सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 66)

🔵 समस्त विश्व को समान प्रेम की दृष्टि से देखो। अपनी व्यक्तिगत मित्रता की निष्ठा के द्वारा राह समझ लो कि प्रत्येक व्यक्तिगत जीवन में मौलिक रूप में वही सुन्दर ज्योति प्रकाशित हो रही है जिसे तुम उसमें देखते हो, जिसे तुम भाई के प्रिय नाम से पुकारते हो। विश्वजनीन बनो। अपने शत्रु से भी प्रेम करो। शत्रु मित्र का यह भेद केवल सतह पर ही है। गहरे! भीतर गहरे में केवल ब्रह्म ही है। सभी वस्तु तथा व्यक्ति में केवल ब्रह्म को ही देखना सीखो। किन्तु फिर भी उप्रियता तथा स्वभाव के कलह से बचने के लिये पर्याप्त सावधान रहो।

🔴 सर्वोच्च अर्थ में वास्तविक संबंध वही है जिसमें संबंधत्व का भान ही नहीं है और इसीलिये आध्यात्मिक है। व्यष्टि के बदले समष्टि को पहचानना सीखो। शरीर के स्थान पर आत्मा को पहचानना सीखो। तब तुम अपने मित्र के अधिक निकट होओगे। मृत्यु भी तुम्हें अलग न कर सकेगी तथा स्वयं के भीतर स भी प्रकार के भेदों को जीत -लेने के कारण तुम्हारी दृष्टि में कोई शत्रु भी न होगा। सभी रूपों में जो सौंदर्य है उसे देखो किन्तु उसे प्राप्त करने को इच्छा के बदले उसकी पूजा करो। प्रत्येक जीव तथा रूप तुम्हारे  लिये आध्यात्मिक सन्देह हो।

🔵 सभी विचार जिस स्वभाव से उत्पन्न होते हैं, उसी से संबंधित होते हैं। इसलिये दूसरों की बातें सुनने पर उसके अनुभवात्मक पक्ष को देखो, तर्क को नहीं। तब कोई वाद विवाद उत्पन्न नहीं होगा, तथा तुम्हारे स्वयं के अनुभव को नई प्रेरणा मिलेगी। फिर यह भी जान रखो कि मौन प्राय : उत्तम होता है तथा बोलना और तर्क करना हमारी शक्तियों का अपव्यय करता है। तथा सदैव यह स्मरण रखो कि अपने हीरों को बैंगनवालों के सामने कभी न डालो। उसी प्रकार सभी भावनायें भी स्वभाव से ही संबंधित होती हैं।

🔴 अत: उनके प्रति आसक्त होने के बदले उनके साक्षी बनो। यह जान लो कि विचार तथा भावनाएँ दोनों ही माया के क्षेत्र के अन्तर्गत हैं। किन्तु माया का भी अध्यात्मीकरण करना होगा। अपने जीव भाव को परमात्मभाव के अधिकार में हो जाने दो। इसलिये अनासक्त रहो। क्योंकि तुम आज जो सोचते हो तथा अनुभव करते हो वह कल, हो सकता है, तुम्हें आगे न बढ़ाये। तथा सर्वोपरि यह जान लो कि अपने सच्चे स्वरूप में तुम भाव और विचारों से मुक्त हो। भाव और विचार तुम्हारे सत्य स्वरूप को प्रगट करने में सहायक मात्र होते हैं। इसलिये अपने भाव और विचारों को महान् तथा विश्वजनीन होने दो तथा सर्वोपरि उन्हें पूर्णतः निस्वार्थ होने दो। तब इस संसार के घोर अहंकार में भी तम उस शाश्वत ज्योति को देख सकोगे। भले ही प्रारभ में वह क्षीण क्यों न प्रतीत हो।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

👉 हमारी युग निर्माण योजना भाग 5

🌹 युग की वह पुकार जिसे पूरा होना ही है

🔵 (1) स्वस्थ शरीर, (2) स्वच्छ मन और, (3) सभ्य समाज की अभिनव रचना यही युग-निर्माण का उद्देश्य है। इसके लिए अपना व्यक्तित्व, अपना परिवार और अपना समाज हमें आत्मिक दृष्टि से उत्कृष्ट बनाना पड़ेगा। भौतिक सुसज्जा कितनी ही प्राप्त क्यों न करली जाय, जब तक आत्मिक उत्कृष्टता न बढ़ेगी तब तक न मनुष्य सुखी रहेगा और न सन्तुष्ट। उसकी सफलता एवं समृद्धि भी क्षणिक तथा दिखावटी मानी जायगी।

🔴 मनुष्य का वास्तविक पराक्रम उसके सद्गुणों से ही निखरता है। सद्गुणी ही सच्ची प्रगति कर सकता है। उच्च अन्तःकरण वाले, विशाल हृदय, दूरदर्शी एवं दृढ़ चरित्र व्यक्ति अपना गौरव प्रकट करते हैं, दूसरों का मार्ग दर्शन कर सकने लायक क्षमता सम्पन्न होते हैं। ऐसे लोगों का बाहुल्य होने से ही कोई राष्ट्र सच्चे अर्थों में समर्थ एवं समृद्ध बनता है।

