रविवार, 29 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ७५)

एक से ही हों एकाकार
    
भक्त के जीवन में यह एक तत्त्व उसके भगवान् होते हैं। उसका हृदय सदा अपने आराध्य की स्मृति से स्पन्दित होता है। अपने आराध्य के प्रति उसकी भावनाएँ इतनी सघन होती हैं कि उसे यह अभ्यास करना नहीं पड़ता, बल्कि अपने आप बरबस होता चलता है। ध्रुव हो या प्रह्लाद, मीरा हो या रैदास इनके मन-प्राण, विचार- भावनाएँ सदा अपने भगवान् में रमे रहते हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस को माँ कहते ही भाव समाधि घेर लेती थी। सच तो यह है कि भक्तों के लिए बड़ा सहज होता है—अपने भगवान् में रमना। वह अपने भगवान् में इतनी प्रगाढ़ता से रमता है कि सभी अवरोध अपने आप ही विलीन होते जाते हैं। 
    
बात मीरा की करें, तो उनके कृष्ण प्रेम की डगर सहज नहीं थी। इस डगर पर चलने वाली मीरा को राणा जी कभी साँप का पिटारा भेजते थे, तो कभी विष का प्याला, लेकिन इन विघ्नों से मीरा को कभी घबराहट नहीं होती। वह तो सदा यही कहती रहती- ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’। सच तो यह है कि भक्त के जीवन का दर्शन ही ‘दूसरो न कोई’ है। किसी और का चिन्तन उसे सुहाता नहीं है। तभी तो गोपियाँ ज्ञान सिखाने आए उद्धव को समझाने लगती हैं- ‘ऊधौ मन नाहीं दस-बीस, एक हुतो सो गयो स्याम संग को आराधै ईस’।
    
भक्त के लिए बड़ा सजह होता है एक तत्त्व का अभ्यास। क्योंकि वही जानता है ‘एक’ में छिपा सत्य। बात है तो खरी, पर कहे बिना रहा भी नहीं जाता। प्रेम की रीति तो भक्त ही जानता है। जिसे दुनिया प्रेम, प्यार का नाम देती है, वह तो वासनाओं की गंदेला कीचड़ में लिपटने, लिपटाने के सिवा और क्या है? देखा यही जाता है कि सारी उम्र प्यार-प्रेम का राग अलापने वाले अपने हठ, जिद एवं अहं को थामे रहते हैं। अब हठ, जिद एवं अहं के विषधरों को पालने वाले भला क्या जानेंगे कि प्रेम तो ‘सीस उतारै भुइँ धरै’ का सौदा है। कबीर ने जाना था इस सच को, तभी तो उन्होंने कहा कि ‘प्रेम गली अति साँकरी, जामे दुइ न समाहिं’। यानि कि प्रेम की  गली अति सँकरी है, इसमें दो आ ही नहीं सकते।
    
बड़ा गहरा अर्थ है इस बात में। जो प्रेम में जीता है, वही इस रहस्य को जानता है। जब प्रेम शुरू होता है, तब दो होते हैं, एक भक्त, दूसरा भगवान्। लेकिन भक्त की दीवानगी अपने भगवान् के लिए इतनी गहरी होती है कि अपने आप को मिटाने के लिए ठान लेता है। उसकी कोशिश होती है कि मेरा अस्तित्व भगवान् में विलीन हो जाए। भक्त रहे ही नहीं भगवान् ही बचे। और होता भी यही है कि भगवान् ही बचता है। 
    
भगवान् से प्रेम संसार में बड़ी विरल घटना के रूप में सामने आता है। बड़ी बड़भागी होती है वे आत्माएँ, जो मीरा बनकर प्रकट होती हैं। पर एक प्रेम- एक भक्ति की शुरूआत थोड़ी आसान है। और वह है गुरुभक्ति, अपने गुरु से प्रेम। पतंजलि प्रणीत एक तत्त्व के अभ्यास का यह बड़ा सरल एवं अनुभूत उपाय है। परम पूज्य गुरुदेव ने स्वयं अपने जीवन में यही सच साधा था। आज उनके शिष्यों के सामने भी यही सुपथ है। अपने गुरु का ध्यान, उन्हीं का चिन्तन, उनकी ही कथा, वार्ता और उन्हीं का ही काम। जो ऐसा करते हैं, उनके जीवन में एक तत्त्व का अभ्यास स्वयं ही होने लगता है। और इसके परिणाम स्वरूप योग साधना के विघ्नों का निराकरण भी होता जाता है। यह कथन न तो कोरी कल्पना है, और न ही किसी तार्किकता का निष्कर्ष। यह तो अनुभूति में सनी, पगी बात है, पढ़ने वाले चाहे तो वे भी कर लें। जिस गति से वे इस गुरुभक्ति की डगर पर चलेंगे, उसी तीव्रता से उनकी साधना में आने वाले विघ्नों का शमन होगा। पर यह सच निर्मल चित्त वालों को ही समझ में आएगा।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १२८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 अपना सुधार−संसार का सुधार

अपने सुधार के बिना परिस्थितियाँ नहीं सुधर सकतीं। अपना दृष्टिकोण बदले बिना जीवन की गतिविधियाँ नहीं बदली जा सकती हैं। इस तथ्य को मनुष्य जितनी जल्दी समझ ले उतना ही अच्छा है। हम दूसरों को सुधारना चाहते हैं पर इसके लिए समर्थ वहीं हो सकता है जो पहले इस सुधार के प्रयोग को अपने ऊपर आजमा कर योग्यता की परीक्षा दे दे। दूसरे लोग अपना कहना न मानें यह हो सकता है पर हम अपनी बात स्वयं ही न मानें इसका क्या कारण है? अपनी मान्यताओं को यदि हम स्वयं ही कार्य रूप में परिणित न करेंगे तो फिर सभी स्त्री बच्चों से, मित्र पड़ौसियों से या सारे संसार से यह आशा कैसे करेंगे कि वे अपनी बुरी आदतों को छोड़कर उस उत्तम मार्ग पर चलने लगें जिसकी कि आप शिक्षा देते हैं।

अपना मन अपना है, उसे समझाना और सुधारना तो अपने वश क बात हो ही सकती है। बाहरी अस्वच्छता साफ करने में कुछ अड़चने आवें यह बात समझ में आती है पर अपना घर, अपना मन भी साफ सुथरा न बनाया जा सकने में कौन बहानेबाजी ठीक जँचेगी? यह कार्य कोई देवता या गुरु कर देगा यह सोचना व्यर्थ है। हर आदमी अपने को स्वयं ही सुधार या बिगाड़ सकता है, दूसरे लोग इस कार्य में सहायता कर सकते हैं पर रोटी खाने, दही जमने, विद्या पढ़ने की तरह मन को सुधारने का काम भी स्वयं करना पड़ेगा। हमारे बदले की कोई दूसरा रोटी खा लिया करे, कोई दूसरा टट्टी हो आया करे यह नहीं हो सकता इसी प्रकार यह भी नहीं हो सकता कि किसी दूसरे के आशीर्वाद या वरदान से हमारी मानसिक अस्वच्छता दूर हो जाय। यह कार्य स्वयं ही करना होगा हमें भी स्वयं ही करना पड़ेगा। संसार के सुधार का आन्दोलन करना चाहिए पर संसार में, समाज में सबसे पहला वह व्यक्ति कौन हो सकता है जिससे सुधार कार्य आरंभ किया जाय? वह हम स्वयं ही हो सकते हैं। अपने प्रयत्न से अपने को सुधार कर ही हम संसार और समाज की सेवा कर सकने के अधिकारी सिद्ध हो सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

शनिवार, 28 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ७४)

एक से ही हों एकाकार

योग पथ पर आगे बढ़ते जाना आसान नहीं है। इसमें आने वाले अँधेरे, अड़चनें, मुश्किलें भी जटिल है।  हर नया कदम योग साधक के सामने नयी चुनौती खड़ी करता है। इसका सामना करने के लिए नए सूत्र, नयी तकनीकें और नए ढंग की प्रकाश ज्योति चाहिए। अन्तर्यात्रा विज्ञान की हर नयी कड़ी योग साधक की इसी समस्या का सार्थक समाधान है। योग पथ की गहनता के अनुरूप इसके समाधान की क्षमता भी बढ़ती जाती है। योग साधक इसकी अनुभूति अपनी अन्तर्यात्रा में करते हैं। उन्हें पग-पग पर महर्षि पतंजलि की प्रेरणा एवं ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव के आशीषों की अनुभूति होती है।

जीवन ऊर्जा के चक्र के अव्यवस्थित हो जाने से जन्मे विघ्नों को समाप्त करने का समाधान महर्षि अपने अगले सूत्र में बताते हैं। और यह सूत्र है-
तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः॥ १/३२॥
शब्दार्थ-तत्प्रतिषेधार्थम्= उनको दूर करने के लिए; एकतत्त्वाभ्यासः= एक तत्त्व का अभ्यास (करना चाहिए)।
अर्थात् उनको (साधना में आने वाले सभी विघ्नों को) दूर करने के लिए एक तत्त्व का अभ्यास करना चाहिए।
    
महर्षि पतंजलि का यह सूत्र अपने अर्थों में अतिव्यापक है। वह इस सूत्र में एक तत्त्व के अभ्यास को सभी विघ्नों के निराकरण के रूप में तो प्रस्तुत करते हैं, परन्तु वह एक तत्त्व क्या हो? इसका चुनाव योग साधक पर ही छोड़ देते हैं। अब यह योग साधक की साधना के स्वरूप, स्तर पर निर्भर करता है कि वह एक तत्त्व के रूप में किसे चुनता है। परन्तु इतना जरूर है कि वह जिसे भी चुने उसी में उसके मन-प्राण घुलने चाहिए। वहीं पर उनके विचार व भाव केन्द्रित होना चाहिए। यानि कि इस एक तत्त्व को उसके साधना जीवन में चरम आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित होना चाहिए। इसकी स्मृति में उसकी जीवन धारा बहनी चाहिए।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १२७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 दूरदर्शिता का तकाजा

जो आज का, अभी का, तुरन्त का लाभ सोचता है और इसके लिए कल की हानि की भी परवा नहीं करता वह उतावला मन विपत्तियों को आमंत्रण देता रहता है। प्रत्येक महान कार्य समयसाध्य और श्रमसाध्य होता है। उसकी पूर्ति के लिए आरंभ में बहुत कष्ट सहना पड़ता है, प्रतीक्षा करनी होती है और धैर्य रखना होता है। जिसमें इतना धैर्य नहीं वह तत्काल के छोटे लाभ पर ही फिसल पड़ता है और कई बार तो यह भी नहीं सोचता कि कल इसका क्या परिणाम होगा? चोर, ठग, बेईमान, उचक्के लोग तुरन्त कुछ फायदा उठा लेते हैं पर जिन व्यक्तियों को एक बार दुख दिया उनसे सदा के लिए संबन्ध समाप्त हो जाते हैं। फिर नया शिकार ढूँढ़ना पड़ता है। ऐसे लोग अपने ही परिचितों की नजर को बचाते हुए अतृप्ति और आत्मग्लानि से ग्रसित प्रेत−पिशाच की तरह जहाँ−तहाँ मारे−मारे फिरते रहते हैं और अन्त में उनका कोई सच्चा सहायक नहीं रह जाता। 

