत व्यक्ति को शीतल और शाँति दायक वर्षा ऋतु प्राप्त हो गयी। मनुष्यों को अपनी भिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिए तरह तरह की साधनाएँ निकाली हैं।

धन, संतान, वैभव, सम्मान, प्रभाव, विद्या, बुद्धि आदि की प्राप्ति के लिए लोग भाँति भाँति के उपायों का सहारा लेते हैं, जिससे उनकी योग्यतानुसार कम या अधिक परिणाम में सफलता भी प्राप्त होती है। पर आध्यात्मिक शाँति प्राप्त करने, साँसारिक तापों से छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय यही है कि मनुष्य भिन्न भिन्न कामनाओं का मोह त्यागकर सच्चे हृदय से परमात्मा का आश्रय ले और शुद्ध भाव से उसकी स्तुति और प्रार्थना करें। हमें स्मरण रखना चाहिए कि सब प्रकार की कामनाओं को वास्तव में पूरा करने वाला भगवान ही हैं। इसलिए अगर हम उसकी पूजा करके आत्मिक शाँति प्राप्त कर लेंगे तो हमारी अन्य उचित कामनायें और आवश्यकतायें अपने आप पूरी हो जायेंगी।

कितने ही मनुष्य इस विवेचना से यह निष्कर्ष निकालेंगे कि परमात्मा के ध्यान में लीन होने से मनुष्य की कामनायें शाँत हो जायेंगी, उसमें संसार के प्रति विरक्तता के भाव का उदय हो जायेगा। इस प्रकार वह आत्मा संतोष का भाव प्राप्त कर लेगा। इस विचार में कुछ सच्चाई होने पर भी यह ख्याल करना कि परमात्मा की उपासना का साँसारिक कामनाओं से कोई संबंध नहीं, ठीक नहीं है। वेद में कहा गया हैं कि

“अपमिव प्रवणो यस्य “ दुँर्धरं राधो विश्वायु शवसे अपावतम्। “

भगवान का धन कभी न रुकने वाला है। वह उसके उपासकों को इस प्रकार प्राप्त होता है जिस प्रकार नीचे की ओर बहता हुआ जल। वस्तुमान समय में भी अनेकों ऐसे व्यक्ति हो चुके हैं जो बहुत साधारण विद्या बुद्धि के होते हुए भी परमात्मा के भरोसे सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं और जो अपने और दूसरों के बड़े बड़े कार्यों को सहज ही पूरा कर देते हैं। हम अपने प्राचीन ग्रंथों में संतों, तपस्वियों ओर भक्तों के जिन चमत्कारों का वर्णन पढ़ते हैं उनसे तो यह बात स्पष्ट दिखलायी पड़ती है। कि ईश्वर की सच्चे हृदय से उपासना करने वालों को किसी साँसारिक संपदा का अभाव नहीं रहता।

मंत्र में यह भी कहा है कि परमात्मा के उपासक को उसके तेज के भी दर्शन होते हैं। विचार किया जाये तो वास्तव में यही उपासना के सत्य होने की कसौटी है। जो कोई भी एकाग्र चित्त से और तल्लीन होकर परमात्मा का ध्यान करेगा उसे कुछ समय उपराँत उसके तेज का अनुभव होना अवश्यम्भावी है। यह तेज ही साधक अंतर को प्रकाशित करके उसकी भ्रान्तियों को दूर कर देता है और उसे जीवन के सच्चे मार्ग को दिखलाता है। इसी प्रकार मनुष्य सच्चे ज्ञान का अधिकारी बनता है और सब प्रकार की भव बाधाओं को सहज में पार करने की सामर्थ्य प्राप्त करता हैं॥

📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1993 पृष्ठ 2

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1993/August/v1.2



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👉 उपासना में आत्मशोधन की अनिवार्यता

