सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग ९

त्याग और सेवा द्वारा सच्चे प्रेम का प्रमाण दीजिए।

त्याग में कितना मिठास है, इसे बेचारे स्वार्थ परायण और कंजूस भला क्या समझेंगे? जो इस के अमर मिठास का आस्वादन करना चाहते हैं उनकी नीति होनी चाहिये "आप लीजिए-मुझे नहीं चाहिए। '' यही नीति है जिसके आधार पर सुख और शांति का होना संभव है। "मैं लूँगा आपको न दूँगा की नीति को अपनाकर कैकेयी ने अयोध्या को नरक बना दिया था।
 
सारी नगरी विलाप कर रही थी। दशरथ ने तो प्राण ही दे दिए। राजभवन मरघट की तरह शोकपूर्ण हो गया। राम जैसे निर्दोष तपस्वी को वनवास ग्रहण करना पड़ा। किंतु जब '' आप लीजिए- मुझे नहीं चाहिए '' की नीति व्यवहार में आई तो दूसरे ही दृश्य हो गए। राम ने राज्याधिकार को त्यागते हुए भरत से कहा-' बंधु ! तुम्हें राज्य सुख प्राप्त हो, मुझे यह नहीं चाहिए। ' सीता ने कहा- नाथ! यह राज्यभवन मुझे चाहिए मैं तो आपके साथ रहूँगी।'

सुमित्रा ने  लक्ष्मण से कहा-' ' अवध तुम्हार  काम कछु नाहीं। जो पै राम सिय बन जाहीं।। '' पुत्र! जहा राम रहे, वहीं अयोध्या मानते हुए उनके साथ रहो। कैसा स्वर्गीय प्रसंग है। भरत ने तो इस नीति को और भी सुंदर ढंग से चरितार्थ किया। उन्होंने राज-पाट में लात मारी और भाई के चरणों से लिपट कर बालकों की तरह रोने लगे। बोले-' भाई! मुझे नहीं चाहिए इसे तो आप ही लीजिए। ' राम कहते हैं-' भरत! मेरे लिए तो वनवास ही अच्छा है। राज्य सुख तुम भोगो। ' त्याग के इस सुनहरी प्रसंग में स्वर्ग छिपा हुआ है। एक परिवार के कुछ व्यक्तियो ने त्रेता को सतयुग में परिवर्तित कर दिया। सारा अवध सतयुगी रंग में रंग गया। वहां के सुख सौभाग्य का वर्णन करते-करते वाल्मीकी  और तुलसीदास अघाते नहीं है।

प्रभु ने मनुष्य को इसलिए इस पृथ्वी पर नहीं भेजा है कि एक दूसरे को लूट खाए और आपस में रक्त की होली खेलें। परम पिता की इच्छा है कि लोग प्रेमपूर्वक भाई- भाई की तरह आपस में मिल-जुल कर रहें। यह तभी हो सकता है जब त्याग की नीति को प्रधानता दी जाए स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ का अधिक ध्यान रखा जाए।

आप किसी को कुछ दें या उसका किसी प्रकार का उपकार करें तो बदले में किसी प्रकार की आशा न रखें। जो कुछ आप देंगे वह हजार गुना होकर लौट आवेगा परंतु उसके लौटने की तिथि नहीं गिननी चाहिए। अपने में देने की शक्ति रखिए देते चलिए क्योंकि देकर ही फल प्राप्त कर सकेंगे। ध्यानपूर्वक देखिए सारा विश्व आपको कुछ दे रहा है जितने आनंदादायक पदार्थ आपके पास हैं वे सब आपके ही बनाए हुए नहीं हैं वरन वे दूसरों के द्वारा आपको प्राप्त होते हैं फिर आप  दूसरों को देने में इतना संकोच क्यों करते हैं?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ १४

👉 भक्तिगाथा (भाग १११)

प्रेम से होती है प्रभु की पहचान

भक्त चोखामेला की स्मृतियाँ महात्मा सत्यधृति के मन में सघन होती गयीं। स्मृतियों के ये सघन घन सत्यधृति के अन्तःकरण में बरसते गये और उन पवित्र महात्मा का अन्तःअस्तित्त्व भीगता गया। अन्तस में छलकते इन भावों के कारण महात्मा सत्यधृति की आखें छलक आयीं। वह देर तक चुप बैठे रहे और वहाँ उपस्थित सभी जन उन्हें उत्सुकता, अकुलाहट व आतुरता से देखते रहे। इन सबके भावों का तरल स्पर्श उन्हें भी मिला और फिर उनके मौन ने मुखरता अपना ली। वे कहने लगे- ‘‘सम्भवतः बोध, बुद्धि की सीमा में नहीं समाता। चोखामेला जो अनपढ़ था, जिसने शास्त्र नहीं पढ़े थे, जिसने महर्षियों के मुख से तत्त्वचिन्तन को नहीं सुना था- उसकी बातों ने मुझे अचरज में डाल दिया।

उसका भगवत्प्रेम अश्रुतपूर्व व अपूर्व था। मैंने उससे सहजता से पूछा था कि भगवान को तुमने किस विधि से और किस रूप में पहचाना? उत्तर में कुछ कहने के पूर्व जैसे वह भावसमाधि में डूब गया। देर तक मैं उसे ताकता रहा, निहारता रहा और वह शान्त, मौन बैठा रहा। फिर थोड़ी देर बाद उसने कहा- हे महाराज! प्रेम ने मुझे भगवान की पहचान करायी। प्रेम ने मुझे प्रभु से परिचित कराया। प्रेम ने ही मुझे सर्वत्र, सृष्टि के कण-कण में उनकी झलक दिखायी। विनम्र स्वर में कहे गए चोखामेला के इन शब्दों के साथ मैंने उनसे जानना चाहा कि भगवान उन्हें किस रूप में मिले? साकार रूप में अथवा निराकार रूप में?
    
इस प्रश्न पर वह बोला- कौन कहता है, भगवान साकार नहीं हैं। सभी आकार उन्हीं के तो हैं। वृक्ष में भगवान वृक्ष हैं, पक्षी में पक्षी हैं, झरने में झरना हैं, आदमी में आदमी हैं, पत्थर में पत्थर हैं, फूल में फूल हैं। इस सम्बन्ध में एक बात यह भी समझ लेनी चाहिए कि सभी आकार जिसके हैं, वह स्वयं निराकार ही हो सकता है। भले यह बात थोड़ी उल्टी लगे, परन्तु सीधी बात यही है कि सभी आकार जिसके हों, वह निराकार ही होगा।

चोखामेला अपने प्रवाह में कहता जा रहा था - अरे सभी नाम जिसके हैं, उसका अपना नाम कैसे होगा? जिसका अपना कोई नाम है उसके सभी नाम नहीं हो सकते। सभी रूपों में जिसकी झलक है, उसका अपना कोई रूप कैसे हो सकता है? जो सब जगह है, उसे किसी एक जगह खोजने की कोशिश बेकार है। सब जगह होने का एक ही ढंग है कि वे अनन्त व असीम हैं। इतना कहकर चोखामेला ने मेरी ओर देखते हुए कहा- महाराज! परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, वह तो सभी के भीतर बहती जीवन की धार है। परमात्मा ऐसा नहीं है जैसा कि पत्थर है। परमात्मा आप जैसा भी नहीं है क्योंकि आप तो पुरुष हैं। वह पुरुष जैसा होगा तो फिर स्त्री में कौन होगा? यदि वह स्त्री जैसा हो तो फिर पुरुष उससे वंचित हो जायेंगे। यदि वह मनुष्य जैसा हो तो पशुओं में कौन होगा? और पशुओं जैसा हो तो फिर पौधों में कौन होगा?
    
अनपढ़ चोखामेला की इन बातों में पोथियों की रटन नहीं बल्कि अनुभव की छुअन थी। वह कह रहा था और मैं शान्त-मौन सुन रहा था- परमात्मा जीवन का अनन्त व्यापी सागर है। हम सब उसके रूप हैं, तरंगें हैं। हमारे हजार ढंग हैं। हमारे हजारों ढंगों में वह मौजूद है और सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे ढंग पर ही वह समाप्त नहीं है। वह और भी कोई नया ढंग ले सकता है। वह चाहे जितने नए-नए ढंग लेता रहे, पर वह समाप्त नहीं होगा। उसकी सम्भावना अनन्त है। आप ऐसी किसी स्थिति की कल्पना नहीं कर सकते जहाँ परमात्मा पूरा का पूरा प्रगट हो गया हो। वह कहीं भी कितना भी प्रगट होता चला जाए, पर सदा-सदा उसके अनन्त रूप प्रगट होने से बचे रह जाते हैं।
    
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २१९

शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग ८

प्रेम का अमृत छिड़क कर शुष्क जीवन को सजीव बनाइये

आत्मभाव का प्रयास करिए इससे आसपास रूखी, उपेक्षणीय, अप्रिय वस्तुओं का रूप बिल्कुल बदल जाएगा। विज्ञ लोग कहते हैं कि अमृत छिडकने से मुर्दे उठते हैं। हम कहते हैं कि प्रेम की दृष्टि  से अपने चारों ओर निहारिए मुर्दे सी अस्पृश्य और अप्रिय वस्तुए सजीव और सजीव सर्वांग सुंदर बनकर आपके सामने आनंद नृत्य करने लगेंगी। ऐसा कहा गया है कि पारस को छूकर काला-कलूटा लोहा बहुमूल्य सोना हो जाता है। हम कहते हैं कि सच्चे प्रेम का अरूचिकर और उपेक्षणीय से स्पर्श कराइए वे कुंदन के समान जगमगाने लगेगी। 'दुनियाँ आपको काटने दौडती है, दुर्व्यवहार करती है, सताती है, पाप अंक में धकेलती हैं, इसका कारण एक ही है कि आपके मन मानस में प्रेम का सरोवर सूख गया है, उसमें एकांत शून्यता की सांय-सांय बीत रही है, उसका डरावना अंदर से निकल कर बाहर आ खड़ा होता है और दुनियाँ बुरी दीखने लगती है। जब कोई व्यक्ति दुनियाँ ' से बिलकुल घबराया हुआ, डरा हुआ, निराश, चिढ़ा हुआ सामने आता है और संन्यासी हो जाने का विचार प्रकट करता है तब हम उसके सिर पर हाथ फेरते हुए समझाया करते हैं कि दोस्त इस दुनियाँ में कुछ भी बुरा नहीं है, आओ अपने पीलिया का इलाज करें और संसार का उसके असली आनंददायी रूप में दर्शन करके शांति लाभ करें।

