मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

👉 मांस का मूल्य

मगध सम्राट् बिंन्दुसार ने एक बार अपनी राज्य-सभा में पूछा :- देश की खाद्य समस्या को सुलझाने के लिए सबसे सस्ती वस्तु क्या है...? मंत्री परिषद् तथा अन्य सदस्य सोचमें पड़ गये। चावल, गेहूं, ज्वार, बाजरा आद तो बहुत श्रम बाद मिलते हैं और वह भी तब, जब प्रकृति का प्रकोप न हो। ऐसी हालत में अन्न तो सस्ता हो नहीं सकता.. शिकार का शौक पालने वाले एक अधिकारी ने सोचा कि मांस ही ऐसी चीज है, जिसे बिना कुछ खर्च किये प्राप्त किया जा सकता है.....उसने मुस्कुराते हुऐ कहा :- राजन्... सबसे सस्ता खाद्य पदार्थ मांस है। इसे पाने में पैसा नहीं लगता और पौष्टिक वस्तु खाने को मिल जाती है।

सभी ने इस बात का समर्थन किया, लेकिन मगध का प्रधान मंत्री आचार्य चाणक्य चुप रहे। सम्राट ने उससे पुछा : आप चुप क्यों हो? आपका इस बारे में क्या मत है? चाणक्य ने कहा : यह कथन कि मांस सबसे सस्ता है...., एकदम गलत है, मैं अपने विचार आपके समक्ष कल रखूँगा....रात होने पर प्रधानमंत्री सीधे उस सामन्त के महल पर पहुंचे, जिसने सबसे पहले अपना प्रस्ताव रखा था।

चाणक्य ने द्वार खटखटाया....सामन्त ने द्वार खोला, इतनी रात गये प्रधानमंत्री को देखकर वह घबरा गया। उनका स्वागत करते हुए उसने आने का कारण पूछा? प्रधानमंत्री ने कहा :-संध्या को महाराज एकाएक बीमार हो गए है उनकी हालत नाजूक है राजवैद्य ने उपाय बताया है कि किसी बड़े आदमी के हृदय का दो तोला मांस मिल जाय तो राजा के प्राण बच सकते है....आप महाराज के विश्वास पात्र सामन्त है। इसलिए मैं आपके पास आपके हृदय का दो तोला मांस लेने आया हूँ। इसके लिए आप जो भी मूल्य लेना चाहे, ले सकते है। कहे तो लाख स्वर्ण मुद्राऐं दे सकता हूँ.....। यह सुनते ही सामान्त के चेहरे का रंग फिका पड़ गया। वह सोचने लगा कि जब जीवन ही नहीं रहेगा, तब लाख स्वर्ण मुद्राऐं किस काम की?

उसने प्रधानमंत्री के पैर पकड़ कर माफी चाही और अपनी तिजोरी से एक लाख स्वर्ण मुद्राऐं देकर कहा कि इस धन से वह किसी और सामन्त के हृदय का मांस खरीद लें।

मुद्राऐं लेकर प्रधानमंत्री बारी-बारी सभी सामन्तों, सेनाधिकारीयों के द्वार पर पहुँचे और सभी से राजा के लिऐ हृदय का दो तोला मांस मांगा, लेकिन कोई भी राजी न हुआ....सभी ने अपने बचाव के लिऐ प्रधानमंत्री को दस हजार, एक लाख, दो लाख और किसी ने पांच लाख तक स्वर्ण मुद्राऐं दे दी। इस प्रकार करोडो स्वर्ण मुद्राओं का संग्रह कर प्रधानमंत्री सवेरा होने से पहले अपने महल पहुँच गऐ और समय पर राजसभा में प्रधानमंत्री ने राजा के समक्ष दो करोड़ स्वर्ण मुद्राऐं रख दी....!

