बुधवार, 29 दिसंबर 2021

👉 स्वामी विवेकानन्द के विचार

आओ हम नाम, यश और दूसरों पर शासन करने की इच्छा से रहित होकर काम करें। काम, क्रोध एंव लोभ -- इस त्रिविध बन्धन से हम मुक्त हो जायें और फिर सत्य हमारे साथ रहेगा।

एक ही आदमी मेरा अनुसरण करे, किन्तु उसे मृत्युपर्यन्त सत्य और विश्वासी होना होगा। मैं सफलता और असफलता की चिन्ता नहीं करता। मैं अपने आन्दोलन को पवित्र रखूँगा, भले ही मेरे साथ कोई न हो। कपटी कार्यों से सामना पडने पर मेरा धैर्य समाप्त हो जाता है। यही संसार है कि जिन्हें तुम सबसे अधिक प्यार और सहायता करो, वे ही तुम्हे धोखा देंगे।

प्रायः देखने में आता है कि अच्छे से अच्छे लोगों पर कष्ट और कठिनाइयाँ आ पडती हैं। इसका समाधान न भी हो सके, फिर भी मुझे जीवन में ऐसा अनुभव हुआ है कि जगत में कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो मूल रूप में भली न हो। ऊपरी लहरें चाहे जैसी हों, परन्तु वस्तु मात्र के अन्तरकाल में प्रेम एवं कल्याण का अनन्त भण्डार है। जब तक हम उस
अन्तराल तक नहीं पहुँचते, तभी तक हमें कष्ट मिलता है। एक बार उस शान्ति-मण्डल में प्रवेश करने पर फिर चाहे आँधी और तूफान के जितने तुमुल झकोरे आयें, वह मकान, जो सदियों की पुरानि चट्टान पर बना है, हिल नहीं सकता।

न संख्या-शक्ति, न धन, न पाण्डित्य, न वाक चातुर्य, कुछ भी नहीं, बल्कि पवित्रता, शुध्द जीवन, एक शब्द में अनुभूति, आत्म-साक्षात्कार को विजय मिलेगी! प्रत्येक देश में सिंह जैसी शक्तिमान दस-बारह आत्माएँ होने दो, जिन्होने अपने बन्धन तोड डाले हैं, जिन्होने अनन्त का स्पर्श कर लिया है, जिन्का चित्र ब्रह्मनुसन्धान में लीन है, जो न धन की चिन्ता करते हैं, न बल की, न नाम की और ये व्यक्ति ही  संसार को हिला डालने के लिए पर्याप्त होंगे।

👉 भक्तिगाथा (भाग ९८)

नारायण नाम का चमत्कार

अजामिल की कथा ने सुनने वालों की भावनाओं को भिगो दिया। एक अजब सी नीरवता, निस्तब्धता, निस्पन्दता वातावरण में घिर आयी। सभी मौन थे, लेकिन सबके मन की गहरी परतों में कुछ स्पन्दित था। सम्भवतः सबके सब अपने मन के किसी कोने में यह सोच रहे थे कि कैसा घातक होता है कुसंग, जिसके प्रभाव से अजामिल जैसे तेजस्वी ब्राह्मण पुत्र की चरित्रनिष्ठा ढह गयी। शायद कुसंग ही माया का महास्र होता है, जिसका आघात सदा ही अचूक और अचानक होता है। जो भी इसकी लपेट में, चपेट में आया, वह घायल और क्षत-विक्षत हुए बिना नहीं रहता।

अजामिल के लिए उपस्थित ऋषिमण्डल एवं देवमण्डल के अन्तर्भावों में कहीं तरल संवेदना प्रवाहित हो उठी थी। सब उत्सुक हो रहे थे कि आगे की कथा जानने के लिए, सुनने के लिए और समझने के लिए क्योंकि उनके मन में जिज्ञासा थी कि अचानक आयी कुसंग की लहर क्या साधक की सम्पूर्ण समाप्ति कर देती है अथवा फिर पिछले समय की गयी साधना फिर कभी उदित होकर साधक का उद्धार करती है।

सबकी इस सोच से असंपृक्त महर्षि पुलह मन्द-मन्द मुस्कराते हुए देवर्षि की ओर देखे जा रहे थे। उनकी यह दृष्टि मर्मभेदी थी। शायद इसमें यह सच छुपा था कि न तो अभी अजामिल की कथा पूरी हुई है और न ही देवर्षि का सूत्र पूर्ण हुआ है। अपने मन्द हास्य को बीच में रोककर महर्षि पुलह अपनी रौ में बोले- कस्तरति कस्तरति मायाम्? उनका यह प्रश्न स्वयं से था अथवा भक्ति के आचार्य देवर्षि नारद से, यह तो किसी को भी समझ में नहीं आया। परन्तु देवर्षि ने महर्षि पुलह के ही अन्दाज में कहा- यः सङ्गास्त्यजति, यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति। महर्षि पुलह के प्रश्न के अनुरूप ही देवर्षि का उत्तर था। मर्मभेदी प्रश्न का सटीक उत्तर। इसे सुनकर सुनने वालों को आश्वस्ति मिली।

लेकिन महर्षि वसिष्ठ के मुख से कुछ ऐसा लगा जैसे कि वह कुछ कहना चाहते हों? उनकी यह मुख मुद्रा भांपकर देवर्षि नारद ने कहा- ‘‘आपके कथन का स्वागत है महर्षि।’’ देवर्षि के इस कथन पर ऋषि वसिष्ठ हँसते हुए बोले- ‘‘मैं कुछ विशेष नहीं कहना चाहता, बस मैं आपके सूत्र को पूर्ण करना चाहता हूँ।’’ मेरे विचार से ऋषि पुलह का प्रश्न और आपका उत्तर मिलकर पूर्ण सूत्र की रचना करते हैं, कुछ इस तरह से-

‘कस्तरति कस्तरति मायाम्?
यः सङ्गास्त्यजति, यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति’॥ ४६॥

(प्रश्न) कौन तरता है? (दुस्तर) माया से कौन तरता है? (उत्तर) जो सब सङ्गों का त्याग करता है, जो महानुभावों की सेवा करता है और जो ममतारहित होता है। महर्षि वसिष्ठ के इस सूत्र सम्पादन ने सभी के मन मुग्ध कर लिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १८४

मंगलवार, 28 दिसंबर 2021

👉 स्वामी विवेकानन्द के विचार

पूर्णतः निःस्वार्थ रहो, स्थिर रहो, और काम करो। एक बात और है। सबके सेवक बनो और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी यत्न न करो, क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी और इससे हर चीज़ बर्बाद हो जायेगी। आगे बढो तुमने बहुत अच्छा काम किया है। हम अपने भीतर से ही सहायता लेंगे अन्य सहायता के लिए हम प्रतीक्षा नहीं करते। मेरे
बच्चे, आत्मविशवास रखो, सच्चे और सहनशील बनो।

यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खडे हो जाओगे, तो तुम्हे सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढेगा। यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले 'अहं' ही नाश कर डालो।

पक्षपात ही सब अनर्थों का मूल है, यह न भूलना। अर्थात् यदि तुम किसी के प्रति अन्य की अपेक्षा अधिक प्रीति-प्रदर्शन करते हो, तो याद रखो उसीसे भविष्य में कलह का बिजारोपण होगा।

बच्चे, जब तक तुम्हारे हृदय में उत्साह एवं गुरू तथा ईश्वर में विश्वास- ये तीनों वस्तुएँ रहेंगी -- तब तक तुम्हें कोई भी दबा नहीं सकता। मैं दिनो-दिन अपने हृदय में शक्ति के विकास का अनुभव कर रहा हूँ। हे साहसी बालकों, कार्य करते रहो।

रविवार, 26 दिसंबर 2021

👉 स्वामी विवेकानन्द के विचार

बच्चों, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है। जो केवल प्रभु-प्रभु की रट लगाता है, वह नहीं, किन्तु जो उस परम पिता के इच्छानुसार कार्य करता है वही धार्मिक है। यदि कभी कभी तुमको संसार का थोडा-बहुत धक्का भी खाना पडे, तो उससे विचलित न होना, मुहूर्त भर में वह दूर हो जायगा तथा सारी स्थिति पुनः ठीक हो जायगी।

बालकों, दृढ बने रहो, मेरी सन्तानों में से कोई भी कायर न बने। तुम लोगों में जो सबसे अधिक साहसी है - सदा उसीका साथ करो। बिना विघ्न - बाधाओं के क्या कभी कोई महान कार्य हो सकता है? समय, धैर्य तथा अदम्य इच्छा-शक्ति से ही कार्य हुआ करता है। मैं तुम लोगों को ऐसी बहुत सी बातें बतलाता, जिससे तुम्हारे हृदय उछल पडते, किन्तु मैं ऐसा नहीं करूँगा। मैं तो लोहे के सदृश दृढ इच्छा-शक्ति सम्पन्न हृदय चाहता हूँ, जो कभी कम्पित न हो। दृढता के साथ लगे रहो, प्रभु तुम्हें आशीर्वाद दे। सदा शुभकामनाओं के साथ तुम्हारा विवेकानन्द।

साहसी होकर काम करो। धीरज और स्थिरता से काम करना -- यही एक मार्ग है। आगे बढो और याद रखो धीरज, साहस, पवित्रता और अनवरत कर्म। जब तक तुम पवित्र होकर अपने उद्देश्य पर डटे रहोगे, तब तक तुम कभी निष्फल नहीं होओगे -- माँ तुम्हें कभी न छोडेगी और पूर्ण आशीर्वाद के तुम पात्र हो जाओगे।

धीरज रखो और मृत्युपर्यन्त विश्वासपात्र रहो। आपस में न लडो! रुपये - पैसे के व्यवहार में शुध्द भाव रखो। हम अभी महान कार्य करेंगे। जब तक तुममें ईमानदारी, भक्ति और विश्वास है, तब तक प्रत्येक कार्य में तुम्हे सफलता मिलेगी।

शनिवार, 25 दिसंबर 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग ९७)

कुसंग की तरंग बन जाती है महासमुद्र

‘‘हे महर्षि! इसे आवश्य कहें। आपके मुख से सुनकर हम सभी भक्ति के नवीन तत्त्व को जान सकेंगे।’’ महर्षि पुलह ये यह अनुरोध सभी ने लगभग एक साथ किया। महर्षि पुलह ने यह सुनकर एक बार अंतरिक्ष की ओर देखा फिर अपने मनःआकाश में लीन हो गए। सम्भवतः वह अपने स्मृतिकोश में कुछ खोज रहे थे। कुछ पलों की इस चुप्पी के बाद वे मुधर स्वर में बोले— ‘‘यह घटना श्रेष्ठकुल में उत्पन्न ब्राह्मणकुमार अजामिल की है। अजामिल अचारवान ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुआ था। उसने बचपन से ही त्रैकालिक संध्यावंदन के साथ गायत्री महामंत्र का जप करना सीखा था। संभवतः यह दैव कोप था कि उउसे सात्त्विक संस्कार देने वाले उसके पिता का देहावसान हो गया था। माता का निधन पहले ही उसके जन्म के समय हो गया था। पिता के इस असमय निधन ने अजामिल को अकेला कर दिया।

