शनिवार, 8 मई 2021

👉 चाफेकर बन्धु

8 मई, 1859 बलिदान दिवस
                    
चाफेकर बन्धु तीन भाई थे, तीनों सगे भाई थे और तीनों को ही फाँसी की सज़ा हुई. उनके नाम थे दामोदर हरि चाफेकर, बालकृष्ण हरि चाफेकर और वासुदेव हरि चाफेकर.
                   
फाँसी लगने के पश्चात् स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता चाफेकर बन्धुओं की माँ को सांत्वना देने के लिए उनके परिवार में पहुँची. उनकी माँ को देखकर वह स्तब्ध रह गयीं.
                  
उनकी कल्पना के विपरीत वह माँ बिलकुल शान्त, अविचल, मुख मण्डल पर वेदना की एक भी रेखा नहीं बल्कि गर्व से माथा उन्नत. सांत्वना के कोई भी शब्द कहे बिना केवल चरणस्पर्श करके वह वापस आ गयीं.
                   
सन् 1857 में पूना में प्लेग की महामारी फैली. लोग चूहों की तरह फटाफट मरने लगे. सरकार ने उसकी रोकथाम के लिए चार्ल्स रैंड को लगाया. उसके सिपाही रोकथाम के नाम पर हर घर में घुस जाते. जूता पहनकर पूजा गृह तथा रसोईघर में घुस जाते.
                    
महिलाओं द्वारा विरोध करने पर उनसे अशिष्ट एवं अभद्र व्यवहार करते. यहाँ तक घर का सामान उठाकर चले जाते. रैंड की कठोरता के विरुद्ध चाफेकर बन्धुओं ने उसे सबक सिखाने का निश्चय किया.
                   
22 जून,1857 को महारानी विक्टोरिया के राज्यभिषेक की हीरक जयंती का समारोह किया जाना था. दामोदर और बालकृष्ण ने विचार किया कि उस दिन मौज मस्ती के कारण रैंड असावधान होगा तब उसका काम तमाम किया जा सकता है.
                   
सांयकाल के समय गवर्नमेंट हाऊस के विशाल समारोह में लगभग साढ़े सात बजे चार्ल्स रैंड की बग्घी पहुँची. तीनों भाई उसकी घात लगाए बैठे थे. रात्रि 12 बजे समारोह समाप्त हुआ. धीरे-धीरे बग्घी वापस आने लगी और बालकृष्ण ने बग्घी को पहचान लिया.
                    
उसने 'नारया नारया' की आवाज़ लगाई आवाज सुनते ही दामोदर पायदान पर चढ़ गया, बायें हाथ से पर्दा हटाया और बिलकुल पास से रैंड पर गोली दाग़ दी, रैंड वहीं ढेर हो गया. दामोदर भाग खड़े हुए.
                       
रैंड की बग्घी के बिलकुल पीछे मि. आयरिश की बग्घी आ रही थी और वह शराब के नशे में धुत था. उनकी पत्नी ने उन्हें सावधान किया किन्तु निष्फल. इसी दौरान एक युवक ने उस पर गोली चला दी और वो भी वहीं ढेर हो गया. वह युवक था बालकृष्ण चाफेकर.
                      
दोनों अंग्रेज़ी अफ़सरों के वध का गुप्तचर विभाग के अध्यक्ष मि. ब्रुइन को सौंपा गया. किन्तु दो महीनों के प्रयास के पश्चात् निराशा ही हाथ लगी. तब उन्हें पकड़वाने के लिए 20 हज़ार रुपये का ईनाम घोषित किया गया. अंत में रामचंद्र द्रविड़ और गणेश शंकर द्रविड़ इस लोभ में आ गये.
                     
उन्होंने ही मि.ब्रुइन को बताया कि यह काम दामोदर चाफेकर और बालकृष्ण चाफेकर का हो सकता है. दामोदर चाफेकर पकड़े गए लेकिन बाल कृष्ण चाफेकर बच निकले.
                    
दामोदर के ख़िलाफ़ कोई सबूत न होते हुए भी न्यायाधीश ने हत्या का मामला बनाकर 18 अप्रैल,1858 को दामोदर हरि चाफेकर को फाँसी की सज़ा दे दी.
                     
अब बालकृष्ण को पकड़ने की बारी थी. उसे पकड़ने के लिए उसके सगे, सम्बन्धियों को तरह-तरह की यातनाएं दी जा रही थी. तब बालकृष्ण ने आत्मसमर्पण कर दिया और उसे भी 12 मई,1858 को फाँसी दे दी गयी.
                      
अब गणेश शंकर द्रविड़ और रामचंद्र द्रविड़ को सबक सिखाने की बात थी. महादेव रानडे और वासुदेव चाफेकर दोनों ने मिलकर द्रविड़ बन्धुओं को अपनी गोली का शिकार बनाया. गणेश तो वहीं ढेर हो गया, रामचंद्र को अस्पताल ले जाया गया, उसने भी वहाँ पहुँचकर दम तोड़ दिया. 20 हज़ार ईनाम के बदले उन्हें मौत का सामना करना पड़ा.
                     
वासुदेव चाफेकर और महादेव रानडे पकड़े गए. मुकद्दमा चला और फाँसी की सज़ा हुई. वासुदेव चाफेकर को 8 मई और महादेव रानडे को 10 मई को फाँसी दे दी गई.

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