सोमवार, 8 मार्च 2021

👉 शान्ति और सुव्यवस्था का आधार

आज के समय में मनुष्य के बाहर भीतर शांति तथा सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए आध्यात्मिक प्रयास ही सार्थक हो सकते हैं। श्रद्धा, भावना, तत्परता एवं गहराई इन्हीं में समाहित है। हर मानव का धर्म, सामान्य से ऊपर, वह कर्त्तव्य है, जिसे अपनाकर लौकिक-आत्मिक उत्कर्ष के मार्ग प्रशस्त हो जाते हैं। धर्म अर्थात् जिसे धारण करने से व्यक्ति एवं समाज का सर्वांगीण हित साधन होता है।
    
आस्तिकता और कर्त्तव्य परायणता को मानव जीवन का धर्म-कर्त्तव्य माना गया है। इनका प्रभाव सबसे पहले अपने समीपवर्ती स्वजन शरीर पर पड़ता है। इसलिए शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर, आत्मसंयम और नियमितता द्वारा उसकी सदैव रक्षा करनी चाहिए। शरीर की तरह मन को भी स्वच्छ रखना आवश्यक है। इसे कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाये रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखनी पड़ती है।
    
मन और शरीर के बाद व्यक्ति जिस समाज में रहता है, अपने आपको उसका एक अभिन्न अंग मानना चाहिए। सबके हित में अपना हित समझना सामाजिक न्याय का अकाट्य सिद्धान्त है। एक वर्ग के साथ अन्याय होगा, तो दूसरा वर्ग कभी भी शांतिपूर्ण जीवनयापन न कर सकेगा। इसलिए इस सिद्धान्त की कभी भी उपेक्षा हितकर नहीं। सुख केवल हमारी मान्यता और अभ्यास के अनुसार होता है, जबकि हित शाश्वत सिद्धान्तों से जुड़ा है।
    
संसार एक दर्पण के समान है। हम जैसे हैं, वैसी ही छाया दर्पण में दिखाई पड़ती है। सन्तों, सज्जनों का सम्मान होता है, तो दुर्जन, स्वार्थी, कुकर्मियों की घृणा तथा प्रताड़ना की जाती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर नागरिकता-नैतिकता, मानवता, सच्चरित्रता, सहिष्णुता-श्रमशीलता जैसे सद्गुणों को सच्ची सम्पत्ति समझकर इन्हें व्यक्तिगत जीवन में निरन्तर बढ़ाना जरूरी है। शास्त्रों में आत्मनिर्माण हेतु साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा यह चार साधन बताये गये हैं। ईश्वर उपासना को दैनिक जीवन में स्थान देना साधना है।
    
मनुष्य के पास सर्वोत्तम विशेषता उसकी बुद्धि की ही है। विचारों का सही एवं सुसंस्कृत बनना स्वाध्याय पर निर्भर है। शक्तियों एवं विभूतियों को निरर्थक, हानिकारक तथा कम महत्त्व के प्रसंगों से हटाकर उन्हें सार्थक हितकारी तथा  अधिक उपयोगी विषयों में ठीक प्रकार नियोजित करना ही संयम कहलाता है। मनुष्य का विकास कितना हुआ, इसका प्रमाण उसकी सेवावृत्ति से लगाया जा सकता है। अतः सेवा को अनिवार्य रूप से जीवन में स्थान देना चाहिए।
    
सामान्य स्थिति में व्यक्ति वातावरण से प्रभावित होता है, पर अन्तरंग श्रेष्ठता का विकास होने पर वह वातावरण को प्रभावित करने लगता है। उसके व्यक्तित्व में जादू जैसा प्रभाव आ जाता है। चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करने से सभ्य समाज की रचना होने लगती है।
    
लोगों की  दृष्टि में सफलता का ही मूल्य है। जो सफल हो गया उसी की प्रशंसा की जाती है। बल्कि अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करने वालों की ही सम्मान एवं प्रशंसा होनी चाहिए। मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, बल्कि उनके सद्विचारों और सत्कर्मों को माना जाय।
    
दूसरों के साथ वह व्यवहार नहीं करना चाहिए, जो हमें अपने लिए पसन्द नहीं। इस व्यवहार में ईमानदारी का स्थान सर्वोपरि है, अतः ईमानदारी और परिश्रम की कमाई ही ग्रहण करना उचित समझेंगे।
    