हालांकि पिता के इस निधन के बावजूद अजामिल ने अपनी साधना एवं अध्ययन को बरकरार रखा। यदा-कदा वह मेरे पास भी आया करता था। उन दिनों मैं उसी के गाँव के पास से गुजरने वाली नदी के तट पर कुटिया बनाकर साधना कर रहा था। मेरी मुलाकात उन दिनों यद्यपि किसी से नहीं होती थी, फिर भी मैं इस संस्कारवान ब्राह्मण बालक से मिलने के लिए समय निकाल लेता था। किशोर से तरुणाई की ओर अग्रसर अजामिल भी मेरे पास आकर प्रसन्न होता था। उसके मन में अनेक सात्त्विक जिज्ञासाएँ अंकुरित होती थी, जिनका मैं अपने विवेक के अनुसार समाधान कर दिया करता था, हालांकि इस सबके बीच यदा-कदा उसमें भावनात्मक पीड़ा के अंकुर फूटते थे। इस अंकुरण पर मैंने उसे कई बार सचेत किया- पुत्र! अपनी भावुकता और भावनात्मक पीड़ा को भक्ति में रूपान्तरित कर लो, अन्यथा तुम्हारा जीवन दिशा भटक सकता है।

मेरे इस कथन को वह अपने आचरण में न ढाल सका। इसी बीच उसके गाँव में चन्द्रलेखा नाम की नर्तकी का आगमन हुआ। वह नर्तकी कई महीनों तक उस गाँव में रही। प्रारम्भ में तो अजामिल उससे सर्वथा दूर बना रहा, परन्तु उसके युवा मित्र उसे बार-बार समझाते रहे- आखिर एक बार चलकर उसका नृत्य देखने क्या बुराई है, इससे तुम्हारी उदासी शांत होगी। तुम्हारी भावनात्मक पीड़ा में मरहम लगेगा। कुछ मित्रों का दबाव और कुछ भावोद्वेग, इन सभी से विवश होकर अजामिल ने यह बात मान ली और अंततः संस्कारवान, कुलीन, वेदपाठी ब्राह्मणकुमार अजामिल को कुसंग की उस लघु लहर ने छू लिया। रूप-यौवन से सम्पन्न चन्द्रलेखा के सम्मोहपाश में अजामिल अचानक कब बँधा, उसे स्वयं भी पता न चला।

लावण्यमयी चन्द्रलेखा भी उस तपस्वी ब्राह्मणकुमार अजामिल से सम्मोहित हुए बिना न रह सकी। उसने स्वयं बढ़कर अजामिल का हाथ थामा। अजामिल भी अब प्रायः हर दिन उसके नृत्य आयोजनों में जाने लगा। घुँघरू की रुन-झुन, तबले की तिरकिट-धिन में अजामिल के अनुष्ठान विलीन होने लगे। चन्द्रलेखा के सम्मोहन-पाश में बँधा अजामिल उसी को अपना सब कुछ मानने लगा। चन्द्रलेखा भी उसे भाँति-भाँति से रिझाने लगी। इसी क्रम में कुसंग की छोटी सी तरंग अब महासागर का रूप धरने लगी। वेद की ऋचाओं का सस्वर पाठ करने वाला अजामिल अब प्रेम के गीत गाने लगा। उसकी सम्पूर्ण चेतना इस महासमुद्र में डूबने लगी।

उसे अब कोई होश न था। कुछ की मर्यादाएँ विलीन हो चुकी थीं। नित्य का संध्यावंदन, गायत्री अर्चन कब और किस तरह से छूटा, पता ही न चला। उसकी स्वयं की स्थिति एक मूर्च्छित व्यक्ति की भाँति हो गइ। चन्द्रलेखा के मोहपाश से उमड़े कुसंग के महासागर में उसका सम्पूर्ण आध्यात्मिक वैभव डूब गया। अब तो वह सब कुछ भुलाकर चन्द्रलेखा के साथ ही रहने लगा। उसका नृत्य, उसकी गीत ही उसके लिए सब कुछ हो गए। हे ऋषिगण! यह मैंने स्वयं देखा है कि किस तरह कुसंग की तरंग ने धीरे-धीरे महासमुद्र का रूप धर कर सकी आध्यात्मिक चेतना को निगल लिया। वह महामाया के इस उफनते सागर को पार न कर सका, परन्तु चेतना की परतों में सम्भवतः अभी कुछ और छिपा था, जिसे अभी प्रकट होना था।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १८३

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021

👉 टूटते रिश्ते

सुबह के साढ़े सात बजे जब निधि स्कूल के लिए ‌तैयार हुई तो‌ चुपके से ऊपर मम्मी के बेडरूम में ‌ग‌ई। धीरे से डोर सरकाया देखा तो सारा सामान बिखरा पड़ा था। नीचे ड्राइंग रूम में आई पापा सोफे पर बेसुध सो रहे थे। अपने रुम में आकर उसने अपनी गुल्लक में से पचास रुपए निकाल कर पौकेट में रख लिए। बैग उठा कर बस के लिए निकलने लगी तो सरोज आई निधि बेटा आलू का परांठा बनाया है खा लो। निधि ने मायूस नजरों से सरोज आंटी को देखा नहीं आंटी भूख नहीं है। सरोज ने जबरदस्ती टिफिन उसके बैग में डाला। निधि स्कूल के ‌लिए निकल गई सरोज ‌सोचने लगी बेचारी छोटी बच्ची साहब और मेमसाब के रोज के लडा़ई झगडे से इस तेरह साल की उम्र में ‌कितनी बड़ी हो गई है।

सरोज पिछले दस सालों से नेहा व नरेश के यहां काम कर रही है। दोनों ‌मल्टीनेशनल कंपनी में ऊंचे ‌पदों पर कार्यरत हैं। निधि उनकी इकलौती बेटी है किसी भी चीज की कोई कमी नहीं है। पर हर समय दोनों एक दूसरे से लड़ते रहते हैं। नरेश पिछले कुछ समय से नेहा से तलाक चाह रहा है और चाहता है निधि की जिम्मेदारी नेहा उठाए और नेहा निधि की जिम्मेदारी ‌नरेश को देने के साथ जायदाद में हिस्सा चाहती है। इस कारण दोनों ‌लड़ते रहते हैं। बच्चे की जिम्मेदारी कोई नहीं लेना चाहता इसलिए दोनों एक दूसरे के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल ‌करते हैं बेचारी निधि ‌स्कूल से घर आकर अपने कमरे में ‌दुबक जाती है केवल सरोज आंटी ‌से ही‌‌ बात करती है।

रोज‌ की तरह नेहा और नरेश ने नाश्ता ‌अपने अपने कमरे में किया और ऑफिस के लिए निकल गये। करीब बारह बजे स्कूल से कॉल आया कि जल्दी हास्पिटल पहुंचो निधि को चोट‌ आई है। हास्पिटल पहुंच कर पता चला कि निधि बहुत ऊपर से सीढ़ियों से गिर गई है। आईसीयू में रखा गया था। आपरेशन की तैयारी हो रही थी सिर में बहुत गहरी चोट आई थी। आपरेशन शुरू हुआ। पर जिंदगी ‌मौत से हार गई। नेहा और नरेश स्तब्ध रह गए। उन्हें ऐसा झटका लगा था कि अपनी सुध-बुध ही खो बैठे थे। निधि की दादी ‌भी आ गई थी बेटा बहू को देखकर नफरत से मुंह फेर लिया। पूछताछ हुई टीचर स्टुडेंट्स सभी के बयान लिए गए यही पता चला कि बैलेंस बिगड़ने से नीचे गिर गई। तेरहवां ‌निबटने‌ के बाद नरेश ने अपनी मां को रोकना चाहा पर उन्होंने आंखों में आंसू भर कर कहा तुम दोनों खूनी हो तुम्हारी जिद मेरी पोती को खा ग‌ई। मैं उसे अपने साथ ले जाना चाहती थी पर तुम दोनों ने उसे अपने अहम का मोहरा बना कर उसकी जान ले ली। मां चली गई।

सरोज तब से सदमे में थी फिर उसने जैसे तैसे होश संभाला नरेश और नेहा से कहा मेमसाब मैं अब यहां नहीं रह ‌पाऊंगी इस घर की दीवारें मेरी निधि की सिसकियों से भरी हैं। उसे मैंने कभी अपनी गोद में तो कभी छिप कर रोते हुए देखा है। कभी तो मेरा मन किया कि उसे लेकर भाग जाऊं पर मैं डरपोक थी ऐसा नहीं कर सकी। अगर चली जाती तो शायद वो आज जिंदा होती। नरेश और नेहा के पास अब शायद कहने को कुछ नहीं था। जैसे जैसे दिन बीत रहे थे उनका लडा़ई झगड़ा एक अजीब सी बर्फ में में तब्दील हो चुका था। उनकी सारी भावनाएं अंदर ‌ही अंदर एक खामोशी अख्तियार कर चुकी थी।

संडे का दिन था बड़ी मुश्किल से नेहा ने निधि के रूम में जाने की हिम्मत जुटाई थी महीनों दोनों उसके कमरे में कदम नहीं रखते थे कैसे मां बाप थे वो दोनों। उसका रूम उसका बेड तकिया उसकी किताबें उसकी पेंसिल पैन स्कूल बैग सब वैसे ही रखा था। अलमारी खोली तो उसके कपड़े नीचे गिर पड़े उसका हल्का ब्लू नाइट सूट जिसे वह अक्सर पहना करती थी। नेहा रोते हुए अलमारी से सामान निकालने लगी। तभी उसके‌ हाथ एक ब्लू कलर की डायरी लगी। उसने कांपते हाथों से उसे खोला आगे के कुछ पेज फटे हुए थे। पेज दर पेज टूटे‌ दिल की दास्तां छोटे छोटे टुकड़ों में दर्ज थी–

मम्मी पापा मैं आपको डियर नहीं ‌लिखूंगी । क्योंकि डियर का मीनिंग प्यारा होता है। पापा आप मम्मी को कहते हो कि तुम्हारी बेटी। और मम्मी आप पापा को कहते हो तुम्हारी बेटी आप दोनों ये क्यों नहीं कहते हो ‌हमारी‌ बेटी।

अगले पेज पर था–
पता है जब मैं मामा जी के घर ‌जाती हूं मामा मामी ‌मुझे बहुत प्यार‌ करते हैं मामी अनु को जब प्यार से मेरा बच्चा कहती हैं तो मुझे लगता है कि क्या मैं प्यारी बच्ची नहीं हूं ?मम्मा मैं तो ‌आपका सारा कहना मानती हूं फिर भी आपने मुझे कभी‌ प्यारी बच्ची नहीं कहा।
अगले पेज पर था–
मम्मी जब मैं बुआ के घर जाती हूं तो बुआ मुझे बहुत प्यार करती हैं। पर खाना नक्ष की पंसद‌ का बनाती हैं मम्मा मुझे भी ‌राजमा बहुत पसंद है मैंने कहा था कि आप बनाओ पर आपने कहा मुझे मत तंग किया करो। जो खाना है सरोज आंटी को बोला करो। पता है मम्मा मैंने राजमा खाना छोड़ दिया है।अब मन नहीं करता।

अगले पेज पर था–

पापा मैं आपके साथ आइसक्रीम खाने जाना चाहती थी पर आपने कहा आपके पास फालतू चीजों के लिए ‌टाइम नहीं है। पापा जब चीनू मासी और मौसा जी मुझे और विपुल को आइसक्रीम खाने ले जा सकते हैं तो फिर वो क्यों नहीं कहते कि ‌ये सब फालतू चीजें हैं ।पता है मम्मी मैं अपने घर से दूर जाना चाहती हूं जहां मुझे ये न सुनाई दे कि निधि को ‌मैं नहीं रखूंगी। जहां पापा के चिल्लाने की आवाज न सुनाई दे। पापा अगर मैं बड़ी होती तो मैं आप दोनों को कभी परेशान नहीं करती मैं खुद ही चली जाती। मैं तो आप दोनों से बहुत प्यार करती हूं। पापा मम्मी ‌आप दोनों मुझे प्यार क्यों नही करते।

एक पेज पर था–आइलव यू सरोज आंटी मुझे प्यार करने के लिए। जब मुझे डर लगता है अपने पास सुलाने के लिए।मेरी हर बात सुनने के लिए।