कुटिलता, अनुदारता, कंजूसी और संकीर्णता को छोड़ दीजिए। इसके स्थान पर सरलता और उदारता को विराजमान कीजिए।  मुद्दतों से सूखे पडे हृदय सरोवर को प्रेम के अमृत जल से भर लीजिये। इस सरोवर ' लोगों को पानी पीकर प्यास बुझाने दीजिए,स्नान,करने, शांति लाभ करने दीजिए क्रीडा करके आनंदित होने दीजिए। अपना प्रेम उदारतापूर्वक सबके लिए खुला रखिए। आत्मीयता की शीतल छाया मे थके हुए पथिकों को विश्राम करने दीजिए। प्रेम इस भूलोक का अमृत है, आत्मभाव इसका पारस है। इस सुर दुर्लभ मानव जीवन को सफल बनाना है तो इन दोनों महातत्त्वों को उपार्जित करने से वंचित मत रहिए।

अपने प्रेम रूपी अमृत को चारों ओर छिडक दीजिए जिससे यह श्मशान सा भयंकर दिखाई पड़ने वाला जींवन देवी-देवताओं की क्रीडा भूमि बन जाए। अपने आत्मभाव रूपी पारस को कुरूप लोहा-लंगड से स्पर्श होने दीजिए जिससे स्वर्णमयी इंद्रपुरी बन कर खडी हो जाए। यह स्वर्ग सच्चे विश्ववासियों और दृढ़ निश्चय वालों के लिए बिलकुल सरल और सुसाध्य है। यह : आपके हाथ में है कि इच्छा और प्रयत्न द्वारा जीवन में स्वर्ग का प्रत्यक्ष आनंद उपलब्ध करें।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ १२

👉 भक्तिगाथा (भाग ११०)

कामनाएँ, अपेक्षाएँ हों तो वहाँ प्रेम नहीं

भक्त सत्यधृति की विनम्रता ने सभी के हृदय को सुखद अनुभूति दी। इसी के साथ अब सबके नेत्र देवर्षि नारद के मुख पर जा टिके। सब को अब प्रतीक्षा थी नवीन भक्तिसूत्र की। देवर्षि को भी सबके मन की त्वरा, तीव्रता व प्रतीक्षा का अहसास था। उन्होंने नारायण नाम के स्मरण के साथ उच्चारित किया-
‘गुणरहितं कामना रहितं प्रतिक्षण
वर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्’॥ ५४॥


यह प्रेम गुण रहित है, कामना रहित है, प्रतिक्षण बढ़ता रहता है, विच्छेद रहित है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है और अनुभव रूप है।

देवर्षि के इस नवीन सूत्र ने सभी के अन्तर्मन को नवीन प्रकाश व प्रफुल्लता दी। ऋषि कहोड़ प्रसन्न हुए और उन्होंने सत्यधृति की ओर देखते हुए कहा- ‘‘महात्मन्! आप इस नवीन सूत्र पर कुछ कहें।’’ महर्षि कहोड़ की यह बात सभी को भायी। सबने उनका हृदय से समर्थन किया। स्वयं देवर्षि नारद के मन में भी यही भाव था कि भगवान् नारायण के अनन्य भक्त सत्यधृति इस पर कुछ कहें। सब की अनुशंसा को विनम्रता से शिरोधार्य करते हुए सत्यधृति ने कहा- ‘‘हे महनीय जनों! मेरे अनुभवों एवं उपलब्धियों में तो मुझे ऐसी कोई व्यापकता नहीं नजर आती। परन्तु हाँ! मेरे स्मृतिकोष में भक्त चोखामेला की कथा उद्भासित हो रही थी। चोखामेला था तो वनवासी किरात- अनपढ़, निरक्षर एवं द्विज जातियों के संस्कारों से वंचित लेकिन उसके आचरण में महर्षियों की सी पवित्रता थी। जिन दिनों मैं उससे मिला उन दिनों मैं धराधाम पर राज्य शासन कर रहा था।’’

परमभक्त सत्यधृति के बारे में यह सत्य भी कम लोगों को पता था कि वह अपने धरती के जीवनकाल में परम प्रतापी, तेजस्वी सम्राट थे। प्रायः समूचा भूमण्डल उनके राज्य शासन में था। अपनी प्रजा उन्हें पुत्रवत प्रिय थी। प्रजा भी अपने नरेश को सहृदय पिता के रूप में देखती थी। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को भक्त सत्यधृति के राज्य शासन का स्मरण था। उन्होंने कहा- ‘‘धरती के उस स्वर्णिम युग को कौन भूल सकता है महाराज।’’ ऋषि वशिष्ठ की बात को सुनकर विनय भरे स्वरों में सत्यधृति ने कहा- ‘‘भगवन्! मेरे कर्तृत्व में भला ऐसा कुछ कहाँ? मैं तो भगवान के अनुरागी भक्त चोखामेला की बात कह रहा हूँ। उससे मेरी भेंट कण्व वन में हुई थी। फूस की झोपड़ी में उसका आवास था। नारायण के नाम के सिवा उसका कोई आश्रय न था। मेरी जब उससे भेंट हुई तो उसके होठों पर नारायण का नाम था, नेत्रों में अश्रु, रोम-रोम पुलकन और प्रेम से सम्पूर्ण देह कम्पायमान।

साक्षात भगवत् प्रेम की मूर्ति लग रहा था चोखामेला। मैंने उससे जानना चाहा कि ऐसी अलौकिक भक्ति कहाँ से प्राप्त हुई तो उसने कहा प्रभुनाम के स्मरण से। जब उससे मैंने यह जानना चाहा कि आखिर वह क्या चाहता है भगवान् से? तो उत्तर में उसके आँसू छलक आये और बोला- अरे! मैं तो स्वयं को प्रभु समर्पित करना चाहता हूँ उसने भाव भीगे स्वरों में कहा- प्रेम तो गुणरहित होता है। इसमें कामना का कोई स्थान नहीं है क्योंकि कामना तो पूरी होते ही समाप्त हो जाती है। परन्तु प्रेम तो प्रतिक्षण बढ़ता है। इसमें कभी भी विघटन सम्भव नहीं है क्योंकि विघटन तो वहाँ होता है, जहाँ अपेक्षाएँ होती हैं। अपेक्षारहित, प्रेम समर्पित भक्त एवं प्रेमपूर्ण भगवान तो जब मिलते हैं तो उनमें प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता है। यह अनुभव अतिव्यापक होने के कारण अति सूक्ष्म भी है। इसे कहा-सुना नहीं जा सकता, बस अनुभव किया जा सकता है। इसीलिए प्रेम अनुभवरूप है।’’ इतना कहकर भक्त सत्यधृति ने गहरी साँस लेते हुए कहा- ‘‘उस अनपढ़ भक्त चोखामेला ने मुझे पहली बार भक्ति का तत्त्वज्ञान दिया। उस प्रेमी-अनुरागी भक्त में और भी ऐसा बहुत कुछ था जो कहने-सुनने के योग्य है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २१७

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग ७




प्रेम का अमृत छिड़क कर शुष्क जीवन को सजीव बनाइये

संसार से ममता को हटा देने या संसार भर में ममता का विस्तार कर देने का एक ही अर्थ है। दोनों का तात्पर्य यह है कि थोडे ही दायरे में ममता को केंद्रीभूत न रहने दिया जाए वरन उसका उपयोग विस्तृत क्षेत्र में किया जाए। केवल अपने शरीर तक या स्त्री, संतान तक ममता का सीमित रहना पाप मूलक है। क्योंकि अन्य लोगों को विराना समझने से उनका शोषण करने की प्रवृत्ति बलवती होती है। जिससे अपना संबंध नहीं, उसकी हानि-लाभ में भी कोई दिलचस्पी नहीं रहती, ऐसी दशा में अपनों के लाभ के लिए विरानों को हानि पहुँचाने का अवसर आवे तो उसे करने में कोई झिझक या संकोच अनुभव नहीं होता। चोर यदि यह अनुभव करे कि जिसका माल रहा हूँ उसे जितना दुःख चोरी में मुझे होता है, उतना ही दुख होगा तो वह चोरी कैसे कर सकेगा? हत्यारा यदि अनुभव करे कि वध करते समय मुझे जितना कष्ट होता है, उतना ही उसे भी होगा तो उसकी छुरी कैसे किसी का गला कतरने में समर्थ होगी? आत्मीयता का अभाव ही सताने और शोषण करने की छूट देता है। अपनों के लिए तो त्याग और सेवा करने की इच्छा होगी। अपनी बीमारी को दूर न करने के लिए मनमाना पैसा खरच किया जा सकता है, यदि भाई को अपना मानते हैं तो उसकी बीमारी में सहायता किए बिना न रहा जाएगा। इस प्रकार पाप और पुण्य की प्रवृत्तियाँ भी इसी अहंता को सिकोड़ने और विस्तार करने पर निर्भर हैं। आप सदैव ही उद्योग करते रहिए कि अपना ' अहम ' सीमित न रहे वरन जितना हो सके, विस्तृत किया जाए।

आत्मभाव के विस्तार की सूक्ष्म मनोवृत्ति का व्यवहार उदारता में दर्शन किया जा सकता है। जिनके विचार और कार्य उदारता पूर्ण हैं, जो दूसरे लोगों की सुविधा का अधिक ध्यान रखते हैं, वास्तव में वे इस भूलोक के देवता हैं। अभागा कंजूस सोचता है कि सारी दौलत अपने लिए जोड़-जोड कर रख लू अपनी विद्या किसी पर न प्रकट करूँ, अपनी शक्तियों को किसी को मुफ्त न दूँ ऐसे लोग सर्प बनकर संपदाओं की चौकीदारी करते हुए मर जाते हैं, उन्हें वह आनंद जीवन भर उपलब्ध नहीं होता जो उदारता के द्वारा मिलता है। एक उदार व्यक्ति पड़ोसी के बच्चों को खिलाकर बिना खरच के उतना ही आनंद प्राप्त कर लेता है जितना कि बहुत खरच और कष्ट के साथ अपने बालकों को खिलाने में प्राप्त किया जाता है। अपने हँसते हुए बालकों को देखकर आपकी छाती गुदगुदाने लगती है। पडोसी के उससे भी सुंदर फूल से हँसते हुए बालक को देखकर आपके दिल की कली क्यूँ नहीं खिलती? अपनी फुलवारी को देखकर खुश होते हैं, पर पास में ही जो सुरभित उद्यान लहलहाते हैं वे आप मे तरंगें नहीं उत्पन्न करते? आपके आसपास अनेक सदाचारी, कर्त्तव्य परायण, मधुर स्वभाव वाले, धर्मात्मा, परोपकारी, विद्वान निवास कर रहे हैं, उनका होना आपको क्यों शांतिदायी नहीं होता? कारण यह कि आप खुद अपने हाथों अपनी एक निजी अलग दुनियाँ बसाना चाहते हैं, उसी से संबंध रखना चाहते हैं उसी की उन्नति को देखकर प्रसन्न होना चाहते हैं, यह काम शैतान के हैं। शैतान के कार्य आनंदप्रद नहीं हो सकते।

