शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

👉 साधु की सीख

किसी गाँव मे एक साधु रहा करता था, वो जब भी नाचता तो बारिस होती थी। अतः गाव के लोगों को जब भी बारिस की जरूरत होती थी, तो वे लोग साधु के पास जाते और उनसे अनुरोध करते की वे नाचे, और जब वो नाचने लगता तो बारिस ज़रूर होती।

कुछ दिनों बाद चार लड़के शहर से गाँव में घूमने आये, जब उन्हें यह बात मालूम हुई की किसी साधू के नाचने से बारिस होती है तो उन्हें यकीन नहीं हुआ।

शहरी पढाई लिखाई के घमंड में उन्होंने गाँव वालों को चुनौती दे दी कि हम भी नाचेंगे तो बारिस होगी और अगर हमारे नाचने से नहीं हुई तो उस साधु के नाचने से भी नहीं होगी.फिर क्या था अगले दिन सुबह-सुबह ही गाँव वाले उन लड़कों को लेकर साधु की कुटिया पर पहुंचे।

साधु को सारी बात बताई गयी , फिर लड़कों ने नाचना शुरू किया , आधे घंटे बीते और पहला लड़का थक कर बैठ गया पर बादल नहीं दिखे, कुछ देर में दूसरे ने भी यही किया और एक घंटा बीतते-बीतते बाकी दोनों लड़के भी थक कर बैठ गए, पर बारिश नहीं हुई।

अब साधु की बारी थी, उसने नाचना शुरू किया, एक घंटा बीता, बारिश नहीं हुई, साधु नाचता रहा …दो घंटा बीता बारिश नहीं हुई…. पर साधु तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था, धीरे-धीरे शाम ढलने लगी कि तभी बादलों की गड़गडाहत सुनाई दी और ज़ोरों की बारिश होने लगी। लड़के दंग रह गए।
और तुरंत साधु से क्षमा मांगी और पूछा-

”बाबा भला ऐसा क्यों हुआ कि हमारे नाचने से बारिस नहीं हुई और आपके नाचने से हो गयी?”

साधु ने उत्तर दिया – ”जब मैं नाचता हूँ तो दो बातों का ध्यान रखता हूँ, पहली बात मैं ये सोचता हूँ कि अगर मैं नाचूँगा तो बारिस को होना ही पड़ेगा और दूसरी ये कि मैं तब तक नाचूँगा जब तक कि बारिस न हो जाये।”

सफलता पाने वालों में यही गुण विद्यमान होता है वो जिस चीज को करते हैं उसमे उन्हें सफल होने का पूरा यकीन होता है और वे तब तक उस चीज को करते है जब तक सफल नहीं हो जाते है।

👉 साधन और साध्य

गीताकार ने साधना क्रिया पर जोर देते हुए कहा है- ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।’  (गीता १८/४६) जो व्यक्ति सच्चाई के साथ अपना कार्य करता है, उसे ही सिद्धि मिलती है। कर्म साधना ही साध्य की अर्चना है।
  
साध्य कितना ही पवित्र, उत्कृष्ट, महान् क्यों न हो, यदि उस तक पहुँचने का साधन गलत है, दोषयुक्त है, तो साध्य की उपलब्धि भी असंभव है। उत्तम साध्य के लिए उत्तम साधनों का होना आवश्यक हे, अनिवार्य है। ठीक इसी तरह उत्कृष्ट साध्य-लक्ष्य का बोध न हो, तो उत्तम साधन भी हानिकारक सिद्ध हो जाते हैं।
  
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में  सबसे बड़ी भूल हमारी यह होती है कि हम साध्य तो उत्तम चुन लेते हैं, महान् उत्कृष्ट लक्ष्य भी निर्धारित कर लेते हैं, लेकिन उसके अनुकूल साधनों के स्वरूप, उसकी उत्कृष्टता पर समुचित ध्यान नहीं देते। फलस्वरूप हमारे निज एवं सार्वजनिक सामाजिक जीवन में गतिरोध पैदा हो जाता है। हम अपने लक्ष्य को किसी भी तरह प्राप्त करने की कोशिश करते  हैं तथा कई बार हम भ्रम में भटक कर गलत साधनों का उपयोग कर बैठते हैं।  परिणामतः लक्ष्य के प्राप्त होने का जो संतोष एवं प्रसन्नता मिलनी चाहिए, उससे हम वंचित रह जाते हैं।
  