और अंतिम पेज पर था दादी आई लव यू आप मुझे यहां से ‌ले ‌जाओ आइ प्रामिस कभी तंग नहीं करूंगी।
नेहा डायरी को सीने से लगा कर जोर जोर से रो पड़ी।नरेश भी उसके रोने की आवाज सुनकर आ गया था नेहा ने डायरी उसे पकडा़ दी। पेज दर पेज पलटते हुए उसके चेहरे के भाव बदलते जा रहे थे। वह ‌खुद को संभाल नहीं पाया ‌जमीन पर बैठ गया। नेहा रोते हुए बोली नरेश पता है वो एक्सीडेंट नहीं आत्महत्या थी सुसाइड था जिस रिश्ते को हम बोझ समझते थे। हमारी निधि ने उससे ‌हमें आजाद कर‌ दिया। नरेश हम दोनों ने अपनी बच्ची ‌का खून किया है। नरेश फूट-फूट कर रो पड़ा।

ये कहानी हर उस घर की है जहां मां-बाप बच्चों के ‌सामने लड़ते हैं या घर टूट कर बिखरते हैं और उसका सबसे बड़ा खामियाजा बच्चे भरते हैं।अगर आप अच्छी परवरिश नहीं दे सकते तो आपको बच्चे को जन्म देने का कोई अधिकार नहीं है।

👉 स्वामी विवेकानन्द के विचार

मन और मुँह को एक करके भावों को जीवन में कार्यान्वित करना होगा। इसीको श्री रामकृष्ण कहा करते थे, "भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये।" सब विषओं में व्यवहारिक बनना होगा। लोगों या समाज की बातों पर ध्यान न देकर वे एकाग्र मन से अपना कार्य करते रहेंगे क्या तुने नहीं सुना, कबीरदास के दोहे में है- "हाथी चले बाजार में, कुत्ता भोंके हजार साधुन को दुर्भाव नहिं, जो निन्दे संसार" ऐसे ही चलना है। दुनिया के लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देना होगा। उनकी भली बुरी बातों को सुनने से जीवन भर कोई किसी प्रकार का महत् कार्य नहीं कर सकता।

अन्त में प्रेम की ही विजय होती है। हैरान होने से काम नहीं चलेगा- ठहरो- धैर्य धारण करने पर सफलता अवश्यम्भावी है- तुमसे कहता हूँ देखना- कोई बाहरी अनुष्ठानपध्दति आवश्यक न हो- बहुत्व में एकत्व सार्वजनिन भाव में किसी तरह की बाधा न हो। यदि आवश्यक हो तो "सार्वजनीनता" के भाव की रक्षा के लिए सब कुछ छोडना होगा। मैं मरूँ चाहे बचूँ, देश जाऊँ या न जाऊँ, तुम लोग अच्छी तरह याद रखना कि, सार्वजनीनता- हम लोग केवल इसी भाव का प्रचार नहीं करते कि, "दुसरों के धर्म का द्वेष न करना"; नहीं, हम सब लोग सब धर्मों को सत्य समझते हैं और उन्का ग्रहण भी पूर्ण रूप से करते हैं हम इसका प्रचार भी करते हैं और इसे कार्य में परिणत कर दिखाते हैं सावधान रहना, दूसरे के अत्यन्त छोटे अधिकार में भी हस्तक्षेप न करना - इसी भँवर में बडे-बडे जहाज डूब जाते हैं पुरी भक्ति, परन्तु कट्टरता छोडकर, दिखानी होगी, याद रखना उन्की कृपा से सब ठीक हो जायेगा।

जिस तरह हो, इसके लिए हमें चाहे जितना कष्ट उठाना पडे- चाहे कितना ही त्याग करना पडे यह भाव (भयानक ईर्ष्या) हमारे भीतर न घुसने पाये- हम दस ही क्यों न हों- दो क्यों न रहें- परवाह नहीं परन्तु जितने हों सम्पूर्ण शुध्दचरित्र हों।

क्या संस्कृत पढ रहे हो? कितनी प्रगति होई है? आशा है कि प्रथम भाग तो अवश्य ही समाप्त कर चुके होगे। विशेष परिश्रम के साथ संस्कृत सीखो।

👉 भक्तिगाथा (भाग ९६)

कुसंग की तरंग बन जाती है महासमुद्र

महर्षि रुक्मवर्ण की अनुभव कथा सुनने वालों के दिलों को गहराई तक छुआ। सभी कहे गए शब्दों के भावों में गहरे डूबे, रोमांचित हुए। इसे सुनते-सुनते किसी की आँखें छलछलाई तो कोई अपनी आँखें मूँदकर स्वयं में खो गया। महर्षि के अपने अतीत की यह अनुभूति थी ही कुछ ऐसी, जो बरबस सभी को स्वयं में घोलती चली गई। इतना ही नहीं, यह स्वयं भी सबमें घुल गई। उन क्षणों में जिन्होंने भी ऋषि रुक्मवर्ण की यह कथा सुनी, उन्हें यह सोचकर सिहरन हो आई कि कितना विषैला फल है कुसंग का। यह कुसंग चिन्तन के द्वार से प्रवेश कर सम्पूर्ण चेतना को विषाक्त कर देता है। फिर क्या है- इसके प्रभाव वाली विषैली मूर्च्छा में व्यक्ति कुछ भी करने लगता है। जो कर रहा है, उसकी दशा एवं उसके दुष्परिणामों के बारे में सोचने की उसकी स्थिति ही नहीं रहती।

अप्रकट रूप से चिंतन की ये लहरें प्रायः सभी के चित्त में उठती-गिरती रहीं, किन्तु प्रकट रूप से सब ओर मौन पसरा रहा। निस्तब्ध पवर्तशिखर मौन साधे खड़े थे। उन्होंने अपनी ओट में झरनों के संगीत को छिपा लिया था। हिमपक्षिों का कलरव भी इस समय शांत था। पशु, जिन्हें बेजुबान कहा जाता है, वे भी अभी इधर-उधर कहीं गुम हो गए थे। ऋषियों, देवों, सिद्धों का यह समुदाय अभी तक इस प्रश्न-कटंक की चुभन कर रहा था कि कुसंग के विषैले काँटों से इस युग को किस तरह से बचाया जाय? लेकिन देवर्षि नारद के मुख मण्डल की भाव ऊर्मियाँ कुछ और ही कह रही थी। उन्हें जैसे अभी कुछ और कहना था। सम्भवतः वे अभी कुसंग के प्रभाव को थोड़ा और अधिक बताया चाहते थे।

उनके इन भावों पर महर्षि पुलह की दृष्टि गई। अपने इस दृष्टि-निक्षेप से अंतर्यामी महर्षि ने देवर्षि के मन का सच जान लिया और उन्होंने लगभग मुस्कराते हुए कहा- ‘‘अपने नवीन सूत्र को कहें देवर्षि! क्योंकि आपका प्रत्येक नवीन सूत्र इस प्रवाहमान भक्ति-सरिता में पवित्र भावों की नई जलधार की भाँति होता है।’’ महर्षि पुलह की मुस्कान और उसके इस कथन ने शून्य नीरवता में सर्वथा नवीन चेतना का संचार किया। सभी की चेतना के उद्यान में अनायास भावों के पुष्प विहँस उठे। इस दश्य ने देवर्षि को भी विभोर किया। उन्होंने प्रसन्नता के साथ अपने नवीन सूत्र का उच्चार करते हुए कहा-

‘‘तरङ्गायिता अपीमे सङ्गात्समुद्रायन्ति’’॥ ४५॥
ये(काम, क्रोध आदि विकार) पहले तरंग की तरह (क्षुद्र आकार में) आकार भी (दुःसंग के प्रभाव से) विशाल समुद्र का आकार ग्रहण कर लेते हैं।

देवों के भी पूज्य ऋषि नारद के मुख से यह सूत्र सुनकर ऋषि पुलह के माथे की लकीरें कुछ गहरी हुईं। उनके मुख की प्रदीप्ति में एक घनापन आया, परन्तु वे मौन रहे। उनके इस सूक्ष्म भाव-परिवर्तन को देवर्षि सहित सभी ने निहारा। देवर्षि कुछ क्षणों तक उन्हें यों ही देखते रहे, फिर  बोले- ‘‘मेरे आज के सूत्र पर आप कुछ कहेंगे ऋषिश्रेष्ठ।’’ उत्तम में महर्षि पुलह ने धीमे स्वर में कहा ‘‘इस बारे में कहने के लिए कुछ नया नहीं है। जो कुछ मैं कहना चाहता हूँ उसे आप सभी जानते हैं। पुराणकथाओं में भी इसका उल्लेख है। मेरी यदि कुछ नवीनता है तो बस इतनी कि मैं इस घटनाक्रम का स्वयं साक्षी रहा हूँ।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १८२

बुधवार, 22 दिसंबर 2021

👉 स्वामी विवेकानन्द के विचार

ईश्वर ही ईश्वर की उपलब्थि कर सकता है। सभी जीवंत ईश्वर हैं–इस भाव से सब को देखो। मनुष्य का अध्ययन करो, मनुष्य ही जीवन्त काव्य है। जगत में जितने ईसा या बुद्ध हुए हैं, सभी हमारी ज्योति से ज्योतिष्मान हैं। इस ज्योति को छोड़ देने पर ये सब हमारे लिए और अधिक जीवित नहीं रह सकेंगे, मर जाएंगे। तुम अपनी आत्मा के ऊपर स्थिर रहो।

मानव-देह ही सर्वश्रेष्ठ देह है, एवं मनुष्य ही सर्वोच्च प्राणी है, क्योंकि इस मानव-देह तथा इस जन्म में ही हम इस सापेक्षिक जगत् से संपूर्णतया बाहर हो सकते हैं–निश्चय ही मुक्ति की अवस्था प्राप्त कर सकते हैं, और यह मुक्ति ही हमारा चरम लक्ष्य है।

जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है–अंत में उनकी शक्ति का चरम फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो जगत् को शिक्षा और सुरक्षा  प्रदान करता है।

मुक्ति-लाभ के अतिरिक्त और कौन सी उच्चावस्था का लाभ किया जा सकता है? देवदूत कभी कोई बुरे कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें कभी दंड भी प्राप्त नहीं होता, अतएव वे मुक्त भी नहीं हो सकते। सांसारिक धक्का ही हमें जगा देता है, वही इस जगत्स्वप्न को भंग करने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रकार के लगातार आघात ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात् मुक्ति-लाभ करने की हमारी आकांक्षा को जाग्रत करते हैं।

👉 भक्तिगाथा (भाग ९५)

उबारता है सत्संग

उनकी अतिरूपवती कन्या अपने सलज्ज किन्तु सम्मोहक नयनों से बार-बार उनकी बातों में स्वयं की सहमति जता रही थी। बातों-बातों में वह बीच में अपनी बेटी से पूछ लेते थे कि बेटी! तुम्हें इनकी भक्ति से कोई आपत्ति तो नहीं है? उत्तर में हर बार वह यही कहती- मैं तो स्वयं इनके साथ भक्तिमय जीवन जीना चाहती हूँ। परन्तु ये तो केवल बातें थीं। इन बातों के पीछे रची जा रही अन्तर्कथा कुछ और ही थी। सत्य यही था कि भक्तिपूर्ण जीवन से उस समय किसी को कोई लेना-देना न था। उनकी कन्या को सुशील, स्वस्थ, सुन्दर और आज्ञाकारी पति चाहिए था। उसने इन सारी बातों की परखकर हामी भरी थी। उन सम्पन्न व्यवसायी को अपनी अतुलनीय सम्पत्ति के लिए ऐसे प्रहरी व प्रबन्धक की आवश्यकता थी, जो ईमानदार हो। उन्होंने अपनी आवश्यकता के अनुरूप सभी गुणों को मुझमें परख लिया था।