पुराणों की कथा है कि शंकरजी ने अपनी अलग सृष्टि रची और वे सर्प, बिच्छू भूत, पिशाच जैसे दुखदायी जंतुओं की रचना ही कर सके। एक आख्यान ऐसा है जिसके अनुसार विश्वामित्र ने भी अलग सृष्टि बसाई थी, यह रचना भी ऐसी भोंडी और बेहूदी रही। ईसाई धर्म में एक स्थल पर शैतान द्वारा अलग सृष्टि बनाने का वर्णन है। यह रचना उसके लिए अनेक कष्ट और विपत्तियों का कारण बनीं। आप उन दुखदायी स्मृतियों को पुन: दुहराने का प्रयत्न मत कीजिए।
 
आपका बेटा भीम जैसा बलवान, सूर्य जैसा तेजस्वी, वृहस्पति सा विद्वान, इंद्र सा पदारूढ़ बने तब प्रसन्नता होगी, आपकी पत्नी रति जैसी सुन्दर, सीता सी साध्वी, सरस्वती सी बुद्धिमान हो तब आपको प्रसन्नता होगी, ऐसी आशा करेंगे तो प्रसन्नता एक काल्पनिक वस्तु बन जाएगी जो कभी भी प्राप्त न हो सकेगी। अपनी अलग दुनियाँ मत बसाइए आनंद को किन्हीं अमुक व्यक्तियों तक ही बंधित मत रखिए। शैतानी करतूते छोड़िए और ईश्वर के उपासक बनिए। ईश्वर की पुण्य रचना एक से एक उत्तम, अनूठे, मधुर रत्न भरे पडे हैं, उनको मालिकी की दृष्टि से नहीं सरलता, सेवा और स्नेह की दृष्टि से अपना ही समझिए। ईश्वर आपका है, उसकी सुरम्य वाटिका भी विरानी नहीं है, उसे भी अपनी समझिए दूसरों के प्रति उदार दृष्टिकोण रखिए। पराएपन को अपनेपन में बदल दीजिए। खत्ती में मुट्ठी भर जी डाल कर आप भी साझी हो जाइए चारों ओर आनंददायक घटना और परिस्थितियों की बाढ आ रही है, शीतल जल के फव्वारे छूट रहे हैं, फिर आप क्यों प्यासे खड़े हैं? दूसरों की उन्नति अपनी उन्नति समझिए और बिना खरच का आनंद मनमानी मात्रा में लूटिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ १०

https://awgpskj.blogspot.com/2022/02/blog-post_35.html

बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग ७

प्रेम का अमृत छिड़क कर शुष्क जीवन को सजीव बनाइये

संसार से ममता को हटा देने या संसार भर में ममता का विस्तार कर देने का एक ही अर्थ है। दोनों का तात्पर्य यह है कि थोडे ही दायरे में ममता को केंद्रीभूत न रहने दिया जाए वरन उसका उपयोग विस्तृत क्षेत्र में किया जाए। केवल अपने शरीर तक या स्त्री, संतान तक ममता का सीमित रहना पाप मूलक है। क्योंकि अन्य लोगों को विराना समझने से उनका शोषण करने की प्रवृत्ति बलवती होती है। जिससे अपना संबंध नहीं, उसकी हानि-लाभ में भी कोई दिलचस्पी नहीं रहती, ऐसी दशा में अपनों के लाभ के लिए विरानों को हानि पहुँचाने का अवसर आवे तो उसे करने में कोई झिझक या संकोच अनुभव नहीं होता। चोर यदि यह अनुभव करे कि जिसका माल रहा हूँ उसे जितना दुःख चोरी में मुझे होता है, उतना ही दुख होगा तो वह चोरी कैसे कर सकेगा? हत्यारा यदि अनुभव करे कि वध करते समय मुझे जितना कष्ट होता है, उतना ही उसे भी होगा तो उसकी छुरी कैसे किसी का गला कतरने में समर्थ होगी? आत्मीयता का अभाव ही सताने और शोषण करने की छूट देता है। अपनों के लिए तो त्याग और सेवा करने की इच्छा होगी। अपनी बीमारी को दूर न करने के लिए मनमाना पैसा खरच किया जा सकता है, यदि भाई को अपना मानते हैं तो उसकी बीमारी में सहायता किए बिना न रहा जाएगा। इस प्रकार पाप और पुण्य की प्रवृत्तियाँ भी इसी अहंता को सिकोड़ने और विस्तार करने पर निर्भर हैं। आप सदैव ही उद्योग करते रहिए कि अपना ' अहम ' सीमित न रहे वरन जितना हो सके, विस्तृत किया जाए।

आत्मभाव के विस्तार की सूक्ष्म मनोवृत्ति का व्यवहार उदारता में दर्शन किया जा सकता है। जिनके विचार और कार्य उदारता पूर्ण हैं, जो दूसरे लोगों की सुविधा का अधिक ध्यान रखते हैं, वास्तव में वे इस भूलोक के देवता हैं। अभागा कंजूस सोचता है कि सारी दौलत अपने लिए जोड़-जोड कर रख लू अपनी विद्या किसी पर न प्रकट करूँ, अपनी शक्तियों को किसी को मुफ्त न दूँ ऐसे लोग सर्प बनकर संपदाओं की चौकीदारी करते हुए मर जाते हैं, उन्हें वह आनंद जीवन भर उपलब्ध नहीं होता जो उदारता के द्वारा मिलता है। एक उदार व्यक्ति पड़ोसी के बच्चों को खिलाकर बिना खरच के उतना ही आनंद प्राप्त कर लेता है जितना कि बहुत खरच और कष्ट के साथ अपने बालकों को खिलाने में प्राप्त किया जाता है। अपने हँसते हुए बालकों को देखकर आपकी छाती गुदगुदाने लगती है। पडोसी के उससे भी सुंदर फूल से हँसते हुए बालक को देखकर आपके दिल की कली क्यूँ नहीं खिलती? अपनी फुलवारी को देखकर खुश होते हैं, पर पास में ही जो सुरभित उद्यान लहलहाते हैं वे आप मे तरंगें नहीं उत्पन्न करते? आपके आसपास अनेक सदाचारी, कर्त्तव्य परायण, मधुर स्वभाव वाले, धर्मात्मा, परोपकारी, विद्वान निवास कर रहे हैं, उनका होना आपको क्यों शांतिदायी नहीं होता? कारण यह कि आप खुद अपने हाथों अपनी एक निजी अलग दुनियाँ बसाना चाहते हैं, उसी से संबंध रखना चाहते हैं उसी की उन्नति को देखकर प्रसन्न होना चाहते हैं, यह काम शैतान के हैं। शैतान के कार्य आनंदप्रद नहीं हो सकते।

पुराणों की कथा है कि शंकरजी ने अपनी अलग सृष्टि रची और वे सर्प, बिच्छू भूत, पिशाच जैसे दुखदायी जंतुओं की रचना ही कर सके। एक आख्यान ऐसा है जिसके अनुसार विश्वामित्र ने भी अलग सृष्टि बसाई थी, यह रचना भी ऐसी भोंडी और बेहूदी रही। ईसाई धर्म में एक स्थल पर शैतान द्वारा अलग सृष्टि बनाने का वर्णन है। यह रचना उसके लिए अनेक कष्ट और विपत्तियों का कारण बनीं। आप उन दुखदायी स्मृतियों को पुन: दुहराने का प्रयत्न मत कीजिए।
 
आपका बेटा भीम जैसा बलवान, सूर्य जैसा तेजस्वी, वृहस्पति सा विद्वान, इंद्र सा पदारूढ़ बने तब प्रसन्नता होगी, आपकी पत्नी रति जैसी सुन्दर, सीता सी साध्वी, सरस्वती सी बुद्धिमान हो तब आपको प्रसन्नता होगी, ऐसी आशा करेंगे तो प्रसन्नता एक काल्पनिक वस्तु बन जाएगी जो कभी भी प्राप्त न हो सकेगी। अपनी अलग दुनियाँ मत बसाइए आनंद को किन्हीं अमुक व्यक्तियों तक ही बंधित मत रखिए। शैतानी करतूते छोड़िए और ईश्वर के उपासक बनिए। ईश्वर की पुण्य रचना एक से एक उत्तम, अनूठे, मधुर रत्न भरे पडे हैं, उनको मालिकी की दृष्टि से नहीं सरलता, सेवा और स्नेह की दृष्टि से अपना ही समझिए। ईश्वर आपका है, उसकी सुरम्य वाटिका भी विरानी नहीं है, उसे भी अपनी समझिए दूसरों के प्रति उदार दृष्टिकोण रखिए। पराएपन को अपनेपन में बदल दीजिए। खत्ती में मुट्ठी भर जी डाल कर आप भी साझी हो जाइए चारों ओर आनंददायक घटना और परिस्थितियों की बाढ आ रही है, शीतल जल के फव्वारे छूट रहे हैं, फिर आप क्यों प्यासे खड़े हैं? दूसरों की उन्नति अपनी उन्नति समझिए और बिना खरच का आनंद मनमानी मात्रा में लूटिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ १०

👉 भक्तिगाथा (भाग १०९)

