शुक्रवार, 12 मई 2023

👉 अपनी वासनाएं काबू में रखिए (भाग 2)

अपने किये हुए अपराधों को दूसरों के सिर मढ़ते फिरने की कुटेव के कारण मनुष्य अपने ऐबों को नहीं देख सकता। जो कार्य उसने किया है उसका बुरा फल होने पर वह तुरन्त किसी दूसरे व्यक्ति को पकड़ने की कोशिश करने लगता है। अपने आलस्य द्वारा समय पर किये गये कार्यों की आलोचना होने पर वह अपने सिर का दोष दूसरों पर मढ़ देता है। यदि ऐसा करने के बदले वह अपने अपराध को मुक्त कंठ से स्वीकार कर ले तो संदेह नहीं कि वह दुबारा वैसा कार्य न करे।

अपने अपराध को स्वीकार करना यह उन्नति पथ के ऊपर मानों कई कदम आगे बढ़ना है। साधनों को दोष देते फिरना मूर्खता है। वास्तव में कैद का दंड देने वाला मजिस्ट्रेट नहीं है, तुम्हारे कुकार्य ही हैं। इसमें संदेह नहीं कि संसार में पाप-समृद्ध रूपी राक्षस नाना प्रकार के मनोहर रूप धारण कर मनुष्यों के चित्त को विकृत करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु उन्हें अपने हृदय में स्थान देना या न देना तुम्हारे काबू में है। जिस प्रकार भूतों का भय दृढ़चित्त मनुष्यों के हृदय में फटकने भी नहीं पाता उसी प्रकार सच्चरित्र मनुष्यों के पास आने में पाप-वासनाओं को भी बड़ा डर लगता है। लालच उसी के लिए है जो लालची है। निर्लोभी व्यक्ति को वह अपने फंदे में कभी नहीं फँसा सकता ।

अतएव इन कुवासनाओं को धिक्कारना और दोष देना निरर्थक है। मनुष्य की दृष्टि को भी हित करने वाले पाप-समूह की संसार में क्या आवश्यकता थी। भोले-भाले शुद्ध-हृदय मनुष्य को ठगना और उसे चक्कर में फंसाना निदान उसकी निन्दा करना और उसे दंड-पात्र ठहराना यह तो दुष्टों का माया-पूर्ण षड्यंत्र जंचता है। वास्तव में विचार करने से मालूम होता है कि पदार्थों की परीक्षा करने के लिए बहुधा भय-पूर्ण स्थलों का उपयोग किया जाता है। सोने की परीक्षा करने के लिए काली कसौटी चाहनी पड़ती है। इसी भाँति मनुष्य के हृदय की परीक्षा करने के हेतु ही पाप-वासनायें संसार में विद्यमान है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 महात्मा जेम्स ऐलन
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1950 पृष्ठ 9



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👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 12 May 2023

मौन मानसिक बहिष्कार खुले बहिष्कार से कहीं अधिक भयानक होता है। खुले बहिष्कार में मनुष्य को अपनी स्थिति तथा उनसे होने वाली हानियों का ज्ञान रहता है, जिससे उसको अपने सुधार की प्रेरणा मिलती रहती है और आगे-पीछे वह अपना सुधार कर भी सकता है, किन्तु जो मौन मानसिक बहिष्कार का शिकार होता है, उसे अपनी स्थिति की जानकारी नहीं रहती, जिससे वह आत्म-सुधार की प्रेरणा से भी वंचित रह जाता है।

आध्यात्मिक जीवन अपनाने का अर्थ है- असत् से सत् की ओर जाना। प्रेम और न्याय का आदर करना। निकृष्ट जीवन से उत्कृष्ट जीवन की ओर बढ़ना। इस प्रकार का आध्यात्मिक जीवन अपनाये बिना मनुष्य वास्तविक सुख-शान्ति नहीं पा सकता।

आत्मा की प्यास बुझाने के लिए,अंतःकरण को पवित्र करने के लिए, आत्म-बल बढ़ाने के लिए प्रेम साधना की अनिवार्य आवश्यकता है। रूखा, नीरस, एकाकी, स्वार्थी मनुष्य कितना ही वैभव संपन्न क्यों न हो, अध्यात्म की दृष्टि से उसे नर-पशु ही कहा जाएगा। जो किसी का नहीं, जिसका कोई नहीं, ऐसा मनुष्य कुछ भी अनर्थ कर सकता है। उसे अपने आपसे डर लगेगा और अपनी जलन में जीवित मृतक की तरह झुलसेगा। प्रेम रहित नीरस जीवन घृणित है, वह मनुष्य जैसे विकासवान् प्राणी के लिए हर दृष्टि से हेय है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...