मंगलवार, 28 अगस्त 2018

👉 तृष्णा

🔶 एक व्यापारी था, वह ट्रक में चावल के बोरे लिए जा रहा था। एक बोरा खिसक कर गिर गया। कुछ चीटियां आयीं 10-20 दाने ले गयीं, कुछ चूहे आये 100-50 ग्राम खाये और चले गये, कुछ पक्षी आये थोड़ा खाकर उड़ गये, कुछ गायें आयीं 2-3 किलो खाकर चली गयीं, एक मनुष्य आया और वह पूरा बोरा ही उठा ले गया।

🔷 अन्य प्राणी पेट के लिए जीते हैं, लेकिन मनुष्य तृष्णा में जीता है। इसीलिए इसके पास सब कुछ होते हुए भी यह सर्वाधिक दुखी है।
आवश्यकता के बाद इच्छा को रोकें, अन्यथा यह अनियंत्रित बढ़ती ही जायेगी, और दुख का कारण बनेगी।✍🏻

चौराहे पर खड़ी जिंदगी,
नजरें दौड़ाती हैं... 👀
काश कोई बोर्ड दिख जाए
जिस पर लिखा हो... ✍🏻😌🙏🏻

"सुकून..
0. कि.मी." 

👉 बड़प्पन का व्यावहारिक मापदण्ड

🔷 एक राजा थे। बन-विहार को निकले। रास्ते में प्यास लगी। नजर दौड़ाई एक अन्धे की झोपड़ी दिखी। उसमें जल भरा घड़ा दूर से ही दीख रहा था।

🔶 राजा ने सिपाही को भेजा और एक लोटा जल माँग लाने के लिए कहा। सिपाही वहाँ पहुँचा और बोला- ऐ अन्धे एक लोटा पानी दे दे। अन्धा अकड़ू था। उसने तुरन्त कहा- चल-चल तेरे जैसे सिपाहियों से मैं नहीं डरता। पानी तुझे नहीं दूँगा। सिपाही निराश लौट पड़ा। इसके बाद सेनापति को पानी लाने के लिए भेजा गया। सेनापति ने समीप जाकर कहा अन्धे! पैसा मिलेगा पानी दे।

🔷 अन्धा फिर अकड़ पड़ा। उसने कहा, पहले वाले का यह सरदार मालूम पड़ता है। फिर भी चुपड़ी बातें बना कर दबाव डालता है, जा-जा यहाँ से पानी नहीं मिलेगा।

🔶 सेनापति को भी खाली हाथ लौटता देखकर राजा स्वयं चल पड़े। समीप पहुँचकर वृद्ध जन को सर्वप्रथम नमस्कार किया और कहा- ‘प्यास से गला सूख रहा है। एक लोटा जल दे सकें तो बड़ी कृपा होगी।’

🔷 अंधे ने सत्कारपूर्वक उन्हें पास बिठाया और कहा- ‘आप जैसे श्रेष्ठ जनों का राजा जैसा आदर है। जल तो क्या मेरा शरीर भी स्वागत में हाजिर है। कोई और भी सेवा हो तो बतायें।

🔶 राजा ने शीतल जल से अपनी प्यास बुझाई फिर नम्र वाणी में पूछा- ‘आपको तो दिखाई पड़ नहीं रहा है फिर जल माँगने वालों को सिपाही सरदार और राजा के रूप में कैसे पहचान पाये?’

🔷 अन्धे ने कहा- ‘वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के वास्तविक स्तर का पता चल जाता है।’

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 28 August 2018


👉 आज का सद्चिंतन 28 Aug 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 40)

👉 उत्कृष्टता के साथ जुड़ें, प्रतिभा के अनुदान पाएँ

🔷 दुर्दांत रावण का अंत होना था, तो दो तापसी युवक ही उस विशाल परिकर को धराशायी करने में समर्थ हो गए। दुर्धर्ष हिरण्यकश्यपु हारा और प्रह्लाद का सिक्का जम गया। समय आने पर, किसी दिग्भ्रांत करने वाले झाड़ -झंखारों के जंगल को दावानल बनकर नष्ट करने में एक चिनगारी भी पर्याप्त हो सकती है। प्रलय की चुनौती जैसी ताड़का को राम ने और पूतना को कृष्ण ने बचपन में ही तो धराशायी कर दिया था। महाकाल का संकल्प यदि युग परिवर्तन का तारतम्य इन्हीं दिनों बिठा ले, तो किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
  
