शनिवार, 18 अप्रैल 2020

👉 कहीं पहुँचना है, तो चलना होगा: -

एक व्यक्ति प्रतिदिन आकर महात्मा बुद्ध का प्रवचन सुना करता था। उसका यह क्रम एक माह तक बराबर चला पर इस सबका उसके जीवन पर कोई प्रभाव नही पडा। महात्मा बुद्ध उसको बारबार समझाते थे कि लोभ, द्वेष और मोह पाप के मूल हैं, इन्हें त्यागो। परंतु इन बुराइयों से बचना तो दूर वह इनमे और अधिक फँसता गया।

महात्मा बुद्ध कहते थे कि क्रोध करने वाले पर जो क्रोध करता है, उसका अधिक अहित होता है। लेकिन जो क्रोध का उत्तर क्रोध से नही देता, वह एक भारी युद्ध जीत लेता है। बुद्ध के ऐसे प्रवचन सुनने के बाद भी उस व्यक्ति का स्वभाव उग्र से उग्रतर होता जा रहा था।

एक दिन वह परेशान होकर बुद्ध के पास गया, और उन्हें प्रणाम निवेदन करके अपनी समस्या सुनाई।

बुद्ध ने कहा- “कहाँ के रहने वाले हो..?”

वो बोला- “श्रावस्ती का..।“

बुद्ध ने फिर पूछा- “ राजगृह से श्रावस्ती कितनी दूर है...?“

उसने बता दिया।

बुद्ध ने पूछा- “कैसे जाते हो वहाँ...?”

वो बोला- “सवारी से...।“

बुद्ध ने फिर पूछा- “कितना वक्त लगता है..?“

उसने हिसाब लगाकर ये भी बताया।

बुद्ध बोले- “अब ये बताओ, यहाँ बैठे-बैठे श्रावस्ती पहुँच सकते हो..।“

वो बोला- “ये कैसे हो सकता है..? वहाँ पहुँचने के लिये तो चलना होगा...।“

बुद्ध बडे प्यार से बोले- "तुमने सही कहा। चलने पर ही मँजिल तक पहुँचा जा सकता है। इसी तरह अच्छी बातों का असर तभी पडता है जब उन पर अमल किया जाए। ज्ञान के अनुसार कर्म ना होने पर वह व्यर्थ जाता है।“

इसी तरह हर जानी गई अच्छी बात असर तभी लाती है जब उसको कर्म में ढाला जाए या उसका व्यवहार किया जाए। बिना अमल किया ज्ञान सिर्फ व्यर्थ ही नहीं चला जाता बल्कि वह समय के साथ भूल भी जाता है। फिर कुछ लोग यह कहते पाए जाते हैं कि वह यह अच्छी बात इसलिए नही अपना पाते हैं कि परिस्थिति अनुकूल नहीं है, तो जरा विचार कीजिए अनुकूल परिस्थिति इसीलिए तो नहीं है कि कोई भी अच्छाई पर अमल ही नही कर रहा है। बिना अच्छाई पर अमल किए अच्छी परिस्थिति कैसे आएगी। आखिर कहीं से तो शुरुआत करनी होगी॥

👉 भविष्य का सतयुगी समाज

बूंदें अलग-अलग रह कर अपनी श्री गरिमा का परिचय नहीं दे सकती। उन्हें हवा का एक झोंका भर सुखा देने में समर्थ होता है। पर जब वे मिलकर एक विशाल जलाशय का रूप धारण करती है, तो फिर उनकी समर्थता और व्यापकता देखते ही बनती है। इस तथ्य को हमें समूची मानव जाति को एकता के केन्द्र पर केन्द्रित करने के लिए साहसिक तत्परता अपनाते हुए संभव कर दिखाना होगा।