पुरुषार्थ एक नियम है और भाग्य उसका अपवाद। हमें यह जानना चाहिए कि ब्रह्माजी किसी का भाग्य नहीं लिखते, हर मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं आप है। इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनायेंगे, तो वर्तमान की अशांति और अव्यवस्था की स्थिति को शांति और सुव्यवस्था में बदला जा सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मैं नारी हूँ।


मैं नारी हूँ, मैं शक्ति हूँ ,मैं देवी हूँ, अवतारी हूँ मैं।
अबला कभी समझ मत लेना,ज्वाला हूँ,चिंगारी हूँ मैं ।।
 
कल्याणी, भवानी, सीता भी मैं,गायत्री गंगा गीता भी मैं।
माँ हूँ तो कन्या भी हूँ मैं, भगिनी,बहु,परिणीता भी मैं।।
मुझको डरना मत सिखलाना, मैं दुर्गा हूँ, काली हूँ मैं।
अबला कभी समझ मत लेना, ज्वाला हूँ,चिंगारी हूँ मैं।।
 
वसुंधरा सी सहिष्णुता और सागर की गहराई मुझमें।
सृष्टि चक्र की धुरी हूँ मैं, जीवन मूल समायी मुझमें।।
प्रलय के झंझावातों में भी, शीतलता हूँ,फुलवारी हूँ मैं।
अबला कभी समझ मत लेना, ज्वाला हूँ,चिंगारी हूँ मैं।।
 
मरू का निर्झर, शांत प्रखर,उन्मुक्त प्रवाह की सरिता हूँ मैं।
सबके हित जीती मैं औरत, सहचरी,श्रीमती,वनिता हूँ मैं।।
किसी का भी नहीं मैं दुश्मन, हर दुश्मन पर भारी हूँ मैं।
अबला कभी समझ मत लेना, ज्वाला हूँ,चिंगारी हूँ मैं।।
 
रण में हूँ मैं ,धन में  हूँ मैं, कला,कौशल,विधान में मैं हूँ।
अभिनय,खेल,विज्ञान में हूँ मैं,तकनीकी अभियान में मैं हूँ।।
सम्पूर्ण जगत की जननी मैं हूँ, स्त्री हूँ मैं,न्यारी हूँ मैं।
अबला कभी समझ मत लेना, ज्वाला हूँ,चिंगारी हूँ मैं।।
मैं नारी हूँ, मैं शक्ति हूँ ,मैं देवी हूँ, अवतारी हूँ मैं।।

उमेश यादव

👉 उठो नारियों आगे आओ

सभी नारी शक्तियों को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

उठो नारियों आगे आओ
संस्कृति के उत्थान के लिए, उठो नारियों आगे आओ।
राष्ट्र धर्म को जागृत करने,नए सृजन का शंख बजाओ।।

भूल रहें हैं नीति धर्म सब,व्यसनों में हम फंसे हुए हैं।
दान पुण्य से  दूर  हो रहे, पाप पंक में धंसे  हुए हैं।।
ममता,शुचिता,करुणामय हो,सब में प्रेम-भाव विकासाओ।
संस्कृति के उत्थान के लिए, उठो नारियों आगे आओ।।
 
संस्कारों से  दूर हो  रहे, मानवता को यूँ ही खो रहे।
जीर्ण-शीर्ण हो रही सभ्यता,भ्रम-रूढ़ियाँ अब भी ढो रहे।।
शक्ति हो,पहचानो खुद को,बढकर आगे शौर्य दिखाओ।
संस्कृति के उत्थान के लिए, उठो नारियों आगे आओ।।
 
महिला का अपमान हो रहा,कन्या का बलिदान हो रहा।
वनिता अब चीत्कार रही है,पशुता का सम्मान हो रहा।।
मातृ रूप में हे अम्बे तुम, स्नेह, प्यार, सहकार बढ़ाओ।
संस्कृति के उत्थान के लिए, उठो नारियों आगे आओ।।
 
जननी हो सम्पूर्ण जगत की,सब तेरे बालक बच्चे हैं।
इन्हें नीति सिखलाओ घर से,भटक गए तेरे बच्चे हैं।।
संस्कारों से इन्हें सुधारो,निर्दयी नहीं अब देव बनाओ।
संस्कृति के उत्थान के लिए, उठो नारियों आगे आओ।।

उमेश यादव

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...