जहाँ तक मेरी स्वयं की स्थिति की बात थी, तो मेरी चित्त चेतना दुःसंग के कुपरिणामों से आक्रान्त होने लगी थी। सदा प्रभुस्मरण करने वाला मेरा मन इस समय वासनाओं के कुहांसे से घिरा हुआ था। कामज्वर से मेरा तन-मन तप रहा था। कहीं यह सब कुछ मेरे हाथ से निकल न जाय यह सोचकर एक अजीब सी खीझ-झुंझलाहट और क्रोध मेरे भीतर उफन रहा था। रही बात मोह की तो इस समय मेरी पूरी चेतना ही मोहाक्रान्त थी। इस विनाशकारी मोह ने मेरी सभी पवित्र स्मृतियों को खण्डित और नष्ट कर दिया था। मै इस समय अपने स्वरूप एवं कर्त्तव्य को पूरी तरह से भूल चुका था। रही बात मेरी बुद्धि की तो उसकी तर्क, निर्णय एवं विश्लेषण क्षमताएँ समाप्त हो चुकी थीं। ऐसी विनष्ट हुई बुद्धि के साथ मैं अपने सर्वनाश के द्वार पर खड़ा था।

कुछ समय के दुःसंग ने मेरे सभी आध्यात्मिक गुणों का हरण कर लिया था, विवेक-वैराग्य का लेश भी मुझमें अब न बचा था। बस मेरी चिन्तन चेतना में एक ही त्वरा थी कि किस विधि से वह रूपवती कन्या मेरी पत्नी बन जाय? और मैं कितना शीघ्र उस व्यवसायी के सम्पन्न एवं सुविस्तृत व्यावसायिक साम्राज्य का स्वामी बनूं। मेरा धैर्य चुक रहा था, टूट रहा था। मैं अपने स्वयं के आध्यात्मिक जीवन का सर्वनाश करने के लिए उतारू था। लेकिन शायद अभी मेरे कुछ पुण्य शेष बचे थे। विधाता को मेरे जीवन की दिशा का कुछ और ही निर्धारण करना था।

तभी अकल्पित होनी की भांति मेरे पूज्य आचार्य ने द्वार पर दस्तक दी। इसके बारे में उन्होंने बाद में बताया कि मेरे लिए वह अपनी तीर्थयात्रा बीच में ही छोड़कर चले आए थे। उन्हें यह अनुभव हो गया था कि मैं किसी बड़े संकट में फँस गया हूँ। द्वार पर आते ही उन्होंने पुकारा- कैसे हो पुत्र रूक्मवर्ण? किन्तु आश्चर्य सदा ही उनकी एक पुकार पर भाग कर आने वाला मैं आज उनके स्वरों को पहचान न सका। बस जैसा का तैसा बैठा रहा। अन्दर आकर उन्होंने उस व्यवसायी का संरजाम भी देख लिया। वे अन्तर्ज्ञानी थे, उन्हें सत्य को समझने में देर न लगी।

लेकिन उन्होंने कुछ कहा नहीं। बस मेरे पास आकर उन्होंने स्नेह से मेरे सिर पर हाथ रखा और बोले- तनिक मेरी आँखों में देखो पुत्र! मैंने अनमने भाव से उनके नयनों में निहारा। लेकिन यह क्या उनके नेत्रों में निहारते ही असंख्य प्रकाशधाराएँ मेरे अस्तित्त्व में प्रवाहित हो उठीं। वासना की घटाएँ कब और कहाँ विलीन हुईं, मुझे पता भी न चला। मेरा चित्त फिर से विवेक-वैराग्य से दीप्त हो उठा। दुःसंग ने मुझे सर्वनाश के जिस महागर्भ में धकेला था, सत्संग ने मुझे फिर से उबार लिया। मेरे आचार्य को देखकर उन व्यवसायी महोदय को भी सम्भवतः अपनी भूल का अहसास हुआ। बस वह बिना कुछ बोले मेरे पूज्य आचार्यदेव को प्रणाम कर वहाँ से चले गए और मैं स्वयं पुनः अपने निर्धारित आध्यात्मिक पथ पर चलने लगा।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १८१

सोमवार, 20 दिसंबर 2021

👉 जनम - जनम के साक्षी व साथी हैं हमारे गुरु देव

यह घटना महर्षि अरविन्द और उनके शिष्य दिलीप कुमार राय के बारे में थी। विश्व विख्यात संगीतकार दिलीप राय उन दिनों श्री अरविन्द से दीक्षा पाने के लिए जोर जबरदस्ती करते थे। वह ऐसी दीक्षा चाहते थे, जिसमें श्री अरविन्द दीक्षा के साथ ही उन पर शक्तिपात करें। उनके इस अनुरोध को महर्षि हर बार टाल देते थे। ऐसा कई बार हो गया। निराश दिलीप ने सोचा कि इनसे कुछ काम बनने वाला नहीं है। चलो किसी दूसरे गुरु की शरण में जाएँ। और उन्होंने एक महात्मा की खोज कर ली। ये सन्त पाण्डिचेरी से काफी दूर एक सुनसान स्थान में रहते थे।

दीक्षा की प्रार्थना लेकर जब दिलीप राय उन सन्त के पास पहुँचे। तो वह इस पर बहुत हँसे और कहने लगे- तो तुम हमें श्री अरविन्द से बड़ा योगी समझते हो। अरे वह तुम पर शक्तिपात नहीं कर रहे, यह भी उनकी कृपा है। दिलीप को आश्चर्य हुआ- ये सन्त इन सब बातों को किस तरह से जानते हैं। पर वे महापुरुष कहे जा रहे थे, तुम्हारे पेट में भयानक फोड़ा है। अचानक शक्तिपात से यह फट सकता है, और तुम्हारी मौत हो सकती है। इसलिए तुम्हारे गुरु पहले इस फोड़े को ठीक कर रहे हैं। इसके ठीक हो जाने पर वह तुम्हें शक्तिपात दीक्षा देंगे। अपने इस कथन को पूरा करते हुए उन योगी ने दिलीप से कहा- मालूम है, तुम्हारी ये बातें मुझे कैसे पता चली? अरे अभी तुम्हारे आने से थोड़ी देर पहले सूक्ष्म शरीर से महर्षि अरविन्द स्वयं आए थे। उन्होंने ही मुझे तुम्हारे बारे में सारी बातें बतायी।

उन सन्त की बातें सुनकर दिलीप तो अवाक् रह गये। अपने शिष्य वत्सल गुरु की करुणा को अनुभव कर उनका हृदय भर आया। पर ये बातें तो महर्षि उनसे भी कह सकते थे, फिर कहा क्यों नहीं? यह सवाल जब उन्होंने वापस पहुँच कर श्री अरविन्द से पूछा, तो वह हँसते हुए बोले, यह तू अपने आप से पूछ, क्या तू मेरी बातों पर आसानी से भरोसा कर लेता। दिलीप को लगा, हाँ यह बात भी सही है। निश्चित ही मुझे भरोसा नहीं होता। पर अब भरोसा हो गया। इस भरोसे का परिणाम भी उन्हें मिला निश्चित समय पर श्री अरविन्द ने उनकी इच्छा पूरी की।

यह सत्य कथा सुनाकर गुरुदेव बोले- बेटा! गुरु को अपने हर शिष्य के बारे में सब कुछ मालूम होता है। वह प्रत्येक शिष्य के जन्मों- जन्मों का साक्षी और साथी है। किसके लिए उसे क्या करना है, कब करना है वह बेहतर जानता है। सच्चे शिष्य को अपनी किसी बात के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। उसका काम है सम्पूर्ण रूप से गुरु को समर्पण और उन पर भरोसा। इतना कहकर वह हँसने लगे, तू यही कर। मैं तेरे लिए उपयुक्त समय पर सब कर दूँगा। जितना तू अपने लिए सोचता है, उससे कहीं ज्यादा कर दूँगा। मुझे अपने हर बच्चे का ध्यान है। अपनी बात को बीच में रोककर अपनी देह की ओर इशारा करते हुए बोले- बेटा! मेरा यह शरीर रहे या न रहे, पर मैं अपने प्रत्येक शिष्य को पूर्णता तक पहुँचाऊँगा। समय के अनुरूप सबके लिए सब करूंगा। किसी को भी चिन्तित- परेशान होने की जरूरत नहीं  है। गुरुदेव के यह वचन प्रत्येक  शिष्य के लिए महामंत्र के समान हैं। अपने गुरु के आश्रय में बैठे किसी शिष्य के लिए कोई चिन्ता और भय नहीं है।

अखण्ड ज्योति जुलाई 2003

👉 स्वामी विवेकानन्द के विचार

किसी को उसकी योजनाओं में हतोत्साह नहीं करना चाहिए। आलोचना की प्रवृत्ति का पूर्णतः परित्याग कर दो। जब तक वे सही मार्ग पर अग्रेसर हो रहे हैं; तब तक उन्के कार्य में सहायता करो; और जब कभी तुमको उनके कार्य में कोई ग़लती नज़र आये, तो नम्रतापूर्वक ग़लती के प्रति उनको सजग कर दो। एक दूसरे की आलोचना ही सब दोषों की जड है। किसी भी संगठन को विनष्ट करने में इसका बहुत बडा हाथ है।

हर काम को तीन अवस्थाओं में से गुज़रना होता है -- उपहास, विरोध और स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है, लोग उसे निश्चय ही ग़लत समझते है। इसलिए विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं; परन्तु मुझे दृढ और पवित्र होना चाहिए और भगवान् में अपरिमित विश्वास रखना चाहिए, तब ये सब लुप्त हो जायेंगे।

भाग्य बहादुर और कर्मठ व्यक्ति का ही साथ देता है। पीछे मुडकर मत देखो आगे, अपार शक्ति, अपरिमित उत्साह, अमित साहस और निस्सीम धैर्य की आवश्यकता है- और तभी महत कार्य निष्पन्न किये जा सकते हैं। हमें पूरे विश्व को उद्दीप्त करना है।

जब तक तुम लोगों को भगवान तथा गुरू में, भक्ति तथा सत्य में विश्वास रहेगा,तब तक कोई भी तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। किन्तु इनमें से एक के भी नष्ट हो जाने पर परिणाम विपत्तिजनक है।

👉 भक्तिगाथा (भाग ९४)

उबारता है सत्संग

वर्षों पूर्व अतीत में साधु द्वारा सुनाए गए उस प्रभाती गीत का स्मरण करके महर्षि रूक्मवर्ण की आँखें छलक आयीं। वह देर तक यूं ही मौन बैठे आकाश को निहारते रहे। इस बीच न तो उन्हें किसी ने टोका और न ही वह स्वयं ही कुछ बोले। बस उन्हें अनन्त आकाश की ओर देखते हुए कुछ ऐसा लग रहा था जैसे कि वह इस अनन्त अन्तरिक्ष में व्याप्त रहस्यमय विधाता द्वारा लिखे गए रहस्यमय अक्षरों को पढ़ने की कोशिश कर रहे हों। इस बीच सब कुछ ठहरा रहा। हवाओं में निस्पन्द नीरवता संव्याप्त रही। हिमालय के उत्तुंग पर्वत शिखर, बर्फ की श्वेत-धवल चादर ओढ़े मौन खड़े रहे। बीतते क्षणों के साथ शान्ति सघन होती रही। तभी किसी हिमपक्षी की कलरव ध्वनि ने नीरवता में सुरों का रव घोला। सभी को जैसे चेत आया, स्वयं महर्षि रूक्मवर्ण भी सजग हुए।

