शनिवार, 26 नवंबर 2016

👉 गृहस्थ-योग (भाग 16) 27 Nov

🌹 गृहस्थ धर्म तुच्छ नहीं है

🔵  यह एक बिल्कुल ही बे सिर पैर का विचार है कि पुराने समय में ऋषि लोग अविवाहित ही रहते थे। यह ठीक है कि ऋषि मुनियों में कुछ ऐसे भी थे, जो बहुत समय तक अथवा आजीवन ब्रह्मचारी रहते थे पर उसमें से अधिकांश गृहस्थ थे। स्त्री बच्चों के साथ होने से तपश्चर्या में आत्मोन्नति में उन्हें सहायता मिलती थी। इसलिए पुराणों में पग-पग पर इस बात की साक्षी मिलती है कि भारतीय महर्षिगण, योगी, यती, साधु, तपस्वी, अन्वेषक, चिकित्सक, वक्ता, रचियता, उपदेष्टा, दार्शनिक, अध्यापक, नेता आदि विविध रूपों में अपना जीवन-यापन करते थे और अपने महान-कार्य में स्त्री बच्चों को भी भागीदारी बनाते थे।

🔴  आध्यात्मिक मार्ग पर कदम बढ़ाने वाले साधक के आज अज्ञान और अविवेक भरे मूढ़ विश्वासों ने एक भारी उलझन पैदा कर दी है। ‘‘आत्म साधना गृहस्थ से नहीं हो सकती, स्त्री नरक का द्वार है, कुटुम्ब परिवार माया का बन्धन है, इनके रहते भजन नहीं हो सकता, परमात्मा नहीं मिल सकता’’ इस प्रकार की अज्ञान जन्य भ्रम पूर्ण कल्पनाऐं साधक के मस्तिष्क में चक्कर लगाती हैं। परिणाम यह होता है कि या तो वह आत्म मार्ग को अपने लिये असंभव समझ कर उसे छोड़ देता है या फिर पारिवारिक महान् उत्तरदायित्व को छोड़कर भीख टूक मांग खाने के लिये घर से निकल भागता है।

🔵  यदि बीच में ही लटका रहा तो और भी अधिक दुर्दशा होती है। परिवार उसे गले में बंधे हुए चक्की के पाट की तरह भार रूप प्रतीत होता है। उपेक्षा, लापरवाही, गैर जिम्मेदारी के दृष्टि से बर्ताव करने के कारण उसके हर एक व्यवहार में कुरूपता एवं कटुता रहने लगती है। स्त्री बच्चे सोचते हैं कि यह हमारे जीवन को दुखमय बनाने वाला है, शत्रुता के भाव मन में जगते हैं, प्रतिशोध की वृत्तियां पैदा होती हैं, कटुता कलह, घृणा और तिरष्कार के विषैले वातावरण की सृष्टि होती है। उस वातावरण में रहने वाला कोई भी प्राणी स्वस्थता और प्रसन्नता कायम नहीं रख सकता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 29)

🌹 जन-मानस को धर्म-दीक्षित करने की योजना

🔵 35. जन्म-दिन समारोह— हर व्यक्ति का जन्मदिन समारोह मनाया जाय। उसके स्वजन सम्बन्धी बधाई और शुभ कामनाएं दिया करें। एक छोटा जन्मोत्सव मनाया जाया करे जिसमें वह व्यक्ति आत्म-निरीक्षण करते हुए शेष जीवन को और भी अधिक आदर्शमय बनाने के लिए कदम उठाया करे। बधाई देने वाले लोग भी कुछ ऐसा ही प्रोत्साहन उसे दिया करें। हर जन्म-दिन जीवन शोधन की प्रेरणा का पर्व बने, ऐसी प्रथा परम्पराएं प्रचलित की जानी चाहिये।

🔴 36. व्रतशीलता की धर्म धारणा— प्रत्येक व्यक्ति व्रतशील बने, इसके लिये व्रत आन्दोलन को जन्म दिया जाना चाहिए। भोजन, ब्रह्मचर्य, अर्थ उपार्जन, दिनचर्या, खर्च का निर्धारित बजट, स्वाध्याय, उपासना, व्यायाम, दान, सोना, उठना आदि हर कार्य की निर्धारित मर्यादाएं अपनी परिस्थितियों के अनुकूल निर्धारित करके उसका कड़ाई के साथ पालन करने की आवश्यकता हर व्यक्ति अनुभव करे, ऐसा लोक शिक्षण किया जाय। बुरी आदतों को क्रमशः घटाते चलना और सद्गुणों को निरन्तर बढ़ाते चलना भी इस आन्दोलन का एक अंग रहे। साधनामय, संयमी और मर्यादित जीवन बिताने की कला हर व्यक्ति को सिखाई जाय ताकि उसके लिये प्रगतिशील हो सकना संभव हो सके।