वासना के वशीभूत होकर लोग ब्रह्मचर्य की मर्यादा का उल्लंघन करते रहते हैं। तत्काल तो उन्हें कुछ प्रसन्नता होती है पर पीछे उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ही चौपट हो जाता है पर पीछे विरोध एवं शत्रुता का सामना करना पड़ता है तो उस क्षणिक आवेश पर पछताने की बात ही हाथ में शेष रह जाती है। स्कूल पढ़ने जाना छोड़कर फीस के पैसे सिनेमा में खर्च कर देने वाले विद्यार्थी को उस समय अपनी करतूत पर दुख नहीं वरन् गर्व ही होता है पर पीछे जब वह अशिक्षित रह जाता है और जीवन को कष्टमय प्रक्रियाओं के साथ व्यतीत करता है तब उसे अपनी भूल का पता चलता है। दूरदर्शिता और अदूरदर्शिता का अन्तर स्पष्ट है। उसके परिणाम भी साफ हैं। मन की अदूरदर्शिता एक विपत्ति है। जिसमें तुरन्त का कुछ लाभ भले ही दिखाई पड़े पर अंत बड़ा दुखदायी होता है। मन में इतनी विवेकशीलता होनी ही चाहिए कि वह आज की, अभी की ही बात न सोचकर कल की, भविष्य की और अन्तिम परिणाम की बात सोचें। जिसने अपने विचारों में दूरदर्शिता के लिए स्थान रखा है उसे ही बुद्धिमान कहा जा सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

गुरुवार, 26 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ७३)

बहुत बड़ी है आततायी विघ्नों की फौज
    
महर्षि कहते हैं कि दुःख, निराशा, कंपकंपी एवं अनियमित श्वसन बीमार मन के लक्षण है। यानि कि यदि मन बीमार है, तो ये पाँचों अनुभूतियाँ किसी न किसी तरह से होती रहेंगी। इन लक्षणों में प्रत्येक लक्षण मन की बीमार दशा का बयान करता है। उदाहरण के लिए दुःख- इसका मतलब है कि मन तनाव से भरा है, बँटा-बिखरा है। और यह बँटा-बिखरा मन निराश ही होगा और जो सतत उदास-निराश होता है उसकी जैविक ऊर्जा का परिपथ हमेशा गड़बड़ होता है। ऐसे व्यक्तियों के शरीर में बहने वाली जैव विद्युत् कभी भी ठीक-ठीक नहीं बहती और देह में एक सूक्ष्म कंपकंपी शुरू हो जाती है। और जब प्राण ही कंपायमान है, तो भला श्वास नियमित कैसे होगा? अब यदि इन सभी लक्षणों को दूर करना है तो उपाय एक ही है कि मन स्वस्थ हो जाय। मन की बीमारी समाप्त हो जाय।
    
इसके लिए उपाय एक ही है- मंत्र जप। मन यदि मंत्र के स्पर्श में आए अथवा मन में यदि मंत्र स्पन्दित होने लगे तो समझो कि मन की बीमारी ज्यादा देर तक टिकने वाली नहीं है। परम पूज्य गुरुदेव अपनी आध्यात्मिक गोष्ठियों में इस सम्बन्ध में बड़ी अद्भुत बात कहते थे। उनका कहना था कि- बेटा, मंत्र मन का इन्जेक्शन है। देह की चिकित्सा करने वाले चिकित्सक देह में इन्जेक्शन लगाते हैं। इस इन्जेक्शन की भी दो विधियाँ हैं- १. मांस पेशियों में लगाया जाने वाला इन्जेक्शन, २. रक्तवाहिनी नलिकाओं में लगाया जाने वाला इन्जेक्शन। चिकित्सक कहते हैं कि पहले की तुलना में दूसरी तरह से लगाया जाने वाला इन्जेक्शन जल्दी असर करता है।
    
परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि मंत्र ऐसा इन्जेक्शन है, जो मन में लगाया जाता है। इस इन्जेक्शन का प्रयोग मंत्रविद्या के मर्मज्ञ या आध्यात्मिक चिकित्सक करते हैं। इसके प्रयोग के तीन तरीके हैं। १. स्थूल वाणी के द्वारा, २. सूक्ष्म वाणी के द्वारा एवं ३. मानसिक स्पन्दनों के द्वारा। इसमें से पहला तरीका सबसे कम असर कारक है। यदि कोई बोल-बोल कर जप करे, तो असर देर से होता है। इसकी तुलना में दूसरा तरीका ज्यादा असरकारक है। यानि कि जप यदि अस्फुट स्वर में उपांशु ढंग से मानसिक एकाग्रता के साथ किया जाय, तो असर ज्यादा गहरा होता है। इन दोनों तरीकों से कहीं ज्यादा प्रभावशाली है मंत्र जप का तीसरा तरीका कि वाणी पर सम्पूर्णता शान्त रहे और मंत्र मानसिक स्पन्दनों में स्पन्दित होता रहे। इसका असर व प्रभाव बहुत गहरा होता है।
    
इस अन्तिम तरीके की खास बात यह है कि मंत्र का इन्जेक्शन सीधा मन में ही लग रहा है। मन के विचारों के साथ मंत्र के विचार-स्पन्दन घुल रहे हैं। यदि मंत्र गायत्री है, तो फिर यह असर हजारों-लाखों गुना ज्यादा हो जाता है। इसके प्रभाव के पहले चरण में मन की टूटी-बिखरी लय फिर से सुसम्बद्ध होने लगती है। मन में मंत्र के अनुरूप एक समस्वरता पनपती है। मानसिक चेतना में मंत्र नए प्राणों का संचार करता है। इसकी शिथिलता-निस्तेजता समाप्त होती है। एक नयी ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है। यह प्रक्रिया अपने अगले चरण से प्राणों की खोयी हुई लय वापस लाती है। जैव विद्युत् का परिपथ फिर से सुचारु होता है। और प्राणों की अनियमितता समाप्त हो जाती है।
    
इस सूत्र की व्याख्या में गुरुदेव कहते थे कि दुःख और निराशा मन के तल पर पनपते हैं। कंपकंपी एवं अनियमित श्वसन प्राणों के तल पर उपजता है। मंत्र जप करने वाले साधक की सबसे पहले मानसिक संरचना में परिवर्तन आते हैं। उसका मन नए सिरे से रूपान्तरित, परिवर्तित होता है। इस रूपान्तरण में दुःख प्रसन्नता में बदलता है और निराशा उत्साह में परिवर्तित होती है। प्रक्रिया के अगले चरण में प्राण बल बढ़ने से कंपकंपी दृढ़ता एवं बल में बदल जाती है। और श्वास की गति धीमी व सम होने लगती है। ये ऐसे दिखाई देने वाले अनुभव हैं- जिन्हें गायत्री मंत्र का कोई भी साधक छहः महीनों के अन्दर कर सकता है। शर्त बस यही है कि गायत्री मंत्र का जप गायत्री महाविज्ञान में दी गई बारह तपस्याओं का अनुशासन मानकर किया जाय। यह हो सका, तो अन्तर्यात्रा मार्ग पर प्रगति का चक्र और तीव्र हो जाएगा।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १२४
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 परिपूर्ण कोई नहीं

किसी व्यक्ति में या किसी वस्तु में थोड़ा सा भी अवगुण देखकर कई व्यक्ति आग−बबूला हो उठते हैं और उसकी उस छोटी सी बुराई को ही बढ़ा-चढ़ाकर कल्पित करते हुए ऐसा मान बैठते हैं मानों यही सबसे खराब हो। अपनी एक बात किसी ने नहीं मानी तो उसे अपना पूरा शत्रु ही समझ बैठते हैं। जीवन में अनेकों सुविधाऐं रहते हुए भी यदि कोई एक असुविधा है तो उन सुविधाओं की प्रसन्नता अनुभव न करते हुए सदा उस अभाव का ही चिंतन करके खिन्न बने रहते हैं। ऐसे लोगों को सदा संताप और क्रोध की आग में ही झुलसते रहना पड़ेगा। इस संसार में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जिसमें कोई दोष-दुर्गुण नहीं और न ही कोई वस्तु ऐसी है जो सब प्रकार हमारे अनुकूल ही हो। सब व्यक्ति सदा वही आचरण करें जो हमें पसंद है ऐसा हो नहीं सकता। 

सदा मनचाही परिस्थितियाँ किसे मिली हैं? किसी को समझौता करके जो मिला है उस पर सन्तोष करते हुए यथासंभव सुधार करते चलने की नीति अपनानी पड़ी है तभी वह सुखी रह सकता है। जिसने कुछ नहीं, या सब कुछ की माँग की है उसे क्षोभ के अतिरिक्त और कुछ उपलब्ध नहीं हुआ है। अपनी धर्मपत्नी में कई अवगुण भी हो सकते हैं यदि उन अवगुणों पर ही ध्यान रखा जाय तो वह बहुत दुखदायक प्रतीत होगी। किन्तु यदि उसके त्याग, आत्म-समर्पण, वफादारी, सेवा-बुद्धि, उपयोगिता, उदारता एवं निस्वार्थता की कितनी ही विशेषताओं का देर तक चिन्तन करें तो लगेगा कि वह साक्षात् देवी के रूप में हमारे घर अवतरित हुई है। उसी प्रकार पिता−माता के एक कटुवाक्य पर क्षुब्ध हो उठने उपकार, वात्सल्य एवं सहायता की लम्बी शृंखला पर विचार करें तो उत्तेजनावश कह दिया गया एक कटु शब्द बहुत ही तुच्छ प्रतीत होगा। मन को बुराई के बीच अच्छाई ढूँढ़ निकालने की आदत डालकर ही हम अपनी प्रसन्नता को कायम रख सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

मंगलवार, 24 नवंबर 2020

👉 राई को पर्वत न मानें

कई लोग दैनिक जीवन में घटती रहने वाली छोटी−छोटी बातों को बहुत अधिक महत्व देने लगते हैं और राई को पर्वत मानकर क्षुब्ध बनें रहते हैं। यह मन की दुर्बलता ही है। जीवन एक खेल की तरह खेले जाने पर ही आनन्दमय बन सकता है खिलाड़ी लोग क्षण-क्षण में हारते-जीतते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में वे अपना मानसिक संतुलन ठीक बनाये रहते हैं। कोई खिलाड़ी यदि हर हार पर सिर धुनने लगे और हर जीत पर हर्षोन्मत हो जाय तो यह उसकी एक मूर्खता ही मानी जायगी। संसार एक नाट्यशाला है। जीवन एक नाटक है। जिसमें हमें अनेक तरह के रूप बनाकर अभिनय करना होता है। 

