रविवार, 5 सितंबर 2021

👉 सच्चा शूरवीर कौन?

वीरता की परीक्षा-साहस की कसौटी पर होती है और साहस का स्तर आदर्श की आग में परखा जाता है। आदर्श रहित साहस तो अभिशाप है। उसी को असुरता या दानवी प्रवृत्ति कहते हैं। ऐसा साहस जो आदर्शों का परित्याग कर उद्धत उच्छृंखलता अपनाये, केवल आतंक ही उत्पन्न कर सकता है। उससे क्षोभ और विनाश ही उत्पन्न हो सकता है। ऐसे दुस्साहस से तो भीरुता अच्छी भीरु व्यक्ति अपने को ही कष्ट देता है पर दुष्ट दुस्साहसी अनेकों को त्रास देता है और भ्रष्ट परम्परा स्थापित करके अपने जैसे अन्य अनेक असुर पैदा करता है।

साहस की सराहना तब है जब वह आदर्शों के लिये प्रयुक्त हो। अवाँछनीयता को निरस्त करने के काम आये और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में योगदान दे। इस प्रकार की गतिविधियाँ अपनाने वाले सत्साहसी लोगों को सच्चे अर्थों में शूरवीर कहा जा सकता है।

भय और प्रलोभन जिसे कर्तव्य पथ से डिगा नहीं सकते वह सचमुच बहादुर है। जीवन में पग-पग पर ऐसा अवसर आते हैं जिनमें अनीति अपनाकर प्रलोभन पूरा करने को गुंजाइश रहती है। आकर्षण कितनों के ही पैर फिसला देता है। रूप यौवन को देखकर शील सदाचार से पैर उखड़ने लगते हैं। मर्यादायें डगमगाने लगती हैं। पैसे का प्रलोभन समाने आने पर अनीति बरतने में संकोच नहीं होता। कोई देख नहीं रहा हो- भेद खुलने की आशंका न हो तो कोई विरले हो कुकर्म करने से मिलने वाला लाभ उठाने से चूकते हैं। आदर्शों के प्रति यह शिथिलता अन्तरात्मा की सबसे बड़ी दुर्बलता है। लोकलाज के कारण दण्ड भय का ध्यान न रखते हुए अनीति मूलक प्रलोभन से बचे रहना- यह तो संयोग की बात हुई। रोटी न मिली तो उपवास। विवशता ने दुष्कर्म का अवसर नहीं दिया, यह भी अच्छा ही हुआ। प्रतिष्ठा गँवाने की तुलना में लालच छोड़ देना ठीक समझा गया, यह बुद्धिमता और दूरदर्शिता रही, क्षणिक और तुच्छ लाभ के लिये प्रतिष्ठा से सम्बन्धित दूरगामी सत्परिणामों से वंचित होना व्यवहार बुद्धि को सहन न हुआ यह अच्छा ही रहा। पर इसे वीरता नहीं कह सकते।

साहस उसका है जो प्रलोभन के अवसर रहने पर भी- भेद न खुलने की निश्चिन्तता मिलने पर भी अनीति मूलक प्रलोभनों को इसलिए अस्वीकार कर देता है कि वह अपनी कर्तव्यनिष्ठा और आदर्शवादिता को किसी भी मूल्य पर नहीं बेचेगा। जो अमीरी का अवसर गँवा सकता है और गरीबी के दिन काट सकता है पर ईमान गँवाने को तैयार नहीं, वही बहादुरी की कसौटी पर खरा सोना सिद्ध हुआ समझा जायेगा।

✍🏻 पं श्री राम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1972 पृष्ठ 29

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ५८)

हम विश्वात्मा के घटक

मनुष्य अपने को एकाकी अनुभव करके स्वार्थान्ध रहने की भूल भले ही करता रहे, पर वस्तुतः इस विराट् ब्रह्म का-विशाल विश्व का—एक अकिंचन सा घटक मात्र है। समुद्र की लहरों की तरह उसका अस्तित्व अलग से दीखता भले ही हो, पर वस्तुतः वह समिष्टि सत्ता का एक तुच्छ सा परमाणु भर है। ऐसा परमाणु जिसे अपनी सत्ता और हलचल बनाये रहने के लिए दूसरी महा शक्तियों के अनुदान पर निर्भर रहना पड़ता है।

अपनी पृथ्वी सूर्य से बहुत दूर है और उसका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध दिखाई नहीं पड़ता फिर भी वह पूरी तरह सूर्य पर आश्रित है। सर्दी, गर्मी, वर्षा, दिन, रात्रि जैसी घटनाओं से लेकर प्राणियों में पाया जाने वाला उत्साह और अवसाद भी सूर्य सम्पर्क से सम्बन्धित रहता है। वनस्पतियों का उत्पादन और प्राणियों की हलचल में जो जीवन तत्व काम करता है उसे भौतिक परीक्षण से नापा जाय तो उसे सूर्य का ही अनुदान कहा जायेगा। असंख्य जीव कोशाओं से मिलकर एक शरीर बनता है, उन सबके समन्वित सहयोग भरे प्रयास से जीवन की गाड़ी चलती है। प्राण तत्व से इन सभी कोशाओं को अपनी स्थिति बनाये रहने की सामर्थ्य मिलती है। इसी प्रकार इस संसार के समस्त जड़ चेतन घटकों को सूर्य से अभीष्ट विकास के लिए आवश्यक अनुदान सन्तुलित और समुचित मात्रा में मिलता है।