सम्राट ने पूछा : यह सब क्या है....? यह मुद्राऐं किसलिऐ है? प्रधानमंत्री चाणक्य ने सारा हाल सुनाया और बोले: दो तोला मांस खरिदने के लिए इतनी धनराशी इक्कट्ठी हो गई फिर भी दो तोला मांस नही मिला। अपनी जान बचाने के लिऐ सामन्तों ने ये मुद्राऐं दी है। राजन अब आप स्वयं सोच सकते हैं कि मांस कितना सस्ता है....??

जीवन अमूल्य है।
हम यह न भूलें कि जिस तरह हमें अपनी जान प्यारी होती है, उसी तरह सभी जीवों को प्यारी होती है..! इस धरती पर हर किसी को स्वेछा से जीने का अधिकार है... 🦆 🦐

👉 संयुक्त रहने का लाभ


👉 Prernadayak Prasang प्रेरणादायक प्रसंग 14 April 2020


👉 Aaj Ka Sadchintan आज का सद्चिंतन 14 April 2020


👉 विनाश नहीं सृजन होने जा रहा है

वैज्ञानिक, राजनेता, भविष्यवक्ता, अन्वेषक अपने-अपने तर्क और तथ्य आगे रखकर यह प्रमाणित करने का प्रयत्न कर रहे हैं कि महाविनाश में अब उँगलियों पर गिनने जितने समय को देर है किसी सीमा तक उठे हुए कदम अब वापस नहीं लौटेंगे। इन प्रवक्ताओं के कथन अनुमान, विश्लेषण पर कोई आक्षेप न करते हुए हमें यह पूरी हिम्मत के साथ कहने ही छूट मिली है कि आतंक के समय रहते शान्त होने की भविष्यवाणी करें और जन साधारण से कहें कि विकसित होने की अपेक्षा सृजन की बात सोचें। दुनिया यह नहीं रहेगी जो आज है। उसकी मान्यताएं, भावनाएं, विचारणाएं। आकांक्षाएं ही नहीं, गतिविधियाँ भी इस तरह बदलेंगी कि सब कुछ नया-नया प्रतीत होने लगे।

आज से पाँच सौ वर्ष पुराना कोई मनुष्य कहीं जीवित हो और आकर अबकी भौतिक प्रगति के दृश्य देखे तो उसे आश्चर्यचकित होकर रह जाना पड़ेगा और कहना पड़ेगा कि यह उसके जानने वाली दुनिया नहीं रही। यह तो भूतो की बस्ती जैसी बन गई है। सचमुच पिछले दिनों बुद्धिवाद और भौतिकवाद की सम्मिलित संरचना हुई भी ऐसी ही है जिसे असाधारण अद्भुत, अनुपम और आश्चर्यजनक परिवर्तन कहा जा सके।

ठीक इसी के समतुल्य दूसरा परिवर्तन होने जा रहा है। उसके लिए पाँच सौ वर्ष प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। इस नये परिवर्तन के लिए एक शताब्दी पर्याप्त है। आज की चकाचौंध जैसी परिस्थितियाँ और आसुरी मायाचार जैसी समस्याएँ अब इन दिनों भयावह लगती है और उनके चलते प्रवाह को देखकर लगता है कि सूर्य अस्त हो चला और निविड़ निशा से भरा अंधकार अति समीप आ पहुँचा पर ऐसा होगा नहीं। यह ग्रहण की युति है। बदली की छाया है, जिसे हटा देने वाले प्रचंड आधार विद्यमान भी हैं और गतिशील भी। लंका काण्ड की नृशंसता के उपरान्त रामराज्य का सतयुग वापस आया था। वैसी ही पुनरावृत्ति की हम अपेक्षा कर सकते हैं।

विनाश की सोचते और चेष्टा करते हुए मनुष्य का बुद्धि संसार थक जायेगा और वैभव के साधन स्रोत सूख जायेंगे। उन्हें नये सिरे से नई बातें सोचनी पड़ेगी कि प्रवाह की इस दिशा को उलट दिया जाय और उपलब्ध साधनों को सृजन के लिए लगाया जाय। ऊपर से पड़ने वाले दबाव ऐसी ही उलट फेर संभव करेंगे। उनने उलटे को उलट कर सीधा करने का निश्चय कर लिया है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1986 पृष्ठ 19-20

👉 Look Introvert for Peace

If you are looking for introvert peace, you must follow the path to spirituality. For this you must turn your extrovert sight inwardly. A bewildered fellow deluded and tired of wandering in the hazy mist of external world, finds immense peace and light in the inner world.