उपासना का अर्थ है- पास बैठना। भगवान को अपने पास बिठाना या स्वयं भगवान के पास बैठना। दोनों ही स्थितियों में इसकी पात्रता आवश्यक है। राजा को अपने घर बुलाकर उसे देर तक पास बिठाये रहना या स्वयं राज महल में जाकर उनके समीप रहना एवं देर तक वार्तालाप करना, यह हर किसी के लिए सम्भव नहीं। इसके लिए पात्रता चाहिए। दीन-हीन, मलीन या रोग ग्रसित व्यक्तियों को यह सुविधा नहीं मिल सकती। उसके लिए पूर्व तैयारी करनी पड़ती है। श्रीमद् भागवत् में भगवान की समीपता प्राप्त करने के लिए चार तैयारियाँ करने की बात लिखी हैं।

(1) सात्विक सीमित आहार। जिससे पेट तनकर भारा रखने के कारण आलस्य प्रमाद न सताये। दूसरे अन्न के अनुरूप मन बने और भगवान में रुचिपूर्वक लग सके। अभक्ष्य, अनीति उपार्जित धान्य खाने से मन उद्विग्न एवं चंचल बनता है और भगवत् प्रसंग से हटकर बार बार दूर भागता है।

(2) वाक् संयम। कटु वचन, मिथ्या भाषण, असत्य मखौल जैसे भ्रष्ट वचन न बोलकर वाणी को इस योग्य बना लेना जिससे किया हुआ नाम स्मरण सार्थक हो सके।

(3) इन्द्रिय निग्रह- चटोरापन, कामुकता, मनोरंजक दृश्य देखने की चंचलता, संगीत आदि आकर्षणों की ओर दौड़ पड़ना जैसे चित्त को चंचल बनाने वाले उपक्रमों से दूर रहना। उन आकर्षणों के लिए उमंगें उठती हों तो उन्हें रोकना।

(4) स्वाध्याय और सत्संग का सुयोग बनाते रहना जिससे भगवद् भक्ति में श्रद्धा विश्वास बढ़े। जमे हुए संचित कुसंस्कारों के उन्मूलन का क्रम चलता रहे। उनके आधार पर ही लोभ मोह का दुष्परिणाम विदित होते हैं। उच्चस्तरीय चिन्तन मनन से ही मन की भ्रष्टता का निराकरण होता है।

माता पिता के निकट जाना या उनकी गोदी में बैठना किसी बच्चे के लिए कठिन नहीं होना चाहिए। यह सरल है और स्वाभाविक भी। भगवान के साथ मनुष्य का घनिष्टतम सम्बन्ध है। आत्मा परमात्मा से ही उत्पन्न हुई है। उसके साथ सम्बन्ध बनाये रहने से कोई मनुहार करने या अनुदान देने की आवश्यकता नहीं है। अनुनय विनय तो परायों से करनी पड़ती है। भेंट पूजा तो उनकी जेब में डालनी पड़ती है जिनसे कोई अनुचित प्रयोजन सिद्ध करना है।

बालक की जितनी उत्कण्ठा अभिभावकों की गोदी में चढ़ने की होती है उसकी तुलना में माता-पिता भी कम उत्सुक आतुर नहीं होते। पर इस प्रयोजन की पूर्ति में एक ही व्यवधान अड़ जाता है- बालक का शरीर गन्दगी से सना होना। मल मूत्र से बच्चे ने अपना शरीर गन्दा कर लिया हो और गोदी में चढ़ने का आग्रह कर रहा हो तो माता मन को कठोर करके उसे रोकती है, पहले स्नान कराती, पोछती और सुखाती है। उसके उपरान्त ही छाती से लगाकर दुलार करती और दूध पिलाती है। उसे अपना शरीर गन्दा और दुर्गन्धित होने का भय जो रहता है। विलम्ब का व्यवधान उसी कारण अड़ता है। यह विलम्ब बच्चे के हित में भी है और माता के हित में भी।