कभी राजा, कभी बन्दी, कभी योद्धा कभी भिश्ती बनकर पार्ट अदा करते हैं। नट केवल इतना ही ध्यान रखता है कि हर अभिनय को वह पूरी तन्मयता के साथ पूरा करें। दर्शक, राजा या भिश्ती बनने के कारण नहीं अभिनेता की इसलिए प्रशंसा करते हैं कि जो भी काम सौंपा गया था उसने उसे पूरी खूबी और दिलचस्पी से किया। हमें सफलता का ही नहीं असफलता का भी अभिनय करने को विवश होना पड़ता है। इन परिस्थितियों में हम अपना मानसिक सन्तुलन क्यों खोते। हर पार्ट को पूरी दिलचस्पी और हँसी−खुशी से पूरा क्यों न करें? जो असफलता और परेशानी के अभिनय को ठीक तरह खेल सकता है वस्तुतः वही प्रशंसनीय खिलाड़ी है। हमें जीवन नाटक को खेलना ही चाहिए, पर अन्तस्तल तक उसकी कोई ऐसी प्रतिक्रिया न पहुँचने देनी चाहिए जो दुखद हो। हमें भविष्य की बड़ी से बड़ी आशा करनी चाहिए किन्तु बुरी से बुरी परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए तैयार करना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ७२)

बहुत बड़ी है आततायी विघ्नों की फौज

महर्षि पतंजलि के सूत्रों को यदि हृदयंगम किया जाए, तो जीवन अनायास ही नए सिरे से गढ़ता चला जाता है। यथार्थ में ये सूत्र जीवन के परिमार्जन, परिष्कार की तकनीकें हैं। कइयों ने इन्हें अपने जीवन के यौगिक रूपान्तरण की विधियों के रूप में अनुभव किया है। महर्षि पतंजलि के सूत्र सत्य को परम पूज्य गुरुदेव ने इस युग में व्यावहारिक कुशलता दी है। गुरुदेव की साधना, इनके प्रायोगिक निष्कर्ष महर्षि के सूत्रों की बड़ी प्रभावपूर्ण व्याख्या करते हैं। यह व्याख्या साधकों को किसी नए विचार अथवा नए तर्क की ओर न ले जाकर सर्वथा नवीन अनुभूति तक ले जाती है।
    
दूसरी तरफ ईश्वरीय अनुभूति करने में प्रमाद कर रहे लोगों को महर्षि चेतावनी देते हैं कि विघ्नों के क्रम की इति यहीं तक नहीं है। ये और भी हैं। योग साधना के अन्य विक्षेपों का खुलासा करते हुए महर्षि अपना अगला सूत्र प्रकट करते हैं-

दुःखदौर्मनस्याङ्ग्रमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः॥ १/३१॥
शब्दार्थ-
(१) दुःख= आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक- इस तरह के दुःख के मुख्य तौर पर तीन भेद हैं। काम-क्रोध आदि विकारों के कारण होने वाले शरीर व मन की पीड़ा आध्यात्मिक दुःख है। मनुष्य या अन्य जीवों के कारण होने वाली पीड़ा आधिभौतिक दुःख है। ग्रहों के कुपित होने पर या दैवी आपदाएँ आने पर जो पीड़ा होती है, उसे आधिदैविक दुःख कहते हैं।  
(२) दौर्मनस्य= इच्छा की पूर्ति न होने पर मन में जो क्षोभ होता है, उसे दौर्मनस्य कहते हैं। 
(३) अङ्गमेजयत्व= शरीर के अंगों में कंपकपी होना अंगमेजयत्व है। (४)श्वास= बिना इच्छा के ही बाहर की वायु का भीतर प्रवेश कर जाना अर्थात् बाहरी कुम्भक में विघ्न हो जाना ‘श्वास’ है। 
(५) प्रश्वास= बिना इच्छा के ही भीतर की वायु का बाहर निकल जाना अर्थात् भीतरी कुम्भक में विघ्न हो जाना ‘प्रश्वास’ है। ये पाँचों विघ्न, विक्षेपसहभुवः= विक्षेपों के साथ-साथ होने वाले हैं।
    
अर्थात् दुःख, निराशा, कंपकपी और अनियमित श्वसन विक्षेपयुक्त मन के लक्षण हैं।

महर्षि अपने इस सूत्र में अन्तर्यात्रा पथ के पथिक को चिन्तन और अनुभव की गहराई में ले जाना चाहते हैं। इस सूत्र में वे इन पाँचों विघ्नों का स्वरूप बताते हुए वे कहते हैं कि ये विघ्न लक्षण हैं विक्षेपयुक्त मन के। ध्यान रहे, लक्षण बीमारी नहीं होती, बस बीमारी का परिचय भर होता है। जैसे कि बुखार का लक्षण है—शरीर का ताप बढ़ जाना। यानि कि यदि देह का ताप बढ़ा हुआ है, तो बुखार हो सकता है। अब दूसरे क्रम में बुखार भी लक्षण हो सकता है-किसी अन्य बीमारी का। यह अन्य बीमारी मलेरिया, टायफायड या फिर अन्य कोई संक्रमण कुछ भी हो सकती है। बीमारी के सही निदान के लिए हमें लक्षण को भली-भाँति परखकर बीमारी के सही स्वरूप तक पहुँचना होता है। लक्षण हमें केवल बीमारी का परिचय देते हैं। इस परिचय के आधार पर बीमारी का समग्र विश्लेषण और समर्थ उपचार ढूँढना पड़ता है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १२३
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

शनिवार, 21 नवंबर 2020

👉 हम कायर न बनें

निराशा एक प्रकार की कायरता है। बुज़दिल आदमी ही हिम्मत हारते हैं। जिसमें वीरता और शूरता का, पुरुषार्थ और पराक्रम का एक कण भी शेष होगा वह यह ही अनुभव करेगा कि मनुष्य महान है, उसकी शक्तियाँ महान है, वह दृढ़ निश्चय और सतत परिश्रम के द्वारा असंभव को संभव बना सकता है। यह जरूरी नहीं कि पहला प्रयत्न ही सफल होना चाहिए। असफलताओं का कल के लिए आशान्वित रहते हैं वस्तुतः वे ही शूरवीर हैं। वीरता शरीर में नहीं मन में निवास करती हैं। 

जो मरते दम तक आशा को नहीं छोड़ते और जीवन संग्राम को खेल समझते हुए हँसते, खेलते, लड़ते रहते हैं उन्हीं वीर पुरुषार्थों महामानवों के गले में अन्ततः विजय वैजयन्ती पहनाई जाती है। बार−बार अग्नि परीक्षा में से गुजरने के बाद ही सोना कुन्दन कहलाता है। कठिनाइयों और असफलताओं से हताश न होना वीरता का यह एक ही चिन्ह है। जिन्होंने अपने को इस कसौटी पर खरा सिद्ध किया है उन्हीं की जीवन साधना सफल हुई है और उन्हीं के नाम इतिहास के पृष्ठों पर अमर रहें हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ७१)

मंत्र में छिपी है विघ्न विनाशक शक्ति

आलस्य पांचवा विक्षेप है। इस आलस्य का केवल इतना भर मतलब है कि हमने जीवन के प्रति उत्साह खो दिया है। बच्चे कभी आलसी नहीं होते। वे हमेशा ऊर्जा से भरे होते हैं। यहाँ तक कि उन्हें सोने के लिए मजबूर करना पड़ता है। यदि हमें अपना खोया हुआ उत्साह फिर से पाना है, तो मंत्र के माध्यम से मन की धूल हटानी होगी। तन में फिर से प्राण विद्युत् का प्रबल संचार करना होगा। मंत्र जप यदि ठीक गति से हो रहा है, तो सब कुछ सहज में ही हो जाता है। मंत्र साधक को अपनी साधना से एक नया साहस, एक नया विश्वास उपलब्ध होता है। उसमें यह अनुभूति जगती है कि वह भी कुछ कर सकता है।

विषयासक्ति छठवाँ विक्षेप है। रह-रहकर मन में वासना के ज्वार उठते हैं। कामुकता नयी-नयी कुलाँचे भरती है। क्यों होता है ऐसा? तो इस सवाल का सहज उत्तर है कि शरीर और मन ने ऊर्जा को काफी इकट्ठी कर ली है, पर उसका न तो सही तरह से खर्च हो पाया और न ही उसका ऊर्ध्वगमन सम्भव हो सका है। इस अप्रयुक्त ऊर्जा को ही सही ढंग से प्रयोग में लाया जाना ही हमें विषयसक्ति से छुटकारा दिलाता है। मंत्र साधना से यह आसानी से सम्भव हो पाता है। ॐकार अथवा इसके विस्तार रूप गायत्री के जप से जीवन की ऊर्जा का रूपान्तरण एवं ऊर्ध्वगमन होने लगता है। मंत्र साधना की निरन्तरता यदि बनी रहे, तो विषयासक्ति के बादल अपने आप ही छंटने लगते हैं।

योग साधना की सातवां विघ्न है भ्रान्तिदर्शन। यह खुली आँखों से सपने देखने जैसा है। इन सपनों के कारण हम हमेशा सच से वंचित रह जाते हैं। पतंजलि कहते हैं कि भ्रम तिरोहित हो जाएगा, यदि तुम होशपूर्वक ओम का जप करो। इस जप से जो जागृति आती है, वह सपनों का घोर विरोधी है। सपना हमेशा सोया हुआ और खोया हुआ आदमी देखता है। जाग्रत् व्यक्ति को भ्रान्तियाँ नहीं सताती हैं, मंत्र साधना से ऐसी ही अनूठी जागृति पनपती है।

दुर्बलता योग पथ का आठवाँ विक्षेप है। व्यक्ति कहीं न कहीं, कभी न कभी स्वयं असहाय एवं दुर्बल अनुभव करताहै। दरअसल जब तक विराट् से विलग है, उस सर्वसमर्थ से दूर है, कभी भी सम्पूर्ण समर्थ नहीं हो सकते। मंत्र साधना से यह दूरी, यह अलगाव दूर होता है। मंत्र हमारी चेतना को विराट् ब्राह्मी चेतना से जोड़ता है। सर्व समर्थ प्रभु से एकता सध जाने पर फिर कभी दुर्बलता नहीं सताती। साधना के साथ ही सिद्धि का प्रवाह चल पड़ता है और साध्य नजर आने लगता है।

नवाँ विक्षेप अस्थिरता का है। हम शुरूआत करते हैं, कुछ दूर तक चलते हैं फिर छोड़ देते हैं। अस्थिरता के कारण मंजिल तक पहुँचना नहीं हो पाता। हालाँकि हम इसके लिए बहाने बहुत गढ़ते हैं। पर बहाने तो केवल बहाने हैं। कभी परिस्थितियों का बहाना, कभी किसी व्यक्ति का बहाना, कभी कोई दूसरा नया बहाना। पर इस सबके पीछे यथार्थ कारण अस्थिरता ही होती है। मंत्र का जप यदि दृढ़तापूर्वक होता रहे, तो यह अस्थिरता स्वयं अस्थिर होने लगती है और साधक का चित्त हमेशा के लिए इससे मुक्त हो जाता है।

