शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग १२)

जिसे भक्ति मिल जाए, वो और क्या चाहे?

भगवन्नाम कीर्तन का सुरभित संगीत देवात्मा हिमालय के अणु-अणु में व्याप्त होता गया। भक्ति चेतना की सघनता से वहाँ उपस्थित ऋषियों, देवों एवं दिव्य विभूतियों के अंतस् स्पन्दित हो उठे। हिमालय की पावनता, भक्तिगाथा के निरन्तर श्रवण से और भी अधिक पावन हो रही थी। सब ओर विशुद्ध सत्त्व का भावमय उद्रेक हो रहा था। हिमालय के हिमाच्छादित शुभ्र शिखर मौन, नीरव समाधि में डूबे थे। निर्विचार भावमयता का अजस्र-अविरल-अदृश्य प्रवाह और भी कुछ सुनने को प्रेरित कर रहा था। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का महातेजस् भी आज रोमांचित था। उन्होंने भक्तिविह्वल हो सभी जनों को प्रणाम् करते हुए कहा- ‘‘भक्तिगाथा के श्रवण से अधिक और कोई सुख नहीं है। मेरा देवर्षि नारद से अनुरोध है कि हम सभी को अपने अगले सूत्र से अनुग्रहीत करें।’’

सभी ने इस कथन से अपनी समवेत सहमति जताई और कहा- ‘‘ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने हम सभी के हृदयों के उद्गार व्यक्त किये हैं। हम सभी देवर्षि से आग्रह करते हैं-कुछ और कहें।’’ महर्षियों के इस आग्रह से देवर्षि की भावमय तल्लीनता में कुछ नवस्फुरण हुए। वे कहने लगे- ‘‘हे महर्षिजन! हम बड़भागी हैं जो आप सबके पावन सान्निध्य में भक्ति, भक्त एवं भगवान की दिव्य लीला का अवगाहन कर रहे हैं। भक्ति की महिमा ही कुछ ऐसी है कि जो इसे पा लेता है उसे और कुछ भी पाना शेष नहीं रहता। मेरा आज का सूत्र भी कुछ यही कहता है-
‘यात्प्राप्य न किञ्चद्वाञ्छति न शोचति
न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति’॥ ५॥
    
भक्ति को प्राप्त करने वाला कुछ और नहीं चाहता, कुछ और नहीं सोचता, किसी से द्वेष नहीं करता, कहीं अन्य नहीं रमता, विषय-भोगों के लिए उत्साही नहीं होता।
    
देवर्षि नारद के इस स्वर सूत्र में सभी के मन अनायास गुँथने लगे थे। उनके भावों में एक अनोखी मिठास घुलने लगी थी, तभी एक अनोखी घटना ने सभी का ध्यान बरबस अपनी ओर खींच लिया। सबने देखा कि दूसरे सूर्य के समान परम तेजस्वी ज्योतिपुञ्ज आकाश से अवतरित हो रहा था। हिमालय का यह पावन परिसर इस महासूर्य के प्रकाश से आपूरित हो जा रहा था। कुछ ही क्षणों में यह परम तेजस्वी ज्योतिपुञ्ज मानव आकृति में परिवर्तित हो गया। अद्भुत स्वरूप था इन  महाभाग का। इनके सारे शरीर पर सघन रोमावली थी परन्तु प्रत्येक रोम ज्योति किरण की भाँति प्रकाशित था। कुछ ऐसा जैसे कि भगवान भुवन-भास्कर के शरीर को उनकी सहस्र-सहस्र किरणें घेरे हों।
    
एकबारगी सभी चमत्कृत थे, परन्तु सप्तर्षियों, कल्पजीवी महर्षि मार्कण्डेय एवं देवर्षि नारद को उन्हें पहचानने में अधिक देर न लगी। ये भगवान भोलेनाथ एवं माता जगदम्बा के वरद् पुत्र शिवस्वरूप महर्षि लोमश थे। सभी जानते थे कि सृष्टि में इनसे अधिक दीर्घायु और कोई भी नहीं। सबने उन्हें प्रणाम् किया। महर्षि लोमश ने बड़े हर्षित मन से उन्हें आशीष दिया और बोले-‘‘ऋषियों! मैं चिरकाल से समाधिस्थ था। समाधि में ही मुझे भगवान सदाशिव एवं माता पार्वती के दर्शन हुए। उन्होंने मुझे चेताया-लोमश! हिमालय के आँगन में अद्भुत, अपूर्व भक्तिगंगा बह रही है और तू समाधि में खोया है। बस भगवान महादेव का इंगित मुझे यहाँ ले आया और यहाँ आप सभी के दर्शन हुए।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २९