भगवद् भक्त कहलाने के लिए साधक को इस योग्य बनाना पड़ता है जिससे पास बिठाने वाले की भी निन्दा न हो। जिन अधम और अनाचारियों को भगवत् अनुग्रह प्राप्त हुआ है उन सभी को अपने दुर्गुणों का परिशोधन करना पड़ता है। इसके बिना अब तक किसी को भी उपासना का आनन्द नहीं मिला। परिशोधन भक्त की अनिवार्य कसौटी है। उसका श्रेय चाहे भक्त स्वयं ले ले या भगवान को दे दे। पर है इस प्रक्रिया की हर हालत में अनिवार्यता। मनुष्य एक ओर तो अनाचाररत रहे और दूसरी और उथले कर्मकाण्डों के बल पर ईश्वरीय अनुकम्पा का आनन्द लेना चाहे तो उसे अब तक की परम्परा और शास्त्र मर्यादा के सर्वथा प्रतिकूल ही समझना चाहिए। श्रीमद् भागवत् में इसी तथ्य को उपासना प्रेमियों के सम्मुख उद्घाटित किया है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1985 पृष्ठ 26

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👉 मित्रता और उसका निर्वाह

मित्र को जाने दो। उसकी विदाई पर शोक प्रकट न करो और नहीं सुखद यात्रा को अपने आँसुओं से दुःखद बनाओ। जिसके कारण तुम उसे प्रेम करते थे, वे कुछ विशेष गुण ही थे, कारण दूसरों को तुलना में वह अधिक भाया और सुहाया था। उन गुणों को अधिक अच्छी तरह समझने का अवसर तो वियोग के उपरान्त ही लगेगा। पर्वतारोही की अपेक्षा हिमाच्छादित गिरिशृंखला का दर्शन लाभ वे अधिक अच्छी तरह ले सकते हैं जो किसी दूरवर्ती समतल क्षेत्र में खड़े होकर उस सौंदर्य को निहारते हैं। समीपवर्ती मित्र की अपेक्षा दूरवर्ती अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि एकरस और एकाँगी प्रेम करना केवल उसी से प्रभाव से सम्भव है। निकटवर्ती तो निरन्तर उतार-चढ़ाव उत्पन्न करता रहता है।

मैत्री मधुरता का उल्लास भरती है, रिक्तता की पूर्ति के लिए उसका उपयोग नहीं हो सकता। रिक्तता भरने के लिए जिनकी अपेक्षा की जाती है वे भोग्य उपकरण है। उनकी आवश्यकता हो सकती है, पर मैत्री नहीं निभ सकती। मित्रता का आनन्द बन सकती। गुणों का स्पर्श आवश्यक नहीं उसके चिन्तन से भी काम चल सकता है। मित्र की उपस्थिति की अपेक्षा मैत्री की उपस्थिति कितनी अधिक सरस होती है, इसे कोई प्रेमी ही जानता है।

ईश्वर से प्रेम करना इसीलिए संभव है कि वह हम से दूर एवं अप्रत्यक्ष है। यदि वह शरीरधारी की तरह हमारे साथ रहता है उसके साथ मैत्री नहीं हो पाती। उसकी अपेक्षा के अनुरूप हमारे आचरण और हमारी अपेक्षा के अनुरूप उसके आचरण बने रहना कठिन पड़ता, ऐसी दशा में किसी न किसी पक्ष का उभरता असन्तोष मैत्री के आनन्द में गांठें लगाता रहता। यह अच्छा ही है कि ईश्वर हमसे दूर है और उसके गुणों का चिन्तन करते हुए निर्वाध मैत्री सम्बन्ध बनाये रह सकना सम्भव हो सका।

मैत्री अदृश्य है और व्यवहार दृश्य। मैत्री गुणों पर निर्भर है और व्यवहार उपयोगिता पर। कौन हमारे लिए कितना उपयोगी हो सकता है ? कौन हमारी कितनी आवश्यकताएं पूर्ण कर सकता है, इस आधार पर जिससे भी मित्रता होगी वह उतनी ही उथली रहेगी और उतनी ही क्षणिक अस्थिर रहेगी। यदि किसी ने आजीवन मैत्री निबाहनी हो ता उसका एक ही उपाय है-मित्र की गुण परक विशेषताओं को ध्यान में रखें और सोंचे कि यह सद्गुण परमेश्वर के-परम ज्योति के वे स्फुल्लिंग है जो कभी भी बुझ नहीं सकते। जिनमें मलीनता नहीं आ सकती, उनमें न कभी शिथिलता आवेगी और न न्यूनता दृष्टिगोचर होगी।

