शनिवार, 13 जुलाई 2019

Do Not Stary | भटकना मत | Hariye Na Himmat Day 20



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👉 परतन्त्रता संसार का सबसे बड़ा अभिशाप है।

एक सन्त के आश्रम में एक शिष्य कहीं से एक तोता ले आया और उसे पिंजरे में रख लिया। सन्त ने कई बार शिष्य से कहा कि “इसे यों कैद न करो। परतन्त्रता संसार का सबसे बड़ा अभिशाप है।”

किन्तु शिष्य अपने बालसुलभ कौतूहल को न रोक सका और उसे अर्थात् पिंजरे में बन्द किये रहा।

तब सन्त ने सोचा कि “तोता को ही स्वतंत्र होने का पाठ पढ़ाना चाहिए”

उन्होंने पिंजरा अपनी कुटी में मँगवा लिया और तोते को नित्य ही सिखाने लगे- ‘पिंजरा छोड़ दो, उड़ जाओ।’

कुछ दिन में तोते को वाक्य भली भाँति रट गया। तब एक दिन सफाई करते समय भूल से पिंजरा खुला रह गया। सन्त कुटी में आये तो देखा कि तोता बाहर निकल आया है और बड़े आराम से घूम रहा है साथ ही ऊँचे स्वर में कह भी रहा है- “पिंजरा छोड़ दो, उड़ जाओ।”

सन्त को आता देख वह पुनः पिंजरे के अन्दर चला गया और अपना पाठ बड़े जोर-जोर से दुहराने लगा। सन्त को यह देखकर बहुत ही आश्चर्य हुआ। साथ ही दुःख भी।

वे सोचते रहे “इसने केवल शब्द को ही याद किया! यदि यह इसका अर्थ भी जानता होता- तो यह इस समय इस पिंजरे से स्वतंत्र हो गया होता!

दोस्तों ठीक इसी तरह - हम सब भी ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें सीखते और करते तो हैं किन्तु उनका मर्म नहीं समझ पाते और उचित समय तथा अवसर प्राप्त होने पर भी उसका लाभ नहीं उठा पाते और जहाँ के तहाँ रह जाते हैं।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 13 July 2019


👉 आज का सद्चिंतन 13 July 2019


👉 अन्त का परिष्कार, प्रखर उपासना से ही संभव (भाग 2)

प्रकृति प्रकोप के रूप में सामूहिक दण्ड व्यवस्था ही चलती है। अति वृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, बाढ़, तूफान, महामारी, भूमि कीटक आदि के रूप में कई प्रकार की विकृतियाँ आये दिन दरवाजे पर लगी रहने की घटनाएँ पाप युग में होती हैं। सतयुग के सम्बन्ध में विवरण मिलता है कि तब मनुष्य दीर्घजीवी होते थे। बाप के सामने बेटा नहीं मरता था। वृक्ष मनचाहे फल देते थे। भूमि से प्रचुर अन्न उपजता था। गौएँ बहुत दूध देती थी। वर्षा उपयुक्त समय पर उपयुक्त मात्रा में होती थी। प्रकृति प्रकोप कभी नहीं होता था। यह प्रकृति की अनुकूलता मनुष्य की सत्प्रवृत्तियों के साथ जुड़ी हुई है। इकॉलाजी विज्ञान के अनुसार प्रकृति की विचारशीलता, सन्तुलन व्यवस्था, दूरदर्शिता एवं न्याय प्रियता का अब क्रमशः अधिकाधिक परिचय मिलता जा रहा है। सामूहिक दुष्प्रवृत्तियों का सामूहिक दण्ड भी उसी व्यवस्था के अन्तर्गत आता है।

व्यक्ति के कर्म का दण्ड व्यक्ति को मिलना चाहिए। यह व्यवस्था तो चलती ही है, पर सामूहिक उत्तरदायित्वों से बँधा रहने के कारण मनुष्य को सामूहिक दुष्प्रवृत्तियों की रोक थाम करने का भी जिम्मेदार माना है। उसकी उपेक्षा की जाय तो वह भी एक पाप बनता है। स्वयं अच्छा रहना तो उचित ही है, पर उतना ही आवश्यक यह भी है कि जिस समाज में रहा जा रहा है उसे परिष्कृत बनाये रहने की जिम्मेदारी निबाहने में भी उतनी ही तत्परता बरती जाय। अपने आप के हित साधन में लगे रहने वाले, दूसरों की उपेक्षा करने वाले स्वार्थी कहलाते है और निन्दा के पात्र बनते हैं। यद्यपि स्वार्थ साधन कोई प्रत्यक्ष अपराध नहीं है और न उससे किसी मर्यादा का प्रत्यक्षतः उल्लंघन ही होता है। फिर भी व्यक्तिवादी स्वार्थ परायण व्यक्ति निन्दित ठहराये जाते हैं, उसका एक ही कारण है कि मनुष्य के लिए सामाजिक सुव्यवस्था के प्रति उतना ही जागरूक रहना आवश्यक माना गया है जितना कि अपने निर्वाह और सुरक्षा का प्रबन्ध करना।