कामनाएँ, अपेक्षाएँ हों तो वहाँ प्रेम नहीं

भक्ति में भीगा स्वर, भाव में भीगा हृदय, रव में डूबा नीरव, स्पन्द में स्पन्दित निस्पन्द, कुछ ऐसी ही विलक्षणता थी वहाँ। हिमालय के हृदयक्षेत्र में ऋषि कहोड़ के मुख से भक्ति की स्रोतस्विनी प्रवाहित हो रही थी। इसमें सभी भीग रहे थे, आनन्दित हो रहे थे। दिवस, रात्रि के आठों याम यहाँ के अणु-अणु में, कण-कण में भक्ति छलक रही थी, बिखर रही थी। ऋषि-महर्षि, देवों-गन्धर्वों की कौन कहे, यहाँ तो पशु-पक्षियों के प्राण भी, पवित्र-परिष्कृत भावों से अनुप्राणित थे। भावों की पुलकन-थिरकन यहाँ सब ओर, चहुँ ओर व्याप्त थी। हिमालय की महिमा यूं ही नहीं गायी जाती। हिमालय केवल बर्फ से ढके पाषाण शिखरों का जमघट भर नहीं है बल्कि यहाँ दैवी चेतना की दीप्ति है, पवित्र आध्यात्मिक ऊर्जा का अक्षयस्रोत है और अब तो यहाँ भक्ति का भाव अमृत भी सतत प्रवाहित हो रहा था जिसमें सभी के मन-प्राण सतत् स्नात हो रहे थे।

अभी भी सम्पूर्ण परिसर व परिकर में महर्षि कहोड़ के स्वर संव्याप्त हो रहे थे। अचानक ही इन स्वरों में जाने कहाँ से एक विशेष प्रकार की दिव्य सुगन्ध घुलने लगी। इसमें अलौकिक प्रकाश आपूरित होने लगा। इसी के साथ ओंकार के मद्धम नाद के अनुगुंजन इसमें गूंजने लगे। इन क्षणों में सब ने अनुभव किया कि उनके अन्तःकरण में अनजानी सी पुलक भर गयी है। स्वयं महर्षि कहोड़ को भी अपनी अन्तर्चेतना में अनोखी प्रसन्नता का अहसास हुआ। उन्होंने एक पल के लिए अपने नेत्र बन्द किए फिर दूसरे ही पल उन्होंने ऋषि वशिष्ठ एवं अन्य सप्तर्षियों की ओर देखा। उनके मुख को देखकर उन्हें ऐसा लगा जैसे कि उन सबको भी वही अनुभूति हो रही थी, जो ऋषि कहोड़ को हो रही थी।

इस अनोखे अनुभव से भावित होकर महर्षि कहोड़ अपने आसन से उठे और बड़े मन्द्र-मधुर स्वर में बोले- ‘‘हे परमभक्त सत्यधृति आप प्रकट हों, हम सभी आपका स्वागत करते हैं।’’ परमभक्त सत्यधृति के बारे में प्राचीन महर्षियों को तो पता था, कुछ ने उनका केवल नाम सुना था, परन्तु उनके दर्शन कम ही लोगों ने किए थे। ऋषि समुदाय में यदा-कदा इसकी चर्चा होती थी कि सत्यधृति भगवान नारायण के परम भक्त हैं। अब वे सत्यलोक में रहकर अपने महान तप व विशुद्ध भावों से प्रकृति में सत्त्व की अभिवृद्धि करते हैं। उनका कहना है कि सूक्ष्म व स्थूल प्रकृति में वास करने वाले जीवों के आचरण व व्यवहार से प्रकृति में रज व तम बढ़ा है जिससे जीवों के जीवन में विकृतियाँ प्रचुर मात्रा में बढ़ी हैं। इनका शमन केवल तभी सम्भव है जबकि प्रकृति में सतोगुण बढ़े।

भक्त सत्यधृति अपने निष्काम तप एवं शुद्ध भक्ति से इन दिनों यही कार्य कर रहे थे। उनके इस मौन कार्य को सभी की मुखर सराहना व संस्तुति प्राप्त थी। ऋषि वशिष्ठ एवं विश्वामित्र का तो कहना था कि भक्त सत्यधृति का कार्य सर्वथा युगान्तरकारी है। क्योंकि यही वह विधि है, जिससे जीवों की प्रकृति बदली जा सकती है। ऐसे परम भक्त का आगमन सभी को बहुत सुखकारी लगा। सभी ने उनकी अभ्यर्थना की, उन्हें आसन दिया। आसन पर बैठते ही उन्होंने सभी का अभिवादन व अभिनन्दन करते हुए ऋषि कहोड़ एवं देवर्षि नारद की ओर देखा और बड़ी विनम्रता से कहा- ‘‘आप सबकी, विशेष तौर पर आप दोनों की उपस्थिति हमें यहाँ खींच लायी है। देवर्षि जब अपने भक्तिसूत्र उच्चारित करते हैं, तो उनकी पराध्वनि की अनुगूंज सत्यलोक तक पहुँचती है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २१५

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग ६

प्रेम का अमृत छिड़क कर शुष्क जीवन को सजीव बनाइये      
 
लोग क्या कहते हैं ' '-इस आधार पर यदि, दुःखी होने की आदत डालेंगे तो सदैव दुःख भोगना पड़ेगा यह संभव नहीं कि सब लोग आपकी मनमर्जी के बन जावें और वैसे ही आचारण करें जैसे कि आप चाहते हैं। '' हम क्या करते हैं ' '-इस आधार पर यदि होने की आदत डालेंगे तो सदैव सुख ही सुख सामने पडेगा। ' अपने को मनमर्जी का बनाना अपने हाथ में है। इससे कौन रोक सकता है कि हम ' को अपना समझें, उन्हें प्यार करें और उस प्यार एवं अपनेपन कारण जो आनंद उपजे उसका उपयोग करें। स्वर्ग निर्माण की यही कुंजी है। अपने प्रेम भाव के कारण बहुत अंशों में ' दूसरों का व्यवहार नरम, मधुर, सुखकर हो जाता है। कदाचित कहीं अपवाद उपस्थित हो, किसी ऐसे जड से पाला पड़े जो उलटा ही उलटा चलता हो तो उसकी गतिविधियों को उपेक्षा की दृष्टि से देखिए उसे अपनी मौत मरने दीजिए आप तो अपने कर्त्तव्य में प्रसन्न रहिए। संसार में अनेक दुष्टात्मा भरे पडे हैं उनके होने से आपको कुछ बड़ा भारी शोक- संताप नहीं होता फिर क्या कारण है कि अमुक व्यक्तिं के दोंषों का दंड आप अपने को दें। दूसरों के बुरे विचार और कार्यों से अपने को प्रभावित मत होने दीजिए। सहनशील और समझौते की नीति से काम लीजिए। बदला या कर्ज चाहने की इच्छा छोडकर विशुद्ध प्रेम का, आत्मभाव का प्रसार कीजिए इससे आप अपने लिए एक स्वर्ग की रचना बड़ी आसानी से कर सकेंगे।

आध्यात्मिक साधना में ' अहंभाव का विस्तार करना '-यह तत्त्व प्रधान  रूप में विद्यमान है। आत्मोन्नति यही तो है कि अपनेपन के दायरे को छोटे से बडा बनाया जाए। जिनका अपनापन केवल अपने शरीर तक ही है वे कीट-पतंग नीची श्रेणी के हैं जो अपनी संतान तक आत्मभाव को बढ़ाते हैं वे पशु-पक्षी उनसे कुछ ऊँचे हैं जिनका अहंकार अपनीं संस्था, राष्ट्र तक है वे मनुष्य हैं, जो, समस्त मानव जाति को अपनेपन से ओत-प्रोत देखते हैं, वे देवता हैं, जिनकी आत्मीयता  चर-अचर तक विस्तृत है वे जीवन मुक्त परम सिद्ध हैं।

जीव अणु है, छोटा है, सीमित है। ईश्वर महान है, विभु है, व्यापक है। जब जीव ईश्वर में तद्रूप होने के लिए आगे बढता है तो वह भी महानता, विभुता, व्यापकता के गुणों में समन्वित होने लगता है। जिन पर भूत चढ़ता है उनके वचन और आचरण भूत जैसे हो जाते हैं, ईश्वरीय कृपा की किरण जिन महात्माओं पर पडती है, उनकी स्पष्ट पहचान ' आत्मभाव का विस्तार ' है। जिसका स्वार्थ जितने कम लोगों तक सीमित है वह ईश्वर से उतना ही दूर है। जो आत्मभाव का जितना विस्तार करता है, अधिक लोगों को अपना समझता है, दूसरों की सेवा सहायता करना आवश्यक कर्त्तव्य समझता है और उनके सुख-दुःख में अपना सुख-दु :ख मानता है, वह ईश्वर के उतना ही निकट है। आत्मविस्तार और ईश्वर आराधन एक ही क्रिया के दो नाम हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ९

👉 भक्तिगाथा (भाग १०८)

एक शून्य निवेदन है भक्ति

बड़ा कठिन एवं परम दुर्लभ है यह सब लेकिन यह होता है कहीं-कहीं, किसी-किसी में। आमतौर पर भाव एवं विचार कहे जाते हैं, बोले जाते हैं, लिखे जाते हैं- यह सब होता है बहुत होशपूर्वक, बड़ी सघन बौद्धिकता के साथ लेकिन यह बस अभिव्यक्ति होती है। इसकी नापतौल व्याख्या-विवेचना सम्भव है परन्तु जब भक्त की भक्ति से परमात्मा प्रकाशित होता है तो वह अभिव्यक्ति नहीं अभिव्यञ्जना होती है। इस अवस्था में मन, वाणी, बुद्धि और यहाँ तक कि मानवीय चेतना के धरातल व दायरे में जो कुछ भी है, वह सभी मौन-नीरव, निस्पन्द हो जाता है। बस स्वतःस्फूर्त परमात्मा बह उठता है। भक्त नाच उठता है, भक्त गा उठता है, भक्त समाधि में डूबा हुआ बोलने लगता है।

सच तो यह है कि इस अवस्था में भक्त होता है अनुपस्थित- बस भगवान होते हैं उपस्थित। भक्त हो जाता है मौन, बस भगवान हो जाते हैं मुखर। इस मुखरता को, इस उपस्थिति को जानने वाले भी विरले होते हैं। इस अनुभव की अनुभूति भी विरले ही कर पाते हैं अन्यथा तार्किक तो बस तर्क करते रह जाते हैं। उनका कहना है कि अनुभव हुआ है तो कहा भी जाएगा, सुना भी जाएगा और समझा भी जाएगा। सिर में सामान्य दर्द होता है तो इसका पता चलता है और इसे कहा भी जाता है। पाँव में कांटा चुभता है तो पीड़ा की बात कहने-सुनने में आती है। इसी तरह से प्रसन्नता की अनुभूतियों का भी बयान-बखान होता है।