न माता में, न स्त्री में, न सगे भाई में और न पुत्र में ऐसा विश्वास होता है कि जैसा स्वाभाविक मित्र में होता है।

मित्रता विशुद्ध आध्यात्मिक अनुभूति है जो किसी में उच्च गुणों की स्थापना के आधार पर उदय होती है। जिसे निकृष्ट समझा जायगा, उसकी कारणवश चापलूसी हो सकती है, पर श्रद्धाजन्य मैत्री का उदय नहीं हो सकता। श्रद्धा और मैत्री उत्कृष्टता के देवता की दो भुजाएं हैं। यदि हम किसी से मैत्री करने से पूर्व इस तत्व को समझ लें कि अमुक सद्गुणों के आधार पर व्यक्ति विशेष से प्रेम करना है तो समझना चाहिए कि कि उसके बदल जाने या दूर चले जाने से भी उस शाश्वत अमृत प्रवाह में कोई अन्तर नहीं आवेगा, जो यथार्थ मित्रता के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहता है।

इसलिए तत्वदर्शी कहते हैं कि जाने वालों को जाने दो। उन्हें रोको मत। क्योंकि इससे मित्रता के निर्वाह में कोई अन्तर आने वाला नहीं हैं।

✍🏻 पूज्य पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1975

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👉 व्यक्तित्व को विकसित कीजिए

मित्रो ! आप अपने व्यक्तित्व को विकसित कीजिए ताकि आप निहाल हो सकें। दैवी कृपा मात्र इसी आधार पर मिल सकती है और इसके लिए माध्यम है श्रद्धा। श्रद्धा मिट्टी से गुरु बना लेती है। पत्थर से देवता बना देती है। एकलव्य के द्रोणाचार्य मिट्टी की मूर्ति के रूप में उसे तीरंदाजी सिखाते थे। रामकृष्ण की काली भक्त के हाथों भोजन करती थी। उसी काली के समक्ष जाते ही विवेकानंद नौकरी-पैसा भूलकर शक्ति-भक्ति माँगने लगे थे।

आप चाहे मूर्ति किसी से भी खरीद लें। मूर्ति बनाने वाला खुद अभी तक गरीब है। पर मूर्ति में प्राण श्रद्धा से आते हैं। हम देवता का अपमान नहीं कर रहे। हमने खुद पाँच गायत्री माताओं की मूर्ति स्थापित की हैं, पर पत्थर में से हमने भगवान पैदा किया है श्रद्धा से। मीरा का गिरधर गोपाल चमत्कारी था। विषधर सर्पों की माला, जहर का प्याला उसी ने पी लिया व भक्त को बचा लिया। मूर्ति में चमत्कार आदमी की श्रद्धा से आता है। श्रद्धा ही आदमी के अंदर से भगवान पैदा करती है। श्रद्धा का आरोपण करने के लिए ही यह गुरुपूर्णिमा का त्यौहार है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 आस्तिकता की कसौटी

सन्त प्रवर महात्मा तुलसीदास की अनुभूति है-
उमा जे रामचरन रत बिगत काम मद क्रोध। निल प्रभुमय देखहिं जगत कासन करहिं विरोध॥

जो भगवान को मानते हैं, उन पर श्रद्धा करते हैं, उनके अस्तित्व में विश्वास रखते हैं उनके न काम होता है, न मद् होता है और न क्रोध। वे संसार के अणु-अणु में प्रभु का दर्शन करते हैं तब उनका विरोध किसके साथ हो? तुलसीदास जी की आस्तिकता की इस परिभाषा पर किन किन आस्तिकों को आज परखा जा सकता है?