सरकार कई अपराधों के लिए सामूहिक जुर्माना करती है। समीपवर्तिय क्षेत्र में अपराध होता रहे इसका हमसे सीधा सम्बन्ध नहीं, यह सोचकर उसे रोका न जाय तो इस उपेक्षा को भी मानवी कर्तव्य शास्त्र में दण्डनीय अपराध माना गया है। सामूहिक जुर्माना ऐसे ही अपराधों में किये जाने की दण्ड व्यवस्था है। पड़ौस के गाँव में डकैती पड़ती रहे और जिसके पास बन्दूक का लाइसेन्स है वह डाकुओं का सामना करने न गया, तो उस कायरता को अपराध माना जायेगा और उसकी बन्दूक जब्त कर ली जायेगी। सामूहिक प्रकृति प्रकोप भी ऐसे ही सामूहिक दण्ड विधान के रूप में समूचे मनुष्य जाति पर बरसते है। आवश्यक नहीं कि जिन्हें कष्ट भुगतना पड़ा है मात्र उन्हीं का अपराध हो। मुहल्ले में गन्दगी के ढ़ेर जमा हो तो जमा करने वाले भी और उसे न रोकने वाले भी उस सड़न से हानि उठावेंगे। पड़ोस का छप्पर जलता रहे और अपने घर शान्ति पूर्वक बैठे रहा जाय तो बढ़ती हुई आग अपने को भी लपेटने लगेगी। मुहल्ले में गुन्डा गर्दी बढ़ती रहे तो अनेक सौम्य प्रकृति के बालक भी उस कुचक्र के शिकार किसी न किसी प्रकार बनकर ही रहेंगे। एक व्यक्ति दुष्कर्म करता है बदनामी सारे परिवार या गाँव की होती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 इन ग्रन्थों में मंत्रों में छिपे पड़े हैं अति गोपनीय प्रयोग (भाग 28)

आध्यात्मिक चिकित्सा के ग्रन्थ अनगिनत हैं। इनका विस्तार असीम है। प्रत्येक धर्म ने, पंथ ने आध्यात्मिक साधनाओं की खोज की है। अपने देश- काल के अनुरूप ये सभी महत्त्वपूर्ण हैं। इनका मकसद भी एक है- सम्पूर्ण स्वस्थ जीवन एवं समग्र रूप से विकसित व्यक्तित्व। इसी उद्देश्य को लेकर सभी ने गहरे आध्यात्मिक प्रयोग किए हैं- और अपने निष्कर्षों को सूत्रबद्ध, लिपिबद्ध किया है। इन प्रयोगों की शृंखला में कई बार तो ऐसा हुआ कि विशेषज्ञों की भावचेतना अपने शिखर पर पहुँच गयी और वहाँ स्वयं ही सूत्र अवतरित होने लगे। परावाणी में दैवी सन्देश प्रकट हुए। इस्लाम का पवित्र ग्रन्थ कुरआन ऐसे ही दैवी संदेशों का दिव्य संकलन है। बाइबिल की पवित्र कथाएँ भी ऐसी ही भावगंगा में प्रवाहित हुई हैं। प्राचीन पारसी जनों के जेन्द अवेस्ता से लेकर अर्वाचीन सिख गुरुओं के ग्रन्थ साहिब तक सभी ग्रन्थ देश- काल के अनुरूप अपना अहत्व दर्शाते रहे हैं। इनमें से किसी आध्यात्मिक ग्रन्थ को कमतर नहीं कहा जा सकता।

परन्तु जब बात प्राचीनता के साथ परिपूर्णता की हो, इस वैज्ञानिक युग में उसकी सामयिकता और सार्वभौमिकता की हो, तो वेद ही परम सत्य के रूप में सामने नजर आते हैं। वेद सब भाँति अद्भुत एवं अपूर्व हैं। ये समस्त सृष्टि में संव्याप्त आध्यात्मिक दृष्टि, आध्यात्मिक शक्ति एवं आध्यात्मिक प्रयोगों का पवित्र उद्गम हैं। यदि इस कथन को अतिशयोक्ति न माना जाय तो यहाँ यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि समस्त विश्व वसुधा में आध्यात्मिक भाव गंगा कहीं बही है, उसका पवित्र उद्गम वेदों का गोमुख ही है। विश्व के प्रत्येक धर्म, पंथ और मत में जो कुछ भी कहा गया है उसके सार निष्कर्ष को वेद मंत्रों में खोजा और पढ़ा जा सकता है। यदि भविष्य कथन और भविष्य दृष्टि पर किसी का विश्वास जमे तो वे जान सकते हैं कि भावी विश्व की आध्यात्मिकता वेदज्ञान पर ही टिकी होगी।

