गुरुवार, 1 सितंबर 2016

👉 कर्त्तव्य-पालन 👉 Transacting the Duties

🔴 जिन कार्यों को करने की हृदय स्वीकृति दे, वही मनुष्य का कर्त्तव्य अथवा धर्म है और हृदय जिन कार्यों को करने की सलाह न दे, उन्हें नहीं करना चाहिए क्योंकि वे अधर्म या अकर्त्तव्य हैं।

🔵 जो मनुष्य अपने कर्त्तव्यों का यथोचित रीति से पालन करता है, उस सदाचारी मनुष्य को कभी भी कोई दु:ख नहीं सहन करना पड़ता। क्योंकि वह ईश्वर की इच्छानुसार कार्य करता है, इसलिए ईश्वर सदैव उस पर दया दृष्टि रखते हैं। प्राय: ऊपर से देखने पर सदाचारी पुरुष निर्धन और दु:खी मालूम होते हैं, पर वास्तव में यह बात नहीं है। सदाचारी पुरुष में असाधारण दैवी शक्ति है, वह दु:खी कैसा। सदाचारी पुरुष निर्धन तो हो ही नहीं सकता।

🔴 सच पूछा जाए तो सच्चा खजाना सदाचारी के ही पास है। उसका वह खजाना कभी खाली नहीं होता, उसे खर्च करने पर बढ़ता ही जाता है। सदाचार के विचारों का चिंतन करने से ही आत्मा को अपार शांति और शीतलता प्राप्त होती है। दुष्टों को सदा अपने दुश्मनों का भय बना रहता है कि कहीं कोई हमारा अनिष्ट न कर दे, पर सदाचारी के पास ये सब बाते कहाँ? वहाँ न कोई दोस्त है न दुश्मन। उसके लिए तो सारा संसार एक-सा है।

🔵 ईश्वर चाहता है कि प्राणी इस जगत् में अच्छे-अच्छे कार्य करें और अंत में परम मोक्ष को प्राप्त हो।

🌹 -अखण्ड ज्योति -फरवरी 1941


👉 Transacting the Duties

🔵 That which is unambiguously permitted by your conscience is righteous, worth doing. That which is prevented or is doubted by your inner self should not be done. This is how duties and the ‘faux pas’ could be defined in simplest terms for those whose hearts are pure and minds are enlightened enough to grasp the impulse of the inner self.

🔴 One who is sincere in transacting his duties is worthy of God’s grace. He will never be helpless or sorry in any circumstance. He is a beloved disciple of God who bears the responsibilities selflessly as per thy will. Such morally refined, virtuous persons might be found lacking in wealth or in worldly (materialistic) possessions, but this would be only in the gross terms. In reality, such devotees possess immense spiritual power. How could they have any worry or scarcity? Austerity of life is their choice… Indeed the greatest treasure of the world lies with such saintly people only. This limitless treasure never empties; rather, it expands more and more with spending…

🔵 A vicious man always has a threat of being counter-attacked by the enemies; his own evils and negativity ruin all the peace and joy from his life. But the whole world is benevolent for a moral, duty-bond altruistic fellow. No one is his enemy; neither he has any attachment with anybody. Everything, everyone, is alike for him. His heart is full of love for everyone.

🔴 A thought of morality and saintly virtues itself inspires a unique feeling of peace, hope and enlightenment in the inner self. God wants each one of us to experience it and follow it towards sublime evolution of our lives…

🌹 -Akhand Jyoti, Feb. 1941

👉 Samadhi Ke Sopan 👉 समाधि के सोपान (भाग 29)

जब मेरा मन ध्यान की शांति में पहुँचा तब श्री गुरुदेव की वाणी ने कहा-

🔴 वत्स! क्या मैं तुम्हारी दुर्बलताओं को नहीं जानता हूँ? फिर तुम चिन्ता क्यों करते हो ? क्या जीवन परीक्षा और क्लेशों से आक्रान्त नहीं हैं? पर तुम मनुष्य हो। मन में कापुरुषता न आने दो। स्मरण रखो तुम्हारे भीतर सर्वशक्तिमान आत्मा है। तुम जो होना चाहो वही हो सकते हो। इसमें केवल एक ही बाधा है और वह तुम स्वयं हो। शरीर विद्रोह करता है मन चंचल हो उठता उठता है, किन्तु लक्ष्य के संबंध में निश्चित रहो। क्योंकि अन्ततः आत्मा की शक्ति के आगे कोई नहीं टिक सकता। यदि तुम स्वयं वो प्रति निष्ठावान हो, यदि तुम्हारे हृदय की गहराइयों में समग्रता है तो सब कुछ ठीक हैं तुम पर कुछ भी पूर्णत: या आंशिक रूप में अधिकार नहीं कर सकता।

🔵 हृदय तथा मन के खुलेपन का विकास करो अपने संबंध में मुझसे कुछ न छिपाओ। अपने? मन का उसी प्रकार अध्ययन करो मानो वह तुमसे भिन्न कोई वस्तु है। जिससे हार्दिक संबंध है उससे अपनी मन की बातें अकफट भाव से कहो क्योंकि निष्ठावान व्यक्ति कसामने स्वयं नरक के द्वार भी नहीं टिक सकते। दृढ़ निष्ठा ही आवश्यक वस्तु है।

🔴 अन्ततः शरीरबोध के कारण ही तो तुम्हारी अधिकांश भूलें होती हैं। शरीर को मिट्टी के एक लोंदे के समान समझो। इसे अपनी इच्छाशक्ति के अधीन करलो। चरित्र ही सब कुछ है और चरित्र का बल इच्छाशक्ति ही है। यही आध्यात्मिक जीवन का संपूर्ण रहस्य है। यही धार्मिक- साधना का अर्थ है। सभ्यताओं को देखो, इन्द्रियशक्ति तथा इन्द्रियजन्य यथार्थताओं की तड़क भड़क पर मनुष्य कितना गौरवान्वित होता है, किन्तु उसके मूल में कामवासना और भोजनलिप्सा के अतिरिक्त और क्या है ? अधिकांश लोगों के मन इन दोनों सर्वग्राही वृत्तियों से ही तो बने हैं।


🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

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