महर्षि पतंजलि के इन अनुभूत वचनों की व्याख्या में ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि सभी मंत्रों का मूल ॐकार है। इसी का विस्तार गायत्री है। यह गायत्री योग-साधकों के लिए कल्पवृक्ष एवं कामधेनु है। इसकी कृपा से सब कुछ अनायास हो जाता है। बस, इसकी साधना में निरन्तरता बनी रहे। निश्चित संख्या, निश्चित समय एवं निश्चित स्थान इन तीन अनुशासनों को मान कर जो तीन पदों वाली गायत्री का जप करता है, उसकी साधना के विघ्न स्वयं ही नष्ट होते रहते हैं। गुरुदेव का कहना था कि गायत्री जप करने वाले को अपने मन की उधेड़बुन या मानसिक उथल-पुथल पर ध्यान नहीं देना चाहिए। यहाँ तक कि मन की ओर देखना ही छोड़ देना चाहिए। बस जप, जप और जप, मन की सुने बगैर जप की अविरामता बनी रहे, तो बाकी सब कुछ अनायास ही हो जाता है। 

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १२०
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ७०)

मंत्र में छिपी है विघ्न विनाशक शक्ति

इन विक्षेपों में सबसे पहला है- रोग। योगिवर पतंजलि कहते हैं कि रोग का सही मतलब है- जैव विद्युत् के चक्र का अव्यवस्थित हो जाना। इसके प्रवाह में व्यतिक्रम व व्यतिरेक उठ खड़े होना। जैव विद्युत् की लयबद्धता का लड़खड़ा जाना। यही रोग की दशा है। जीवन में जब-जब ऐसी स्थिति आती है, व्यक्ति रोगी हो जाता है। यदि किसी भी तरह से जैव विद्युत् के चक्र को ठीक कर दिया जाय, तो रोग भी ठीक हो जाएगा। योगविज्ञान के अलावा वैकल्पिक चिकित्सा की अन्य विधियाँ भी हैं, जो इस सत्य को समझती हैं और इसी विधि से रोग को ठीक करती हैं। इन्हीं विधियों में से एक है- एक्यूप्रेशर व एक्यूपंचर। इस विधि के प्रवर्तकों ने शरीर में सात सौ ऐसे बिन्दु खोज लिए हैं, जिनसे होकर प्राणविद्युत् सम्पूर्ण शरीर में प्रवाहित होती है।

इन केन्द्रों के माध्यम से ही प्राण विद्युत् भौतिक शरीर का स्पर्श करती है। एक्यूपंचर के विशेषज्ञों का कहना है कि रोग के दौरान प्राण विद्युत् के प्रवाह में बाधा पड़ती है और सात सौ में से कई बिन्दु प्राण विद्युत् से विहीन हो जाते हैं और रोग घटता है। इस विद्या के विशेषज्ञ अपनी विधियों से इस चक्र को फिर से पूरा करते हैं। मंत्र विद्या इस सम्बन्ध में कीं अधिक उच्चस्तरीय प्रयास है। मंत्र के माध्यम से एक ओर तो प्राण विद्युत् के चक्र में आने वाली बाधाओं का निराकरण होता है, तो दूसरी ओर साधक को ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का एक बड़ा अंश मिलता है।

दूसरा विक्षेप अकर्मण्यता का है। दरअसल अकर्मण्यता तभी आती है, जब हममें ऊर्जा का तल बहुत निम्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में ही हम स्वयं को निर्जीव या शिथिल अनुभव करते हैं। मंत्र जप के माध्यम से ब्रह्माण्डीय ऊर्जा प्रवाह को ग्रहण-धारण करके इस ऊर्जा के तल को ऊँचा उठाया जा सकता हैं और अकर्मण्यता को उत्साह में बदला जा सकता है। तीसरा विक्षेप संशय का है। निश्चितता, दृढ़ता के विरुद्ध है संशय। इससे मानसिक ऊर्जा कई भागों में बँट जाती है। जो साधक मंत्र का प्रयोग करते हैं, उनके अन्तःकरण में संशय का कोई स्थान नहीं रह जाता।

चौथा विक्षेप प्रमाद का रूप लेकर आता है। प्रमाद हमेशा मन का होता है। यह ऐसी अवस्था है, जिसमें कि मन सम्मोहित जैसा हो जाता है। इसे मन की मूर्छा भी कह सकते हैं। होश गँवाया हुआ मन हमेशा ही प्रमादी होता है। अर्थ चिन्तन करते हुए किया मंत्र जप मन को होश में लाने का उत्तम उपाय है। यदि मंत्र का जप मंत्र की भावना के साथ किया जा रहा है, तो फिर मन के प्रमादी होने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती। हाँ, यदि मंत्र के साथ उसकी भावना जुड़ी हुई न हो, तो फिर यह केवल एक अचेतन क्रिया भर रह जाती है और प्रमाद का सिलसिला चलता रहता है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ११८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

गुरुवार, 19 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६९)

मंत्र में छिपी है विघ्न विनाशक शक्ति

अन्तर्यात्रा का विज्ञान मंत्र विज्ञान के बारे में एक अनूठा रहस्य उजागर करता है। भौतिक विज्ञानी कहते हैं कि ध्वनि और कुछ नहीं है सिवाय विद्युत् के रूपान्तरण के। अध्यात्म विज्ञान के विशेषज्ञ योगी जन कहते हैं कि विद्युत् और कुछ नहीं है सिवाय ध्वनि के रूपान्तरण के। यानि कि ध्वनि और विद्युत् एक ही ऊर्जा के दो रूप हैं। और इनका पारस्परिक रूपान्तरण सम्भव है। हालाँकि इस सच को अभी विज्ञानवेत्ता ठीक तरह से अनुभव नहीं कर पाए हैं। लेकिन अध्यात्म विज्ञान के विशेषज्ञों ने इस सच को न केवल स्वयं अनुभव किया है, बल्कि ऐसी अद्भुत तकनीकें भी खोजी हैं, जिसके इस्तेमाल से हर कोई यह अद्भुत अनुभूति कर सकता है।
    
मंत्र विज्ञान का सच यही है। यह ध्वनि के विद्युत् रूपान्तरण की अनोखी विधि है। हमारा शरीर, हमारा जीवन जिस ऊर्जा के सहारे काम करता है, उसके सभी रूप प्रकारान्तर से जैव विद्युत् के ही विविध रूप हैं। इसके सूक्ष्म अन्तर-प्रत्यन्तर मंत्र विद्या के अन्तर-प्रत्यन्तरों के अनुरूप प्रभावित, रूपान्तरित व परिवर्तित किए जा सकते हैं। मंत्र की प्रयोग विधि का विस्तार बहुत व्यापक है। इन पंक्तियों में उतनी व्यापक चर्चा सम्भव नहीं है।  समस्या शारीरिक हो या मानसिक या फिर सामाजिक अथवा आर्थिक मंत्र बल से सभी कुछ सहज सम्भव हो पाता है। यहाँ परिदृश्य योग साधना का है। इस सन्दर्भ में महर्षि योग साधकों को आश्वासन भरे स्वर में कहते हैं कि मंत्र जप से सभी विघ्न स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं। ये विघ्न क्या हैं? इसकी चर्चा योगिवर पतंजलि अपने अगले सूत्र में करते हैं-

व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरति भ्रान्तिदर्शनालब्ध
भूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः॥  (१/३०)

शब्दार्थ- (१) व्याधि = शरीर अथवा मन में किसी रोग का पनपना व्याधि है। (२) स्त्यान = अकर्मण्यता अर्थात् काम न करने की प्रवृत्ति स्त्यान है। (३) संशय = साधना की प्रक्रिया व परिणाम तथा स्वयं की क्षमता पर सन्देह करना संशय है। (४) प्रमाद= आध्यात्मिक अनुष्ठानों की अवहेलना करना प्रमाद है। (५) आलस्य = तमोगुण की अधिकता से चित्त और शरीर का भारी हो जाना और इसके कारण साधना छोड़ देना आलस्य है। (६) अविरति = विषय-वासना में आसक्ति होना और इस वजह से वैराग्य का अभाव होना अविरति है। (७) भ्रान्तिदर्शन = अध्यात्म साधना को किसी कारण अपने अनुकूल न मानना भ्रान्तिदर्शन है। (८) अलब्धभूमिकत्व = साधना करने पर भी यौगिक उपलब्धियाँ न मिलने से निराश होना अलब्धभूमिकत्व है। (९) अनवस्थितत्व = साधना में किसी उच्चभूमि में चित्त की स्थिति होने पर भी वहाँ न ठहर पाना अनवस्थितत्त्व है। ये नौ (जो कि) चित्तविक्षेपाः = चित्त के विक्षेप हैं; ते = वे ही; अन्तरायाः = अन्तराय (विघ्न) हैं।

अर्थात् रोग, अकर्मण्यता, संदेह, प्रमाद, आलस्य, विषयासक्ति, भ्रान्ति, उपलब्धि न होने से उपजी दुर्बलता और अस्थिरता वे बाधाएँ हैं, जो मन में विक्षेप लाती हैं।

महर्षि अपने पहले के सूत्र में कहते हैं कि ये सभी विक्षेप मंत्र जप से समाप्त हो जाते हैं। इस सच को और अधिक स्पष्टता से समझने के लिए प्रत्येक विक्षेप पर विचार करना जरूरी है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ११७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

सोमवार, 16 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६८)

आत्मसाक्षात्कार का साधन जप
    
गुरुदेव बताया करते थे कि स्वामी सर्वानन्द पर माँ गायत्री की महती कृपा थी। वे सदा-सर्वदा माँ के आँचल की छाया में रहते थे। हालाँकि बचपन में इनकी ऐसी स्थिति न थी। ये शारीरिक रूप से दुर्बल एवं बीमार रहा सकते थे। पिता इनके जन्म के साथ ही परलोक सिधार गए थे। माँ पर पालन-पोषण का सम्पूर्ण बोझ था। घर में आय का कोई विशेष साधन न था। इसी वजह से माँ इनका ठीक से इलाज भी न करा पाती थी। बचपन में एक महात्मा इनके घर आए। उन्होंने इनकी दुर्दशा देखी। ये बिछौने में लेटे हुए अपनी मृत्यु का इन्तजार किया करते थे। और माँ शोकाकुल हो आँसू बहाया करती थी। जिन्दगी में सब ओर अँधेरा था। कहीं से कोई आशा की किरण नहीं दिखाई देती थी।
    