धर्म सम्प्रदाओं की विभाजन रेखा भी ऐसी है जो अपनी मान्यताओं को सच और दूसरों के प्रतिपादनों को झूठा सिद्ध करने में अपने बुद्धि वैभव से शास्त्रार्थों, टकरावों के आ पड़ने पर उतरती रही है। अस्त्र शस्त्रों वाले युद्धों ने कितना विनाश किया है, उसका प्रत्यक्ष होने के नाते लेखा जोखा लिया जा सकता है। पर अपनी धर्म मान्यता दूसरों पर थोपने के लिए कितना दबाव और कितना प्रलोभन, कितना पक्षपात और कितना अन्याय कामों में लगाया गया है, इसकी परोक्ष विवेचना किया जाना संभव हो तो प्रतीत होगा कि इस क्षेत्र के आक्रमण भी कम दुखदायी नहीं रहे है। आगे भी उसका इसी प्रकार परिपोषण और प्रचलन होता रहा तो विवाद, विनाश और विषाद घटेंगे नहीं बढ़ते ही रहेंगे। अनेकता में एकता खोज निकालने वाली दूरदर्शिता को सम्प्रदायवाद के क्षेत्र में भी प्रवेश करना चाहिए।

आरंभिक दिनों में सर्व-धर्म-समभाव, सहिष्णुता, बिना टकराये अपनी-अपनी मर्जी पर चलने की स्वतंत्रता अपनाए रहना ठीक है काम चलाऊ नीति है। अन्ततः विश्व मानव का एक ही मानव-धर्म होगा। उसके सिद्धान्त चिन्तन, चरित्र और व्यवहार के साथ जुड़ने वाली आदर्शवादिता पर अवलम्बित होंगे। मान्यताओं और परम्पराओं में से प्रत्येक को तर्क, तथ्य, प्रमाण, परीक्षण एवं अनुभव की कसौटियों पर करने के उपरान्त ही विश्व धर्म की मान्यता मिलेगी। संक्षेप में उसे आदर्शवादी व्यक्तित्व और न्यायोचित निष्ठा पर अवलम्बित माना जाएगा। विश्व धर्म की बात आज भले ही सघन तमिस्रा में कठिन मालूम पड़ती हो पर वह समय दूर नहीं, जब एकता का सूर्य उगेगा और इस समय जो अदृश्य है, असंभव प्रतीत होता है, वह उस बेला में प्रत्यक्ष एवं प्रकाशवान होकर रहेगा। यहीं है आने वाली सतयुगी समाज व्यवस्था की कुछ झलकियाँ जो हर आस्तिक को भविष्य के प्रति आशावान् बनाती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1988 पृष्ठ 54

👉 The Light of Truth

I have seen wonderful things in this world and have experienced a log, but I have not yet found any thing, which is greater than “Truth”. So many sparkling lights are there in this world but the great savants regard only the Light of Truth as the true Light. If one follows the religion of truthfulness then he is truly religious; he does not need to adopt any other religion then… The physical body can be cleansed by water but the cleanliness and sanctity of mind is possible only by truthfulness. The heart, which is purified by truth, can rule over all hearts.

A truthful person is revered in the scriptures as the greatest ascetic devotee, supreme charitable person. Siddhis (supernatural successes) will lie under his feet. What else could be bigger glory for a person other than being known as “truthful”…

Speaking truth is not only the utterance of fact as it is, it should also be auspicious and should not hurt or insult anyone. It’s better to keep quite, rather than telling a truth that harms someone and does not help anybody’s welfare. Don’t tell a lie or anything, which is false, which is not acceptable to you from within or which is unwise or unnecessary. Remember that adoption of falsehood
hurts your inner self and invites your soul’s anger and curse.

Be truthful; don’t feel shy or scared in following the path of justice. Make sure that what you think as fair is truly so, then remain firm on it forever…

📖 Akhand Jyoti, Jan. 1942

👉 प्रश्न

प्रश्न मन की लहरों के साथ उपजते हैं। मन की हर हिलोर-प्रत्येक लहर एक नया प्रश्न खड़ा करती है। जीवन की प्रत्येक घटना जो मन को स्पन्दित करती है, अनायास ही नये प्रश्न अथवा नए प्रश्नों को जन्म दे देती है। इसी तरह परिस्थितियाँ व परिवेश की हलचलें जो विचार व भावों में लहरें पैदा करने में समर्थ हैं, स्वाभाविक ही अन्तर्चेतना में प्रश्नों को जन्म देती हैं। यह क्रम न तो रुकता है न थमता है, बस नित्य-निरन्तर-अविराम चलता रहता है।
  
