गुरुवार, 12 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 46) :-- गुरु के स्वर को हृदय के संगीत में सुनें

🔴  शिष्य संजीवनी के सेवन का अनुभव जिन्हें है, वे इसके प्रभावों से भी परीचित हो गए हैं। अनुभूति यही कहती है कि शिष्य संजीवनी के नियमित सेवन से भावों के विकार, विचारों के दोष अनायास ही दूर होने लगते हैं। मनोभूमि का बंजरपन उर्वरता में रूपान्तरित होता है। स्थिति कुछ ऐसी बनती है कि शिष्यत्व के बीज अंकुरित हो सके। साधना जीवन में यह बड़ी उपलब्धि है। क्योंकि जो शिष्य है, गुरु की गुरुता वही पहचान पाता है। जहाँ शिष्यत्व होता है, वहीं पर सद्गुरु की कृपा का अवतरण होता है। शिष्यत्व के अभाव में सद्गुरु की कृपा वर्षण के कोई आसार नहीं होते। जो शिष्यत्व से वंचित है, वंचना ही उसके गले पड़ती है।

🔵  अपने सद्गुरु की कृपा का अमृत हम पर बरसे और हम उसमें भीगें। शिष्य संजीवनी के सूत्र इसी सुयोग को साधने के लिए हैं। बादलों की बरसात तो मौसम आने पर होती है, पर उसका लाभ केवल चतुर किसान ही ले पाते हैं। अन्यथा बरसात का पानी तो बस नदी- नालों के रास्ते बह जाता है। इस जल प्रवाह को लहलहाती फसल में बदलने के लिए सुयोग्य कृषक का विवेकपूर्ण एवं साहस भरा श्रम चाहिए। ठीक यही बात सद्गुरु की कृपा के बारे में है, यदि हमने अपने अन्तःकरण को उर्वर बनाया है, उसमें शिष्यत्व के बीज बोए है, फिर सद्गुरु कृपा के मेघ हमें वंचित नहीं रखेंगे। हमारे भीतर साधना की फसलें लहलहाए बिना नहीं रहेंगी।

🔴  यह सुयोग कैसे बनें? इसके लिए शिष्य संजीवनी के ग्यारहवें सूत्र को अपने जीवन रस में घोलना होगा। इसमें शिष्यत्व साधना में प्रवीण जन कहते हैं- जीवन का संगीत सुनो। इस संगीत को सुनने के लिए तुम्हें अपने दिल की गहराइयों में उतरना होगा। यह काम आसान नहीं है। शुरुआत में यही अहसास होगा कि यहाँ तो ऐसा कोई संगीत नहीं है। कितना ही खोजो पर एक बेसुरे कोलाहल के सिवा और कुछ भी सुनायी नहीं पड़ता। पर तुम्हें थकना नहीं है, बस और अधिक गहराइयों में उतरना है। इसके बावजूद भी यदि निष्फलता हाथ लगे तो हारे नहीं, बल्कि और ज्यादा गहरे में उतर कर फिर से ढूंढो। भरोसा करो, एक नैसर्गिक संगीत का दिव्य स्त्रोत हम सभी के हृदयों में है। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
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