ऐसे में किसी पूर्वकर्मों के संयोग से एक महात्मा इनके घर आए। उन्होंने घर की दुर्दशा देखी। और कृपापूर्वक इनकी माँ को गायत्री महामंत्र बताया। बालक सर्वानन्द को भी उन्होंने गायत्री महामंत्र सिखाया, और बोले- बेटा, तुम इसे जपा करो। इस महामंत्र के स्वरों में तुम जगन्माता भगवती आदिशक्ति गायत्री को पुकारो। पर महाराज यह बालक तो स्नानादि कुछ नहीं कर पाएगा। ‘मानसे तु नियम नास्ति’ मानसिक जप में कोई नियम नहीं है बेटी! महात्मा जी ने शास्त्र वचन समझाते हुए उनसे कहा- माँ को पुकारने के लिए कोई नियम नहीं है। तुम तो बस पूरी विकलता से पुकारो। जब माँ तुम्हें ठीक कर दे, तब तुम विधि सहित नियम पूर्वक उनकी आराधना करना।
    
क्या मेरा बच्चा ठीक हो जाएगा महाराज? माँ के इस सवाल पर वे महात्मा हँसे और बोले- जो हमने कहा है, उसे करके देख लो। तुम्हें स्वयं पता चल जाएगा। महात्मा जी के उपदेशानुसार इस छः वर्षीय बालक ने गायत्री महामंत्र का मानसिक जप प्रारम्भ किया। उसके दिन-रात अब गायत्री की रटन में बीतने लगे। महामंत्र की दार्शनिक व्याख्या उसे भले ही मालूम न थी, पर उसकी श्रद्धा में कमी न थी। वह तो बस अपनी माँ को पुकार रहा था। पुकारते हुए उसे छः वर्ष बीत गए। चार वर्षों तक कुछ खास पता न चला। पर छः साल बाद तो वह भला चंगा हो गया।
    
तेरह वर्ष की आयु में उसका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। फिर तो गायत्री की सविधि उपासना उसका जीवन बन गयी। चौबीस वर्षों में उसने चौबीस पुरश्चरण कर डाले। इसी बीच उसकी माँ का देहावसान हो गया था। चौबीस पुरश्चरणों की पूर्णाहुति के रूप में उसने संन्यास ले लिया। और उसका नाम हो गया स्वामी सर्वानन्द। हिमालय यात्रा के समय जब गुरुदेव से इनकी मुलाकात हुई, तो उन्होंने अपने जीवन का सच बताते हुए गुरुदेव से कहा- आचार्य जी! साधक को केवल भक्तिपूर्वक जप करना पड़ता है। बाकी उसके जीवन के सभी कार्य जप स्वयं कर देता है। इससे जीवन के आन्तरिक एवं बाहरी विघ्न स्वयं ही समाप्त हो जाती है। जप से उसकी सभी इच्छाएँ स्वयं ही पूरी होती रहती हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ११६
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

रविवार, 15 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६७)

आत्मसाक्षात्कार का साधन जप

मंत्र जप के विषय में बाबा कबीर कहते हैं- माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि। मनुवां तो चहुँ दिशि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं॥ यानि कि माला तो हाथ में घूमती रहती है और जीभ मुख में घुमती रहती है। मन चारों दिशाओं में घूमता-फिरता है। इस स्थिति को न तो जप कहा जा सकता है और न प्रभु स्मरण।
    
जप तो मंत्र के शब्दों के साथ विचारों और भावनाओं की एकाग्रता है। जप सकते समय प्रगाढ़ भावनाओं के साथ जो कुछ सोचा-विचारा जाता है, वही घटित होता है। इस सत्य का अनुभव कोई भी अपने जीवन में कर सकता है। बस बात इतनी भर है कि जप करने वाले साधक का जो संकल्प है, उसे उसकी चाहत है, उसके बारे में वह पूरे जप काल में सोचता रहे। इसमें यह भी जरूरी है कि इस सबके साथ उसकी गहरी भावनाएँ जुड़ी हों। यदि ऐसा है, तो समझो कि मंत्र की ऊर्जा से साधक का संकल्प सुनिश्चित रूप से साकार होकर रहेगा। यदि कोई विशेष चाहत नहीं है, तो समझो कि उसकी साधना के समस्त विघ्न स्वयमेव ही समाप्त होते रहेंगे।

इसी सत्य को महर्षि अपने अगले सूत्र में बताते हैं-
ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमयोऽप्यन्तरायाभावश्च॥ १/२९॥
शब्दार्थ-ततः= उक्त साधन से; अन्तरायाभावः= विघ्नों का अभाव; च= और प्रत्यक्चेतनाधिगमः= अन्तरात्मा के स्वरूप का ज्ञान; अपि= भी (हो जाता है)।
अर्थात् प्रभु नाम की जप साधना से साधना की सारी बाधाओं की समाप्ति होती है और आत्म साक्षात्कार हो जाता है।
    
जो जप साधना को सामान्य समझने की भूल करते हैं, उन्हें बार-बार इस सूत्र पर चिन्तन-मनन करना चाहिए। जो गहरी आस्था, श्रद्धा व सम्पूर्ण मानसिक एकाग्रता के साथ जप करते हैं, उनके लिए जप स्वयं ही सब कुछ कर देता है। ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव इसकी व्याख्या में एक ऐसे महासाधक का उदाहरण देते थे, जो पहले किसी गम्भीर बीमारी से ग्रस्त थे। पर बाद में वे न केवल निरोगी हुए, बल्कि उन्होंने अध्यात्म तत्त्व का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया। इनका संन्यास नाम स्वामी सर्वानन्द था। परम पूज्य गुरुदेव से इनकी मुलाकात हिमालय यात्रा के समय हुई। तभी इन्होंने गुरुदेव को अपने जीवन का यह प्रसंग सुनाया।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ११४
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

गुरुवार, 12 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६६)


यदि जान सकें जप की कला
    
परम पूज्य गुरुदेव मंत्र विद्या के परम ज्ञाता थे। मंत्र विज्ञान के सूक्ष्म अन्तर-प्रत्यान्तरों के विशेषज्ञ-मर्मज्ञ थे। उनका कहना था कि मंत्र साधना के तीन आयाम हैं। पहला- मंत्र का मन ही मन अथवा अति धीमे स्वर में उच्चारण। दूसरा, इसका अर्थ अनुसन्धान। यह अर्थ अनुसन्धान, अर्थ चिन्तन से कहीं अधिक सूक्ष्म तत्त्व है। इसमें साधक क्रमिक रूप से अर्थ की गूढ़ता व रहस्यमयता में प्रवेश करता है। और उसकी अन्तर्चेतना में मंत्र के नए रहस्यार्थ प्रकट होते हैं। इसका तीसरा आयाम है- प्रगाढ़ भावना। यानि कि मंत्र के अधिदेवता के प्रति साधक के मन-अन्तःकरण में भक्ति की हिलोरे उठनी चाहिए। ये तीनों तत्त्व परस्पर गुँथे रहे, तो ही मंत्र की सार्थक साधना बन पड़ती है।
    
गुरुदेव मंत्र साधना की इन बारीकियों को बताते हुए नरपतगढ़ के महान् सिद्ध सन्त स्वामी कृष्णबोधानन्द के साधना प्रसंग सुनाते थे। वह कहते थे कि कृष्णबोधानन्द जी मंत्र विद्या के महान् ज्ञाता थे। उन्होंने गायत्री महामंत्र की पुरश्चरण साधनाओं के साथ अन्य मंत्रों की साधनाएँ भी सम्पन्न की थी। कई वैदिक, तांत्रिक, पौराणिक, जैन, बौद्ध एवं इस्लामिक मंत्र उन्होंने सिद्ध किए थे। मंत्रविद्या की साधना एवं अनुसन्धान उनका प्रिय कार्य क्षेत्र था। गुरुदेव के अनुसार इन महान् आत्मा का उनके साथ वर्षों का संग साथ रहा।
    
मंत्र साधना के बारे में ये कई प्रेरक बातें बताते थे। इन बातों में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि गायत्री महामंत्र के पाँच पुरश्चरण कर लेने पर अन्य मंत्रों की साधना में सफलता सुनिश्चित हो जाती है। जिसने भी गायत्री मंत्र की विधिपूर्वक साधना कर ली, वह किसी भी धर्म के किसी भी मंत्र की साधना कर सकता है, सिद्धि पा सकता है। कृष्णबोधानन्द जी का अपने अनुभव के आधार पर कहना था कि यदि धर्म, मजहब, जाति-देश आदि की संकीर्ण मान्यताएँ दरकिनार कर दी जाएँ और एक विज्ञानवेत्ता की भाँति निष्कर्ष प्रतिपादित किया जाय, तो यही कहना होगा कि गायत्री मंत्र विश्व भर के सभी मंत्रों का सार है।
    
इस सम्बन्ध में कृष्णबोधानन्द जी के अनुभव का एक अन्य निष्कर्ष भी था। वह कहा करते थे कि सन्ध्योपासना गायत्री में लय होती है और गायत्री का लय ओम् सहित व्याहृतियों (ॐ भूर्भुवः स्वः) में होता है। और अन्त में ये व्याहृतियाँ ॐ में लय हो जाती हैं। साधना करते-करते यह ॐकार साधक के सम्पूर्ण अस्तित्व में प्रकाशित हो जाता है। यही नहीं साधक का अस्तित्व भी ॐकार में विलीन हो जाता है। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति की सभी अवस्थाओं में विलीनता तुरीय अवस्था में हो जाती है।
    
गुरुदेव बताते थे कि विश्व भर के विभिन्न धर्मों, मतों, पंथों में बताए हुए अनगिनत मंत्रों की साधना करने वाले एवं इनकी सिद्धि पाने वाले कृष्णबोधानन्द जी अद्भुत व्यक्ति थे। जीवन के अन्तिम वर्षों में केवल ॐकार ही इनके जीवन में रह गया था। ॐकार का अर्थ चिन्तन एवं ध्यान ही इनके जीवन का पर्याय था। ये महापुरूष अपने शरीर में केवल एक टाट का टुकड़ा भर लपेटते थे। वे कहते थे कि ॐकार ही सूर्य है, यही गायत्री है, यही वेद है। मंत्र जप के प्रभाव से वृद्धावस्था में भी इनका शरीर सभी व्याधियों से मुक्त होकर एक अनोखी आभा बिखेरता था जिसे जो भी देखता, एक अलौकिक चुम्बकत्व से बँध जाता था। 

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ११२
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

बुधवार, 11 नवंबर 2020

👉 लोग निंदा करें तो करने दो।

सब लोगों को अपनी तरफ से छुट्टी दे दो, वे चाहे निंदा करें, चाहे प्रसंशा करें, जिसमे वे राजी हों करें।

आप सबको छुट्टी दे दो तो आपको छुट्टी (मुक्ति) मिल जाएगी! प्रशंसा में तो मनुष्य फँस सकता है पर निंदा में पाप नष्ट होते हैं। कोई झूंठी निंदा करे तो चुप रहो सफाई मत दो। कोई पूछे तो सत्य बात कह दे। बिना पूछे लोगों में कहने की जरुरत नहीं। बिना पूछे सफाई देना (सत्य की सफाई देना) सत्य का अनादर है भरत जी कहते हैं –