धर्म के नाम पर बड़े बड़े आडंबर करने वालों की आज कमी नहीं है, लेकिन उनके जीवन में प्रभु के दर्शन नहीं होते। ऐसा मालूम होता है जैसे जीवन के अन्य व्यापारों की तरह धर्म का भी वे एक व्यापार कर लेते हैं और सबसे अधिक उसकी कोई कीमत नहीं है।

भगवान पर मेरा विश्वास है ऐसे कहने वाले भी मिलते हैं लेकिन ये शब्द मुँह से निकलते हैं या हृदय से इसका निर्णय करना कठिन है। उनका व्यवहार रागद्वेष पूर्ण देखा जाता है और स्वयं भी उन्हें अपने विश्वास शब्द का विश्वास नहीं होता। प्रभु आज उपेक्षणीय हो गये हैं लेकिन तब भी हम आस्तिक हैं इसे बड़े जोर से चिल्लाकर कहते लोग पाये जाते हैं।

जिसके हृदय में प्रभु का निवास है और जो उसका दर्शन करता है उसका जीवन प्रभुमय होता है। उसके जीवन में समत्व होता है। वह संसार को प्रभु का विग्रह केवल मानता ही नहीं, अनुभव भी करता है। प्रभु उसके आचार में, प्रभु उसके जीवन में समा जाते हैं। वह व्यक्ति प्रभु की अर्चना के लिये किसी समय को अपने कार्यक्रम में अलग नहीं रखता। उसके जीवन का कार्यक्रम ही प्रभुमय होता है। उसका खाना पीना सोना जागना चलना फिरना तथा जगत के समस्त व्यवहारों में प्रभु समाये रहते हैं। ऐसे आस्तिक के लिए सम्प्रदायों के अलग नाम नहीं हैं, उसके लिए प्रत्येक घर प्रभु का मन्दिर है। और प्रत्येक शरीर प्रभु का विग्रह वहाँ भेदभाव की गुँजाइश ही नहीं रहती । वह संसार में भगवान की नित्य लीला का रसास्वादन करना है और स्वयं को भी भगवान की लीला का एक पात्र मात्र समझना है।

आस्तिक की न अपनी कोई कामना होती है, न माँग। वह न किसी से ऊंचा होता है न नीचा, न बड़ा न छोटा, न पवित्र न अपवित्र। उसको किसी प्रकार का अभाव नहीं सताता ।

आज की दुनिया रागद्वेष से पूर्ण है। ऊंच नीच के भावों से भरी हुई है। यद्यपि मन्दिर मस्जिद और गिरजाघरों की संख्या बराबर बढ़ रही है लेकिन आस्तिकता की सब ओर उपेक्षा की जा रही है। हम कहने को तो आस्तिक बनते हैं लेकिन हृदय में उसके लिए कोई स्थान नहीं है। इस तरह हमारा जीवन आत्म प्रवञ्चना से भरा हुआ है। हम अपने आपको धोखा दे रहे हैं या अपनी समझ को लेकर हम धोखा खा रहें हैं धोखे का यह जीवन आस्तिक जीवन नहीं है इसे भी समझने वालो की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ रही है।

भारत के जीवन में जब जब आस्तिकता का जमाना रहा है, वह हमेशा खुशहाल रहा है लेकिन जैसे जैसे उसकी उपेक्षा की जाती रही है उसकी खुशहाली हटती गई है। आज कलह और क्लेशों से भरा हुआ भारत हम सब की आस्तिकता का डिमडिम घोष कर रहा है और फिर भी हम अपने आपको आस्तिक समझे बैठे हैं।

आस्तिकता अनन्त शान्ति की जननी है। जहाँ आस्तिकता होगी वहाँ अशांति का कोई चिन्ह दृष्टि गोचर नहीं होना चाहिए। ईश्वर का सच्चा विश्वासी पवित्र अन्तःकरण का होता है तदनुसार उसके व्यवहार तथा कर्म परिपाक भी सुमधुर ही होते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति-1950 अप्रैल पृष्ठ 10


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👉 विचारों की शक्ति

मित्रो ! मिट्टी के खिलौने जितनी आसानी से मिल जाते हैं, उतनी आसानी से सोना नहीं मिलता। पापों की ओर आसानी से मन चला जाता है, किंतु पुण्य कर्मों की ओर प्रवृत्त करने में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पानी की धारा नीचे पथ पर कितनी तेजी से अग्रसर होती है, किंतु अगर ऊँचे स्थान पर चढ़ाना हो, तो पंप आदि लगाने का प्रयत्न किया जाता है।