उन्होंने उपस्थित समुदाय को देखा और हल्के से मुस्करा दिये। उनकी विशेष दृष्टि देवर्षि नारद की ओर थी। देवर्षि ने भी जैसे उनका अभिप्राय समझ लिया। उन्होंने भगवान् श्रीहरि का पावन नाम ‘नारायण’ उच्चारण करने के साथ अपने नए सूत्र का सत्योच्चार किया-

‘कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाश-सर्वनाशकारणत्वात्’॥४४॥
क्योंकि वह (दुःसंग) काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश का कारण है।

देवर्षि के इस सूत्र को सुनकर महर्षि रूक्मवर्ण अतीत की स्मृति की बिखरी कड़ियों को एक-दूसरे से जोड़ने लगे। उनकी इस मानसिक क्रिया के स्पर्श ने कहीं चेतना के अन्तराल में देवर्षि को स्पन्दित किया और उन्होंने बड़े धीमे किन्तु मधुर स्वरों में अनुरोध किया- ‘‘इस सूत्र की व्याख्या भी आप ही करें महर्षि।’’

उत्तर में महर्षि रूक्मवर्ण ने कहा- ‘‘अवश्य देवर्षि। आप जैसे महान भगवद्भक्त का अनुरोध भी मेरे लिए आदेश है। इसी बहाने आप सबको अपनी आपबीती कहने का अवसर मिल जाएगा।’’ इतना कहकर वह फिर से चुप हो गए किन्तु यह चुप्पी कुछ ही पलों की थी। इन पलों के बाद वे बोले- ‘‘दुःसंग भले ही कितना मधुर एवं सम्मोहक लगे किन्तु उसका यथार्थ महाविष की भांति संघातक होता है लेकिन तब मैं यह सब समझ नहीं सका। उन व्यवसायी महाशय की बातों ने मेरे अन्दर उथल-पुथल मचा दी थी। अपनी बाल्यावस्था से ही मैं अपने आचार्य, अभिभावक उन भगवद्भक्त महापुरुष के साथ था। उनके साथ सदा ही मैंने सात्त्विक एवं अपरिग्रही जीवन जिया था, ऐसा जीवन जिसमें न तो ऐश्वर्य था, न कोई वैभव और न ही विलास। साधन-सुविधाओं की भरमार की बात तो क्या, उनके पास तो सामान्य साधन-सुविधाएँ तक नहीं थीं।

इन असुविधाओं की कठोरता के बीच मैं पला था। सम्भवतः कहीं मन की गहरी परतों के नीचे लालसाओं-वासनाओं के बीज दबे-छुपे रहे होंगे जिन्होंने उस घड़ी में प्रकट होकर उस सम्पन्न व्यवसायी का रूप लिया था। उन व्यवसायी की बातें, उनका यह अनुरोध, उनकी अतुल धन-सम्पत्ति और सबसे बढ़कर उनकी षोडश वर्षीया अतिरूपवती कन्या, जिसे देखते ही मैं पलकें झपकना भूल गया था।

उस श्रेष्ठ कन्या के पिता ने अपनी सुदीर्घ आयु में अनगिनत सांसारिक अनुभव बटोरे थे। उन्हें मेरी मानसिक स्थिति का अहसास करने में देर न लगी। सारी स्थिति भांपकर और यह जानकर कि मेरा मन विलासिता की ओर आकर्षित हो रहा है, उन्होंने एक बार फिर से गरम लोहे पर चोट करनी शुरू की। यह लोहा और कुछ नहीं बस लालसाओं और वासनाओं के अतिरेक से उत्तप्त हुआ मेरा मन था, जिस पर वे अपनी मायावी बातों की चोटें किए जा रहे थे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १७९

शनिवार, 18 दिसंबर 2021

👉 गलती स्वयं सुधारें

एक बार गुरू आत्मानंद ने अपने चार शिष्यों को एक पाठ पढाया। पाठ पढाने के बाद वह अपने शिष्यों से बोले - “अब तुम चारों इस पाठ का स्वाध्ययन कर इसे याद करो। इस बीच यह ध्यान रखना कि तुममें से कोई बोले नहीं। एक घंटे बाद मैं तुमसे इस पाठ के बारे में बात करुँगा।“

यह कह कर गुरू आत्मानंद वहाँ से चले गए। उनके जाने के बाद चारों शिष्य बैठ कर पाठ का अध्ययन करने लगे। अचानक बादल घिर आए और वर्षा की संभावना दिखने लगी।

यह देख कर एक शिष्य बोला- “लगता है तेज बारिश होगी।“

ये सुन कर दूसरा शिष्य बोला - “तुम्हें बोलना नहीं चाहिये था। गुरू जी ने मना किया था। तुमने गुरू जी की आज्ञा भंग कर दी।“

तभी तीसरा शिष्य भी बोल पड़ा- “तुम भी तो बोल रहे हो।“

इस तरह तीन शिष्य बोल पड़े, अब सिर्फ चौथा शिष्य बचा वो कुछ भी न बोला। चुपचाप पढ़ता रहा।

एक घंटे बाद गुरू जी लौट आए। उन्हें देखते ही एक शिष्य बोला- “गुरूजी ! यह मौन नहीं रहा, बोल दिया।“

दुसरा बोला - “तो तुम कहाँ मौन थे, तुम भी तो बोले थे।“

तीसरा बोला - “इन दोनों ने बोलकर आपकी आज्ञा भंग कर दी।“

ये सुन पहले वाले दोनों फिर बोले - “तो तुम कौन सा मौन थे, तुम भी तो हमारे साथ बोले थे।“

चौथा शिष्य अब भी चुप था।

यह देख गुरू जी बोले - “मतलब तो ये हुआ कि तुम तीनों ही बोल पड़े । बस ये चौथा शिष्य ही चुप रहा। अर्थात सिर्फ इसी ने मेरी शिक्षा ग्रहण की और मेरी बात का अनुसरण किया। यह निश्चय ही आगे योग्य आदमी बनेगा। परंतु तुम तीनों पर मुझे संदेह है। एक तो तुम तीनों ने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया; और वह भी एक-दूसरे की गलती बताने के लिये। और ऐसा करने में तुम सब ने स्वयं की गलती पर ध्यान न दिया।

आमतौर पर सभी लोग ऐसा ही करते हैं। दूसरों को गलत बताने और साबित करने की कोशिश में स्वयं कब गलती कर बैठते हैं। उन्हें इसका एहसास भी नहीं होता। यह सुनकर तीनो शिष्य लज्जित हो गये। उन्होंने अपनी भूल स्वीकार की, गुरू जी से क्षमा माँगी और स्वयं को सुधारने का वचन दिया।

👉 स्वामी विवेकानन्द के विचार

मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्न्त बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा- मैं कहता हूँ, अवश्य बनना होगा। आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना -- इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता।

नीतिपरायण तथा साहसी बनो, अन्त: करण पूर्णतया शुध्द रहना चाहिए। पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो  प्रणों के लिए भी कभी न डरो। कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरूष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते -- यहाँ तक कि कभी वे मन में भी पाप का विचार नहीं लाते। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो।

बच्चो, तुम्हारे लिए नीतिपरायणता तथा साहस को छोडकर और कोई दूसरा धर्म नहीं।इसके सिवाय और कोई धार्मिक मत-मतान्तर तुम्हारे लिए नहीं है। कायरता, पाप्,असदाचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिए, बाक़ी आवश्यकीय वस्तुएँ अपने आप आकर उपस्थित होंगी।

शक्तिमान, उठो तथा सामर्थ्यशाली बनो। कर्म, निरन्तर कर्म; संघर्ष , निरन्तर संघर्ष! अलमिति। पवित्र और निःस्वार्थी बनने की कोशिश करो सारा धर्म इसी में है।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1965 पृष्ठ १७

👉 भक्तिगाथा (भाग ९३)

सर्वथा त्याज्य है दुःसंग

मेरी स्वयं की कथा तो उस समय की है जब मैं किशोरवय में था। बचपन से ही आश्रम के निवास एवं भगवद्भक्त महापुरूष के सुपास की वजह से मन स्वभावतः संस्कारी एवं शान्त था फिर भी जन्मों के दुष्कृत बीज कहीं गहरे मन में होते हैं, जो समयानुसार काल प्रवाह में उदित एवं अंकुरित होते रहते हैं। ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ। मेरे आश्रम के अधिष्ठाता आचार्य मुझे आश्रम में अकेला छोड़कर तीर्थयात्रा के लिए चले गए। आश्रम के अन्य भक्त एवं शिष्य भी उनके साथ हो लिए। बस मैं अकेला ही रह गया। मैंने अपने पूज्य आचार्य से बहुतेरी विनती की, परन्तु उन्होंने मेरी एक न मानी। बहुत आग्रह करने पर उन्होंने केवल इतना कहा, कभी-कभी जीवन में परीक्षा की घड़ियाँ आती हैं, जिनसे अकेले ही गुजरना पड़ता है। तुम्हारे लिए भी यह समय परीक्षा का है। इसे सफलतापूर्वक उत्तीर्ण करो। इतना कहकर उन्होंने मेरे सिर पर आशीष का हाथ रखा और प्रस्थान कर गए।

उनके जाने के कुछ समय बाद एक प्रतिष्ठित व्यवसायी आश्रम पधारे। उनके साथ उनके साथी-संगी भी थे। वह व्यवसायी अपने साथ ऐश्वर्य-विलास के सम्पूर्ण साधन लेकर आए थे। ऐसे साधन जिनकी आश्रम जीवन में, साधना जीवन में कोई उपयोगिता न थी। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की, पर उन्हें कुछ भी समझ में न आया। उल्टे उन्होंने मुझे समझा दिया कि अभी तुम्हारी आयु कम है, इसी के साथ जीवन की समझ भी कम है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इतनी कम आयु में भला यह वैराग्य लेने की क्या तुक है। सांझ के समय उन्होंने मुझको अपने आवासीय शिविर में बुलाया और जीवन की अपनी समझ में समझदारी की बातें बतायीं। इतना ही नहीं बातों में उन्होंने यह भी कह डाला कि उनके ऐश्वर्यशाली परिवार में कोई उत्तराधिकारी नहीं है, बस एक विवाहयोग्य कन्या है जिसके लिए वे योग्य वर की तलाश कर रहे हैं।

उनकी इन बातों ने मेरे मन में हलचल मचा दी। मन में एक साथ अनेकों हिलोरें उठीं। तरंगित मन शान्त न हो सका। प्रातः भी नित्य की भांति प्रभु का नाम संकीर्तन न कर सका। इसी अन्यमनस्कता में मैंने बाहर विचरण कर रहे एक साधु के प्रभाती के स्वर सुने-

हंसा मानसरोवर भूला
सनी पंक में चोंच
हो गए उजले पंख मटमैले
कंकर चुनने लगा वही जो
मोती चुगता था पहले
क्षर में ऐसा क्या सम्मोहन
जो तू अक्षर भूला?
कमल नाल से बिछुड़
कांस के सूखे तिनके जोड़े
अवगुंठित कलियों के धोखे
कुंठित शूल बटोरे
पर में ऐसा क्या आकर्षण
जो तू परमेश्वर को भूला?
नीर-क्षीर की दिव्य दृष्टि में
अन्य वासना जागी
चंचलता का परम प्रतीक बन गया
स्थिरता का अनुरागी
क्षण को अर्पित हुआ
साधना का मन्वन्तर भूला
हंसा मानसरोवर भूला
हंसा तू मानसरोवर भूला।
भ्रमण कर रहे साधु के इस प्रभाती गीत ने मुझे झकझोरा तो सही, परन्तु सम्पूर्ण चेत न हो सका। सम्भवतः दुःसंग के और भी परिणाम आने अभी शेष थे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १७७

गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

👉 सबसे कीमती गहने

एक बार बाजार में चहलकदमी करते एक व्यापारी को व्यापार के लिए एक अच्छी नस्ल का ऊँट नज़र आया।

व्यापारी और ऊँट बेचने वाले ने वार्ता कर, एक कठिन सौदेबाजी की। ऊँट विक्रेता ने अपने ऊँट को बहुत अच्छी कीमत में बेचने के लिए, अपने कौशल का प्रयोग कर के व्यापारी को सौदे के लिए राजी कर लिया। वहीं दूसरी ओर व्यापारी भी अपने नए ऊँट के अच्छे सौदे से खुश था। व्यापारी अपने पशुधन के बेड़े में एक नए सदस्य को शामिल करने के लिए उस ऊँट के साथ गर्व से अपने घर चला गया।

घर पहुँचने पर, व्यापारी ने अपने नौकर को ऊँट की काठी निकालने में मदद करने के लिए बुलाया। भारी गद्देदार काठी को नौकर के लिए अपने बलबूते पर ठीक करना बहुत मुश्किल हो रहा था।

काठी के नीचे नौकर को एक छोटी मखमली थैली मिली, जिसे खोलने पर पता चला कि वह कीमती गहनों से भरी हुई है।

नौकर अति उत्साहित होकर बोला, "मालिक आपने तो केवल एक ऊँट ख़रीदा। लेकिन देखिए इसके साथ क्या मुफ़्त आया है?"