जानहुँ रामु कुटिल करी मोही।
लोग कहउ गुरु साहिब द्रोही।।
सीता राम चरण रति मोरें। 
अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।

दूसरा आदमी हमें खराब समझे तो इसका कोई मूल्य नहीं है। भगवान दूसरे की गवाही नहीं लेते। दूसरा आदमी अच्छा कहे तो आप अच्छे हो जाओगे, ऐसा कभी नहीं होगा। अगर आप बुरे हो तो बुरे ही रहोगे। अगर आप अच्छे हो तो अच्छे ही रहोगे, भले ही पूरी दुनियां बुरी कहे। लोग निंदा करे तो मन में आनंद आना चाहिए। एक संत ने कहा है –

मेरी निंदा से यदि किसी को संतोष होता है, तो बिना प्रयत्न के ही मेरी उन पर कृपा हो गयी। क्योंकि कल्याण चाहने वाले पुरुष तो दूसरों के संतोष के लिए अपने कष्टपूर्वक कमाए हुए धन का भी परित्याग कर देते हैं। (मुझे तो कुछ करना ही नहीं पड़ा)

हम पाप नहीं करते, किसी को दुःख नहीं देते, फिर भी हमारी निंदा होती है तो उसमें दुःख नहीं होना चाहिए, प्रत्युत प्रसन्नता होने चाहिए। भगवान की तरफ से जो होता है, सब मंगलमय ही होता है। इसलिए मन के विरुद्ध बात हो जाए तो उसमें आनंद मनाना चाहिए।

स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६५)

यदि जान सकें जप की कला

अन्तर्यात्रा विज्ञान साधकों के लिए पुकार है। पुकार के ये स्वर बड़े आश्चर्यों से भरे हैं। इन्हें सब नहीं सुन सकते। इन्हें सुन पाने के लिए साधक का अन्तःकरण चाहिए। जिनमें साधक की अन्तर्चेतना, साधक की अन्तर्भावना है- वही इन्हें सुन पाएँगे। उन्हीं को अपने अस्तित्व के मर्म में महर्षि पतंजलि एवं ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव की छुअन महसूस होगी। वही अपने आपको इन महायोगियों की वरद छाया में अनुभव कर पाएँगे। उन्हीं को इन महान् विभूतियों का नेह-निमंत्रण सुनायी देगा। योग न तो लौकिक ज्ञान है और न ही कोई सामान्य सांसारिक विद्या है। यह महान् आध्यात्मिक ज्ञान है और अतिविशिष्ट परा विद्या है। वाणी से इसका उच्चारण भले ही किया जा सकता हो, पर इसके अर्थ बौद्धिक चेतना में नहीं खुलते। इसके रहस्यार्थों का प्रस्फुटन, तो गहन भाव चेतना में होता है।

अन्तर्यात्रा के पथ पर उन्हीं को प्रवेश मिलता है, जो साधक होने की परीक्षा पास करते हैं। अपनी पात्रता सिद्ध करते हैं। हालाँकि इस सम्बन्ध में महर्षि पतंजलि परम उदार हैं। उन्होंने अन्तर्यात्रा के पथ के पथिकों के लिए अनेकों वैज्ञानिक अनुसन्धान किए हैं। अनगिनत तकनीकें खोजी हैं। इन तकनीकों में से किसी एक का इस्तेमाल करके कोई भी व्यक्ति इस पात्रता की परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकता है। इन्हीं तकनीकों में से एक है- ॐकार का जप। ॐकार में अनगिनत गुह्य निधियाँ, गुह्य शक्तियाँ समायी हैं। यदि इसका विधिपूर्वक जप हो, तो योग की सभी बाधाओं का बड़ी आसानी से निराकरण किया जा सकता है। प्रभु की महिमा, गरिमा सभी कुछ बीज रूप में इसमें निहित है। यह बीज विकसित कैसे हो, प्रस्फुटित किस भाँति हो? इसका विधान महर्षि अपने अगले सूत्र में बताते हैं-

तज्जपस्तदर्थभावनम्॥ १/२८॥
शब्दार्थ- तज्जपः= उस (ॐकार का) जप (और), तदर्थभावनम्= उसके अर्थ स्वरूप परमेश्वर की भावना के साथ करना चाहिए।
अर्थात् ॐकार का जप इसके अर्थ का चिन्तन करते हुए परमेश्वर के प्रति प्रगाढ़ भावना के साथ करना चाहिए।
    
महर्षि ने इस सूत्र में जप की विधि, जप के विज्ञान का खुलासा किया है। मंत्र को दोहराने भर का नाम जप नहीं है। केवल दोहराते रहना एक अचेतन क्रिया भर है। यह साधक को चैतन्यता देने की बजाय सम्मोहन जैसी दशा में ले जाती है। जो केवल मंत्र को दुहराते रहते हैं, उन्हें परिणाम में सम्मोहन, निद्रा मिलती है। हाँ यह सच है कि इससे थकान मिटती है। जगने पर थोड़ी स्फूर्ति भी लगती है। किन्तु यह जप का सार्थक परिणाम नहीं है। इसका सार्थक परिणाम तो जागरण है। चेतना की परम जागृति है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १११
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

सोमवार, 9 नवंबर 2020

👉 उज्ज्वल भविष्य की आशा

जिनने आशा और उत्साह का स्वभाव बना लिया है वे उज्ज्वल भविष्य के उदीयमान सूर्य पर विश्वास करते हैं। ठीक है, कभी−कभी कोई बदली भी आ जाती है और धूप कुछ देर के लिए रुक भी जाती है पर बादलों के कारण क्या सूर्य सदा के लिए अस्त हो सकता है? असफलताऐं और बाधाऐं आते रहना स्वाभाविक है उनका जीवन में आते रहना वैसा ही है जैसा आकाश में धूप−छाँह की आँख मिचौली होते रहना। कठिनाइयाँ मनुष्य के पुरुषार्थ को जगाने और अधिक सावधानी के साथ आगे बढ़ने की चेतावनी देती जाती है। उनमें डरने की कोई बात नहीं। आज असफलता मिली है, आज प्रतिकूलता उपस्थित है, आज संकट का सामना करना पड़ रहा है तो कल भी वैसी ही स्थिति बनी रहेगी, ऐसा क्यों सोचा जाय? आशावादी व्यक्ति छोटी−मोटी असफलताओं की परवाह नहीं करते। वे रास्ता खोजते हैं और धैर्य, साहस, विवेक एवं पुरुषार्थ को मजबूती के साथ पकड़े रहते हैं क्योंकि आपत्ति के समय में साथ पकड़े रहते है क्योंकि आपत्ति के समय में यही चार सच्चे मित्र बताये गये हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६४)

ॐकार को जाना, तो प्रभु को पहचाना
    
गोस्वामी जी महाराज ने अपनी मंत्रमय कृति रामचरित मानस में इस नाम महिमा की बड़ी विस्तृत विवेचना की है। बालकाण्ड के दोहा क्रमांक १८ से दोहा क्रमांक २७ तक इस प्रकरण को बड़े भक्तिपूर्ण ढंग से उकेरा गया है। २८ चौपाइयों का यह प्रसंग भक्तों के मन को सब भाँति मोहने वाला है। जिन्हें प्रभु के नाम की महिमा के यथार्थ के बारे में तुलसी बाबा की अनुभूति को जानने की जिज्ञासा है, उन्हें बालकाण्ड के नाम महिमा के प्रसंग को अवश्य पढ़ना चाहिए। हम तो यहाँ विस्तारभय के कारण तुलसी बाबा की केवल एक चौपाई को उद्धृत करना चाहेंगे। जिसमें वह कहते हैं-

अगुन सगुन दुई ब्रह्म सरूपा। 
अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरे मत बढ़ नाम दुहूँ ते। 
किए जेहिं जुग निजबस  बूते॥

अर्थात्- परम ब्रह्म परमेश्वर के दो ही स्वरूप है- निर्गुण और सगुण। प्रभु के ये दोनों ही रूप अकथनीय, अथाह, अनादि एवं अनुपम हैं। गोस्वामी जी कहते हैं कि  मेरी सम्मति में नाम इन दोनों से ही बड़ा है। क्योंकि इसने अपने बल से दोनों को वश में कर रखा है। अर्थात् नाम साधना से प्रभु के दोनों रूपों का ज्ञान सहज ही हो जाता है।
    
प्रभु के पावन नाम के इस प्रसंग में ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव के अमृत वचनों का स्मरण हो रहा है। उन्होंने ये बातें अपनी निजी चर्चा में कही थीं। बात योग साधना की चल रही थी। गुरुदेव सदा की भाँति अपने पलंग पर बैठे थे। प्रश्नकर्त्ता उनके चरणों के समीप एक टाट के टुकड़े पर बैठा हुआ थ। उसने जिज्ञासा की कि वह प्रभावकारी योग साधना किस तरह से करे? इस  जिज्ञासा के समाधान में गुरुदेव ने कहा—बेटा! इन दिनों प्राण अन्तगत है। लोगों के दैनिक काम-काज का भी कोई ठीक नहीं है। कठिन, कठिन आसन, प्राणायाम, बन्ध मुद्राओं का अभ्यास करके ईश्वर तत्त्व की अनुभूति करना आज के दौर में सुलभ नहीं है।
    
शरीर चिकित्सा के लिए कुछ समय के लिए आसन-प्राणायाम या बन्ध, मुद्रा का अभ्यास करना अलग बात है और इन क्रियाओं से कुण्डलिनी जागरण, चक्रबेधन, सहस्रार सिद्धि एकदम अलग बात है। गुरुदेव बोले- ऐसा करने के चक्कर में ज्यादातर लोग रोगी हो जाते हैं। वायु कुपित होने के कारण उन्हें अनेकों शारीरिक, मानसिक परेशानियाँ घेर लेती हैं। तब फिर रास्ता क्या है गुरुदेव? पूछने वाले ने निराश स्वर में कहा। क्योंकि उसे गुरुदेव की बातों से लगने लगा था कि योग साधना के लिए वह सत्पात्र नहीं है। उसके लिए यह सब दूर की कौड़ी है। यह ऐसा आकाश कुसुम है, जिसे वह कभी भी नहीं पा सकता।
    
उसकी इस निराशा को तोड़ते हुए गुरुदेव बोले-  एक उपाय है बेटा! गुरुदेव के इन वचनों से प्रश्नकर्त्ता के निराश मन में आशा संजीवनी का संचार हुआ। उसने आतुरता से पूछा कौन सा? वह बोले- भगवान् के नाम का स्मरण। यह ऐसी साधना है, जिसे तुलसी, मीरा, सूर, रहीम, रसखान, कबीर, रैदास आदि अनगिनत भक्तों को योग सिद्धि प्राप्त हुई। नाम साधना के कारण ही उन्हें भगवान् का सहचर्य मिला। भगवान् उनके साथ रहे। सच तो यह है, नाम साधना से बड़ी कोई दूसरी साधना है ही नहीं। पर बहुतेरे लोग इसे आसान समझकर यूँ ही छोड़ देते हैं और उलटी-पलटी साधनाओं के चक्कर में उलझ कर बाद में मदद के लिए करुण पुकार करते हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १०९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