🔵 37. मन्दिरों को प्रेरणा-केन्द्र बनाया जाय— मन्दिर, मठों को नैतिक एवं धार्मिक प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाया जाय। इतनी बड़ी इमारतों में प्रौढ़ पाठशालायें, रात्रि पाठशालायें, कथा-कीर्तन, प्रवचन, उपदेश, पर्व त्यौहारों के सामूहिक आयोजन, यज्ञोपवीत, मुण्डन आदि संस्कारों के कार्यक्रम, औषधालय, पुस्तकालय, संगीत, शिक्षा, आसन, प्राणायाम, व्यायाम की व्यवस्था, व्रत आन्दोलन जैसी युग-निर्माण की अनेकों गतिविधियों को चलाया जा सकता है। भगवान की सेवा पूजा करने वाले व्यक्ति ऐसे हों जो बचे हुए समय का उपयोग मन्दिर को धर्म प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाये रहने और उनका संचालन करने में लगाया करें। प्रतिमा की आरती, पूजा, भोग, प्रसाद की तरह ही जन-सेवा के कार्यक्रमों को भी यज्ञ माना जाना चाहिए और इनके लिए मन्दिरों के संचालकों एवं कार्यकर्ताओं से अनुरोध करना चाहिए कि मन्दिरों को उपासना के साथ-साथ धर्म सेवा का भी केन्द्र बनाया जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 16) 27 Nov

🌹 *विवेक ही हमारा सच्चा मार्गदर्शक*

🔵  वस्तुस्थिति का सही मूल्यांकन कर सकना, कर्म के प्रतिफल का गम्भीरतापूर्वक निष्कर्ष निकलना, उचित-अनुचित के सम्मिश्रण में से जो श्रेयस्कर है उसी को अपनाना—यह विवेक बुद्धि का काम है। मोटी अकल इन प्रसंगों में बेतरह असफल होती है। अवांछनीयता में रहने वाला आकर्षण सामान्य चिन्तन को ऐसे व्यामोह में डाल देता है कि उसे तात्कालिक लाभ को छोड़ने का साहस ही नहीं होता, भले ही पीछे उसका प्रतिफल कुछ भी क्यों न भुगतना पड़े।

🔴  इसी व्यामोह में ग्रस्त होकर अधिकतर लोग आलस्य-प्रमाद से लेकर व्यसन-व्यभिचार तक और क्रूर कुकर्मों की परिधि तक बढ़ते चले जाते हैं। इन्द्रिय लिप्सा में ग्रस्त होकर लोग अपना स्वास्थ्य चौपट करते हैं। वासना-तृष्णा के गुलाम किस प्रकार बहुमूल्य जीवन का निरर्थक गतिविधियों में जीवन सम्पदा गंवाते हैं—यह प्रत्यक्ष है। आंतरिक दोष-दुर्गुणों, षडरिपुओं को अपनाये रहकर व्यक्ति किस प्रकार खोखला होता चला जाता है, इसका प्रमाण आत्म-समीक्षा करके हम स्वयं ही पा सकते हैं।

🔵  अनर्थ मूलक भ्रम-जंजाल से निकालकर श्रेयस्कर दिशा देने की क्षमता केवल विवेक में ही होती है। वह जिसके पास मौजूद है समझना चाहिए कि उसी के लिए औचित्य अपनाना सम्भव होगा और वही कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर सकने में समर्थ होगा। विवेक शीलता की कमी अन्य किसी गुण से पूरी नहीं हो सकती, अन्य गुण कितनी ही बड़ी मात्रा में क्यों न हों, पर यदि विवेक का अभाव है तो वह सही दिशा का चुनाव न कर सकेगा। दिग्भ्रान्त मनुष्य कितना ही श्रम क्यों न करे अभीष्ट लक्ष्य तक पहुंच सकना उसके लिए सम्भव ही न होगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 27 Nov 2016


👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 40)

🌞  तीसरा अध्याय

🔴  संतोष और धैर्य धारण करो कार्य कठिन है, पर इसके द्वारा जो पुरस्कार मिलता है, उसका लाभ बड़ा भारी है। यदि वर्षों के कठिन अभ्यास और मनन द्वारा भी तुम अपने पद, सत्ता, महत्व, गौरव, शक्ति की चेतना प्राप्त कर सको, तब भी वह करना ही चाहिए। यदि तुम इन विचारों में हमसे सहमत हो, तो केवल पढ़कर ही संतुष्ट मत हो जाओ। अध्ययन करो, मनन करो, आशा करो, साहस करो और सावधानी तथा गम्भीरता के साथ इस साधन-पथ की ओर चल पड़ो।

🔵  इस पाठ का बीज मंत्र-

    'मैं' सत्ता हूँ। मन मेरे प्रकट होने का उपकरण है।
    'मैं' मन से भिन्न हूँ। उसकी सत्ता पर आश्रित नहीं हूँ।
    'मैं' मन का सेवक नहीं, शासक हूँ।
    'मैं' बुद्धि, स्वभाव, इच्छा और अन्य समस्त मानसिक उपकरणों को अपने से अलग कर सकता हूँ। तब जो कुछ शेष रह जाता है, वह 'मैं' हूँ।
    'मैं' अजर-अमर, अविकारी और एक रस हूँ।
    'मैं हूँ'।.......

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part3.4

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...