बुधवार, 29 अगस्त 2018

👉 गलत परम्परा न डालूँगा

🔷 सुकरात को प्राण दण्ड की आज्ञा सुनाई गई। वे जेल में बन्द थे। उनके परम शिष्य क्रीटो ने जेल इसे भाग निकलने का सारा प्रबन्ध कर दिया और कहा गुरुदेव अब यहाँ से चुपचाप भाग चलिये और अपना जीवन बचाइए। सुकरात ने ऐसा करने से स्पष्ट इंकार कर दिया। उनने कहा-राजकीय कानूनों का पालन करना प्रजा का धर्म है। यदि मैं इस प्रकार कानून की अवज्ञा करके अपने प्राण बचाने के लिये भाग चलूँ तो प्रजा में एक गलत परम्परा का जनम होगा।

👉 उत्कृष्टता का आत्मगौरव

🔶 एक लुहार बढ़िया हथौड़े बनाने के लिये प्रसिद्ध था। एक व्यक्ति उसके पास गया और कहा-जैसे हथौड़े आप बनाते हैं उससे भी अच्छा मेरे लिये बना दें, मैं उसकी अधिक कीमत देने को तैयार हूँ। लुहार ने उत्तर दिया-मान्यवर मैं उससे और अच्छा हथौड़ा नहीं बना सकता। यदि बना सकता होता तो पहले ही बना दिया होता। मैं हथौड़ों की उत्कृष्टता को अपनी उत्कृष्टता मानता हूँ और उसमें किसी प्रकार की कमी रहने देना पसन्द नहीं करता।

👉 सत्य को मजबूती से पकड़ो

🔶 भगवान बुद्ध जब मरने लगे तब उनने अपने शिष्यों को बुलाकर अन्तिम उपदेश दिया “तुम लोग अपने-अपने ऊपर निर्भर रहो। किसी दूसरे की सहायता की आशा न करो। अपने भीतर से ही अपने लिये प्रकाश उत्पन्न करो। सत्य की ही शरण में जाओ और उसे मजबूत हाथों से पकड़े रहो।”

👉 प्राण देकर बीज बचाये

🔶 यज्ञ की श्रेष्ठता उस्के बाह्य स्वरूप की विशालता में नहीं अन्तर की उत्कृष्ट त्याग वृत्ति में है। यज्ञ के साथ त्याग- बलिदान की अभूतपूर्व परम्परा जुड़ी हुई है। यही संस्कृति को धन्य बनाती है।

🔷 एक बार विदर्भ देश में जोर का अकाल पड़ा। एक गाँव में किसी के पास कुछ भी न बचा। उसी गाँव के एक किसान के पास एक कोठी भरा धान था। वह उससे कई महीने तक अपने परिवार का भरण- पोषण कर सकता था, लेकिन उसे ध्यान आया कि अगले वर्ष मौसम के समय खेतों में बोने के लिए बीज न मिलेगा तो फिर से सबको अकाल का सामना करना पड़ेगा। किसान ने उस धान के कोष को खाने में खर्च नहीं किया और सपरिवार सहर्ष मृत्यु की गोद में सो गया।

🔶 लोगों ने सोचा कि काफी अन्न होते हुए भी किसान परिवार क्यों मर गया। लेकिन उसकी वसीयत को पढ़कर सभी किसान की महानता पर हर्ष सें आँसू बहाने लगे। उसमें लिखा था, "मेरा समस्त अन्न खेतों में फसल बोने के समय गाँव में बीज के लिए बाँट दिया जाय। " वर्षा हुई और चारों ओर नई लहलहाती फसल से लग रहा था मानो किसान मरा नहीं अपितु असंख्यों जीवधारी के रूप में हरे-  भरे खेतों में लहलहाता फिर से धरती पर उतर आया हो।

📖 प्रज्ञा पुराण से

👉 आज का सद्चिंतन 29 Aug 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 29 August 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 41)

👉 उत्कृष्टता के साथ जुड़ें, प्रतिभा के अनुदान पाएँ

🔶 इन तथ्यों के प्रकटीकरण पर विश्वास करते हुए जो तदनुरूप अपनी गतिविधियों में परिवर्तन करेंगे, वे हर दृष्टि से नफे-ही-नफे में रहेंगे। आज का दृष्टिकोण जिसे घाटा बताता है, उपहासास्पद बताता है कल वैसी स्थिति न रहेगी। लोग वास्तविकता को अनुभव करेंगे और समय रहते अपनी भ्रांतियों को बदल लेंगे।
  
