शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग ८७)

प्रभुकृपा से ही मिलता है महापुरुषों का संग

महर्षि वाल्मीकि के अनुभव में भव बिसर गया और भाव भीगते रहे। ऋषिश्रेष्ठ की अतीत कथा के बारे में यद्यपि सभी को पता था, परन्तु इन पलों में तो जैसे वह सजीव हो उठी। महर्षि के स्वरों के आरोह-अवरोह, उनके उन्नत ललाट पर बनने-मिटने वाली लकीरें और सबसे अधिक उनके सजल नेत्रों से छिटकने वाली प्रभा सभी के अन्तर्हृदय में उतर गयी। उन क्षणों में अन्तःकरण और पर्यावरण दोनों ही तीव्रता से स्पन्दित हो उठे। वातावरण में भक्ति से भीगे भावों का प्रबल ज्वार उभर उठा।

सबके हृदय में यह अनुभूति प्रगाढ़ हुई कि महापुरुषों का संग-जीवन को रूपान्तरित करता है और यह रूपान्तरण भी अजब-अनोखा होता है। लोककिंवदन्ती कहती है कि पारस का स्पर्श कुरूप लोहे को चमकता सुवर्ण बना देता है। परन्तु ऐसा अनोखा पारस भी अपना दीर्घ संग देकर किसी लौहखण्ड को पारस नहीं बना सकता। लौहखण्ड को रहने भी दें तो यह अपने संग से सुवर्ण अथवा हीरक को भी पारस में नहीं बदल सकता परन्तु सन्तों के सान्निध्य में यह आश्चर्य सहजता से घटित होता है।

सन्तों का संग, उनका सान्निध्य, अनगढ़ मनुष्य को भी महामानव, देवमानव ही नहीं, देवों के लिए भी पूज्य सन्त में परिवर्तित कर देता है। महर्षि वाल्मीकि के साथ यही अघटित, घटित हुआ था। आज महर्षि वाल्मीकि, देवर्षि नारद की भांति भावप्रवण भक्त, उदारचेता सन्त थे। समस्त ऋषिगण, देवगण, सिद्ध महापुरुष, तपस्वी उनके लोकोत्तर जप, ज्ञान, भक्ति के साक्षी थे। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ एवं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र तो उनके समकालीन ही थे। इन तीनों महान विभूतियों ने मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की लीलाओं को अपनी आँखों से निहारा था। इन्होंने अनगिन पल-क्षण-घड़ियाँ उन पूर्णब्रह्म परमेश्वर के साथ बितायी थीं। भगवान-भक्ति एवं भक्त के सतत सहचर्य को उन्होंने जी-भर जिया था।

आज फिर से हिमवान के आंगन वे सभी स्मृतियाँ पुनः सजीव हो रही थीं। हिमालय के जड़ कहे-समझे जाने वाले शैल-शिखर, सचेतन होकर इस अलौकिकता को निहार रहे थे। शीतल किन्तु सुरभित हवाओं में भी यही स्वर व्याप रहा था। हिमपक्षियों की कलरव ध्वनि में ऋषिश्रेष्ठ वाल्मीकि के अनुभवों के गीत ही गूंज रहे थे। मौन और मुखर भक्ति की अवर्णनीय प्रदीप्ति वहाँ चहुँ ओर प्रकीर्ण हो रही थी। सभी के मुख पर सन्तुष्टि के भाव थे, परन्तु ब्रह्मर्षि वशिष्ठ किंचित अन्तर्लीन थे। देवर्षि ने तनिक विस्मित होते हुए उन्हें देखा, फिर बोले- ‘‘आप किन्हीं विचारों में निमग्न हैं ब्रह्मर्षि?’’ ब्रह्मर्षि ने उत्तर दिया- ‘‘विचारों में ही नहीं, स्मृतियों में भी परन्तु इन स्मृतिकड़ियों के जुड़ने के पहले आप अपने सूत्र की नयी कड़ी जोड़ें।’’

‘‘जो आज्ञा ब्रह्मर्षि!’’- कहते हुए ब्रह्मपुत्र नारद ने अपने अग्रज वशिष्ठ का आदेश शिरोधार्य करते हुए माथा नवाया और कहा-
‘लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव’॥ ४०॥

उन भगवान् (श्रीहरि) की कृपा से ही (सन्तों-महापुरूषों का) सङ्ग भी मिलता है। देवर्षि के इस सूत्र को सुनकर ब्रह्मर्षि के होठों पर हल्की सी स्मित प्रकाशित हो उठी। इसे देखकर देवर्षि सहित अन्य ऋषिगण एवं देवगण विस्मित से हो गए। सभी के नयनों में उत्सुकता-जिज्ञासा सघन हो गयी। अन्तर्भावों के पारखी ब्रह्मपुत्र वशिष्ठ ने अपना दायां हाथ उठाते हुए आश्वस्ति स्वर में कहा- ‘‘आप सब विस्मय न करें, दरअसल मेरी स्मृतियों एवं देवर्षि के सूत्र में एक अनोखा सम्बन्ध है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १६१

रानी लक्ष्मी बाई


मोरोपंत और भागीरथी की, मणिकर्णिका दुलारी थी।
वाराणसी की वीर छबीली, मनु  दुर्गा अवतारी थी।।   

बाजीराव के राज सभा में, बचपन उनका बीता था।
शास्त्रों की ज्ञाता थीं उनको, प्रिय रामायण गीता था।।
दरबारी बचपन से थी तो, राज काज में दक्ष रहीं ।
प्रजाहित की समझ उसे थी, न्याय हेतु निष्पक्ष रहीं।।
शिवा थे आदर्श मनु के, समर भूमि फुलवारी थी।
वाराणसी की वीर छबीली, मनु दुर्गा अवतारी थी।।   

शस्त्र चलाना बचपन से ही, बड़े  चाव से सीखा था।
भाला बरछा तलवारों से, मनु से न कोई जीता था।।
तीर कमान समशीर सदा, हाथों में शोभा पाते थे।
बड़े बड़े योद्धा भी उनसे, लड़कर हार ही जाते थे।।
दुश्मन तो थर थर कापें थे, जब उनने हुंकारी थी।
वाराणसी की वीर छबीली, मनु दुर्गा अवतारी थी।।   

राव गंगाधर संग फेरे ले, अब झाँसी की रानी थी।
मनु से लक्ष्मी बाई बनी वो, आगे असल कहानी थी।
अंग्रेजों के हड़प नीति ने, झांसी को अवसाद दिया।
किया खजाना जब्त राज्य का, राजकोष बर्बाद किया।।  
झाँसी को रक्षित करने का, संकल्प लिए ये नारी थी।
वाराणसी की वीर छबीली, मनु दुर्गा अवतारी थी।।   

रणचंडी बन कूद पड़ी वह, अंग्रेजों से टकराई थी।
युद्ध भूमि में रण कौशल से, उनको धुल चटाई थी।।
हारी गयी अंग्रेजी सेना, कालपी ग्वालियर भी हारी।
झांसी की रानी काली बन, रिपुओं पर वो थी भारी।।
वीरगति को पायी रानी, वीरांगना अवतारी थी।
वाराणसी की वीर छबीली, मनु दुर्गा अवतारी थी।।   

उमेश यादव

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...