शनिवार, 7 जनवरी 2023

👉 साधना की असफलता के कारण

किसी भी कार्य में सफलता पाने के लिए जो मंजिल तय करनी पड़ती है, उसे साधना कहा जाता है। इस साधना में यदि विघ्र-बाधाएँ उपस्थित हो जायें, तो प्राय: मंजिल बीच में ही अधूरी छूट जाती है। जीवन का भौतिक पहलू हो या आध्यात्मिक, कोई भी निरापद नहीं है। सांसारिक कार्यों में सफलता पाने के इच्छुक व्यक्ति मार्ग में पडऩे वाली आर्थिक, तकनीकी, प्रतिस्पद्र्धात्मक आदि बाधाओं से छुटकारा पाने का मार्ग भी पहले से ही निर्धारित कर लेते हैं अथवा उनका सामना करने के लिए कमर कसकर तैयार हो जाते हैं। अध्यात्म मार्ग में भी कम विघ्र बाधाएँ नहीं होती हैं। आध्यात्मिक एवं सांसारिक उपलब्धियों की बाधाओं में अंतर मात्र इतना ही है कि भौतिक प्रगति के मार्ग में बाह्यï विघ्र बाधाएँ अधिक होती हैं, जबकि आत्मिकी क्षेत्र में मनुष्य की स्व उपार्जित विघ्र बाधाएँ ही प्रधान होती है। आत्मिक मार्ग के प्रत्येक पथिक को महान् कार्यों, ईश्वर प्राप्ति आदि के मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधाओं से परिचित होना आवश्यक है।
  
साधक यदि बीमार रहता हो, तो उसके लिए नियमित रूप से साधना, उपासना, स्वाध्याय, सत्संग का लाभ उठा पाना कठिन होता है। तामसी एवं असंयम पूर्ण भोजन से चित्त में चंचलता तथा दोष पूर्ण विचार उत्पन्न होते हैं, जिससे चिंतन विकृत होता चला जाता है। इसीलिए साधना काल में साधक को सात्विक, पौष्टिïक तथा प्राकृतिक रसों से परिपूर्ण सादा आहार ही ग्रहण करना चाहिए। बड़े और महान्ï कार्य समय एवं श्रम साध्य होते हैं। इसमें शंका-आशंका करने वालों को सफलता नहीं मिलती। इसके लिए दृढ़ विश्वासी, संकल्प के धनी व्यक्ति ही सफल हो पाते हैं। बार-बार संदेह किसी भी कार्य को असफल ही करता है। गुरु बनाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि वह उस विषय विशेष का पूर्ण ज्ञाता हो। अनभिज्ञ, अल्पज्ञ व्यक्ति को अपना गुरु या मार्गदर्शक बनाना अनुचित है। सच्चे साधक को प्रसिद्धि के विपरीत ठोस कार्यों द्वारा साधना को महत्त्व देना चाहिए। पूर्ण सफलता मिल जाने पर यश छाया के रूप में पीछे-पीछे दौडऩे लगता है। किसी भी कार्य को ठीक एक ही समय पर नियमपूर्वक करते रहने से उस कार्य की आदत बन जाती है।

नियमितता के अभाव में कोई भी साधना सफल नहीं होती। कुतर्कों को त्याग कर साधक को आत्मा की आवाज सुनना और उसका अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि सामाजिक रीति-रिवाज, मर्यादा, धर्म, ईश्वर, अस्तित्व यह सब विषय ऐसे हैं, जिन्हें तर्क द्वारा हल नहीं किया जा सकता। आलस्य एक भयंकर बीमारी के समान है। आलस्य के वशीभूत होकर मनुष्य अपनी कार्य कुशलता को ही खो डालता है। आलस्यवश कार्य न करना, तो पतन पराभव का कारण ही बनता है। अध्यात्म मार्ग के पथिक को बुरे कर्म, बुरे विचारों वाले लोगों से दूर ही रहना चाहिए, अन्यथा किसी न किसी रूप में उसके विचार आप पर प्रभावी हो ही जाएँगे। दूसरों के दोषों को देखने में अपनी शक्ति खर्च न करें, आपके अंत:करण में लगी अचेतन की फिल्म भी दूसरों के दुर्गुणों को अपने अंदर आत्मसात कर लेती है। हम सभी सत्य की खोज में दौड़ रहे हैं। कोई भी पूर्ण सत्य को प्राप्त नहीं कर सका। यह मानकर दूसरों के धर्म, उनकी मान्यताओं के प्रति उदार दृष्टिïकोण अपनाएँ। कट्टïरता की संकीर्णता साधना मार्ग का सबसे बड़ा अवगुण है।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 चिंतन,भावना एवं कर्मों के श्रेष्ठता द्वारा अर्चन