फिर भक्ति का बखान क्यों नहीं? सवाल तर्कपूर्ण लगता है। परन्तु इसका जवाब बड़ा जोखिम भरा है। जहाँ और जिन्होंने यह बखान किया, उसमें से किसी को फाँसी हुई तो किसी को सूली। किसी को पत्थर मारे गए तो किसी को जहर पिलाया गया। उनके लिए कहा गया कि ये धोखा दे रहे हैं, छल कर रहे हैं। इतना कहने के बाद महर्षि ने सबकी ओर बड़े निश्छल नयनों से देखा और बोले- बड़ा अजीब सा है यह छल। इसे छल कहने वाले इतना भी नहीं सोच पाते कि भला कोई फाँसी, सूली पाने के लिए छल क्यों करेगा। कोई जहर पीने के लिए धोखा क्यों देगा।

यह तो वह परम विरल अवस्था है, जब परमात्मा स्वयं मुखर होता है। अपने भक्त के माध्यम से भक्ति के सार को प्रकट करता है। असंख्यों में से कोई विरला ही इसे सुनता, समझता है। यह सच जान पाता है कि अखिल ब्रह्माण्ड के अधीश्वर यहाँ पर प्रकाशित हो रहे हैं। इस अवस्था में परम दिव्य की झलकियाँ मिलती हैं। अनूठापन, अनोखापन यहाँ अपनी चमक बिखेरता है। इसे वही देख पाते हैं, समझ पाते हैं जो प्रभुप्रेम में डूबे हैं, जो परमात्मा के परमरस से भीगे एवं उसमें डूबे हैं। क्षुद्र मन वालों के लिए यहाँ कहीं कोई स्थान नहीं है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २१४

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग ५

प्रेम का अमृत छिड़क कर शुष्क जीवन को  सजीव बनाइये      

प्रेम एक ऐसा शब्द है जो टूटे हुए हृदय को जोडता है, बिछुडों को मिलाता है, विद्वेष को शांत करता है, शिकायतों को दूर करता है। अपने मनोभावों को वाणी या आचरण द्वारा पर इस प्रकार प्रकट करें जिससे उसे यह विश्वास हो जाए आपका आत्मभाव सच्चा है, बिना किसी खुदगर्जी या मायाचार के अपनेपन की भावना रखते हैं तो विश्वास कीजिए कि वह आपका गुलाम हो जाएगा। संघर्ष और कलह के लिये फिर गुंजाइश ही नहीं रहेगी। दोषों से रहित व्यक्ति इस संसार में एक भी नहीं है। काम, क्रोध, मोह की वृत्तियाँ न्यूनाधिक अंशों में हर एक के मन में बस रही हैं, किसी की एक बुराई को देखकर उस पर आग बबूला हो जाना, सब बुराइयों की खान मान लेना, घृणास्पद मानना उचित नहीं। आप निष्पक्षता के साथ तलाश करेंगे तो उसमें बुराइयाँ मिलेंगी, पर बुराइयों से अच्छाइयों की मात्रा अधिक होगी। क्या आप ऐसा नहीं कर सकते कि इन अच्छाइयों से आनंदित हों, उन्हें प्रकट करें और प्रोत्साहित करके आगे बढावें ? क्या आप ऐसा नहीं कर सकते कि बुराइयों को कुछ देर के लिए दर गुजर कर जाएँ उन्हें दफना दें, घटावें और सुधारने का प्रयत्न करें? ऐसा नहीं कर सकते तो
 
इसका एकमात्र कारण यह है कि उस व्यक्ति के प्रति आपका सच्चा आत्मभाव नहीं है। झूठ-मूठ किसी रिश्ते में बँध गए हैं, पर उस रिश्ते को निबाहने का आपका क्या कर्तव्य है? इसकी बहुत ही कम जानकारी रखते हैं।

यदि रोग असाध्य हो गया है तो बात दूसरी है अन्यथा अधिकांश मनमुटाव ऐसे होते हैं जिन्हें आसानी से सुलझाया जा सकता है। दूसरे आदमी तभी तक आपसे दूर-दूर रहते हैं जब तक कि उन्हें आपकी आत्मीयता की सचाई पर विश्वास नहीं होता। जिन स्वजनों से आप बड़बड़ाते रहते हैं, क्या कभी आपने वाणी एवं आचरण द्वारा उन्हें यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया है कि मेरी आत्मीयता सच्ची है? इस प्रयत्न में जितने ही सफल होते हैं उनके दिलों में उतनी ही जगह अपने लिए बना लेते हैं।

यह भी मान लिया जाए कि दूसरे लोग आपके साथ उत्तम व्यवहार नहीं करते, हुक्म नहीं मानते, अदब नहीं करते तो भी यह कोई ऐसी बात नही है जिससे बुरा मानने या दुःखी होने की आवश्यकता पड़े। तीन-चार वर्ष का बच्चा आपके साथ कोई सलूक नहीं करता, हुक्म नही बजाता, अदब नहीं करता बल्कि बहुत बार खराब आचरण करता है तो भी उसके व्यवहार आपको बुरे नहीं मालूम होते, वरन किसी हद तक मनोरंजन ही करते हैं, फिर क्या बात है कि बड़ी उम्र के व्यक्ति के किसी प्रकार के आचरण पर अत्यंत दुःख मानते हैं? कारण यह है कि उस छोटे बालक को बड़े से अधिक चाहते हैं, अथवा जितना आत्मभाव बालक पर था, बडे पर उससे कम रखते हैं। स्वार्थ के साथ प्रेम नहीं ठहर सकता हैं। बदला चाहने वाले को निराश होना पड़ता है। आप अपना कर्त्तव्य पालन करने तक ही दुष्ट रहिए। अपनी इच्छा को इतनी सूक्ष्म रखिए आवश्यकताओं इतनी न्यून रखिए कि दूसरों की सहायता की जरूरत न पड़े। यदि जरूरत पड़े तो बदले में कृतज्ञता ज्ञापन, धन्यवाद, प्रशंसा द्वारा उसका कुछ बदला उसी समय चुका दीजिए और शेष को आगे-पीछे बेवाक कर देने की फिक्र में रहिए। कर्जदार बन कर अपने ऊपर दूसरे के उपकार लादने की इच्छा करना कोई गौरव की बात थोडे ही है। बदला चाहने या कर्ज लेने की तुच्छ वृत्ति को छोड़ दें तो कोई कारण नहीं कि अल्पबुद्धि वालों का, बडी उम्र के बालकों का कोई अप्रिय व्यवहार आपको दुखदायी प्रतीत हो।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ७

बुधवार, 9 फ़रवरी 2022

👉 जब राजा का घमंड टूटा

एक राज्य में एक राजा रहता था जो बहुत घमंडी था। उसके घमंड के चलते आस पास के राज्य के राजाओं से भी उसके संबंध अच्छे नहीं थे। उसके घमंड की वजह से सारे  राज्य के लोग उसकी बुराई करते थे।

एक बार उस गाँव से एक साधु महात्मा गुजर रहे थे उन्होंने ने भी राजा के बारे में सुना और राजा को सबक सिखाने की सोची। साधु तेजी से राजमहल की ओर गए और बिना प्रहरियों से पूछे सीधे अंदर चले गए। राजा ने देखा तो वो गुस्से में भर गया । राजा बोला – ये क्या उदण्डता है महात्मा जी, आप बिना किसी की आज्ञा के अंदर कैसे आ गए?

साधु ने विनम्रता से उत्तर दिया – मैं आज रात इस सराय में रुकना चाहता हूँ। राजा को ये बात बहुत बुरी लगी वो बोला- महात्मा जी ये मेरा राज महल है कोई सराय नहीं, कहीं और जाइये।

साधु ने कहा – हे राजा, तुमसे पहले ये राजमहल किसका था? राजा – मेरे पिताजी का। साधु – तुम्हारे पिताजी से पहले ये किसका था? राजा– मेरे दादाजी का।

साधु ने मुस्करा कर कहा – हे राजा, जिस तरह लोग सराय में कुछ देर रहने के लिए आते है वैसे ही ये तुम्हारा राज महल भी है जो कुछ समय के लिए तुम्हारे दादाजी का था, फिर कुछ समय के लिए तुम्हारे पिताजी का था, अब कुछ समय के लिए तुम्हारा है, कल किसी और का होगा, ये राजमहल जिस पर तुम्हें इतना घमंड है।

ये एक सराय ही है जहाँ एक व्यक्ति कुछ समय के लिए आता है और फिर चला जाता है। साधु की बातों से राजा इतना प्रभावित हुआ कि सारा राजपाट, मान सम्मान छोड़कर साधु के चरणों में गिर पड़ा और महात्मा जी से क्षमा मांगी और फिर कभी घमंड ना करने की शपथ ली।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग ४

प्रेम का अमृत छिड़क कर शुष्क जीवन को  सजीव बनाइये      

आप चाहते हैं कि हमारे चारों ओर प्रिय ही प्रिय तत्त्व जमा रहें तो इसका एक ही उपाय है कि आत्मभाव को उन सबसे संबंधित कर दें। सोए हुए निष्क्रिय तत्त्वों के रहते हुए भी अंधकार बना रहता है पर जैसे ही बिजली की धारा उन बल्वों तक पहुँची, वैसे ही वे क्षण भर में दीप्तमान हो उठते हैं और अपने प्रकाश से निकटवर्ती स्थानों को जगमगा देते हैं। अपने निकटवर्ती लोगों पर यदि आप आत्मीयता की भावनाएँ आरोपित कर दें तो वे सब आपको प्रिय, आनंददायक, मनोहर और प्रसन्नता बढ़ाने वाले प्रतीत होने लगेंगे। जो लोग अल्पज्ञ और अपराधी हैं वे भी कपड़ों पर मल-मूत्र त्याग देने वाले अपने बालक के समान आनंदप्रद ही लगेंगे। क्रोध, चिडचिडाहट, द्वेष, घृणा की जो अग्नि शिखाएँ दिन- रात मन में जलती रहती हैं और खून सुखाती रहती हैं वे अनायास ही शांत हो जावेंगी।