अपने नौकर के हाथों में रखे गहनों को देखकर व्यापारी चकित रह गया। वे गहने असाधारण गुणवत्ता के थे, जो धूप में जगमगा और टिमटिमा रहे थे।

व्यापारी ने कहा, "मैंने ऊँट खरीदा है," गहने नहीं! मुझे इन जेवर को ऊँट बेचने वाले को तुरंत लौटा देना चाहिए।"

नौकर हतप्रभ सा सोच रहा था कि उसका स्वामी सचमुच मूर्ख है! वो बोला, "मालिक! इन गहनों के बारे में किसी को पता नहीं चलेगा।"

फिर भी, व्यापारी वापस बाजार में गया और वो मखमली थैली ऊँट बेचने वाले को वापस लौटा दी।

ऊँट बेचने वाला बहुत खुश हुआ और बोला, "मैं भूल गया था कि मैंने इन गहनों को सुरक्षित रखने के लिए ऊँट की काठी में छिपा दिया था। आप, पुरस्कार के रूप में अपने लिए कोई भी रत्न चुन सकते हैं।"

व्यापारी ने कहा "मैंने केवल ऊँट का सौदा किया है, इन गहनों का नहीं। धन्यवाद, मुझे किसी पुरस्कार की आवश्यकता नहीं है।"

व्यापारी ने बार बार इनाम के लिए मना किया, लेकिन ऊँट बेचने वाला बार बार इनाम लेने पर जोर डालता रहा।

अंत में व्यापारी ने झिझकते और मुस्कुराते हुए कहा, "असल में जब मैंने थैली वापस आपके पास लाने का फैसला किया था, तो मैंने पहले ही दो सबसे कीमती गहने लेकर, उन्हें अपने पास रख लिया।"

इस स्वीकारोक्ति पर ऊँट विक्रेता थोड़ा स्तब्ध था और उसने झट से गहने गिनने के लिए थैली खाली कर दी।

वह बहुत आश्चर्यचकित होकर बोला "मेरे सारे गहने तो इस थैली में हैं! तो फिर आपने कौन से गहने रखे?

"दो सबसे कीमती वाले" व्यापारी ने जवाब दिया।

"मेरी ईमानदारी और मेरा स्वाभिमान"

👉 मानवता का विशिष्ट लक्षण - सहानुभूति (अन्तिम भाग)

सहानुभूति मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता है। हर मनुष्य दूसरे मनुष्य से मानवता के एक सूत्र से बँधा हुआ है। इस नियम में शिथिलता पड़ जाय तो सारा जीवन अस्त−व्यस्त हो सकता है। स्वार्थ और आत्मतुष्टि की भावना से लोग दूसरों के अधिकार छीन लेते हैं, स्वत्व अपहरण कर लेते हैं, शक्ति का शोषण कर लेने से बाज नहीं आते। इन विशृंखलता के आज सभी ओर दर्शन किये जा सकते हैं। अपनी स्वादप्रियता के लिए जानवरों, पशु-पक्षियों की बात दूर रही, लोग दुधमुँह बच्चों तक माँस खा जाते हैं, ऐसे समाचार भी कभी-कभी पढ़ने को मिलते रहते हैं। दवा, शृंगार और विलासिता के साधनों की पूर्ति अधिकाँश अनैतिक कर्मों से हो रही है । इस जीवन काल में मानवता के संरक्षण के लिए सहानुभूति अत्यन्त आवश्यक है। इसी से दैवी सम्पदाओं का संरक्षण किया जा सकता है। तत्वों से संघर्ष करने के लिये जिस संगठन की आवश्यकता है, उसे सहानुभूति के द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। सहानुभूति एक शक्ति है, एक सम्बल है, जिससे मानवता के हितों की रक्षा होती है।

सहानुभूति इतनी विशाल आत्मिक भाषा है कि इसे पशु-पक्षी तक प्यार करते हैं। किसी चरवाहे पर सिंह हमला कर दे तो समूह के सारे जानवर उस पर टूट पड़ते हैं और सींगों से मार-मारकर बलशाली शेर को भगा देते हैं। एक बन्दर की आर्त पुकार पर सारे बन्दर इकट्ठा हो जाते हैं। बाज के आक्रमण से सावधान रहने के लिये चिड़ियाँ विचित्र प्रकार का शोर मचाती हैं। यह बिगुल सुनते ही सारे पक्षी अपना-अपना मोर्चा मजबूत बना कर छुप जाते हैं। सहानुभूति की भावना से जब पशुओं तक में इतनी उदारता हो सकती है, तो मनुष्य इससे कितना लाभान्वित हो सकता है, इसका मूल्याँकन भी नहीं किया जा सकता । हृदय की विशालता, जीवन की महानता, सहानुभूति से मिलती है। सार्वभौमिक, प्रेम, नियम और ज्ञान प्राप्त करने का आधार सहानुभूति है। इससे सारा संसार एक ही सत्ता में बँधा हुआ दिखाई देता है।

सहानुभूति के विकास के साथ चार और सद्गुणों का विकास होता है। (1) दयाभाव (2) उदारता (3) भद्रता (4) अंतःदृष्टि। सहानुभूति की भावनाएँ जितना अधिक प्रौढ़ होती हैं, दया भावना उसी के अनुरूप एक आवेश-मात्र न रहकर स्वभाव का एक अंग बन जाती है। जीव-जन्तुओं के प्रति भी दया आने लगती है। किसी का दुःख देखा नहीं जाता। सभी के दुःखों में हाथ बटाने की भावना पैदा होती है। स्वेच्छापूर्वक किसी का उपकार करना ही उदारता है, यह सहानुभूति का दूसरा चरण है। इस कोटि के सभी व्यक्ति भद्र माने जाते हैं। इन सज्जनोचित भावनाओं से अंतःदृष्टि जागृत होती है। समता का भाव उत्पन्न होता है। जो सबको परमात्मा का ही अंश मानते हैं, वही आत्मज्ञान के सच्चे अधिकारी होते हैं।

निर्दयतापूर्वक किये गए कार्य, नीचता, ईर्ष्या विद्वेष और सन्देह के दुर्गुणों के कारण लोगों को बाद में बड़ा पश्चात्ताप करना पड़ता है। जब चारों तरफ से असहयोग, अविश्वास और असम्मान लोग व्यक्त करने लगते हैं तो अपने कुकृत्यों पर बड़ी आत्मग्लानि होती है। सोचते हैं, हमने भी परोपकार किया होता, दूसरे के दुःखों को अपना दुःख समझकर मेल-व्यवहार पैदा किया होता तो आज जो अकेलेपन का दुःख भोग रहे हैं, उससे तो बच गए होते। इस पश्चात्ताप की अग्नि में जल-जलकर लोग अपनी शेष शक्तियों का भी नाश कर लेते हैं। किन्तु जो दूसरों के हृदय के साथ अपना हृदय मिला देते हैं उन्हें सभी से निश्छल प्रेम मिलता है और मर्म-ज्ञान प्राप्त होता है।

मनुष्य का जीवन कुछ इस प्रकार बँधा हुआ है कि वह दूसरों की सहायता प्राप्त न करे तो एक पग भी आगे बड़ा नहीं सकता। पशुओं के बच्चे जन्म लेने से कुछ घण्टे बाद ही प्राकृतिक प्रेरणा से यह जान लेते है कि दूध जो हमें पीना चाहिए, कहाँ है। बिना किसी संकेत के चट से अपनी आवश्यकता आप पूरी कर लेते हैं। किन्तु मनुष्य के लिये यह सब कुछ सम्भव नहीं। पालन-पोषण हुआ तो माता-पिता के द्वारा, शिक्षा के लिए विद्यालयों की शरण ली। खाना खाने से लेकर चलने-बोलने तक में वह पराश्रित है। बैल न हो तो खेती कहाँ से करें। लुहार हल न बनाए तो खेत कैसे जोतें। जुलाहा कपड़ा न बुने तो वस्त्र कहाँ से आवें। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे उदारपूर्वक आदान-प्रदान करते रहना पड़ता है। अपनी कमाई वस्तु का उपयोग दूसरों के लिए करता है तो दूसरों से भी अनेकों सुविधायें प्राप्त करते हैं। यह सम्पूर्ण क्रिया-व्यवसाय पारस्परिक सहयोग और सहानुभूति पर निर्भर है। इसी से जीवन में व्यवस्था है। मानवीय प्रगति की सम्भावनायें एक दूसरे की सहानुभूति की भावना पर टिकी है। हमें भी सब के साथ उदारतापूर्ण बर्ताव, करना चाहिए। इसी में ही हमारी सफलता है, इसी में मनुष्य का कल्याण है।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1965 पृष्ठ १७


👉 भक्तिगाथा (भाग ९२)

सर्वथा त्याज्य है दुःसंग


महर्षि रुक्मवर्ण की वाणी अनुभूति का अमृतनिर्झर बन गयी, जिसमें सभी के अस्तित्त्व स्नात हुए, शीतल हुए, शान्त हुए। सब ने अपने भीगे भावों में अनुभव किया कि कोरी कल्पनाएँ, बौद्धिक विचारणाएँ कागज के फूलों की भांति निष्प्राण, सारहीन व सुगन्धहीन होती हैं। उनका होना केवल दिखावटी व बाहरी होता है। इनके अन्तर्प्रभाव न तो कभी सम्भव हैं और न ही हो पाएँगे जबकि अनुभूति में डूबे शब्दों में प्राणों का पराग होता है। इनमें होती है अनोखी सुरभि जो सुनने वालों में सतह से तल तक हिलोर पैदा करती है। ऐसी हिलोर जो कण-कण को, अणु-अणु को, नवीनता का अनुभव देती है। अभी भी यहाँ कुछ ऐसा ही हुआ था। हिमालय की छांव में बैठी हुई ये सभी दैवी विभूतियाँ महर्षि रूक्मवर्ण का सान्निध्य पाकर स्वयं को अहोभाव से सम्पूरित महसूस कर रही थीं। उन्हें यह स्पष्ट लग रहा था कि भक्त के सान्निध्य में भक्ति के नवीन भाव अंकुरित होते हैं। भावों के नए आकाश में श्रद्धा और समर्पण के सूर्य उदय होते हैं।