शनिवार, 7 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६३)

ॐकार को जाना, तो प्रभु को पहचाना

अन्तर्यात्रा अचेतन की परतों में चेतनता की स्फूर्ति लाती है। यह एक ऐसा सच है, जिसकी समग्र बौद्धिक व्याख्या तो सम्भव नहीं है, लेकिन इसकी सम्पूर्ण अनुभूति बड़ी सहज है। जो अन्तर्यात्रा में संलग्न हैं, वे सब यही कहते हैं। अनुभव कहता है कि अन्तर्यात्रा का पथ अनगिन रहस्यों से भरा है। इस पथ पर कुछ दूर चलने पर एक ऐसा नया अनजान मोड़ जाता है कि सब कुछ बदला नजर आता है। सारे नजारे बदल जाते हैं। मनःस्थिति ही नहीं, परिस्थिति भी अपना एक नया रूप सामने लाती है।

ऐसे में यदा-कदा ही नहीं बल्कि बहुधा इस यात्रा के अवरुद्ध होने की घटना घटती है। अन्तर्यात्रा के इस दौर में चलने वाले पाँव थकते ही नहीं, बहकते भी हैं। पथ की थकान एवं पाँवों के बहकावे से बचना-उबरना आसान नहीं होता है। सच्चे योग साधक कब योगभ्रष्ट हो जाएँगे कोई ठिकाना नहीं। ऐसी स्थिति में एक ही उपाय है- परमात्मा के प्रति अविचलित श्रद्धा, प्रभु के नाम के प्रति अडिग निष्ठा।     

प्रभु के सामने साधक भी बालक ही है। वह जानना चाहता है कि 
प्रभु को किस नाम से जानें? किस तरह से उसका स्मरण करें? इसकी चर्चा महर्षि अपने अगले सूत्र में करते हैं। वह इसमें कहते हैं-

तस्य वाचकः प्रणवः ॥ १/२७॥

शब्दार्थ- तस्य= उस (ईश्वर का); वाचकः =  वाचक (नाम); प्रणवः = प्रणव (ॐकार) है।
अर्थात् उसे ‘ॐ’ के नाम से जाना जाता है।
    
महर्षि ने इस सूत्र में बताया है कि ‘ॐ’ है नाम प्रभु का। इस ॐ में उतने ही रहस्य हैं, जितने कि स्वयं प्रभु में है। ॐ को जान लिया, तो समझो स्वयं प्रभु को पहचान लिया। वेद, पुराण, उपनिषद् सभी एक स्वर से ओम् की महिमा का गान करते हैं। जो नाम का स्मरण करते हैं, उन्हें अपने आप ही नामी का परिचय मिल जाता है। प्रभु के नाम का स्मरण साधना की सबसे सरल किन्तु प्रभावकारी है। इस रीति से भी योग के शिखर तक पहुँचा जा सकता है। समाधि की सिद्धि पायी जा सकती है। नाम की रटन, नाम की लगन, नाम की धुन, नाम का ध्यान में यदि मन रम जाए, तो समझो कि साधना से सिद्धि का द्वार खुल गया।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १०८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 परीक्षा की कसौटी

परीक्षा में फेल हो गये, घाटा लग गया, नौकरी नहीं मिली, बीमार पड़ गये, स्वजनों से लड़ाई हो गई, जैसा चाहते थे वैसा प्रसंग न बन पड़ा तो उसमें निराश होने की क्या बात है। अगला प्रयास और भी उत्साह और श्रम से करने पर आज न सही, कल फिर सफलता का अवसर प्राप्त हो सकता है। एक राजा जब लड़ाई में 13 बार हार गया और शत्रु के सिपाही उसका पीछा कर रहे थे तब वह अपनी जान बचाये एक खोह में छिपा बैठा था। सब साधन नष्ट हो जाने से उसे निराशा घेरने लगी थी और भविष्य अन्धकारमय दीखता था। इतने में उसने सामने की दीवार पर देखा कि मकड़ी बार−बार जाला बुनती है और वह बार−बार टूट जाता है। फिर भी मकड़ी निराश नहीं होती और हर असफलता के बाद उसी हिम्मत के साथ फिर अपने काम में जुट जाती है। तेरह बार असफल होने के बाद चौदहवीं बार मकड़ी अपना टूटा तागा जोड़ने और जाला बनाने का काम आगे बढ़ाने में सफल हो गई। इस दृश्य का राजा के मन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उसने सोचा छोटी−सी कौड़ी−मकड़ी जब हिम्मत नहीं छोड़ती तो मेरे जैसे बुद्धिमान और क्षमता सम्पन्न मनुष्य के लिए हिम्मत छोड़ बैठना क्योंकर उचित हो सकता है?

राजा ने हिम्मत समेटी और फिर लड़ाई की तैयारी में पूरे उत्साह के साथ लग गया। चौदहवीं बार उसे सफलता मिल गई। हमारे लिए यह उदाहरण मार्गदर्शन का काम दे सकता है। पहलवान कई बार कुश्ती में पिछड़ जाते हैं पर क्या इससे वे कुश्ती लड़ना छोड़ देते हैं? घुड़ सवारी सीखते समय गिर पड़ने से कौन सवार घोड़े पर चढ़ना छोड़ बैठता है? छोटे बच्चे जब चलना और खड़ा होना सीखते हैं तो बार−बार गिरते और असफल रहते हैं पर इतने में ही वे कहाँ हिम्मत हारते हैं। कब अपना प्रयत्न छोड़ते हैं। वरन् हर असफलता के बाद और अधिक उत्साह तथा प्रसन्नता के साथ उठने चलने का उपक्रम करते हैं। हम इन छोटे बच्चों से बहुत कुछ सीख सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

👉 उचित मार्ग पर पदार्पण

उचित दिशा में चलता हुआ मन आशावादी, दूरदर्शी, पुरुषार्थ, गुणग्राही, और सुधारवादी होता रहने वाला, तुरन्त की बात सोचने वाला, भाग्यवादी, कठिनाइयों की बात सोच−सोचकर खिन्न रहने वाला और आपका पक्षपात करने वाला होता है। वह परिस्थितियों के निर्माण में अपने उत्तरदायित्व को स्वीकार नहीं करता। मन पत्थर या काँच का बना नहीं होता जो बदला न जा सके। प्रयत्न करने पर मन को सुधारा और बदला जा सकता है। यह सुधार ही जीवन का वास्तविक सुधार है। युग−निर्माण का प्रमुख आधार यह मानसिक परिवर्तन ही है। दुमुँहे साँप की उलटी चाल को यदि सीधी कर दिया जाय तो वह पीछे लौटने की अपेक्षा स्वभावतः आगे बढ़ने लगेगा। 

हमारा मन यदि अग्रगामी पथ पर बढ़ने की दिशा पकड़ ले तो जीवन के सुख शान्ति और भविष्य के उज्ज्वल बनने में कोई सन्देह नहीं रह जाता। कई लोग ऐसा सोचते रहते हैं कि आज जो कठिनाइयाँ सामने हैं वे कल और बढ़ेंगी, इसलिए परिस्थिति दिन−दिन अधिक खराब होती जावेंगी और अन्त बहुत दुखमय होगा। जिनके सोचने का क्रम यह है कल्पना शक्ति उनके सामने वैसे ही भयंकर संभावनाओं के चित्र बना-बनाकर खड़ी करती रहती है, जिससे दिन−रात भयभीत होने और परेशान रहने का वातावरण बना रहता है। निराशा छाई रहती है। भविष्य अन्धकारमय दीखता है। दुर्भाग्य की घटाऐं चारों ओर से घुमड़ती आती हैं। इस प्रकार के कल्पना चित्र जिसके मन में उठते रहेंगे वह खिन्न और निराश ही रहेगा और बढ़ने एवं पुरुषार्थ करने की क्षमता दिन−दिन घटती चली जायगी। अन्त में वह इसी मानसिक दुर्बलता के कारण लुञ्ज−पुञ्ज एवं सामर्थ्यहीन बन जायेगा किसी काम को आरंभ करते ही उसके मन में असफलता की आशंका सामने खड़ी काम करते न बन पड़ेगा। ऐसे लोगों का शंका शंकित मन से किया हुआ कार्य सफलता की मंजिल तक पहुँच सकेगा इसकी संभावना कम ही रहेगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६२)

गुरुओं के गुरु हैं—प्रभु

ऐसे ही एक गुरु की कथा गुरुदेव सुनाते थे। उसे यहाँ प्रस्तुत करने का मन है। उच्च शिक्षित ये गुरु एक ख्यातिनामा संस्था के संचालक थे। देश-विदेश में उन्हें प्रवचन के लिए आमंत्रित किया जाता था। आमंत्रित अतिथि के रूप में ये एक बार विदेश में किसी पागलखाने में गए। वहाँ उन्हें सुनने वालों में कर्मचारियों एवं चिकित्सकों के साथ पागलखाने के पागल भी थे। प्रवचन करते समय इन गुरु महोदय का उस समय भारी अचरज हुआ जब उन्होंने देखा कि पागलखाने के सारे पागल उन्हें बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। कर्मचारी एवं चिकित्सकों का सुनना तो उन्हें स्वाभाविक लगा, पर पागलों का इस तरह से सुनना....? आखिर इसमें रहस्य क्या है?