🔵 योजना के विविध कार्यक्रमों में यही तथ्य सन्निहित है। व्यक्ति का विकास, परिवार का निर्माण और सामाजिक उत्कर्ष में परिपूर्ण सहयोग की त्रिविधि प्रवृत्तियां जन-साधारण के मनःक्षेत्र में प्रतिष्ठापित एवं परिपोषित करने के लिए यह अभियान आरम्भ किया गया है। इसकी सफलता असफलता पर हमारा वैयक्तिक एवं सामूहिक भविष्य उज्ज्वल या अन्धकारमय बनेगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞     🌿🌞     🌿🌞

👉 हमारी युग निर्माण योजना भाग 4

🌹 युग की वह पुकार जिसे पूरा होना ही है

🔵 कोई प्रसन्न नहीं, कहीं सन्तोष नहीं, किधर भी शान्ति नहीं। दुर्दशा के चक्रव्यूह में फंसा हुआ मानव प्राणी अपनी मुक्ति का मार्ग खोजता है, पर उसे किधर भी आशा की किरणें दिखाई नहीं पड़तीं। अन्धकार और निराशा के श्मशान में भटकती हुई मानव अन्तरात्मा खेद और विक्षोभ के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त नहीं करती। बाहरी आडम्बर दिन-दिन बढ़ते चले जा रहे हैं, पर भीतर-ही-भीतर सब कुछ खोखला और पोला बनता चला जा रहा है। उस स्थिति में रहते हुए न कोई सन्तुष्ट रहेगा और न शान्त।

🔴 यह प्रत्यक्ष है कि यदि सम्पूर्ण विनाश ही अभीष्ट न हो तो आज की परिस्थितियों का अविलम्ब परिवर्तन अनिवार्यतः आवश्यक है। स्थिति की विषमता को देखते हुए अब इतनी भी गुंजाइश नहीं रही कि पचास-चालीस वर्ष भी इसी ढर्रे को और आगे चलने दिया जाय। अब दुनिया की चाल बहुत तेज हो गई है। चलने का युग बीत गया, अब हम लोग दौड़ने के युग में रह रहे हैं। सब कुछ दौड़ता हुआ दीखता है।

🔵 इस घुड़दौड़ में पतन और विनाश भी उतनी ही तेजी से बढ़ा चला आ रहा है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्रतिरोध एवं परिवर्तन यदि कुछ समय और रुका रहे तो समय हाथ से निकल जायगा और हम इतने गहरे गर्त में गिर पड़ेंगे कि फिर उठ सकना सम्भव न रहेगा। इसलिए आज की ही घड़ी इसके लिए सबसे श्रेष्ठ मुहूर्त है, जब कि परिवर्तन की प्रतिक्रिया का शुभारम्भ किया जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞     🌿🌞     🌿🌞

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 65)

ध्यान के शांत क्षणों में गुरुदेव की वाणी ने मेरी आत्मा से आनंद के ये शब्द कहे: -

🔵 वत्स! जब तक विचार हैं तब तक उसका मूर्त पक्ष भी रहेगा। इस कारण देवता तथा अन्य आध्यात्मिक यथार्थताएँ मूलतः सत्य हैं। विश्व के असंख्य स्तर हैं। किन्तु उन सभी के भीतर ब्रह्म की कांति चमक रही है। जब तुम ब्रह्म की अनुभूति करोगे तब तुम्हारे लिए चेतना की सभी स्थिति और अवस्थाएँ एक हो जायेगी। इसलिए सभी सत्यों को स्वीकार करो तथा परमात्मा के सभी पक्षों की पूजा करो। उदारमना एवं विश्वजनीन बनो। धर्म के क्षेत्र का विस्तार करो। जीवन के सभी क्षेत्रों में धर्म की भावना को एक संभावना के रूप में देखो।

🔴 जहाँ कहीं भी, जिस किसी प्रकार का अनुभव हो, उसकी आध्यात्मिक व्याख्या करो, वहाँ ईश्वर की वाणी सुनी जा सकेगी। सभी घटनाओं में दूसरे पक्ष को देखना सीखो तब तुम कभी कट्टर न बनोगे। आध्यात्मिक समर्पण के द्वारा अति साधारण सार का कार्य भी पारमार्थिक बन जाता है। समस्त विश्व को पारमार्थिक जीवन से परिपूर्ण देखो। सभी भेदबुद्धि को पोंछ डालो। दृष्टि की सारी संकुचितता को नष्ट कर दो। दृष्टिसीमा का तब तक विस्तार करो जब तक कि वह असीम तथा सर्वग्राही न हो जाय। भगवान कहते हैं जहाँ भी सदाचार है यह जान लो कि मैं वहाँ हूँ।

🔵 पौधे के चारों ओर बेड़ा लगाना उपयोगी है किन्तु अंकुर को उसकी छाया तले आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को आश्रय तथा सुरक्षा देने वाला विशाल वृक्ष अवश्य होना चाहिये। उसी प्रकार भेदबुद्धि किसी भावविशेष के विकास के लिये उपयोगी हो सकती है किन्तु ऐसा समय अवश्य आना चाहिये कि वह भावविशेष विश्वजनीन रूप अवश्य ले ले। उदार बनो वत्स, उदार बनो। औदार्य को एक स्वाभाविक वृत्ति बना लो। क्योंकि बौद्धिक रूप में जो उपलब्ध किया जाय उसे भावनात्मक रूप में भी अवश्य उपलब्ध करना चाहिये।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...