चाहे सामाजिक क्रांति हो या व्यक्तिगत साधना, लक्ष्य की प्राप्ति तभी संभव होगी, जब साधन और साध्य को जोड़कर मनुष्य साधन निष्ठ बनेगा।
  
उच्च पद, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए मनुष्य के सामने विस्तृत संसार पड़ा हुआ है, पुरुषार्थ और प्रयत्न के साथ मनुष्य कुछ भी प्राप्त कर सकता है। लेकिन वह इस राजमार्ग को न अपना कर दूसरों को  नुकसान पहुँचाता है, बढ़ते हुओं की टाँग खींचता है, व्यर्थ ही संघर्ष पैदा करता है अथवा किसी की खुशामद-मिन्नतें करता है। ये दोनों ही साधन गलत हैं। इसके लिए व्यक्तिगत प्रयत्न आवश्यक है। अपने पुरुषार्थ के बल पर मनुष्य क्या नहीं प्राप्त कर सकता है?
  
लोग चलते हैं, जन सेवा का लक्ष्य लेकर, लेकिन वे जनता से अपनी सेवा कराने लगते हैं। बहुत से ज्ञानी उपदेशक धर्म पर चलने के लिए बड़े लम्बे-चौड़े उपदेश देते हैं, लेकिन उनके स्वयं  के जीवन में अनेकों विकृतियाँ भरी पड़ी रहती हैं। देश सेवा के लिए, राष्ट्र को उन्नति और विकास की ओर अग्रसर करने के लिए लोग राजनीति में आते हैं, लेकिन अफसोस होता है जब वे पार्टीबाजी, सत्ता हथियाने के लिए, गुटबंदी के लिए परस्पर लड़ते-झगड़ते हैं, कूटनीति का गंदा खेल खेलते हैं, अपने घर भरते हैं, जनता की आँखों में धूल झोंकते हैं।
  
साधनों में इस तरह की भ्रष्टता व्यक्ति और समाज दोनों के लिए अहितकर सिद्ध होती है। इससे किसी का भी भला नहीं होता, सिद्धि उनसे बहुत दूर हट जाती है। जिस तरह साधनों की पवित्रता आवश्यक है, उसी तरह साध्य की उत्कृष्टता भी आवश्यक है। साध्य निकृष्ट हो और उसमें अच्छे साधनों को भी लगा दिया जाय, तो कोई हितकर परिणाम प्राप्त नहीं होगा। उलटे उससे व्यक्ति और समाज की हानि ही होगी। उत्कृष्ट साधन भी निकृष्ट लक्ष्य की पूर्ति के आधार बन कर समाज में बुराइयाँ पैदा करने लगते हैं। अतः जिनके पास साधन हैं, माध्यम हैं उन्हें आवश्यकता है उत्कृष्ट लक्ष्य के निर्धारण की।
  
सफलता प्राप्ति के लिए उत्कृष्ट लक्ष्य का चयन एवं उसके अनुकूल ही उत्कृष्ट साधनों का समुचित उपयोग आवश्यक होता है। साध्य और साधन की एकरूपता ही सफलता की आधारशिला होती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग २९)

नींद, जब आप होते हैं—केवल आप

ये स्वर हैं उन महासाधकों के, जो निद्रा को अपनी साधना बनाने के लिए साहस पूर्ण कदम बढ़ाते हैं। वे जड़ता पूर्ण तमस् और वासनाओं के रजस् को शुद्ध सत्त्व में रूपान्तरित करते हैं। और निद्रा को आलस्य और विलास की शक्ति के रूप में नहीं, जगन्माता भगवती आदि शक्ति के रूप में अपना प्रणाम निवेदित करते हुए कहते हैं-
             या देवी सर्वभूतेषु निद्रा रूपेण संस्थिता।
             नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
                देवी सप्तसती ५/२३-२५
    जो महा देवी सब प्राणियों में निद्रा रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार उनको बारम्बार नमस्कार है।
    महायोगी आचार्य शंकर अपने अप्रतिम साधना ग्रन्थ योगतारावली में  इसकी समूची साधना विधि को बड़े ही संक्षेप में वर्णित करते हैं-
           विच्छिन्न संकल्प विकल्प मूले
                            निःशेष निर्मूलित कर्मजाले।
          निरन्तराभ्यासनितान्तभद्रा सा
                           जृम्भ्रते योगिनी योग निद्रा॥
          विश्रांतिमासाद्य तुरीय तल्पे
                            विश्वाद्यावस्था त्रितयोपरिस्थे।
         संविन्मयीं कामपि सर्वकालं
                           निद्रां भज निर्विश निर्विकल्पम्॥
                                       -योगतारावली २५-२६
निरन्तर अभ्यास के फल स्वरूप मन के संकल्प-विकल्प शून्य तथा कर्मबन्धन के क्षय हो जाने पर योगी जनों में योग निद्रा का आविर्भाव होता है।
  