प्रिय वस्तुओं का चारों ओर एकत्रित रहना यही तो स्वर्ग है। स्वर्ग की बडी महिमा गाई गई है, कथा-पुराणों में उसका बहुत विस्तृत वर्णन मिलता है, उस सारे वर्णन का सार यह है कि यहाँ सब प्रिय ही वस्तुएँ हैं, जैसे स्थानों में रहना चाहते हैं वह सब वहाँ मौजूद हैं। ऐसा स्वर्ग आप स्वयं बना सकते हैं, इसी जीवन में उसका आनंद लूट सकते हैं, दूर जाने की जरूरत नहीं, जिस स्थान पर रह रहे हैं, वहीं उसकी रचना हो सकती है, क्या आप सचमुच ऐसा चाहते हैं? क्या अपनी ओंखों से इस जीवन में ही उस स्वर्ग की झाँकी करने के लिए सचमुच उत्सुक हैं? यदि हैं तो सच्चे हृदय से तैयार हो जाइए। अपने आत्मभाव को संकुचित मत रखिए वरन उसे निकटवर्ती लोगों के ऊपर बिना भेद-भाव के बिखेर दीजिए। धारा का स्पर्श करते ही अचेतन पडे हुए बल्व जगमगाने हैं, आपके आत्मभाव का स्पर्श होते ही समस्त संबंधित जन प्रेम पात्र बन जाएँगे, प्रिय लगने लगेंगे, उन प्रियजनों के बीच रहकर आप स्वर्ग जैसा आनंद अनुभव करेंगे।

संबंधित लोगों को अपना समझिए उनमें अपनापन रखिए। इस प्रकार उनमें यदि कुछ दोष भी होंगे तो वे प्रिय रूप में दृष्टिगोचर होंगे। अपनों के लिए स्वभावत: उनके दोषों को छिपाने और गुणों को प्रकट करने की वृत्ति रहती है, अपने प्यारे पुत्र के दोषों को कौन पिता प्रकट. करता है? वह तो उसकी प्रशंसा के ही पुल बाँधता रहता है। दुर्गुणी बालक को कोई न तो मार डालता है और न ही जेल पहुँचा देता है वरन सारी शक्तियों के साथ यह प्रयत्न किया जाता है कि किसी सरल उपाय से उसके दुर्गुण दूर हो जाएँ या कम हो जाएँ। यदि ऐसी ही वृत्ति अपने परिजनों के साथ रखें तो उनके अंदर जो बुरे तत्त्व विद्यमान हैं, वे घट जाएँगे, कम-से-कम आपके लिए वे निस्तेज हो ही जाएँगे। डाकू, हत्यारे, ठग, व्यभिचारी आदि लोग भी अपने सी, पुत्र, भाई, बहिन आदि के साथ अपने स्वभावों का उपयोग नहीं करते, सिंह अपने बाल-बच्चों को नहीं फाड़ खाता, इसी प्रकार जिनके प्रति आप आत्मभाव रखते हैं वे भी कम से कम आपके लिए तो दुखदायी न रहेंगे। महात्मा इमरसन कहा करते थे कि ' यदि मुझे नरक में रखा जाए तो मैं अपने सद्गुणों के कारण वहाँ भी स्वर्ग बना लूँगा। आप में यदि विवेक हो वे कुटुंबी, जिनके साथ आपका दिन-रात कलह होता है, आसानी से प्रेम पात्र बन सकते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ६

👉 भक्तिगाथा (भाग १०७)

एक शून्य निवेदन है भक्ति

महर्षि कहोड़ के स्वर सभी के हृदयसरोवर में भाव बनकर थिरक रहे थे, लेकिन फिर भी स्थिरता थी। भावउर्मियों के इन तीव्र स्पन्दनों के बावजूद सब ओर बाहर-भीतर निःस्पन्दता थी। स्वरों के रव में नीरव संव्याप्त हो रहा था। एक अद्भुत समां था। भक्ति का अनुभवरस बरस रहा था और सब लोग उसमें सब तरफ से भीग रहे थे। ऋषि कहोड़ कह रहे थे- ‘‘भक्त का न तो कोई कर्त्तृत्व होता है और न कोई व्यक्तित्व। भक्त तो बस मौन है, एक शून्य निवेदन है।’’ महर्षि के इस कथन के साथ पूर्व दिशा की लालिमा सघन होकर सूर्योदय में परिवर्तित होने लगी थी। आज का भक्तिसंगम ब्रह्मबेला में की जाने वाली गायत्री उपासना के बाद तत्काल प्रारम्भ हो गया था।
शास्त्र कहते हैं- प्रातः सन्ध्या का विधान-

उत्तमा तारकोयेता मध्यमा लुप्ततारका।
कनिष्ठा सूर्य सहिता प्रातः संध्या त्रिधा स्मृता॥१॥

प्रातःकाल की उत्तम संध्या का समय तब है, जब आकाश में तारागण हों, जबकि तारागणों के लुप्त हो जाने पर इस समय को प्रातः संध्या के लिए मध्यम माना जाता है। यदि आकाश में सूर्यदेव उदित हो जायें तो यह समय प्रातः संध्या के लिए कनिष्ठ कहा जाता है।

इस समागम में प्रायः सभी शास्त्रों का सम्यक अनुसरण करने वाले ही नहीं बल्कि शास्त्रमर्मज्ञ और शास्त्रों के रचयिता भी थे। सो ऐसे में भला किससे और कहाँ शास्त्रों की उपेक्षा व अवहेलना होती। सभी ने प्रातःकाल की संध्या इसके लिए निर्धारित सर्वोत्तम समय पर कर ली थी। इसके तुरन्त बाद आज का भक्तिसमागम प्रारम्भ हो गया था। सभी महर्षि कहोड़ के अनुभव अमृत में भीग रहे थे। इस अनुभव अमृत की सुगन्धि कुछ ऐसी दिव्य थी कि इससे आज का सूर्योदय भी सुवासित हो गया। सूर्योदय के इन क्षणों में सभी ने पक्षियों के मनोहारी कलरव संगीत के साथ गायत्री महामन्त्र का सस्वर उच्चारण करते हुए भगवान् भुवन भास्कर का नमन-अभिनन्दन किया।

इस नमन में भक्ति की सम्पूर्ण झलक थी। वैसे भी ऋषि कहोड़ की गायत्रीभक्ति अनूठी थी। उनकी सम्पूर्ण चेतना गायत्रीमय थी। महर्षि अपने कथन की कड़ियों को जोड़ते हुए कह रहे थे कि ‘‘भक्ति के अनुभव की सघनता व सम्पूर्णता अतिविरल है। यदि जीवन में यह किसी तरह से आ भी जाय तो इसे कहना बताना सम्भव नहीं हो पाता।’’ इतना कहकर वे बोले-

शून्य नहीं होता परिभाषित
रहता मात्र नयन में
मन्वंतर, संवत्सर, वत्सर
कब बंधते लघु क्षण में
रहते सभी अनाम न कोई
कभी पुकारा जाता
रह जाती अभिव्यक्ति अधूरी
जीवन शिशु तुतलाता।

भक्ति की भावनाओं में असीम-अनन्त परमात्मा की सचेतन संवेदनाएँ लहराती हैं। इस अनन्त-असीम को भला सामान्य बुद्धि-मन-वाणी कैसे कहे? लेकिन यदा-कदा अपवाद भी घटित होते हैं। कहीं किसी विरले भक्त की भक्ति से परमेश्वर प्रकट होने लगता है। ऋषि कहोड़ के इस कथन ने देवर्षि नारद को थोड़ा सचेष्ट-सचेत किया और किञ्चित चौंकाया भी। और अनायास उनके मुख से एक सूत्र स्वरित हुआ-

‘प्रकाशते क्वापि पात्रे’॥ ५३॥
किसी विरले योग्य पात्र में ऐसा प्रेम प्रकट भी होता है।

देवर्षि के मुख से अनायास निकले इस सूत्र ने ऋषि कहोड़ को पुलकित कर दिया। उन्होंने बड़े स्नेहिल नेत्रों से नारद की ओर देखा और कहा- ‘‘ऋषि नारद भक्तिमर्मज्ञ हैं। उनका कथन सर्वथा सत्य है। कभी-कभी कोई सौभाग्यशाली ऐसा महापात्र होता है कि उसमें परमात्मा प्रकाशित होता है लेकिन जरा यह भेद तनिक समझने योग्य है। अभिव्यक्त नहीं प्रकाशित। किसी विरले भक्त में भक्ति इतनी बह उठती है कि उनके पात्र के ऊपर से बहने लगता है परमात्मा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २१३

रविवार, 6 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग ३

प्रेम का अमृत छिड़क कर शुष्क जीवन को  सजीव बनाइये      

नित्य कई आदमी मरते हुए आप देखते हैं, मरघट में आए दिन चिताऐं जलती रहती हैं, इसका जरा भी प्रभाव नहीं होता, एक उपेक्षा भरी दृष्टि से उस शव संस्कार को देखकर अपने काम में लग जाते हैं। पर जब अपना कोई प्रियजन मरता है तब तो फूट-फूट कर रोते हैं, आँसुओं की झड़ी नहीं रुकती, दुनियाँ सूनी दीखती है। भूख-प्यास उड़ जाती है, दुःख-शोक की व्याकुलता  में चारों ओर अंधेरा छा जाता है। पड़ोसी का भाई मरा था तब चेहरे पर जरा सी शिकन भी न आई थी, पर आज इतनी व्याकुलता क्यों? मरते तो सभी एक समान हैं, पर एक की मृत्यु का जरा भी शोक न हो दूसरे के लिए इतनी वेदना क्यों? कारण यह है जिस व्यक्ति में आत्मभाव सम्मिलित कर रखा था, वह प्रिय था, प्रिय के विछोह में ही तो दुःख होता है। अपने घर पुत्र पैदा हुआ तो खुशी से फूले नहीं समाते, पडोसी के घर बच्चा जन्मे तो कुछ प्रयोजन नहीं।
 