यह सूर्य भी अपने अस्तित्व के लिए महासूर्य के अनुग्रह पर आश्रित है और महा सूर्यों को भी अतिसूर्य का कृपाकांक्षी रहना पड़ता है। अन्ततः सभी को उस महाकेन्द्र पर निर्भर रहना पड़ता है जो ज्ञान एवं शक्ति का केन्द्र है वह ब्रह्म है, सविता है। अति सूर्य, महासूर्य और सूर्य सब उसी पर आश्रित हैं।

प्राणियों, वनस्पतियों और पदार्थों की गतिविधियों पर सूर्य के प्रभाव का अध्ययन करने पर पता चलता है कि उनकी स्वावलम्बी हलचलें वस्तुतः परावलम्बी हैं।
(1) संसार अन्योन्याश्रित
(2) सूर्य चन्द मनुष्य वृक्ष जीवों को प्रभावित करते हैं। सूर्य की उंगलियों में बंधे हुए धागे ही बाजीगर द्वारा कठपुतली नचाने की तरह विभिन्न गतिविधियों की चित्र-विचित्र भूमिकाएं प्रस्तुत करते हैं। यहां तक कि प्राणियों का, मनुष्यों का चिन्तन और चरित्र तक इस शक्ति प्रवाह पर आश्रित रहता है।  केवल सूर्य वरन् न्यूनाधिक मात्रा में सौर मण्डल के ग्रह, उपग्रह तथा ब्रह्माण्ड क्षेत्र के सूर्य तारक भी हमारी सत्ता-स्थिरता एवं प्रगति को प्रभावित करते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ९४
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ५८)

कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठ है भक्ति
    
भक्तिसरिता की लहरों में भाव भीगते रहे। सप्तर्षियों के साथ अन्य ऋषियों, देवों, सिद्धों व गन्धर्वों का समुदाय भक्ति के सरस भावों में अपने को निमज्जित करता रहा। किसी को भी समय का चेत न रहा। बस उनकी चेतना के चैतन्य में भक्ति के अनेकों बिम्ब बनते और घुलते रहे। बड़ी अपूर्व स्थिति थी। ऐसा लग रहा था, जैसे कि सभी काल की सीमा से दूर चले गए हों अथवा यदि काल का स्पर्श हो भी रहा हो तो यहाँ यह काल अतीत-वर्तमान व भविष्य में खण्डित न था। यहाँ तो काल अखण्ड-अविराम हो अविरल अपनी स्वयं की सत्ता में, स्वयं ही भूला हुआ था। यह अनुभूति अद्भुत थी। महाकाल की महिमा भक्ति के इस महाभाव में झलक रही थी- छलक रही थी।
    
देर तक यह स्थिति बनी रही। धीरे-धीरे अखण्ड महाकाल के महाप्रवाह से अतीत, वर्तमान व भविष्य के काल खण्ड प्रकट होना प्रारम्भ हुए। इसके वर्तमान कालखण्ड से दिवस, रात्रि, घटी, क्षण व पल का बोध चेतना के चैतन्य में प्रकट हुआ। यह कालबोध सबसे पहले ब्रह्मर्षि वसिष्ठ की चेतना में उभरा। उन्हें चेत होने पर उनको बाह्य जगत् की स्थिति का बोध हुआ। उन्होंने देखा कि भक्ति समागम में उपस्थित सबके सब भक्ति की गहनता में खोए हुए हैं। उन्होंने निराकार ब्रह्म से एकाकार होकर ब्रह्मसंकल्प किया और फिर प्रभु के सगुण-साकार रूप का ध्यान धर सभी की चेतना के चैतन्य को बहिर्मुख किया। सचमुच ही यह बड़ी गहरी समाधि थी। अगर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ यह महत्कार्य न सम्पन्न करते तो पता नहीं कब तक सब की यह भावदशा बनी रहती।
    
परन्तु अब स्थिति भिन्न थी। अब भी सब के सब भाव विह्वल तो थे परन्तु उन्हें बाह्य जगत् का बोध था। देवर्षि को अभी भी अपनी सुधि नहीं थी। हाँ! उनके मुख से प्रभु नाम के अस्फुट स्वर अवश्य निकल रहे थे। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने उनकी ओर बड़ी भावपूर्ण दृष्टि से देखा और मीठे स्वर में बोले- ‘‘हे देवर्षि! अब आप ही हम सबको भक्ति के नवीन आयाम की ओर ले चलें, अपने नवीन सूत्र का सत्य उच्चारें।’’ ब्रह्मर्षि के इस कथन पर देवर्षि नारद ने सभी को निहारा। सभी के मुख पर जिज्ञासा की चमक थी। सब को प्रतीक्षा थी कि ब्रह्मपुत्र नारद कुछ नया कहेंगे। स्थिति को देखकर नारद ने भी बिना पल की देर लगाए कहा-
‘सा तु कर्मज्ञान योगेभ्योऽप्यधिकतरा’॥ २५॥
वह (भक्ति) कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठतर है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १०५

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...