प्रत्येक प्रश्न मन के मौन को तोड़ता है। मन में अशान्ति, बेचैनी व तनाव को जन्म देता है। ये प्रश्न जितने अधिक, जितने गहरे व जितने व्यापक होते हैं, मन की अशान्ति, बेचैनी व तनाव भी उतना ही ज्यादा, गहरा, घना व व्यापक होता जाता है। इसी अशान्ति, बेचैनी व तनाव में मन अपनी ही कोख में उपजे प्रश्न या प्रश्नों के उत्तर खोजने की कोशिश करता है। उसे अपने इस प्रयास में सफलता भी मिलती है। उत्तर मिलते भी हैं, पर नए प्रश्नों के साथ। न जाने क्यों, बिना चाहे और बिना जाने हर उत्तर के साथ कोई न कोई प्रश्न चिपक ही जाता है।
  
साथ ही बढ़ जाती है, मन की बेचैनी व अशान्ति। क्योंकि जो भी घटना फिर वह चाहे प्रश्न की हो या उत्तर की मन में लहरें व हिलोरें पैदा करेंगी, मन को तनाव, बेचैनी व अशान्ति से ही भरेगी। इस समस्या का समाधान तभी है, जब मन की लहरें मिटें, हिलोरें हटें। फिर न कोई प्रश्न उभरेंगे और किसी उत्तर की खोज होगी। इसके लिए मन को मौन होना होगा। केवल तभी चेतना प्रश्नों के पार जा पाएगी। तभी यह समझ में आएगा कि पूछने को कुछ नहीं है, उत्तर पाने को कुछ नहीं है। इसी को समाधि कहते हैं। जहाँ सभी प्रश्न स्वाभाविक ही गिर जाते हैं। जहाँ बेचैनी, अशान्ति, तनाव अपने आप ही मिट जाता है। बस बनी रहती है तो केवल प्रश्न विहीन अमिट शान्ति।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २१६

👉 आत्म-चिंतन की साधना

रात को सब कार्यों से निवृत होकर जब सोने का समय हो तो सीधे चित्त लेट जाइये। पैर सीधे फैला दीजिए, हाथों को मोड़कर पेट पर रख लीजिए। सिर सीधा रहे। पास में दीपक या लाइट जल ररही हो तो बुझा दीजिए या मंद कर दीजिए। नेत्रों को अधखुला कर रखिए।

अनुभव कीजिए कि आपका आज का एक दिन एक जीवन था। अब जबकि एक दिन समाप्त हो रहा हैं तो एक जीवन की इतिश्री हो रही हैं। निद्रा एक मृत्यु हैं। अब इस घडी में एक दैनिक जीवन को समाप्त करके मृत्यु की गॉद में जा रहा हूँ।

आज के जीवन की आध्यात्मिक द्रष्टि से समलोचना कीजिए। प्रात:काल से लेकर सोते समय तक के कार्यों पर द्रष्टिपात कीजिए। मुझ आत्मा के लिए वह कार्य उचित था या अनुचित? यह उचित था तो उतनी सावधानी एवं शक्ति के साथ उसे करना चाहिए था उसके अनुसार किया या नहीं। बहुमूल्य समय का कितना भाग उचित रीति से व्यतीत क्या? वह दैनिक जीवन सफल रहा या असफल? आत्मिक पूँजी में लाभ हुआ या घाटा? सद्-वृत्तियाँ प्रधान रहीं या असद्-वृत्तियाँ? इस प्रकार के प्रश्नों के साथ दिनभर के कार्यों का भी निरीक्षण कीजिए।

जितना अनुचित हुआ हो उसके लिए आत्म-देव के सम्मुख पश्चाताप हैं। जो उचित हुआ हो उसके लिए परमात्मा को धन्यवाद दीजिए और प्रार्थना कीजिए कि आगामी जीवन में, उस दिशा में विशेष रूप से अग्रसर करें। इसके पश्चात् शुभ वर्ण आत्म-ज्योति का ध्यान करते हुए निद्रा देवी की गॉद में सुखपूर्वक चले जाइए।

युगऋषि श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...