यह स्वाभाविक बात है। कुछ शिकायत या भर्त्सना के रूप में यह  पंक्तियाँ नहीं लिखी जा रही हैं। हमारा प्रयोजन केवल यह बताने का है कि गुण- अवगुण के कारण ही हम वस्तुओं को प्यार नहीं करते वरन प्रमुख कारण उसमें आत्मभाव का अपने स्वार्थ का समन्वित होना है। जिससे जितना स्वार्थ है वह उतना ही अधिक प्रिय लगेगा। शोक का कारण भी यही है जिसके अभाव में अपनी जितनी क्षति मालूम पडेगी उसी मात्रा में उसके लिए वेदना होगी। उपन्यास पढने मे वह पात्र आपको पसंद आता है जिसके साथ मन ही मन आत्मीयता की एक पतली सी डोरी बाँध लेते हैं। उस समय पर जब विपत्ति पडती है या सफलता पाता है, विजयी होता है तो आपका हृदय भी उसी प्रकार की भावनाओं से तरंगित हो उठता है। सिनेमा, नाटक खेल देखने जाते  है, जिस अभिनेता के साथ किसी कारणवश आत्म भाव का पतला तार बँध जाता है, उसकी हार-जीत, आशा-निराशा के साथ आपका मन भी तरंगित होता है। मनोरंजन दिलचसिपी भावान्दोलन का रहस्य यही है। यदि किसी अभिनेता या पात्र के साथ एकीभाव स्थापित न कर सकें तो उस खेल के देखने या उपन्यास के पढने में जरा भी मजा न आवेगा। दर्शनीय स्थलों को देखकर कुछ व्यक्ति तो बहुत प्रसन्नता अनुभव करते हैं, तरंगित होते हैं, परंतु कुछ ऐसे भी होते हैं जिन पर उन दृश्यों का जरा भी प्रभाव नहीं पड़ता। कारण यह है कि उस सुंदर दर्शनीय स्थान से जो व्यक्ति एक मानसिक संबंध जोडता है, स्थापित करता है, उस वातावरण की अनुभूति अपने में आकर्षित करता है, उसे आनंद आता है। जो ' हमें क्या मतलब, हमको क्या लाभ ' ऐसा सोचकर देखता है, उसे कुछ भी विशेषता दिखाई नहीं पड़ती। किसी अद्भुत दृश्य को वह कौतूहल की दृष्टि से देख तो सकता है परंतु भावुक हृदय व्यक्ति उस दृश्य से आनंद ग्रहण करता है, यह दूसरी ही बात है।

तत्त्वस्थिति यह है कि संसार की एक भी वस्तु न तो प्रिय है, न अप्रिय। किसी कारणवश आकर्षित होकर जब उसमें  आत्मभाव जोड दिया जाता है तो वह प्रिय लगने लगती है। जिससे स्वार्थ का विरोध पड़ता है वह बुरी लगती है और जिससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कुछ भी संबंध नहीं, उसके प्रति उपेक्षा रहती है। यही प्रिय और अप्रिय का दार्शनिक विवेचन है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ४

👉 भक्तिगाथा (भाग १०६)

गूंगे का गुड़ है भक्ति

महर्षि कहोड़ के इस कथन को देवर्षि सहित सभी सुनते रहे। वे जो कह रहे थे, उसमें सार था। सब जानते थे कि गायत्री की साधना ने विशेष तौर पर गायत्रीभक्ति ने महर्षि को जीवन के सत्य एवं तत्त्व का मर्मज्ञ बना दिया है। उनकी वाणी में मन्त्रमयता है और अन्तस्  में ऋषित्व। वे जो भी कहते हैं, वह वेदवचन हो जाता है। उनके व्यक्तित्व का ऐसा होना स्वाभाविक ही था क्योंकि वेदमाता के वरद्पुत्र के स्वरों में यह तेजस् वर्चस न होगा तो भला अन्यत्र कहाँ होगा।

वे बोल रहे थे और सभी सुन रहे थे। महर्षि कहोड़ आगे बोले- ‘‘भक्ति का अनुभव अन्य सभी अनुभवों से अलग है। अन्य अनुभव या तो इन्द्रियों के होते हैं अथवा फिर मन के। इन्द्रियों के अनुभव छूने, सूंघने, स्वाद लेने, सुनने, देखने तक सीमित हैं। इन्द्रियाँ सीमित को अपने सीमित दायरे में अनुभव करती हैं इसलिए उसकी बौद्धिक व्याख्या सम्भव है। यही अवस्था मन की है। मन का क्षेत्र इन्द्रियों की तुलना में बड़ा होते हुए भी असीम नहीं है। इसलिए इसकी भी बौद्धिक व्याख्या हो जाती है।

हाँ! इन दोनों में एक भेद अवश्य है। इन्द्रियाँ प्रायः दृश्य जगत-पदार्थ जगत् की अनुभूतियाँ करती हैं इसलिए इनकी तार्किक, वैज्ञानिक व्याख्या होती है। इन्हें दुहराया जा सकता है परन्तु मन इन्द्रियों से परे के सच का अनुभव भी करता है। इसलिए ये अनुभव अधिक व्यापक होते हैं। इसी वजह से इनकी उतनी विशद् व्याख्या नहीं हो पाती क्योंकि इनके अनुभव में दृश्य के साथ अदृश्य घुला होता है और कभी-कभी तो केवल अदृश्य ही अदृश्य होता है। ऐसे में इन्हें बताने के लिए, कहने के लिए, बुद्धि को पुरजोर प्रयास करने पड़ते हैं। फिर भी इसे ठीक-ठीक सफलता नहीं मिलती। जितनी भी सफलता इस प्रयास में मिलती है, उससे अनुभव की अभिव्यक्ति दार्शनिक सूत्रों में, काव्य में अथवा अन्य रहस्यमय भाषाओं में होती है। जिसका सत्य केवल वे ही समझ पाते हैं, जिनकी मानसिक चेतना उस तल पर जा पहुँची हो। बाकी सब तो यूं ही भटकते और औरों को बेकार में भटकाते हैं।’’

महर्षि कहोड़ का स्वर शान्त था। वे बड़े ही प्रमुदित-प्रसन्न मन से कह रहे थे। सुनने वालों को भी लग रहा था कि महर्षि का कथन न केवल श्रवणीय है, बल्कि चिन्तनीय, मननीय एवं स्मरणीय भी है। सभी शान्त थे और एकाग्रता के साथ सुन रहे थे क्योंकि उन सबको पता था कि महर्षि के द्वारा कहा जा रहा प्रत्येक अक्षर अनुभव के अमृतरस में डूबा है। वे कुछ देर के लिए ठहरे फिर बोले- ‘‘भक्ति का अनुभव, इन सभी अनुभवों से अलग है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह अनुभव इन्द्रियों अथवा मन के दायरे से परे और पार, शुद्ध चित्त में होता है। यहाँ से यह सम्पूर्ण आत्मा एवं अस्तित्त्व में संव्याप्त हो जाता है।

इस अनुभव को पाने वाला पहले तो स्वयं ही अपना होश खो बैठता है। उसकी भावचेतना स्वतः ही विसर्जन एवं विलय की भावदशा में पहुँच जाती है। स्थिति कुछ ऐसी बनती है जैसे कि नमक का पुतला समुद्र को मापने जाय। अब जब पुतला ही नमक का बना है तो समुद्र की गहराई को छूते ही गल जाएगा। भला ऐसे में जब उसका अपना अस्तित्त्व ही विलीन एवं विसर्जित हो गया, तब वह लौट कर समुद्र के बारे में किस तरह व कैसे बताएगा? कुछ ऐसी ही स्थिति भक्ति का अनुभव पाने वाले भक्त की होती है। वह अनुभव करता है कि उसकी भावचेतना सम्पूर्णता में भगवती में विलीन एवं विसर्जित हो चुकी है। ऐसे में उसकी स्थिति गुड़ खाने वाले गूंगे की भाँति हो जाती है। अब भला यह अति व्यापक एवं अलौकिक अनुभव की बात कौन कहे? किससे कहे?’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २११

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग २

प्रेम का अमृत छिड़क कर शुष्क जीवन को  सजीव बनाइये      
                                 
जो भी वस्तुएँ आपके आसपास मौजूद हैं, उनमें से कुछ आपको अच्छी लगती हैं, कुछ बुरी, कुछ की ओर ध्यान भी नहीं जाता। जो अच्छी लगती उनसे  प्यार करते हैं, जो बुरी लगती हैं उनसे घृणा करते हैं, जो उपेक्षित हैं उनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। आप चाहते हैं कि प्रिय वस्तुएँ सदा अधिक मात्रा में पास रहें, वे आपको सुख देती हैं, सुखदायक वस्तुओं की समीपता सभी को पसंद है।

आइए अब यह विचार करें कि वस्तुओं के अच्छा लगने का क्या कारण है? यह कहना ठीक नहीं कि गुणवान वस्तुएँ स्वभावत: प्रिय लगती हैं। यह अधूरी व्याख्या है। सच बात यह है कि जिस वस्तु में जितनी मात्रा मे अपनापन- आत्मभाव, स्वार्थभाव है, वह उसी परिमाण में प्रिय लगती है, गुण रहित हो तो भी अच्छी लगती है। आपका अपना छोटा सा बालक है, वह सिर्फ रोना ही जानता है, दिन को रोता है, रात को रोकर बार-बार नींद उचटा लेता है, गोदी में लें तो मल से साफ कपड़ों को खराब कर देता है। उसमें एक भी गुण नहीं दुर्गुण  बहुत हैं तो भी आप उसके लिए कपड़ों की, दूध की, दवा-दारू की खर्चीली व्यवस्था करते हैं, कष्ट उठाते हैं फिर भी उसे प्यार करते हैं। कारण यह है कि उस बालक में आपका आत्मभाव है, अपनापन है। दूसरं के बच्चे यदि आपके ऊपर टट्टी कर दें तो यह बुरा लगेगा। पडोसी का गोरा, सलौना बच्चा, अपने काले-कलूटे बच्चे से अच्छा थोड़े ही लगेगा? यहाँ सौंदर्य या गुण की प्रमुखता नहीं है, अपनेपन का महत्त्व है।

एक मकान के आप मालिक हैं वह बहुत अच्छा लगता है, उसकी अच्छाई की प्रशंसा करते नहीं थकते, टूट-फूट, मरम्मत, सजावट का दृश्य ध्यान रखते हैं, संयोगवश यह मकान बिक कर दूसरे के हाथ चला जाता है, अब आप निश्चित हो गए टूट-फूट से कोई मतलब नहीं, आज फूट जाए चाहे हजार वर्ष  खड़ा रहे ? कल तक जो मकान इतना प्रिय था, आज ही उससे सारा संबंध छूट गया। इतनी शीघ्र इतनी अधिक विरक्ति का कारण क्या है? कारण यह है कि कल तक उसके साथ जो अपनापन चिपटा हुआ था, आज नहीं रहा। कल जिस रुपयों से भरी थैली को अत्यंत उत्साह से छाती से चिपटाए फिरते थे वह आज दूसरे व्यापारी के पास चली गई, यदि वे रुपए अब चोरी चले जाए तो आपको कुछ भी कष्ट न होगा। उन रुपयों के बदले जो माल खरीदा है वह अब प्यारा लगने लगा, कल वह माल भी पड़ोस में पडा था पर तब उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखते थे, आज उसको सुरक्षित रखने के लिए चोटी का पसीना एडी तक बहा रहे हैं। माल वही कल था, वही आज है। अंतर केवल इतना कि आज अपना हो गया, अपनापन ही तो अच्छा लगने का कारण है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ३