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग १२)

👉 कोई रंग नहीं दुनिया में

नशा पी लेने पर मस्तिष्क और इन्द्रियों का संबंध लड़खड़ा जाता है, फलस्वरूप कुछ का कुछ अनुभव होता है शराब के नशे में धुत्त व्यक्ति जैसा कुछ सोचता, समझता, देखता अनुभव करता है वह यथार्थता से बहुत भिन्न होता है। और भी ऊंचे नशे इस उन्मत्तता की स्थिति को और भी अधिक बढ़ा देते हैं। डी. एलस्केस. ए. सरीखे नवीन नशे तो इतने तीव्र हैं कि उनके सेवन के उपरान्त ऐसे विचित्र अनुभव मस्तिष्क को होते हैं जिनकी यथार्थता के साथ कोई संगति नहीं होती।

साधारणतया दैनिक जीवन में भी अधिकांश अनुभव ऐसे होते हैं जिन्हें यथार्थ नहीं कहा जा सकता। सिनेमा के पर्दे पर जो दीखता है सही कहां है? एक के बाद एक आने वाली अलग-अलग तस्वीरें इतनी तेजी से घूमती हैं कि उस परिवर्तन को आंखें ठीक तरह समझ नहीं पातीं और ऐसा भ्रम होता है मानो फिल्म में पात्र चल फिर रहे हैं। लाउडस्पीकर से शब्द अलग अन्यत्र निकलते हैं और पर्दे पर तस्वीर के होठ अलग चलते हैं पर दर्शकों को ऐसा ही आभास होता रहता है मानो अभिनेताओं के मुख से ही वार्तालाप एवं संगीत निकल रहा है। प्रकाश की विरलता और सघनता भर पर्दे पर उतरती है पर उसी से पात्रों एवं दृश्यों का स्वरूप बन जाता है और मस्तिष्क ऐसा अनुभव करता है मानो यथार्थ ही वह घटना क्रम घटित हो रहा है।

सिनेमा के दृश्य क्रम को देखकर आने वाला यह नहीं अनुभव करता कि उसे यांत्रिक जाल जंजाल में ढाई तीन घंटे उलझा रहना पड़ा है। उसे जो दुखद-सुखद रोचक भयानक अनुभूतियां उतने समय होती रही हैं वे सर्वथा भ्रान्त थीं। सिनेमा हाल में कोई घटना क्रम नहीं घटा। कोई प्रभावोत्पादक परिस्थिति नहीं बनी केवल प्रकाश यन्त्र या ध्वनि यन्त्र अपने-अपने ढंग की कुछ हरकतें भी करते रहे। इतने भर से दर्शक अपने सामने अति महत्वपूर्ण घटना क्रम उपस्थित होते का आभास करता रहा, इतना ही नहीं उससे हर्षातिरेक एवं अश्रुपात जैसी भाव भरी मनःस्थिति में भी बना रहा। इस इन्द्रिय भ्रम को माया कहा जाता है। मोटी दृष्टि से यह माया सत्य है। यदि सत्य न होती तो फिल्म उद्योग, सिनेमा हाल, उसमें युक्त हुए यन्त्र, दर्शकों की भीड़ उनकी अनुभूति आदि का क्या महत्व रह जाता? थोड़ी विवेचनात्मक गहराई से देखा जाय तो यह यन्त्रों की कुशलता और वस्तुस्थिति को समझ न सकने को नेत्र असमर्थता के आधार पर इस फिल्म दर्शन को मायाचार भी कह सकते हैं। दोनों ही तथ्य अपने अपने ढंग से सही हैं। संसार चूंकि हमारे सामने खड़ा है, उसके घटना क्रम को प्रत्यक्ष देखते हैं। इसलिए वह सही है किन्तु गहराई में प्रवेश करने पर वे दैनिक अनुभूतियां नितान्त भ्रामक सिद्ध होती हैं। ऐसी दशा में उन्हें भ्रम, स्वप्न या माया कहना भी अत्युक्ति नहीं है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १७
परम पूज्य गुरुदेव ने ये पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...