महर्षि, देवों एवं सिद्धों के मन इन क्षणों में कुछ इन्हीं विचारवीथियों से गुजर रहे थे। पुलकन और प्रसन्नता, अन्तअर्स्तित्त्व में व बाहरी वातावरण में एक साथ अनुभूत हो रही थी पर महर्षि रूक्मवर्ण अभी भी किन्हीं अनजान स्मृतियों में खोए हुए थे। यदा-कदा उनके मुख पर कुछ ऐसा कौंध जाता जैसे कि अभी उनके अन्तर्भावों में कुछ ऐसा है जो अभिव्यक्त होने के लिए आतुर है। यद्यपि उन्होंने कुछ कहा नहीं फिर भी अन्तर्ज्ञानी महर्षि कहोल ने स्वयं में इसे समझ लिया। उन्होंने नीरव मौन की निःस्पन्दता में मुखरता के स्पन्दनों की उजास घोली और वह बोले- ‘‘महर्षि! पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि आपकी कथा की कुछ और कड़ियाँ भी हैं, जिन्हें अभी कहना-सुनना शेष है।’’


ऋषि कहोल के कथन को सुनकर महर्षि रूक्मवर्ण के होठों पर हल्की सी मुस्कान की रेखा झलकी। उन्होंने इस मन्दस्मित के साथ कहा- ‘‘हाँ! यह सत्य है। मैंने अभी केवल आधी बात कही है। अभी तक बस इतना ही कहा है कि भक्तिसाधना के साधक को भक्तों का संग करना चाहिए। उनके सान्निध्य-सुपास में रहना चाहिए। लेकिन यह केवल अधूरा सच है। इसका आधा भाग यह भी है कि उन्हें दुःसंग का सर्वथा त्याग करना चाहिए। दुःसंग के क्षण में शाश्वत खो जाता है। इस बारे में देवर्षि नारद सम्भवतः अपने सूत्र में कुछ कह सकें।’’

ऋषि रूक्मवर्ण की बातों को बड़े ही ध्यान से सुन रहे देवर्षि नारद ने बड़ी विनम्रता से कहा- ‘‘महर्षि मेरे अगले सूत्र में यही सत्य कहा गया है’’-
‘दुःसङ्गः सर्वथैव त्याज्यः’॥ ४३॥

दुःसङ्ग का सर्वथा त्याग करना चाहिए। इतना कहते हुए देवर्षि ने निवेदन किया, इस सूत्र की व्याख्या भी आप ही करें क्योंकि अनुभव की व्यापकता में ही इस सूत्र का सत्य सही ढंग से प्रकाशित हो सकेगा। देवर्षि के इस अनुरोध की सम्भवतः महर्षि को आशा थी। उन्होंने इसे सहजता से स्वीकार कर लिया। अन्य ऋषि-महर्षियों ने भी उनसे यही अनुरोध किया। सभी के इस अनुनय को स्वीकारते हुए वह कहने लगे- ‘‘यद्यपि दुःसंग सर्वथा-सर्वकाल में त्याज्य है परन्तु बचपन एवं यौवन में इसके परिणाम सर्वनाशी होते हैं। ऐसा नहीं है कि वृद्धावस्था इससे अछूती है, फिर भी वृद्धों से विवेक की उम्मीद रहती है। हालांकि अब कलि के प्रभाव से वृद्धावस्था भी विवेकहीन होती जा रही है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १७५

सोमवार, 13 दिसंबर 2021

👉 माँसाहार या शवाहार

मित्रों !! जिसे हम मांस कहते हैं वह वास्तव में क्या है?आत्मा के निकल जाने के बाद पांच तत्व का बना आवरण अर्थात शरीर निर्जीव होकर रह जाता है।यह निर्जीव,मृत अथवा निष्प्राण शरीर ही लाश या शव कहलाता है। यह शव आदमी का भी हो सकता है और पशु का भी।इस शव को बहुत अशुभ माना जाता है।

इसकी भूत मिट्टी आदि निकृष्ट चीजों से तुलना की जाती है।

यदि कोई इसे छू लेता है तो उसे स्नान करना पड़ता है। जिस घर में यह रखा रहता है उस घर को अशुद्ध माना जाता है। और वहां खाना बनना तो दूर कोई पानी भी नहीं पीना चाहता। इसको देखकर कई लोग तो डर भी जाते हैं क्योंकि आत्मा के निकल जाने पर यह अस्त-व्यस्त और डरावना हो जाता है।

मांसाहार करने वाले लोग इसी शव को  या लाश को खाते हैं। इसलिए यह मांसाहार !! शवाहार या लाशाहार ही है।

आधुनिक पात्रों में जंगली खाना
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कहा जाता हैं कि प्राचीन समय में जब सभ्यता का विस्तार नहीं हुआ था उस समय मानव जंगल में रहता था। तो उसके पास जीवन में उपयोगी साधनों का अभाव था। उस समय पेट भरने के लिए वह जंगली जानवरों का कच्चा मांस खा लेता था।

धीरे-धीरे कृषि प्रारंभ हुई अनेक प्रकार के खादों का उत्पादन हुआ, शहर बसे और मानव ने अनेक जीवन उपयोगी साधनों का आविष्कार कर उस  आदिम जंगली जीवन को तिलांजलि दे दी। उस समय की भेंट में आज उसके पास मकान, वस्त्र, जूते, बर्तन, मोटर, कम्प्यूटर आदि सब उत्तम प्रकार के आरामदायक साधन है।

उपरोक्त तथ्य यदि सत्य है तो मानव ने काफी विकास कर लिया है। वह हाथ में लेकर खाने के बजाए, पत्तों ऊपर रखकर खाने के बजाय आधुनिक डिजाइन की प्लेस में चम्मच के प्रयोग से खाता है। डाइनिंग टेबल पर बैठना भी उसने सीख लिया। परंतु प्रश्न यह है कि वह खाता क्या है? उसकी प्लेट में है क्या?

यदि इतनी साज सज्जा, रखरखाव को अपना कर, इतना विकास करके भी उसकी प्लेट पर रखा आहार यदि आदिम काल वाला ही है, यदि इतना विकास करके भी वह उस जंगली मानव वाले खाने को ही अपनाए हुए हैं तो विकास क्या किया?

यह तो वही बात हुई कि मटका मिट्टी के स्थान पर सोने का हो गया पर अंदर पड़ा पदार्थ जहर का जहर ही रहा।यदि सभ्यता ने विकास किया तो क्या सिर्फ बर्तनों और डाइनिंग टेबल कुर्सियों तक ही विकास किया?

क्‍या खाने के नाम पर सभ्यता नहीं आई? फर्क  इतना ही तो है उस समय जानवर को मारने के तरीके दूसरे थे और आजकल तीव्रगति वाली मशीनें यह कार्य कर देती है परंतु मुख तो अपने को मानव कहलाने वाले का ही है। मारने के हथियार बदल गए परंतु खाने वाला मुख तो नहीं बदला। मुख तो मानव का ही है।

पेट बन गया शमशान
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शव को जब श्मशान में ले जाते हैं तो उसे चिता पर लिटा कर आग लगाई जाती है। परंतु मानव को देखिए, वह शव को अथवा शव के टुकड़ों को रसोईघर में ले जाता है। फिर उस को रसोईघर के बर्तनों में पकाता है। तो उसकी रसोई क्या हो गई? श्मशान ही बन गई ना! तो फिर उस लाश को मुंह के माध्यम से पेट में डालता हैं। सच पूछो तो ऐसे व्यक्ति के घर की हवा भी पतित बनाने वाली है।

संत तुकाराम कहते हैं कि पापी मनुष्य यह नहीं देख पाता है कि सभी प्राणियों में प्राण एक सरीका होता है। जो व्यक्ति ना तो स्वयं कष्ट पाना चाहता है, ना मरना चाहता है वह निष्ठुरता पूर्वक दूसरों पर हाथ कैसे उठाता है?

वास्तव में मांस खाने वाले को इस शब्द का अर्थ समझना चाहिए मांस अर्थार्थ माम्सः मेरा वह।
जिसको मैं खा रहा हूं वह मुझे खाएगा। यह एक दुष्चक्र है। हिंसा इस चक्र को जन्म
देती है - उसके इस जन्म में मैं उसे खाता हूं,
अगले जन्म में मुझे हिंसा का शिकार होना होगा।
और इस प्रकार मेरा भोजन ही मेरा कॉल बन कर जन्म जन्मांतर तक मेरे पीछे लगा रहेगा।

इसलिए माँ प्रकृति की बड़ी संतान मानव को अपने छोटे भाइयों (मूक प्राणियों) को जीने का अधिकार देते हुए, मैं जिऊँ और अन्य को मरने दो, इस राक्षसी प्रवृत्ति को छोड़ देना चाहिए।

हम बदलेंगे,युग बदलेगा।

👉 मानवता का विशिष्ट लक्षण - सहानुभूति (भाग २)

सहानुभूति का अर्थ वाक्जाल या ऊपरी दिखावा मात्र नहीं। कई सयाने व्यक्ति बातों के थाल परोसने में तो कोई कसर नहीं करते, पर कोई रचनात्मक सद्भाव उनसे नहीं बन पात। अरे भाई! बड़ा बुरा हुआ तुम्हारी तो सारी सम्पत्ति जल गई, अब क्या करोगे, आजीविका कैसे चलेगी, बच्चे क्या खायेंगे आदि-आदि अनेकों प्रकार की मीठी मीठी चिकनी-चुपड़ी बातें तो करेंगे, पर यह न बन पड़ेगा कि बेचारे को अभी तो खाना खिलादे। जो सामान जलने से बच गया है, उसे कहीं रखवाने का प्रबन्ध करवा दें। कोई ऐसा संकेत भी करे तो नाक भौं सिकोड़ते हैं। भाई-बेबस हूँ, पिछली दालान में तो बकरियाँ बंधती हैं, बरामदे में शहतीर रखे हैं। जबान की जमा-खर्च बनाते देर न लगी, पर सहायता के नाम पर एक कानी कौड़ी भी खर्च करने को जो तैयार न हुआ, ऊपरी दया दिखाई ही तो इससे क्या बनता है। सच्ची सहानुभूति वह है जो दूसरों को उदारतापूर्वक समस्याएँ सुलझाने में सहयोग दे। करुणा के साथ कर्तव्य का सम्मिश्रण ही सहानुभूति है। केवल बातें बनाने से प्रयोजन हल नहीं होता है, उसे तो दिखाया या प्रपंच मात्र ही कह सकते हैं।

प्रशंसा और आत्म-सुरक्षा का सहानुभूति से कोई सम्बन्ध नहीं। प्रशंसा एक मूल्य है, जो आप कर्तव्य के बदले में माँगते हैं। मूल्य माँगने से आपकी सेवा की कर्तव्य न रही, कर्म बन गई। इसे नौकरी भी कह सकते हैं । ऐसी सहानुभूति से कोई लाभ नहीं हो सकता क्योंकि आपकी इच्छा पर आघात होते ही आप विचलित हो जायेंगे। प्रशंसा न मिली तो आत्मीयता का भाव समाप्त हो जाता है। ऐसी अवस्था में भावना की शालीनता नष्ट हो जाती है। ऐसी सहानुभूति घृत निकाले हुए छाछ जैसी होगी। शहद निकाल लिया तो मोम की क्या कीमत रही। बदले में कुछ चाहने की भावना से सहानुभूति की सार्थकता नहीं होती, इसे तो व्यापार ही कह सकते हैं।