👉 भक्तिगाथा (भाग १०६)

गूंगे का गुड़ है भक्ति

महर्षि की कही गयी पंक्तियाँ सभी के अन्तःकरण में स्वरित होती रहीं। सब के मन-प्राण बरबस इन स्वरों से झंकृत होते रहे। अनायास ही सब कुछ ठहर गया। ऐसा लगने लगा जैसे कि चेतन की चैतन्यता के साथ जड़ की जड़ता भी इन स्वरों में घुल गयी है। सदा-सर्वदा अचल रहने वाली हिमशिखरों की कौन कहे- वायु एवं जल भी अपनी गति भूल गए। हिमपशुओं एवं हिमपक्षियों के रव भी मौन हो गए। भावों का अतिरेक होता ही कुछ ऐसा है। भाव थोड़े हों तो कहे जा सकते हैं, इनसे चिन्तन-चेतना में कुछ हलचल सम्भव है परन्तु यदि व्यक्तित्व में भावों का महासमुद्र ही उमड़ पड़े तो सब कुछ अनायास-अचानक स्तम्भित हो जाता है। यहाँ भी हर कोई कुछ कहना या पूछना भूल गया।

न केवल समाधि के अभ्यस्त महर्षि मौन बने रहे, बल्कि देवों, यक्षों एवं गन्धर्वों का मण्डल भी मूक रहा। हाँ! इतना अवश्य था कि सभी भक्ति के अपूर्व स्वाद की अनुभूति कर रहे थे। मौन में सब कुछ घटित हो रहा था। ऋषि कहोड़ की उपस्थिति ही कुछ ऐसी थी कि वे कुछ कहें तो सुनने वालों के प्राण स्तम्भित अचल हो उन्हें ग्रहण करने की कोशिश करते थे। अभी स्थिति कुछ ऐसी ही थी। महर्षि शान्त बैठे हुए थे और उनके आस-पास के सम्पूर्ण परिसर में सर्वत्र प्रशान्ति व्याप्त थी। देर तक बाहर-भीतर सब ओर मौन व्याप्त रहा।

इसका भेदन सबसे पहले महर्षि कहोड़ ने ही किया। वह बोले- ‘‘अरे! आप सब तो ऐसे हो गए हैं, जैसे कि गूंगे को गुड़ खिला दिया गया हो पर मैं  तो भगवान नारायण के प्रिय एवं परमभक्त देवर्षि नारद से अनुरोध करना चाहता हूँ कि वे अपने अगले सूत्र से हम सभी को कृतार्थ करें।’’ महर्षि के इस कथन पर देवर्षि ने कोई भी प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की। वे बस दम साधे बैठे रहे, कुछ बोले ही नहीं। अतिविनयशील देवर्षि की कोई प्रतिक्रिया न पाकर ऋषि कहोड़ को भी तनिक अचरज हुआ। वे पुनः बोले- ‘‘देवर्षि! आप कहीं खो गए हैं क्या?’’ इस बार देवर्षि की चेतना में चेत हुआ। वे तनिक चौंकते फिर स्थिर होते हुए बोले- ‘‘खो तो अवश्य गया था महर्षि, परन्तु अन्यत्र कहीं नहीं, बस आपमें और आपके स्वरों में। इन्हीं की स्वादानुभूति में डूबा था।’’

‘‘कैसा लगा इनका स्वाद?’’ महर्षि के इस प्रश्न पर देवर्षि ने कहा- ‘‘हे भगवन! आपके प्रश्न का उत्तर ही मेरा अगला सूत्र है’’-
‘मूकास्वादनवत्’॥ ५२॥
गूंगे के स्वाद की तरह।

देवर्षि के इस कथन पर ऋषि कहोड़ ने कहा- ‘‘आपने उचित ही कहा देवर्षि! अनुभूति जितनी व्यापक एवं सघन होती है, उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही असम्भव हो जाती है। फिर भी चलना और चलते ही जाना तो भगवती की भक्ति है। आध्यात्मिक जीवन जड़ता के टूटने और छूटने का नाम है। चैतन्य तो प्रवाह है, यात्रा है। इसमें निरन्तरता और अनन्तता है। पत्थर तो ठहर जाता है, लेकिन फूल कैसे ठहरे! फूल को तो जाना है और होना है। फूल को तो एक करोड़ फूल होना है, एक अरब फूल होना है। फूल को अपनी सुरभि सम्पूर्ण धरती-अम्बर में बिखेरनी है, बांटनी है। पत्थर के पास बांटने के लिए भला है भी क्या?’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २०९

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १

भूमिका 

प्रसन्नता, आनंद और संतोष की प्राप्ति के लिए लोग संसार को छान डालते हैं, इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं, वस्तुओं के संग्रह की धूम मचा देते हैं तथा अनेक प्रकार की चेष्टाएँ करते हैं, इतने पर भी अभीष्ट वस्तु प्राप्त नहीं होती। सारे कष्ट साध्य प्रयास निरर्थक चले जाते हैं, मनुष्य प्यासे का प्यासा रह जाता है।

कारण यह है कि उल्लास का उद्गम अपनी आत्मा है, संसार की किसी वस्तु में वह उपलब्ध नहीं हो सकता। जब तक यह तथ्य समझ में नहीं आता, तब तक बालू से तेल निकालने की तरह आनंद प्राप्ति के प्रयास निष्फल ही रहते हैं। जब हम यह समझ लेते हैं कि आनंद का स्रोत अपने अंदर है और उसे अपने अंदर से ही ढूँढ निकालना होगा, तब सीधा रास्ता मिल जाता है।

आंतरिक सद्वृत्तियों को विकसित करके आंतरिक उल्लास को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है? बिना' भौतिक वस्तुओं का संचय किए किस प्रकार हम हर घड़ी आनन्द में सरावोर रह सकते हैं? यह तथ्य इस पुस्तक में बताया गया है। आशा है कि पाठक इससे लाभ उठावेंगे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ २

👉 भक्तिगाथा (भाग १०५)

अनिर्वचनीय है प्रेम 

‘अनिवर्चनीयं प्रेमस्वरूपम्’॥ ५१॥ 
प्रेम का स्वरूप अनिवर्चनीय है। 

‘‘सत्य कहा आपने देवर्षि।’’ ब्रह्मर्षि ने बड़े ही कृतज्ञ स्वरों में कहा- ‘‘आपका यह सूत्र अलौकिक है और इस अलौकिकता का मैं साक्षी रहा हूँ। ऋषि कहोड़ की प्रेममयी साधना ने स्वयं आदिशक्ति माता गायत्री को प्रेममय बना दिया है। इनके प्रेम के सम्मुख भावमयी माता कितनी ही बार विकल, विवश एवं विह्वल हुई हैं। कितनी ही बार उन्होंने अपनी इन अद्भुत सन्तान के निहोरे किए हैं- कुछ तो ले लो पुत्र। अपने लिए न सही मेरा मान रखने के लिए ही सही। पर हर बार माता के परम भक्त कहोड़ बस विकल हो बिलख दिए। बहुत हुआ तो रूंधे स्वरों में बस इतना कह दिया- क्या माँ मुझे अपने से अलग समझती हैं अथवा मैं कुछ ज्यादा बड़ा हो गया, जो वह मुझे कुछ देना चाहती हैं। तब अन्त में जगन्माता ने इन्हें देने का एक ऐसा उपाय सोचा जो इन महान ऋषि की ही भांति अनूठा था।’’ 

‘‘वह क्या?’’ अनेकों स्वर एक साथ मुखर हुए। इन स्वरों को सुनकर विश्वामित्र की आँखें भीग आयीं। उन्होंने कहा- ‘‘यह ऐसा वरदान है, जो इतने कठिन तप के बाद मुझे भी कभी सुलभ नहीं हुआ।’’ ‘‘ऐसा क्या अनूठा वरदान मिला है महर्षि?’’ सुनने वालों की जिज्ञासा की त्वरा बरबस ही होठों पर आ गयी। तब ब्रह्मर्षि ने कहा- ‘‘कोई विश्वास करे या न करे पर यह सच है कि माता गायत्री एक सामान्य नारी और एक माँ की भाँति अपने स्वयं के हाथों से भोजन बनाकर इन परम तेजस्वी महर्षि कहोड़ को अपने हाथों से खिलाती हैं।’’

‘‘आश्चर्य!’’ सुनने वालों के अनेक कण्ठों से एक साथ निकला। ‘‘जो समस्त ऋद्धियों-सिद्धियों एवं निधियों की स्वामिनी हैं, उन राजराजेश्वरी का एक रूप यह भी है।’’ इसे सुनकर ऋषि कहोड़ ने भाव भीगे स्वरों में कहा- ‘‘वे किसी के लिए कुछ भी हों, पर मेरी सिर्फ माँ हैं।’’ 

‘‘अवश्य महर्षि’’, ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने कहा- ‘‘यही तो भक्ति है जिसने समस्त सृष्टिचक्र को अपने संकेत मात्र से चलाने वाली जगन्माता को भी विवश कर रखा है। सचमुच ही भक्ति का सार तत्त्व सिर्फ प्रेम है। ऐसा प्रेम जिसका बखान स्वयं सरस्वती भी सम्भवतः न कर सकें। यह ऐसा रूपान्तरण है, जो भक्ति के अंकुरित होते ही होने लगता है। जिसके गीत कुछ यूं गाये जा सकते हैं-

जो अन्तर की आग, अधर पर
आकर वही पराग बन गयी
पांखों का चापल्य सहज ही
आँखों का आकाश बन गया।
फूटा कली का भाग्य, सुमन का
साहसपूर्ण विकास बन गया
अवचेतन में छुपा अंधेरा
चेतन का पूर्ण प्रकाश बन गया।
द्वन्द्व लीन मानस का मधु छल
प्राणों का विश्वास बन गया
घृणा-वैर का छिपा कुंहासा
भक्ति-प्रेम का ज्वार बन गया।
स्व की जड़ता स्वयं से
बदल कर देखो परम विवेक बन गया।
जो अभेद है अनायास वह
भाषित होकर भेद बन गया
सप्तम चक्र तक पहुँच चेतना
कोमल भक्ति सुगीत बन गयी
जो अन्तर की आग, अधर पर
आकर वही पराग बन गयी।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २०७

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...