बुरे विचार, तामसी संकल्प ऐसे पदार्थ हैं, जो बड़ा मनोरंजन करते हुए मन में धँस जाते हैं और साथ ही अपनी मारक शक्ति को भी ले जाते हैं। स्वार्थमयी नीच भावनाओं को वैज्ञानिक विश्लेषण करके जाना गया है कि वे काले रंग की छुरियों के समान तीक्ष्ण एवं तेजाब की तरह दाहक होती हैं। उन्हें जहाँ थोड़ा-सा भी स्थान मिला कि अपने सदृश और भी बहुत-सी सामग्री खींच लेती हैं। विचारों में भी पृथ्वी आदि तत्त्वों की भाँति खिंचने और खींचने की शक्ति होती है। तदनुसार अपनी भावना को पुष्ट करने वाले उसी जाति के विचार उड़-उड़ कर वहीं एकत्रित होने लगते हैं।

यही बात भले विचारों के संबंध में है। वे भी अपने सजातियों को अपने साथ इकट्ठे करके बहुकुटुंबी बनने में पीछे नहीं रहते। जिन्होंने बहुत समय तक बुरे विचारों को अपने मन में स्थान दिया है, उन्हें चिंता, भय और निराशा का शिकार होना ही पड़ेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदले

मित्रों ! अपने को दीन- हीन, दयनीय, दरिद्र, अनगढ़, अभागा, बाधित समझने वालों को वस्तुतः यही अनुभव होता है कि वे दुरूह परिस्थितियों से जकड़े हुए हैं, किन्तु जिनकी मान्यता यह है कि उनमें उठने और महानता की मञ्जिल तक जा पहुँचने की शक्ति है, वे प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदल सकने में भी समर्थ होते हैं। उठने में सहायता करने का श्रेय किसी को भी दिया जा सकता है और गिरने में गिराने का दोषारोपण भी किसी पर भी किया जा सकता है, पर वस्तुस्थिति ऐसी है कि यदि अपने ही व्यक्तित्व और कर्तृत्व को ऊँचा उठाने और गिराने के लिए उत्तरदायी ठहराया जाए, तो यह मान्यता सबसे अधिक सही होगा।

गई- गुजरी स्थिति पर आँसू बहाए जा सकें, तो अनुचित नहीं, उनकी सहायता करना भी मानवोचित कर्तव्य है, पर यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि जब तक तथाकथित असहाय कहाने वालों का मनोबल न उठाया जाएगा, उनमें पुरुषार्थपूर्वक आगे बढ़ने का संकल्प न उभारा जाएगा,तब तक ऊपर से थोपी गई सहायता कोई चिरस्थाई परिणाम उत्पन्न न कर सकेगी। उत्कण्ठा का चुम्बकत्व अपने आप में इतना शक्तिशाली है कि उसके सहारे निश्चित रूप से प्रगति का पथ- प्रशस्त किया जा सकता है। इस उक्ति को भी ध्यान में रखे ही रहना चाहिए कि ‘‘ईश्वर मात्र उन्ही की सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं।’’ दीन- दुर्बलों को तो प्रकृति भी अपनी मौत अपने आन मरने के लिए उपेक्षापूर्वक छोड़ती और मुँह मोड़कर अपनी राह चल पड़ती देखी गई है। शास्त्रकारों और आप्तजनों ने इस तथ्य का पग- पग पर प्रतिपादन किया है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र- पेज 05

👉 अपना दृष्टिकोण बदलो

मित्रो ! सत्य! सत्य!! सत्य!!! अहा, कितना सुन्दर शब्द है। उच्चारण करते ही जिव्ह्य को शांति मिलती है, विचार करते ही मस्तिष्क शीतल हो जाता है, हृदयंगम करने से कलेजा ठंडक अनुभव करता है। झूठ के मायावी प्रपंचों में उलझ कर ईश्वर का राजकुमार-मनुष्य मानवता से पतित होकर पशु बन गया है। सत्य की अवहेलना करने का अभिशाप वह भुगत रहा है।
    