ऐसा कहने में किसी तरह का पूर्वाग्रह नहीं है। बल्कि गम्भीर व कठिन आध्यात्मिक प्रयोगों के निष्कर्ष के रूप में यह सत्य बताया जा रहा है। हां यह सच है कि वेदमंत्रों को ठीक- ठीक समझना कठिन है। क्योंकि ये बड़ी कूटभाषा में कहे गये हैं। जो लोग अपने को संस्कृत भाषा का महाज्ञानी बताकर इनके शब्दार्थों में सत्य को टटोलने की कोशिश करते हैं, उन्हें केवल भ्रमित होना पड़ता है। वे सदा खाली हाथ रहते हैं और अपने को महा- अज्ञानी सिद्ध करते हैं। वेदमंत्रों के अर्थ शब्दों के उथलेपन में नहीं साधना की गहराई में समाए हैं। सच तो यह है कि प्रत्येक वेदमंत्र की अपनी विशिष्ट साधना विधि है। एक सुनिश्चित अनुशासन है और उसके सार्थक सत्परिणाम भी हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 42

👉 Profit From Dishonesty - Merely An Illusion

Those who accept dishonesty as dignified, and adopt it to be their ideal, are failing to analyze the situation in a thorough enough manner. They are disillusioned. The truth is that money simply cannot be earned by dishonest means. Even when we do acquire some wealth temporarily, the wealth can not stay permanent and really be ours. True living can only be earned through courage, wisdom, discipline, dexterity, and skillfulness.

Dishonest earnings through inappropriate means lead to results that are not only unstable but that are also eventually painful. There might be temporary escape from direct punishment, but eventually, in the long term, dishonesty invariably leads to public anger, outrage, hate, isolation, and sadness. In practice, deceit and corruption must be sugar coated with a fake layer of honesty for it to work. Conning does require establishing trust and confidence. If any suspicion arises, the person being conned is likely to jump out of the trap. Once proven guilty, the con man loses credibility forever and ends up bearing more eventual losses than profits.

There could be scores of everyday examples where the people who are caught bribing, cheating, evading tax, doing back marketing, and illegally hoarding not only get severely punished by the law but they also loose their social status and prestige. Once their deeds become public, everyone starts hating them.

Pt. Shriram Sharma Aacharya
Badein Aadmi Nahi, Mahamanav Baniyein (Not a Big-Shot, Be Super-Human), Page 14

👉 विचार शक्ति के चमत्कार:-

विचार अपने आप में एक चिकित्सा है। शुभ कामना, सत्परामर्श रूपी विचारों का बीजारोपण यही प्रयोजन सिद्ध करते हैं।  विचार संप्रेषण, विचारों से वातावरण का निर्माण, विचार विभीषिका इसी सूक्ष्म विचार शक्ति के स्थूल परिणाम हैं। महर्षि अरविन्द व रमण ने मौन साधना की व अपनी विचार शक्ति को सूक्ष्म स्तर पर क्रियान्वित किया जिसका परिणाम था कि वातावरण में संव्याप्त विक्षोभ मिटाया जा सका तथा स्वतंत्रता आन्दोलन की लहर फैली। सारी क्रांतियाँ विचारों के स्तर से ही आरम्भ हुई हैं। साम्यवाद-प्रजातन्त्र विचार संयमजन्य सामर्थ्य की देन है। विचारों की आँधी जब आती है तो प्रचण्ड तूफान की तरह सबको अपनी लपेट में ले लेती है। बुद्ध और गांधी के समय भी इसी प्रकार आँधी आयी जिसने सूक्ष्म स्तर पर जन-जन को प्रभावित किया व परिवर्तन ला दिया।

अस्त-व्यस्त विचार-शक्ति व्यक्ति को जल्दबाज बनाते हैं व ऐसे व्यक्ति दूरगामी निर्णय न लेकर ऐसे कदम उठा सकते हैं जिन्हें प्रकारान्तर से विक्षिप्तता ही कहा जा सकता है।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1

👉 साधक के समक्ष पाँच महा बाधायें

एक नगर मे एक महान सन्त साधकों को अतिसुन्दर कथा-अमृत पिला रहे थे वो साधना के सन्दर्भ मे अति महत्तवपूर्ण जानकारी दे रहे थे। सन्त श्री कह रहे थे की साधना-पथ पर साधक के सामने पंच महाबाधाये आती है और साधक वही जो हर पल सावधानी से साधना-पथ पर चले!

