शनिवार, 30 अक्तूबर 2021

👉 स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान और प्रज्ञा केन्द्र (भाग ३)

अपने समय में विचार क्षेत्र की भ्रान्तियाँ और विकृतियाँ ही लोक चिन्तन को भ्रष्ट और आचरण प्रचलन को दुष्ट बनाने के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं। अन्यथा विज्ञान शिक्षा और उद्योग क्षेत्र की वर्तमान प्रगति के रहते मनुष्य हर दृष्टि से सुखी सम्पन्न रह सकता था। आस्था संकट ही अपने समय का सबसे बड़ा विग्रह है। उसी ने व्यक्ति और समाज के सम्मुख अगणित समस्याएँ, विपत्तियाँ और विभीषिकाएँ खड़ी की हैं। समाधान के लिए प्रचलित सुधार इसी से सफल नहीं हो पाते कि भावनाओं, मान्यताओं, विचारणाओं, आकांक्षाओं में सुधार परिष्कार का प्रयत्न नहीं हुआ। मात्र अनाचारों के दमन, सुधार की बात सोची जाती रही। सड़ी कीचड़ यथा स्थान बनी रहे तो मक्खी मच्छर पकड़ने, मारने, पीटने से क्या काम बने? रक्त में विषाक्तता भरी रहे तो फुन्सियों पर मरहम लगाने भर से क्या बात बने? एक सुधार पूरा होने से पूर्व ही सौ नये बिगाड़ उठे तो चिरस्थायी सुधार की संभावना नहीं रहेगी।
   
अपने समय की समस्त समस्याओं का एक ही हल है विचारक्रान्ति अभियान, लोक मानस का परिष्कार। इसके लिए स्वाध्याय और सत्संग की ढाल तलवार का प्रयोग करना होगा। युगान्तरीय चेतना का प्रतिनिधित्व प्रज्ञा साहित्य करता है। उसे पढ़ने- पढ़ाने की प्रक्रिया यदि द्रुतगामी बनाई जा सके, तो अब तक चल रही प्रगति में तूफानी उभार आ सकता है। नगण्य से साधनों पर पिछले दिनों २४ लाख व्यक्तियों का प्राणवान देव परिवार खड़ा किया जा सका है, तो कोई कारण नहीं कि उसी कार्य को व्यवस्थित प्रज्ञा संस्थान संभाल ले तो देखते- देखते जन जागरण की प्रक्रिया को सैकड़ों गुनी अधिक प्रचंड बनाया जा सकेगा। देखने में यह छोटा सा उपचार कितना महत्त्वपूर्ण है, उसका संदर्भ घने अंधकार से निपटने में छोटे से दीपक की भूमिका से समझा समझाया जा सकता है।
   
स्वाध्याय मंडल प्रज्ञा संस्थानों को भी बड़े प्रज्ञापीठों के लिए निर्धारित कार्य पद्धति अपनानी होगी। जन जागरण के लिए जन सम्पर्क, जन सम्पर्क से जन समर्थन और सहयोग मिलने, उस आधार पर युग परिवर्तन का ढाँचा खड़ा होने का सरंजाम जुटने की बात बार- बार कही जाती रही है। इस प्रयोजन के लिए प्रज्ञा साहित्य का पठन- पाठन और दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन की प्रक्रिया को स्वाध्याय कहा जा सकता है। प्रज्ञापीठों की पंच सूत्री योजना में सत्संग को व्यापक बनाने के लिए स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकार्डर, प्रदर्शनी और जन्म दिवसोत्सवों को प्रमुखता दी गई है। इनके माध्यम से एक व्यक्ति भी सैकड़ों को हर दिन युग चेतना से अवगत अनुप्राणित करते रहने की प्रक्रिया नियमित रूप से चलाता रह सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 भक्तिगाथा (भाग ८१)

👉 भक्ति के अपूर्व सोपान हैं- श्रवण और कीर्तन

इस भक्तिसूत्र ने सभी के भावसूत्रों को स्वयं में गूंथ लिया। सच यही है कि यदि भगवान की कथा को ठीक-ठीक सुना गया, हृदय के पट खोलकर सुना गया, केवल कानों से नहीं प्राणों से सुना गया तो निश्चित ही भगवान के गुणों को सुनते-सुनते, अन्तःकरण में उनके स्मरण का सातत्य बनने लगेगा। जो सुना जाता है, वही बोध बन जाता है और हृदय से सुना हुआ धीरे-धीरे जीवन में रमता जाता है। जो गहराइयों में सुना जाता है, वह रोएँ-रोएँ में व्याप्त हो जाता है। सतत सुना हुआ धीरे-धीरे घेर लेता है और फिर समूचा जीवन उसमें डूब जाता है।

श्रवण की जितनी महिमा है, उतनी ही कीर्तन की भी है। श्रवण के साथ कीर्तन भी जरूरी है। श्रवण एवं कीर्तन दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। सुनना निष्क्रिय है तो कीर्तन सक्रिय है। निष्क्रियता में सुनें तो सक्रियता में अभिव्यक्त करें। व्यर्थ की चर्चा, व्यर्थ की बातों से भला क्या होगा। बातें हों, चर्चा हो तो अपने प्रिय प्रभु के सौन्दर्य की। चर्चा हो तो उनके विराट् अस्तित्त्व की। ऐसी चर्चा होती है तो कहने वाले को, सुनने वाले को, दोनो को ही भगवान का बरबस स्मरण हो आता है। यह स्मरण होता रहे तो धीरे-धीरे भगवान और भक्त कब एकात्म-एकाकार हो जाते हैं पता ही नहीं चलता।

देवर्षि के इस सूत्र के साथ अनेकों की भावनाओं के ये अनगिन धागे भी गुंथते चले गए। भावों में भक्ति का उफान उठा और उफनता ही चला गया। देवर्षि अपने साथ बैठे अन्य ऋषियों के साथ इसे अनुभव करते रहे। तभी उनके स्मृतिसरोवर में एक तरंग उठी। इस तरंग का बिम्ब उनके माथे की लकीरों में भी प्रकट हुआ। ये लकीरें किंचित गहरी हुईं। इस सूक्ष्म परिवर्तन को ऋषि धौम्य ने अनुभव किया और वे बोल उठे- ‘‘देवर्षि नारद निरन्तर भगवन्नाम का संकीर्तन करते रहते हैं। उन्हें सहज ही भगवान और उनके भक्तों का सहज सान्निध्य मिलता रहता है। इस सान्निध्य की स्मृतियाँ भी अनेकों होंगी। ऐसी ही किसी स्मृतिकथा का श्रवण कराकर देवर्षि हम सबको धन्य करें।’’ ऋषि धौम्य का यह विचार सभी को प्रीतिकर लगा। इसीलिए सभी ने उत्साहपूर्वक उसका अनुमोदन किया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १५२

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...