ईश्वर सत्य है, आत्मा सत्य है, प्रभु की त्रिगुणमयी लीला सत्य है, सर्वत्र सत्य ही सत्य व्याप्त हो रहा है। जीवन के कण-कण की एक ही प्यास है-'सत्य'। हमारा जीवन इसलिए है कि अखिल सत्य तत्त्व में विचरण करते हुए अमृत का पान करें। प्रभु ने कृपा करके हमें अपने संसार की सत्यरूपी वाटिका में भ्रमण करके आनंद लाभ करने के लिए भेजा है। परन्तु हाय, हम तो अपने को बिलकुल ही भूले जा रहे हैं। वास्तव में दुनियाँ कुछ नहीं है। अपनी छाया ही संसार के दपर्ण में प्रतिबिंबित हो रही है।

'सत्य' मनुष्यों को प्रेरणा देता है कि अंतर में दृष्टि डालो, अपना दृष्टिकोण बदलो, अपना और दुनियाँ का स्वरूप समझो, अपने को अच्छा बना डालो, बस सारी दुनियाँ तुम्हारे लिए अच्छी बन जाएगी। तुम सत्यनिष्ठ बनो, दुनियाँ तुम्हारे साथ सत्य का आचरण करेगी। श्रुति कहती 'असतो मा सद्गमय' असत्य की ओर नहीं, सत्य की ओर गमन कीजिए। आपका इसी में कल्याण है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य


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👉 नैष्ठिक प्रतिभाओं की प्रतीक्षा

अनुकरण की प्रवृत्ति मनुष्य स्वभाव का महत्त्वपूर्ण अंग बनकर रहती है। हम जैसा देखते हैं, वैसा करते हैं। बच्चा अभिभावकों को, साथियों को जिस शब्दावली का, भाषा का प्रयोग करते सुनता है, उसी को बोलने और समझने लगता है। चरित्र और स्वभाव के संबंध में भी साथियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। वातावरण का प्रभाव पडऩा एक तथ्य है। जिन लोगों के बीच, जिन परिस्थितियों के बीच रहना पड़ता है, वैसी ही आदतें बन जाती हैं। रुचि विचित्रता, आदतों की भिन्नता और प्रकृति की पृथकता न तो जन्मजात होती है और न अनायास उत्पन्न होती है, इसके निर्माण में समीपवर्ती व्यक्तियों और परिस्थितियों का भारी हाथ रहता है।
  
अनाचार समर्थक-अभिरुचि बढ़ जाने से वातावरण में अपराधी प्रवृत्तियों का प्रवाह उत्पन्न होता है। सामान्य मन:स्थिति के लोग उसी की धारा में बहने लगते हैं। हवा के रुख की ओर पत्ते उड़ते हैं। बहुत लोग जो कुछ करते हैं, उसी का अनुकरण करने की, उसी दिशा में चलने की लोकप्रवृत्ति उभरती है।
  
जन-प्रवाह को अवांछनीयता से विरत रहने के लिए उसी प्रकार का वातावरण बनाना आवश्यक है, जिसमें सामान्य लोगों के चल पडऩे की प्रेरणा मिल सके। यह कार्य प्रखर एवं मनस्वी व्यक्तियों के आगे आने से ही संभव होता है। हवा का रुख वे ही बनाते हैं, प्रवाहों को वे ही मोड़ते हैं। वातावरण बनाने का बहुत कुछ श्रेय उन्हीं का होता है।
  
विचार और क्रिया को जिन्होंने मिलाकर अपनी आस्था का परिचय दिया है, वे कुमार्गगामी होते हुए भी प्रतिभावान्ï होते हैं और अपने सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। एक वेश्या अनेकों को व्यभिचार सिखा देती है। नशेबाज, चोर, जुआरी आदि कुमार्गगामी अपनी बुरी लतें अधिकांश  को सिखा देते हैं, जो उनके सम्पर्क में आते हैं। विचार यदि कर्म में उतर सकने जैसा प्रौढ़ हो तो उनसे प्रतिभा उभरती है और उसका प्रभाव पड़ता है।
  