When we understand the illusory nature of the gamut of things and activities in the world around and get introvert, ponder over our inner self, only then we realize that we had lost our way all these days; our cravings, materialistic needs and passions were driving our life and we were running behind the mirage of happiness. But nor we know that nothing can ever satisfy the passions, no one can ever fulfill his ambitions. Attempting to do so is like pouring petrol in fire. Thus, instead of running behind the shadow to catch it, we must turn our back to it. Having a glimpse of the inner treasure detaches us from the perishable pennies for which we had been wasting all our potentials and time. Introvert search takes us near the God and shows the key to infinite joy and peace.

Once we know our real self, grasp the reality of the world, and see the inner light, the nectar-spring of unprecedented peace erupts from within and extinguishes the flames of discontent, desperations and tensions forever. With the rise of the feeling of true fulfillment, there hardly remains any worldly need or desire; every thing in hand or gifted by Nature for survival suffices and every
circumstance becomes a source of expanding you.

📖 Akhand Jyoti, March. 1941

👉 शाश्वत नियम

वसन्त आती है, चली जाती है। पतझड़ आती है, चली जाती है। सुख आते हैं, चले जाते हैं। दुःख आते हैं, चले जाते हैं। सुख और दुःख का आना-जाना ठीक वसन्त व पतझड़ के आने व जाने की तरह है। आना और जाना यही इस जगत् का शाश्वत नियम है। जो इस शाश्वत नियम को जान लेता है, उसका जीवन क्रमशः बन्धनों से मुक्त होने लगता है।
  
एक अँधियारी रात में कोई प्रौढ़ व्यक्ति नदी के तट से कूदकर आत्महत्या करने पर विचार कर रहा था। मूसलाधार बारिश थी, नदी पूरे बाढ़ पर थी। आकाश में घने बादल छाए हुए थे, बीच-बीच में बिजली चमक रही थी। वह उस क्षेत्र का सबसे धनी व्यक्ति था। लेकिन अचानक घाटे में उसकी सारी सम्पदा चली गयी। इसी वजह से वह आत्महत्या का निश्चय करके यहाँ आया था। लेकिन वह नदी में कूदने के लिए जैसे ही चट्टान के किनारे पहुँचने को हुआ, कि किन्हीं दो वृद्ध, परन्तु मजबूत हाथों ने उसे थाम लिया। तभी बिजली चमकी और उसने देखा कि आचार्य रामानुज उसे पकड़े हुए हैं।
  
उन्होंने उससे इस अवसाद का कारण पूछा और सारी कथा सुनकर वह हँसने लगे और बोले, तो तुम यह स्वीकार करते हो कि पहले तुम सुखी थे? वह बोला- हाँ तब मेरे सौभाग्य का सूर्य पूरे प्रकाश से चमक रहा था और अब सिवाय अंधियारे के मेरे जीवन में और कुछ भी बाकी नहीं है। यह सुनकर आचार्य रामानुज फिर से हँस पड़े और बोले, दिन के बाद रात्रि और रात्रि के बाद दिन। जब दिन नहीं टिका तो रात्रि कैसे टिकेगी? परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। जब अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे। जो इस शाश्वत नियम को जान लेता है, उसका जीवन उस अडिग चट्टान की भाँति हो जाता है, जो वर्षा व धूप में समान ही बनी रहती है।

सुख व दुःख को जो समभाव से ले, समझो कि उसने जीवन के शाश्वत नियम को जान लिया। इस शाश्वत नियम की अनुभूति करने वाला, एक दिन स्वयं को भी जान लेता है। क्योंकि समत्व में ठहर जाना ही स्वयं के अस्तित्त्व में प्रतिष्ठित होना है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २१४

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...