सहानुभूति मानव अन्तःकरण की गहन, मौन और अव्यक्त कोमलता का नाम है। इसमें स्वार्थ और संकीर्णता का कहीं भी भाव नहीं होता। जहाँ ऐसी निर्मल भावनायें होती हैं, वहाँ किसी प्रकार के अनिष्ट के दर्शन नहीं होते। आत्मीयता, आदर, सम्मान और एकता की भावनाएँ, सहानुभूतिपूर्ण व्यक्तियों के अन्तःकरण में पाई जाती हैं। इससे वे हर घड़ी स्वर्गीय सुख की रसानुभूति करते रहते हैं। उन्हें किसी प्रकार का अभाव नहीं रहता। क्लेश उन्हें छू नहीं जाता। उनके लिए सहयोग की कोई कमी न रहेगी। ऐसे व्यक्ति क्या घर, क्या बाहर एक विलक्षण सुख का अनुभव कर रहे होंगे। और भी जो लोग उनके संपर्क में चले जाते हैं, उन्हें भी वैसी ही रसानुभूति होने लगती है।

दूसरों के दुःखों में अपने को दुःख जैसे भावों की अनुभूति हो तो हम कह सकते हैं कि हमारे अन्तःकरण में सच्ची सहानुभूति का उदय हुआ है। इससे व्यक्तित्व का विकास होता है और पूर्णता की प्राप्ति होती है। सभी में अपनापन समाया हुआ देखने की भावना सचमुच इतनी उदात्त है कि इसकी शीत छाया में बैठने वाला हर घड़ी अलौकिक सुख का आस्वादन करता है। दीनबन्धु परमात्मा की उपासना करनी हो तो आत्मीयता की उपासना करनी चाहिये। दार्शनिक बालक ने परमात्मा की पूजा का कितना हृदय स्पर्शी चित्र खींचा है। उन्होंने लिखा है- “दीनों के प्रति मैं सहज भाव से खिच जाता हूँ, उनकी भूख मेरी भूख है, उनके पैरों में रहता हूँ, वंचनाओं की पीड़ा सहना है, गले से लगाता हूँ, मैं भी उतनी देर के लिये दीन और ठुकराया हुआ प्राणी बन जाता हूँ।”

सहानुभूति लोगों में एकात्म-भाव पैदा करती है। दूसरे लोगों का आन्तरिक प्रेम और सद्भाव प्राप्त होता है। ऐसे लोगों में विचार-हीनता और कठोरता नहीं आ सकती। वे सदैव मृदुभाषी, उदार, करुणावान और सेवा की कोमल भावनाओं से ओत-प्रोत बने रहेंगे। जो दूसरों के साथ सहयोग करना नहीं जानते, जो समाज में सदैव अत्याचार और विक्षोभ की गलित-वायु फूँकते रहते हैं, उन्हें इन दुर्गुणों के बुरे परिणाम भी अनिवार्य रूप से भोगने पड़ते हैं। स्वार्थी असंवेदनशील और हिसाबी व्यक्ति चतुराई में कितने ही बड़े चढ़े रहें, कितने ही पढ़े-लिखें, शिक्षित तथा योग्य क्यों न हों, अन्त में सफलता से हाथ धोना ही पड़ेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1965 पृष्ठ १६

👉 भक्तिगाथा (भाग ९१)

भक्तों का संग है सर्वोच्च साधना

(अतएव) उस (महत्सङ्ग-भक्तसङ्ग) की ही साधना करो, उसी की साधना करो।’’ देवर्षि का यह सूत्र सुनकर ऋषि रुक्मवर्ण बरबस बाले उठे, ‘‘सुखद! सुन्दर!! सुमनोहर!!!’’ इतना कहने के साथ वह फिर से मौन होकर कहीं खो ग। देवर्षि द्वारा किए गए सूत्र उच्चारण के साथ ऋषि रुक्मवर्ण की प्रसन्नता का अतिरेक सभी ने देखा। उनके उल्लास की आभा सबने निहारी। इसे देखकर सबके अन्तर्भावों में एक ही बात आयी कि महर्षि रुक्मवर्ण की कुछ विशेष स्मृतियाँ अवश्य ही इस सूत्र में पिरोयी हैं। ऋषि रुक्मवर्ण, अवस्था एवं ज्ञान दोनों में ही ज्येष्ठ थे। उनसे कौन आग्रह करे यह तय न हो सका। आखिर सभी विशिष्टजनों ने महर्षि पुलह की ओर देखा। महर्षि पुलह ने सभी का यह दृष्टि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उन्होंने विनम्र स्वर में कहा- ‘‘महर्षि! हम सभी का समवेत आग्रह है कि देवर्षि के इस सूत्र की व्याख्या आज आप करें।’’ महर्षि पुलह के इस कथन पर रुक्मवर्ण ने सहजता से हामी भर दी।

कुछ देर उन्होंने अनन्त अन्तरिक्ष की ओर निहारा फिर कहने लगे- ‘‘दरअसल देवर्षि का यह सूत्र मेरी आत्मकथा है। मेरे अपने जीवन की सभी घटनाएँ इस अनूठे सूत्र में स्वाभाविक ढंग से पिरोयी हुई हैं। मेरे जीवन में यदि कुछ भी श्रेष्ठ एवं श्रेयस्कर हो सका है तो वह इसी विधि से हुआ है। देवर्षि ने सम्पूर्णतया सत्य कहा है कि महत्सङ्ग की साधना-भक्तसङ्ग की साधना अकेले ही परम समर्थ है। दैवयोग से बचपन में मेरे माता-पिता न रहे। पड़ोस के लोगों ने तरस खाकर मुझे एक भगवद्भक्त के आश्रम में दे दिया। उन उदारहृदय का आश्रम मेरे लिए जीवन का सबसे बड़ा वरदान बन गया। उनसे मैंने अपने जीवन का सबसे पहला पाठ यह सीखा कि जीवन में कोई भी घटना न तो बुरी है और न व्यर्थ। बुरा तो हमारा अपना मन होता है जो भगवान के मंगलमय विधान में बुराई ढूँढने लगता है।

भगवान तो परम कृपालु हैं, वे तो जीवात्मा की उन्नति के लिए, उसे निखारने-संवारने के लिए, उसके उत्तरोत्तर विकास के लिए उचित, उपयुक्त, आवश्यक एवं अनिवार्य घटनाओं की शृंखला रचते हैं। जिसके लिए जो सही है, उसके जीवन में वही घटित होता है। भगवद्विधान तो हमारे लिए सब कुछ जुटा देता है, बस हम ही अपनी नकारात्मक, निषेधात्मक वृत्तियों के कारण उनका सदुपयोग नहीं कर पाते। इनके सदुपयोग की कला का विकास भक्तसङ्ग से होता है क्योंकि भक्त के जीवन में कुछ नकारात्मक-निषेधात्मक होता ही नहीं है। सच में भक्त तो वही है जो भाव में, विचार में, कर्म में, प्रत्येक पल में सकारात्मक होता है। हमें अपने जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में जिन भगवद्भक्त महामानव का आश्रय मिला, उनसे मैंने यही सीखा कि प्रत्येक पल एवं प्रत्येक घटनाक्रम का सकारात्मक एवं सार्थक उपयोग करो।

उनके इस उपदेश को मानकर मैं जीवनप्रवाह के साथ बहता गया। जीवन की हर चोट, हर पीड़ा हमें गढ़ती गयी, संवारती गयी। भक्तसङ्ग की साधना से एक बात मैंने यह भी सीखी कि कभी कुछ मत मांगो, क्योंकि मांगने वाले को यह पता नहीं है कि यथार्थ में उसे क्या चाहिए? जबकि देने वाले परमेश्वर को यह पता है कि उसके भक्त को सचमुच में कब, क्या आवश्यकता है। सम्पूर्ण शरणागति ही तो भक्ति है, जो संकटों में, विषमताओं में, विपरीतताओं में विकसित होती है। मेरे जीवन में यही घटित होता रहा और भगवान अपने विभिन्न रूपों में मुझे सम्हालते रहे। उनकी ही प्रेरणा से मुझे भक्तों का दुर्लभ सान्निध्य मिलता रहा।

यदा-कदा ऐसा भी हुआ कि विषम घड़ियों में किसी भी भक्त का सान्निध्य न मिला। पर उन पलों में अन्तर्यामी मेरी अन्तर्चेतना में मुखर रहे। मनःस्थिति में कभी वह भाव एवं विचार बनकर प्रकट हुए तो परिस्थिति में सहृदय भक्त बनकर जीवन की राह दिखाते रहे। भक्तों के सङ्ग ने ही मुझे गढ़ा-निखारा। मेरी अपनी अनुभूति यही कहती है कि भक्तों का सङ्ग-साथ तो भक्तिशास्त्र का महाविद्यालय है। यह वह महागुरुकुल है, जहाँ स्वतः जीवनविद्या, भक्तिविद्या का शिक्षण मिल जाता है। भक्तों के संङ्ग में भगवान की सम्पूर्ण चेतना, उनकी अनन्त कृपा स्वाभाविक रीति से प्रकट होती है। इसलिए प्रयत्नपूर्वक भक्तों का सङ्ग करना चाहिए। यही श्रेष्ठतम साधना है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १७१

शनिवार, 11 दिसंबर 2021

👉 !! खुशी की वजह !!

जंगल के सभी खरगोशों ने एक दिन सभा बुलाई। बैठक में सभी को अपनी समस्याएं बतानी थीं। सभी खरगोश बहुत दुखी थे। सबसे पहले सोनू खरगोश ने बोलना शुरू किया कि जंगल में जितने भी जानवर रहते हैं, उनमें खरगोश सबसे कमज़ोर हैं।

सोनू बोल रहा था, “शेर, बाघ, चीता, भेड़िया, हाथी सब हमसे अधिक शक्तिशाली हैं। सबसे कोई न कोई डरता है, लेकिन हमसे कोई नहीं डरता।” सोनू की बात सुन कर चीकू खरगोश तो रोने ही लगा। उसने रोते हुए कहा कि खरगोशों की ऐसी दुर्दशा देख कर तो अब जीने का मन ही नहीं करता।

बात सही थी। खरगोश से कोई नहीं डरता था। उन्हें लगने लगा था कि संसार में उनसे कमज़ोर कोई और नहीं। ऐसे में तय हुआ कि कल सुबह सारे खरगोश एक साथ नदी के किनारे तक जाएंगे और सारे के सारे नदी में डूब कर जान दे देंगे। ऐसी ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी है।

सुबह सारे खरगोश इकट्ठा हुए और पहुंच गए नदी के किनारे। जैसे ही वो नदी के किनारे पहुंचे, उन्होंने देखा कि वहां बैठे मेंढ़क खरगोशों को देख कर डर के मारे फटाफट नदी में कूदने लगे।

उन्हें ऐसा करते देख खरगोश वहीं रुक गए। वो समझ गए कि मेंढ़क उनसे डर रहे हैं। बस फिर क्या था, मरना कैंसिल हो गया।

सोनू खरगोश ने वहीं एक सभा की और सभी खरगोशों को बताया कि भाइयों हमें हिम्मत से काम लेना चाहिए। इस संसार में कोई ऐसा भी है, जो हमसे भी कमज़ोर है। ऐसे में अगर हमारे पास दुखी होने की कई वज़हें हैं तो खुश होने की भी एक वज़ह तो है ही।

चीकू खरगोश ने भी कहा कि हां, हमें हिम्मत नहीं छोड़नी चाहिए। हम कमज़ोर हैं, ये सोच कर हमें दुखी होने की जगह ये सोच कर हमें खुश होना चाहिए कि हम सबसे अधिक खूबसूरत हैं और हम जंगल में किसी भी जानवर की तुलना में अधिक तेज़ गति से दौड़ सकते हैं। फिर सारे खरगोश खुशी-खुशी जंगल में लौट आए।

शिक्षा/संदेश :-
“ज़िंदगी में बेशक आपके सामने हज़ार-पांच सौ मुश्किलें होंगी लेकिन आप दुनिया को दिखा दीजिए कि अब आपके पास मुस्कुराने की दो हज़ार वज़हें हैं।”

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...