त्रिकालातीत विश्व की आद्यावस्था तुरीयवस्था में सर्वकालबादिनी संवित्-स्वरूपिणी निद्रा प्रकाशित होती है, जहाँ योगी विश्रान्ति प्राप्त कर विचरण करते हैं। अतः निर्विकल्प स्वरूपिणी उसी निद्रा की आराधना करो।
  
यह आराधना कैसे हो? इस सवाल के जवाब में परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि सोना भी एक कला है। सोते तो प्रायः सभी मनुष्य हैं, परन्तु सही कला बहुत कम लोगों को पता है। इसी वजह से वे सही ढंग से आराम भी नहीं कर पाते। ज्यादातर लोग जिन्दगी  की चिंताओं और तनावों का बोझ लिए बिस्तर पर जाते हैं और अपनी परेशानियों की उधेड़बुन में लगे रहते हैं। बिस्तर पर पड़े हुए सोचते-सोचते थक जाते हैं और अर्द्धचेतन अवस्था में सो जाते हैं। इसी वजह से वे सही ढंग से आराम भी नहीं कर पाते। उन्हें खुद भी पता नहीं लगता कि हम सोच रहे हैं या सोने जा रहे हैं। इसी वजह से नींद में मानसिक उलझनें, विभिन्न दृश्यों तथा रूपों में स्वप्न बनकर उभरती है। इस तरह भले ही शरीर कुछ भी नहीं करता हो, फिर भी मानसिक तनावों के कारण शारीरिक थकान दूर नहीं हो पाती। इस स्थिति से उबरने के लिए जरूरी है कि जब हम सोने के लिए बिस्तर में जायें, तो हमारी शारीरिक एवं मानसिक दशा वैसी ही हो, जैसी कि उपासना के आसन पर बैठते समय होती है। यानि कि हाथ-पाँव धोकर पवित्र भावदशा में बिछौने पर लेटे। आराम से लेटकर गायत्री महामंत्र का मन ही मन उच्चारण करते हुए कम से कम दस बार गहरी श्वाँस लें। फिर मन ही मन अपने गुरु अथवा ईष्ट की छवि को सम्पूर्ण प्रगाढ़ता से चिंतन करें। अपने मन को धीरे-धीरे, किन्तु सम्पूर्ण संकल्प के साथ सद्गुरुदेव अथवा ईष्ट की छवि से भर दें। साथ ही भाव यह रहे कि अपनी सम्पूर्ण चेतना, प्रत्येक वृत्ति गुरुदेव में विलीन हो रही है। यहाँ तक कि समूचा अस्तित्व गुरुदेव में खो रहा है। सोचते समय मन को भटकने न दे। मन जब जहाँ जिधर भटके, उसे सद्गुरु की छवि पर ला टिकाएँ। इस तरह अभ्यास करते हुए सो जाएँ।
  
इस अभ्यास के परिणाम दो चरणों में प्रकट होंगे। इसमें से पहले चरण में आपके स्वप्न बदलेंगे। स्वप्नों के झरोखे से आपको गुरुवर की झाँकी मिलेगी। उनके संदेश आपके अन्तःकरण में उतरेंगे। इसके दूसरे चरण में योग निद्रा की स्थिति बनेगी। क्योंकि अभ्यास की जागरूक अवस्था में जब आप नींद में प्रवेश करेंगे, तो यह जागरूकता नींद में भी रहेगी। आप एक ऐसी निद्रा का अनुभव करेंगे, जिसमें शरीर तो पूरी तरह से विश्राम की अवस्था में होगा, पर मन पूरी तरह से जागरूक बना रहेगा। यही योग निद्रा है। जिसकी उच्चतर अनुभूति समाधि का सुख देती है। इस भावदशा की अनुभूति आप भी अभ्यास की प्रगाढ़ता में कर सकते हैं, बस जरा जाग तो जाएँ।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ५३
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...