🔶 निकट भविष्य की कुछ सुनिश्चित संभावनाएँ ऐसी हैं, जिनमें हाथ डालने वाले सफल होकर ही रहेंगे। अर्जुन की तरह नियति द्वारा पहले से ही मारे गए विपक्षियों का हनन करके अनायास ही श्रेय और प्रेम का दुहरा लाभ प्राप्त करेंगे। इसी माहौल में उन्हें प्रतिभा परिवर्धन का वह लाभ भी मिल जाएगा, जिसके आधार पर मूर्द्धन्य युगशिल्पियों में उनकी गणना हो सके।
  
🔷 अगले दिनों प्रचलित दुष्प्रवृत्तियों में से अधिकांश अपनी मौत मरेंगी, जिस प्रकार शीत ऋतु में मक्खी-मच्छरों का प्रकृति परंपरा के अनुसार अंत हो जाता है। अंधविश्वास, मूढमान्यताएँ, रूढ़ियाँ अंधपरंपराएँ, दूरदर्शी विवेकशीलता का उषाकाल प्रकट होते ही, उल्लू-चमगादड़ों की तरह अपने कोटरों में जा घुसेंगी। संग्रही और अपव्ययी जिस प्रकार आज अपना दर्प दिखाते हैं, उसके लिए तब कोई आधार शेष न रहेगा। संग्रही, आलसी और लालची तब भाग्यवान होने की दुहाई न दे सकेंगे। एक और भी बड़ी बात यह होगी कि चिरकाल से उपेक्षित नारी वर्ग न केवल अपनी गरिमा को उपलब्ध करेगा, वरन् उसे नर का मार्गदर्शन-नेतृत्व करने का गौरव भी मिलेगा। पिसे हुए, पिछड़े हुए ग्राम उभरेंगे और उन सभी सुविधाओं से संपन्न होंगे, जिनके लिए उस क्षेत्र के निवासियों को आज शहरों की ओर भागना पड़ता है। समता और एकता के मार्ग में अड़े हुए अवरोध एक-एक करके स्वयं हटेंगे और औचित्य के विकसित होने का मार्ग साफ करते जाएँगे। सम्मान वैभव को नहीं, उस वर्चस्व को मिलेगा जो आदर्शों के लिए उत्सर्ग करने का साहस सँजोता है। पाखंड का कुहासा पिछले दिनों कितना ही सघन क्यों न रहा हो, अगले दिनों उसके लंबे समय तक पैर जमाए रहने की कोई संभावना नहीं है।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 50

👉 Think High, Aim High

🔶 You may get clay toys with ease. But it’s not so easy to find gold. The tendencies of mind are often downwards and naturally drag it towards harmful actions and sins. However, it requires substantial efforts and zeal to carry out something worth, auspicious and beneficial. For example, the natural flow of water is from higher to lower levels, but the use of powerful pumps etc is required to take it upwards.

🔷 Sensual passions, ignorance-driven ambitions, untoward thoughts are hidden enemies that delude the mind of giving ‘pleasure’ but enslave it in a vicious trap. Likewise the gravitational force of the earth, they also have some kind of power of attraction, which pulls more and more tendencies and thoughts of similar
kind.

🔶 But, the same is true of positive, sane thoughts, aspirations and determination as well; they also attract the likes and create more powerful field of attraction. Once we awaken the will and vigilance to think wisely and practice restraining the accumulated passions, we will begin to experience the transforming effects. Unchecked accumulation of negative thoughts and vices sooner or later leads to decline, anxiety, despair and sinful sufferings. We should therefore be careful and watch and control our thoughts from this very moment.

📖 Akhand Jyoti,April 1940 Page 11

👉 Scientific Basis of Gayatri Mantra Japa (Part 7)

🔷 Nothing can then stop his march towards self-awakening. Human ego-centered false self and its gross appearance is only a vehicle for the manifestation of his soul. This world of mirage is not his true home. He is guided by divine grace on his journey back to his real home- the realm of eternal light. Just, as the puppet show would be absurdly haphazard if even a few threads that control its movements are broken or loosened, as the young kid is orphaned and becomes helpless due to the sudden demise of his parents, as the house becomes dark in the night if its electrical power supply is cut, similarly the soul, the individual self, suffers an illusory, ignorant, and evanescent existence if its subliminal linkage with divinity is broken.

🔶 We are way-lost children in the wilderness of this illusory phenomenon; groping for the sunlit path leading us back home. Finding this sunlit path and reestablishment of this lost connection with the source by awakening of the true inner consciousness is the third factor of japa-sadhana. In the powers of japa, the inner self awakens and recognizes its soul-identity; the soul too recalls its divine nature.