सन्मार्गगामी प्रतिभाएँ अपने समाज एवं समय को प्रभावित कर सकने में पूरी तरह सफल रही हैं। गाँधीजी ने अपने प्रभाव से ऐसा वातावरण बनाया था, जिसने असंख्य लोगों को सत्याग्रही सैनिकों के रूप में कष्टïसाध्य त्याग, बलिदान करने के लिए अग्रिम पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया। भगवान्ï बुद्ध की प्रेरणा से लाखों भिक्षु और भिक्षुणी अपनी सुख-सुविधाओं को छोडक़र जन-प्रवाह बदलने के लिए कर्म-क्षेत्र में उतरे थे। लेनिन के अनुयायी साम्यवादी आन्दोलन को समर्थ बनाने में सफल हुए थे। शिवाजी, प्रताप, गुरुगोविन्द सिंह आदि के ऐसे अगणित प्रमाण इतिहास के पृष्ठïों पर भरे पड़े हैं, जिनमें प्रतिभाशाली व्यक्तियों ने अपने प्रभाव से युगांतरकारी वातावरण बनाया और उस प्रवाह से बचने के लिए असंख्यों को प्रोत्साहित किया।
  
समय की पुकार जिस परिवर्तन की है, उसके अनुरूप लोकमानस तैयार किया जाना चाहिए। इसके लिए अग्रिम पंक्ति में उन योद्धाओं को आना पड़ेगा, जो अपनी आस्थाओं को कार्यान्वित करते हुए सर्वसाधारण के सम्मुख अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर सकें।
  
त्याग और बलिदान की पुण्य-परंपरा अपनाये बिना यह महान्ï प्रयोजन और किसी भी प्रकार पूरा न हो सकेगा। इसका आरंभ दुर्बल मन:स्थिति के लोगों से नहीं कराया जा सकता। वे पीछे तो चल सकते हैं, पर अग्रिम पंक्ति में खड़े होने का साहसिक शुभारंभ कर सकने में समर्थ नहीं हो सकते। युगपरिवर्तन का शुभारंभ तो त्याग और बलिदान के भावभरे आदर्श प्रस्तुत कर सकने वाले अग्रगामी साहसी शूरवीरों द्वारा ही संभव होगा। युग की माँग और पुकार उन्हीं के उभरने, उठने की प्रतीक्षा कर रही है।

👉 न तो हिम्मत हारे ओर न हार स्वीकार करें (अन्तिम भाग)

परिस्थितियों की अनुकूलता और प्रतिकूलताओं से इनकार नहीं किया जा सकता। शारीरिक संकट उठ खड़ा हो कोई अप्रत्याशित रोग घेर ले यह असम्भव नहीं। परिवार के सरल क्रम में से कोई साथी बिछुड़ जाय और शोक संताप के आँसू बहाने पड़े यह भी कोई अनहोनी बात नहीं है। ऐसे दुर्दिन हर परिवार में आते हैं और हर व्यक्ति को कभी न कभी सहन करने पड़ते हैं। मन चाही सफलताएँ किसे मिली है। मनोकामनाओं को सदा पूरी करते रहने वाला कल्पवृक्ष किसके आँगन में उगा है? ऐसे तूफान आते ही रहते हैं जो संजोई हुई साध के घोंसले उड़ाकर कहीं से कहीं फेंक दे और एक-एक तिनका बीन कर बनाये गये उस घरौंदे का अस्तित्व ही आकाश में छितरा दें, ऐसे अवसर पर दुर्बल मनः स्थिति के लोग टूट जाते हैं।

नियति क्रम से हर वस्तु का-हर व्यक्ति का अवसान होता है। मनोरथ और प्रयास भी सर्वदा सफल कहाँ होते हैं। यह सब अपने ढंग से चलता रहे पर मनुष्य भीतर से टूटने न पाये इसी में उसका गौरव है। समुद्र तट पर जमी हुई चट्टानें चिरअतीत से अपने स्थान पर जमी अड़ी बैठी है। हिलोरों ने अपना टकराना बन्द नहीं किया सो ठीक है, पर यह भी कहाँ गलत है कि चट्टान ने हार नहीं मानी।

न हमें टूटना चाहिए और न हार माननी चाहिए। नियति की चुनौती स्वीकार करना और उससे दो-दो हाथ करना ही मानवी गौरव को स्थिर रख सकने वाला आचरण है।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- मार्च 1973 पृष्ठ 48


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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...