1. पहली बाधा - नियमभंग की बाधा:-

जब भी आप ईष्ट के प्रति कोई नियम लोगे तो संसार आपके उस नियम को येनकेन प्रकारेण खंडित करने का प्रयास करेगा!
जैसे किसी ने नियम लिया की वो एकादशी को कुछ भी नही खायेगा तो फिर कई व्यक्ति कहेंगे की अरे इतना सा तो खालो, फल तो खालो फिर उसके सामने कुछ न कुछ लाकर जरूर रखेंगे और उसे खाने पर विवश कर देंगे!

इसलिये इससे बचने के लिये आप गोपनीयता रखो मूरखों की तरह व्यर्थ प्रदर्शन न करो माला को गोमुखी मे जपो साधना का प्रदर्शन मत करो की मैंने इतना जप किया! जब कोई अपना जीवन नियम से जीता है और जिस दिन उसका नियम टूटता है तो व्याकुलता बढ़ती है और यही व्याकुलता हमें ईश्वर की और ले जाती है!

2. दुसरी बाधा है बाह्यय लोगो से विरोध:-

इससे बचने के लिये मदमस्त हाथी की तरह चलना सब की भली बुरी सुनते हुये चलना कोई कटाक्ष करे तो इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देना व्यर्थ के प्रपंच से बचते हुये बिल्कुल अर्जुन की तरह एकाग्रचित्त होकर चलना!

3. तीसरी बाधा है साधु सन्तों द्वारा कसौटी परख:-

आपके सामने नाना प्रकार के प्रलोभन आयेंगे सिद्धियों का प्रलोभन आयेगा पर आप वैभव और सुख सुविधा का त्याग करते हुये आगे बढ़ना! जैसे आपने एक वर्ष का एक व्रत रखा और कहा की एक वर्ष तक अमुख दिन नमकीन और मीठा न खाऊंगा तो उस दिन तुम्हारे सामने नमकीन और मीठा जरूर आयेगा अब वहा जिह्वा की परीक्षा होगी इस प्रकार कई तरह की परीक्षाओ से गुजरना पड़ेगा!
इससे बचने के लिये आप त्यागी बन जाना!

4. चौथी बाधा है देवताओं द्वारा राह अवरोधन:-

जब भी किसी की साधना बढ़ती है उसका प्रभाव बढ़ता है तो देवता उसकी राह मे बड़ी बाधा उत्पन्न करते है!
कामदेव की पुरी सैना पुरी शक्ति लगा देती है जैसे विशवामित्र जी का तप भंग नारद जी को अहंकार से घायल करना इससे बचने के लिये अपनी सम्पुर्ण आसक्ति और प्रीति ईष्ट के चरणों मे रखना जब ईष्ट के चरणों मे प्रीति होगी तो देवताओं की प्रतिकूलता भी अनुकुलता मे बदल जायेगी!

सद्गुरु का सानिध्य, समर्थ सच्चे सन्त का माथे पर हाथ, ईष्ट मे एकनिष्ठ एवं सच्ची प्रीति और अविरल निष्काम सात्विक साधना से देवताओं की प्रतिकूलताओं को अनुकुलता मे बदला जा सकता है!

5. पाँचवी बाधा है अपनो का विरोध:-

गैरों की तो छोड़ो अपने भी विरोधी हो जाते है अपने ही शत्रु बन जाते है और इससे बचने के लिये आप इस सत्य को सदा याद रखना की हरी के सिवा यहाँ हमारा कोई नही है! सारा जगत है एक झूठा सपना और केवल हरी ही है हमारा अपना! और जब इस पाँचवी बाधा को भी साधक पार कर लेता है तो फिर साधक अपने ईष्ट मे समा जाता है फिर उसे संसार की नही केवल सार की परवाह रहती है!

इन बाधाओं से जब सामना हो तो घबराना मत बस अटूट प्रीति रखना ईष्ट मे और बुद्धि की रक्षा करना!

बुद्धि कई प्रकार की है पर जो बुद्धि परमतत्व से मिला दे वही सार्थक है बुद्धि ऊपर की ओर ले जाती है और श्रद्धा भीतर की ओर, इसलिये बुद्धि से श्रद्धा की ओर बढ़ो!

इष्टदेव के प्रति अटूट सार्थक नियम से प्रेम का जन्म होगा प्रेम से ईष्टदेव के श्री चरणों मे प्रीति बढेगी और जब प्रीति बढेगी तो श्रद्धा का जन्म होगा और जब श्रद्धा का जन्म होगा तो जीवन मे सच्चे सन्त का आगमन होगा और जब जीवन मे सच्चे सन्त सद्गुरु का आगमन होगा तो फिर ईश्वर के मिलने मे समय न लगेगा!

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...