🔷 As this retrieval of lost memory progresses, it ponders upon its origin more deeply and gets anxious to unite with the source. This intensifies the reactivation of its sublime connection with the divine self. It calls upon the divine Mother (Gayatri) to save and protect it from illusions, diversions and pitfalls of the worldly cycle. This stage purifies the sadhaka's gross and subtle bodies; his mind now gets educed and illuminated by positive and righteous aspirations. His personality is gradually suffused with nobility.

📖 Akhand Jyoti, Mar Apr 2003

👉 उद्देश्य ऊँचा रखें

🔶 मिट्टी के खिलौने जितनी आसानी से मिल जाते हैं, उतनी आसानी से सोना नहीं मिलता। पापों की ओर आसानी से मन चला जाता है, किंतु पुण्य कर्मों की ओर प्रवृत्त करने में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पानी की धारा नीचे पथ पर कितनी तेजी से अग्रसर होती है, किन्तु अगर ऊँचे स्थान पर चढ़ाना हो, तो पंप आदि लगाने का प्रयत्न किया जाता है।

🔷 बुरे विचार, तामसी संकल्प, ऐसे पदार्थ हैं, जो बड़ा मनोरंजन करते हुए मन में धॅस जाते हैं और साथ ही अपनी मारकशक्ति को भी ले आते हैं। स्वार्थमयी नीच भावनाओं का वैज्ञाननिक विश्लेषण करके जाना गया है कि वे काले रंग की छुरियों के समान तीक्ष्ण एवं तेजाब की तरह दाहक होती हैं। उन्हें जहाँ थोड़ा-सा भी स्थान मिला कि अपने सदृश और भी बहुत-सी सामग्री खींच लेती हैं। विचारों में भी पृथ्वी आदि तत्त्वों की भाँति खिंचने और खींचने की शक्ति होती है। तदनुसार अपनी भावना को पुष्ट करने वाले उसी जाति के विचार उड़-उड़ कर वहीं एकत्रित होने लगते हैं।

🔶 यही बात भले विचारों के संबंध में है। वे भी अपने सजातियों को अपने साथ इकट्ठे करके बहुकुटुंबी बनने में पीछे नहीं रहते। जिन्होंने बहुत समय तक बुरे विचारों को मन में स्थान दिया है, उन्हें चिंता, भय और निराशा का शिकार होना ही पड़ेगा। 

📖 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 1940 पृष्ठ-11

👉 यह समय युगपरिवर्तन का

🔷 मित्रो ! सुदामा बगल में दबी चावल की पोटली देना नहीं चाहते थे, सकुचा रहे थे, पर उनने उस दुराव को बलपूर्वक छीना और चावल देने की उदारता परखने के बाद ही द्वारिकापुरी को सुदामापुरी में रूपांतरित किया। भक्त और भगवान् के मध्यवर्ती इतिहास की परंपरा यही रही है। पात्रता जाँचने के उपरांत ही किसी को कुछ महत्त्वपूर्ण मिला है। जो आँखें मटकाते, आँसू बहाते, रामधुन की ताली बजाकर बड़े-बड़े उपहार पाना चाहते, हैं, उनकी अनुदारता खाली हाथ ही लौटती है। भगवान् को ठगा नहीं जा सकता है । वे गोपियों तक से छाछ प्राप्त किए बिना अपने अनुग्रह का परिचय नहीं देते थे। जो गोवर्धन उठाने में सहायता करने के हिम्मत जुुटा सके, वही कृष्ण के सच्चे सखाओं में गिने जा सके।

🔶 यह समय युगपरिवर्तन जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य का है। इसे आदर्शवादी कठोर सैनिकों के लिए परीक्षा की घड़ी कहा जाए, तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं समझी जानी चाहिए। पुराना कचारा हटता है और उसके  स्थान पर नवीनता के उत्साह भरे सरंजाम  जुटते हैं। यह महान् परिवर्तन  की-महाक्रांति की वेला है। इसमें  कायर, लोभी, डरपोक और भाँड़  आदि जहाँ-तहाँ छिपे  हों तो उनकी ओर घृणा व तिरस्कार की दृष्टि डालते हुए उन्हें अनदेखा भी किया जा सकता है। यहाँ तो प्रसंग हथियारों से सुसज्जित सेना का चल रहा है। वे ही यदि समय को महत्त्व व आवश्यकता को न समझते हुए, जहाँ-तहाँ मटरगस्ती करते फिरें और समय पर हथियार न पाने के कारण  समूची सेना को परास्त होना पड़े तो ऐसे व्यक्तियों पर तो हर किसी का रोष ही बरसेगा, जिनने आपातस्थिति में भी प्रमाद बरता और अपना तथा अपने देश के गौरव को मटियामेट करके रख दिया।

✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञावतार की विस्तार प्रक्रिया पृष्ठ-२३

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...