इस खोज में उन गुरु ने पागलखाने के अधीक्षक से अपनी जिज्ञासा कही। और उनसे निवेदन किया कि आप जरा इन पागलों से पूछकर तो देखिए कि इन्हें मेरी क्या बात पसन्द आयी। उनके निर्देशानुसार अधीक्षक ने पागलों से बात की और उनके पास आए। बताइए न क्या बातें हुई- गुरु महोदय में भारी उत्सुकता थी। अधीक्षक ने थोड़ा हिचकिचाते हुए बोला- महोदय! आप मुझे क्षमा करें, ये सभी पागल यह कह रहे थे कि ये प्रवचन करने वाले तो बिल्कुल हम लोगों जैसे हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि हम लोग यहाँ भीतर हैं और ये बाहर घूम रहे हैं।

गुरुदेव ने इस हास्य कथा को सुनाते हुए कहा था कि आज के दौर में ज्यादातर गुरुओं की यही स्थिति है। दूसरी श्रेणी के गुरु वे होते हैं, जिन्हें भगवान् अपने प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त करता है। इस श्रेणी में रमण महर्षि, श्री अरविन्द, सन्त गुरजिएफ आदि महापुरुष आते हैं। स्वयं गुरुदेव की चर्चा भी इस कोटि में की जा सकती है। ये सब ईश्वरीय चेतना में निवास करते हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में इनका शरीर भगवान् का घर होता है। भगवान् ही इनके शरीर के माध्यम से कार्य करता है।

तीसरी श्रेणी में ईश्वर स्वयं गुरु होते हैं। अपनी देह विसर्जित करके ब्राह्मी चेतना में विलीन महापुरुष भी इस कोटि में जा पहुँचते हैं। यह स्थिति सभी कालों से परे होती है। क्योंकि ब्राह्मी चेतना की परम भावदशा में काल का अस्तित्व लोप होता है। ईश्वर इसी परम भावदशा का नाम है। जिन साधकों ने उन्हें इस रूप में जान लिया, वे भी उसी स्थिति में जा पहुँचते हैं। अपने गुरु को ईश्वर के रूप में जानकर भी यह स्थिति पायी जा सकती है, वस्तुतः तब प्रयास स्वतःस्फूर्त होने लगते हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १०६
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

गुरुवार, 5 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६१)

गुरुओं के गुरु हैं—प्रभु

साधक का क्षण-क्षण उत्सव में परिवर्तित करने वाले ईश्वर तत्व का गुह्य रहस्य स्पष्ट करते हुए महर्षि पतंजलि अपने अगले सूत्र में कहते हैं-
पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्॥ १/२६॥
शब्दार्थ - (वह ईश्वर सबके) पूर्वेषाम् = पूर्वजों का; अपि = भी; गुरुः = गुरु है; कालेन अनवच्छेदात् = क्योंकि उसका काल से अवच्छेद नहीं है।
अर्थात् समय की सीमाओं के बाहर होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है।

इस सूत्र में महर्षि ने मुख्यतया तीन संकेत किए हैं। १. ईश्वर गुरु है। जो अभी तक गुरु विहीन है, वे उन परात्पर प्रभु को अपने गुरु के रूप में वरण कर सकते हैं। २. वे गुरुओं के गुरु हैं। अभी तक सम्पूर्ण सृष्टि में जितने भी सद्गुरु हुए हैं, ईश्वर उन सभी के गुरु हैं। क्योंकि सभी सद्गुरु ईश्वर से ही उपजते, ईश्वर में ही वास करते और उन्हीं परम प्रभु में विलीन हो जाते हैं। ३. ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे प्रभु काल की सभी सीमाओं से परे हैं। सच तो यह है कि ईश्वरीय चेतना में काल की सीमाएँ ही विलीन हो जाती हैं।

ये तीन बातें आध्यात्मिक जगत् के तीन रत्न हैं। जो इनके रहस्य को जान जाता है- वह योग के सत्य को पा लेता है। ईश्वर को गुरु के रूप में बताकर महर्षि साधकों को गुरु की गरिमा को बोध कराना चाहते हैं। ईश्वर गुुरु है और गुरु ईश्वर है। इस सुपरिचित सत्य से बहुधा साधक अपरिचित रहते हैं। इसी के साथ एक बात और भी देखी जाती है कि कई बार ईश्वरत्व में विलीन हुए बगैर भी कई लोग अपने आपको गुरु के रूप में प्रचारित करने लग जाते हैं।

युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव इस सम्बन्ध में कहते थे कि दरअसल गुरु तीन तरह के होते हैं। इनमें से पहली श्रेणी है—शिक्षक की, जो बौद्धिक ज्ञान देता है। इसके पास तर्कों का जादू होता है, शब्दों का मायाजाल होता है। बोलने में प्रवीण ऐसे लोग कई बार अपने आप को गुरु के रूप में भी प्रस्तुत कर लेते हैं। उनके कथा-प्रवचन, उनकी लच्छेदार वाणी अनेकों को अपने प्रति आकर्षित करती है। ऐसों का मन्तव्य एक ही होता है कि ज्यादा से ज्यादा लोग उन्हें मानें, उनकी सुनें, उन्हें पूजें, उनके प्रति श्रद्धा करें। श्रद्धा का सन्दोहन करने वाले ऐसे गुरुओं की आज कमी नहीं है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १०५
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 देने की नीति

कड़ाके की ठंड पड़ी। पृथ्वी पर रेंगने वाले कीटक उससे सिकुड़ कर मरने लगे। वन्य प्राणियों के लिए आहार की समस्या उत्पन्न हो गई। लोग शीत निवारण के लिए जलावन ढूंढ़ने निकले। सब के शरीर अकड़ रहे थे तो भी कष्ट निवारण का उपाय किसी से बन नहीं पड़ रहा था।

वृक्ष से यह सब देखा न गया। इन कष्ट पीड़ितों की सहायता के लिए उसे कुछ तो करना ही चाहिए। पर करें भी तो क्या। उसके पास न बुद्धि थी न पुरुषार्थ न धन न अवसर।

फिर भी वह सोचता ही रहा- क्या मेरे पास कुछ भी नहीं है? भला ऐसा कैसे होगा सर्वथा साधन हीन तो इस सृष्टि में एक कण भी नहीं रचा गया है? गहराई से विचार किया तो लगा कि वह भी साधनहीन नहीं है। पत्र-पल्लवों की प्रचुर संपदा प्रकृति ने उसे उन्मुक्त हाथों से प्रदान की है। वृक्ष ने संतोष की साँस ली। पुलकन उसके रोम-रोम में दौड़ गई।

वृक्ष ने अपने सारे पत्ते जमीन पर गिरा दिए। रेंगने वालों ने आश्रय पाया, पशुओं को आहार मिला, जलावन को समेट कर मनुष्यों ने आग तापी और जो रहा बचा सो खाद के गड्ढे में डाल दिया। दुम हिलाते रंग बदलते गिरगिट अपनी कोतर से निकला और वृक्ष से पूछने लगा- अपनी शोभा सम्पदा गँवाकर तुम ढूँठ बन गये। इस मूर्खता में आखिर क्या पाया।

वृक्ष गिरगिट को निहारता भर रहा पर उत्तर कुछ नहीं दिया। कुछ समय उपरान्त बसन्त आया। उसने ढूँठ बनकर खड़े हुए वृक्ष को दुलारा और पुराने पके पत्तों के स्थान पर नई कोपलों से उसका अंग प्रत्यंग सजा दिया। यह तो उसके दान का प्रतिदान था। अभी उपहार का अनुदान शेष था सो भी बसन्त ने नये बसंती फूलों से मधुर फलों से लाद कर पूरा कर दिया। वृक्ष गौरवान्वित था और सन्तुष्ट भी।

गिरगिट फिर एक दिन उधर से गुजरा। वृक्ष पहले से अधिक सम्पन्न था। उसने देने की नीति अपना कर खोया कम और पाया ज्यादा यह उसने प्रत्यक्ष देखा।

पूर्व व्यंग की निरर्थकता का उसे अब आभास हुआ सो लज्जा से लाल पीला होता हुआ वह फिर अपने पुराने कोंतर में वापिस लौट गया।

मंगलवार, 3 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६०)

बाँसुरी बनें, तो गूँजे प्रभु का स्वर

योग पथ पर चलने के लिए जितनी भी तकनीकें हैं, उनके शुरूआती दौर में अहंकार को बड़ा रस मिलता है। लेकिन भक्ति मार्ग में ऐसा कोई रस नहीं है। यहाँ अहंता को प्रारम्भ से ही निराश होना पड़ता है। जबकि दूसरे मार्गों में अहंता अन्तिम छोर पर निराश होती है। जब बात योग साधना की हो, तो अहंता को तो निराश होना ही पड़ेगा। पर हठयोग, राजयोग, ज्ञानयोग, नादयोग आदि जितनी भी योग विधियाँ हैं, वहाँ शुरूआत में बड़ी विचित्रताएँ हैं। तकनीक की विचित्रता, अनुभूति की विचित्रता, पथ की  विचित्रता- बड़े ही विचित्र लोभ यहाँ है। तमाशो से भरी जादूगरी यहाँ पर है। यहाँ पर ऐसा बहुत कुछ है, जहाँ अहंकार को रस मिले। उसे मजा आए। इसीलिए इन सबके लिए उसमें भारी आकर्षण है।
    
लेकिन ईश्वर भक्ति में ऐसा कोई आकर्षण नहीं है। यहाँ तो पहले ही कदम पर अहंकार को जलना-गलना एवं मरना-मिटना पड़ता है। अहंकार की मौत, ‘जो सिर काटे भुईं धरै’ के कबीर वचन यहाँ पर, इस पथ पर पाँव रखते ही सार्थक होते हैं। यही वजह है कि अहंकारी को भक्ति सुहाती नहीं है। उसे यह सब बड़ा अटपटा-बेतुका लगता है। अहंकारी के लिए भक्ति बुद्धिहीनता से भरा क्रियाकलाप है। यहाँ पर उसे हानि ही हानि नजर आती है। पर जो निष्कपट हृदय है, उनके लिए यह परम तृप्ति का मार्ग है। प्रभु में समर्पित, प्रभु में विसर्जित एवं प्रभु में विलीन। इससे बड़ा सुख और भला कहाँ हो सकता है।
    
ब्रह्मर्षि गुरुदेव स्वयं अपने बारे में कहा करते थे कि लोग मुझे लेखक समझते हैं, ज्ञानी मानते हैं। किसी की नजरों में मैं महायोगी हूँ। पर अपनी नजर में मैं केवल एक भक्त हूँ। अपने गुरु का, अपने भगवान् का निष्कपट भक्त। मैंने अपनी जिन्दगी का कण-कण, क्षण-क्षण, अणु-अणु अपने प्रभु की भक्ति में गुजारा है। मैंने तो स्वयं को बस केवल एक पोली बाँसुरी भर बना लिया। सच तो यह है कि अपने पूरे जीवन में मैंने कुछ किया ही नहीं। बस, प्रभु जो करते रहे, वही होता रहा। मैंने स्वयं को भगवान् के हाथों में सौंप दिया। मेरे जीवन में वही साधना बने, वही साधक और वही साध्य रहे। एक में तीन और तीन में एक, यही गणित मेरे जीवन में इस्तेमाल होती रही।
    
परम पूज्य गुरुदेव के इस जीवन दर्शन में महर्षि पतंजलि के इस सूत्र की सहज व्याख्या है। ईश्वर में समाकर जीव स्वयं ईश्वर बन जाता है। गुरुदेव कहते हैं, गंगाजल में समा जाने वाले गन्दे नाले को भी लोग गंगाजल कहने लगते हैं। इसमें महिमा गंगा की है और भावभरे समर्पण की। समर्पण करने से केवल क्षुद्रताओं का नाश होता है। केवल दुर्बलताएँ-हीनताएँ तिरोहित होती हैं, मिलता बहुत कुछ है। बस जो यह समझ सके। यह समझ में आने पर एक पल में सब कुछ घटित हो जाता है। जो ईश्वर में समर्पित होते हैं- उनके जीवन का अवसाद उत्सव में रूपान्तरित हो जाता है। 

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १०३
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...