सच यही है कि सारा अस्तित्व एक है और हममें से कोई उस अस्तित्व से अलग-थलग नहीं है। हम कोई द्वीप नहीं है, हमारी सीमाएँ काम चलाऊ हैं। हम किन्हीं भी सीमाओं पर समाप्त नहीं होते। सच कहेें, तो कोई दूसरा है ही नहीं, तो फिर दूसरे के साथ जो घट रहा है, वह समझो अपने ही साथ घट रहा है। भगवान् महावीर, भगवान्ï बुद्ध अथवा महर्षि  पतंञ्जलि ने जो अङ्क्षहसा की महिमा गायी, उसके पीछे भी यही अद्वैत दर्शन है। इसका मतलब इतना ही है कि शिष्य होते हुए भी यदि तुम किसी को चोट पहुँचा रहे हो, या दु:ख पहुँचा रहे हो अथवा मार रहे हो, तो दरअसल तुम गुरुघात या आत्मघात ही कर रहे हो, क्योंकि गुरुवर की चेतना में तुम्हारी अपनी चेतना के साथ समस्त प्राणियों की चेतना समाहित है।
  
ध्यान रहे जब एक छोटा सा विचार हमारे भीतर पैदा होता है, तो सारा अस्तित्व उसे सुनता है। थोड़ा सा भाव भी हमारे हृदय में उठता है, तो सारे अस्तित्व में उसकी झंकार सुनी जाती है। और ऐसा नहीं कि आज ही अनन्त काल तक यह झंकार सुनी जायेगी। हमारा नामोनिशाँ भले ही न रहे। लेकिन हमने जो कभी चाहा, किया, सोच, भावना बनायी थी, वह सब इस अस्तित्व में गूँजती रहेगी। क्योंकि हममें से कोई यहाँ से भले ही मिट जाये, लेकिन कहीं और प्रकट हो जायेगा।
  
जो लहर मिट गयी है, उसका जल भी उस सागर में शेष रहता है। यह ठीक है कि एक लहर उठ रही है, दूसरी लहर गिर रही है, फिर लहरें एक हैं, भीतर नीचे जुड़ी हुई हैं और जिस जल से उठ रही हैं यह लहर, उसी जल से गिरने वाली लहर वापस लौट रही है। इन दोनों के नीचे के तल में कोई फासला नहीं हैं। यह एक ही सागर का खेल है। हम सब भी लहरों से ज्यादा नहीं है। इस जगत्ï में सभी कुछ लहरवत्ï हैं।
  
परमेश्वर से एक हो चुके चेतना महासागर की भाँति है। सारा अस्तित्व उनमें समाहित है। हमारे प्रत्येक कर्म, भाव एवं विचार उन्हीं की ओर जाते हैं, वे भले ही किसी के लिए भी न किये जाये। इसलिए जब हम किसी को चोट पहुँचाते हैं, दु:ख पहुँचाते हैं, तो हम किसी और को नहीं, सद्गुरु को चोट पहुँचाते हैं, उन्हीं को दु:खी करते हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य ने बैल को चोट पहुँचायी। बाद में वह दक्षिणेश्वर आकर परमहंस देव की सेवा करने लगा। सेवा करते समय उसने देखा कि ठाकुर की पाँव पर उस चोट के निशान थे। पूछने पर उन्होंने बताया, अरे! तू चोट के बारे क्या पूछता है, यह चोट तो तूने ही मुझे दी है। सत्य सुनकर उसका अन्त:करण पीड़ा से भर गया।
  
 क्या हम सचमुच ही अपने भगवान से प्रेम से करते हैं एवं उनमें भक्ति है? यदि हाँ तो फिर हमारे अन्त:करण को सभी के प्रति प्रेम से भरा हुआ होना चाहिए। हमें किसी को भी चोट पहुँचाने का अधिकार नहीं है। क्योंकि सभी में भगवान ही समाये हैं। सभी स्थानों पर उन्हीं की चेतना व्याप्त है। इसलिए हमारे अपने मन में किसी के प्रति कोई भी द्वेष, दुर्भाव नहीं होना चाहिए। क्योंकि इस जगत्ï में ईश्वर, खुदा से अलग कुछ भी नहीं है। उन्हीं के चैतन्य के सभी हिस्से हैं। उन्हीं की चेतना के महासागर की लहरें हैं। इसलिए लोगों को सर्वदा ही श्रेष्ठ चिंतन, श्रेष्ठ भावना एवं श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा उनका अर्चन करते रहना चाहिए।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...