🔷 जीवंतों और जाग्रतों को इन दिनों युगचेतना अनुप्राणित किए बिना रह नहीं सकती। उन्हें ढर्रे का जीवन जीते रहने से ऊब उत्पन्न होगी और चेतना अंतराल में ऐसी हलचलों का समुद्र मंथन खड़ा करेगी, ऐसा कुछ करने के लिए बाधित करेगी, जो समय को बदलने के लिए अभीष्ट एवं आवश्यक है। साँप नियत समय पर केंचुली बदलता है। अब ठीक यही समय है कि प्राणवान, प्रज्ञावान अपना केंचुल बदल डालें। अपनी समग्र क्षमता सँजोकर दृष्टिकोण में ऐसा परिवर्तन करें, जिससे भावी क्रियाकलापों में ऐसे तत्त्वों का समावेश हो, जिन्हें अनुकरणीय-अभिनंदनीय माना जा सकें।

🔶 अंतराल में उत्कृष्ट उमंगें और क्रियाकलापों का, आदतों का, नये सिरे से ऐसा निर्धारण करें, जो युगशिल्पियों के लिए प्रेरणाप्रद बन सकें । आदर्शों को महत्त्व दें। यह न सोचें कि तथाकथित सगे संबंधी क्या परामर्श देते हैं? प्रह्लाद, विभीषण, भरत, मीरा आदि को कुटुंबियों का नहीं, आदर्शों का अनुशासन अपनाना पड़ा था। उच्चस्तरीय साहस के प्रकटीकरण का यही केंद्र बिंदु है कि जीवन को श्रेय साधना से ओत-प्रोत करके दिखाया जाए। यह प्रयोजन संयम और अनुशासन अपनाए जाने की अपेक्षा करता है। प्रचलन तो ढलान की ओर लुढ़कने का है। पानी नीचे की ओर बहता है, ऊपर से नीचे गिरता है। उत्कृष्टता की ऊँचाई तक उछलने के लिए शूरवीरों जैसा साहस दिखाना पड़ता है। इस प्रदर्शन को अभी टाल दिया जाए तो संभव है ऐसा अवसर फिर जीवन में आए ही नहीं।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 51

👉 Scientific Basis of Gayatri Mantra Japa (Part 8)

🔶 The fourth stage signifies a still higher state of spiritual maturity. With deeper and purer engagement in the japa of Gayatri Mantra, the sadhaka sees the light of his soul in the radiance of the subtle body of the sun  the cosmic center of this mantra. As this realization intensifies, he begins to experience, in deep trance, the unity of his soul with the cosmic soul (God). He then sees the identity of his soul as a reflection of the Brahm conveyed in the Vedant Philosophy as "Ayamatma Brahm", "Tatvamasi","Soahm", "Cidanandoaham", etc.

🔷 This state is referred to in the Shastras as samadhi, turiavastha or para siddhi - the state of ultimate beatitude, absolute bliss and supreme accomplishment. Japa-sadhana alone, if performed with sincerity, purity and intrinsic faith, leads to this state of eternal bliss and light. It is therefore referred to as the key to the deeper science of spirituality and also revered as a yajya.

🔶 Japa yajya alone is a complete source of ultimate self-realization. By the divine energy immanent in the Vedic Mantras, we can attain supramental knowledge and actualize the potentials that are otherwise unbelievable, unimaginable and unreachable. Understanding and attainment of such extrasensory faculties are yet beyond the scope of the modern scientific advancement. Japa is therefore not well recognized or practiced by many of the so-called scientifically progressive people.

🔷 We do see many of the erudite scholars, great scientists and elites engulfed in the sorrows, delusions and sufferings of the world despite their talents and resources; whereas there are some illiterate but spiritually elevated souls endowed with divine bliss and wisdom attained through sincere japa-sadhana of the Gayatri Mantra.

📖 Akhand Jyoti, Mar Apr 2003

👉 ईश्वर-भक्ति और जीवन-विकास (भाग 1)

🔶 प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि वह सुख पूर्वक जीवन जिये। सब का प्रेम और स्नेह प्राप्त करे। शक्ति और समृद्धि के पथ पर आगे बढ़ने की इच्छा किसकी नहीं होती। सर्वज्ञता की अभिलाषा भी ऐसे ही सब को होती है। यह दूसरी बात है कि यह सम्पूर्ण सौभाग्य किसी को मिले या न मिले । मिले भी तो न्यूनाधिक मात्रा में, जिससे किसी को सन्तोष हो किसी को न हो।

🔷 परमात्मा सम्पूर्ण ऐश्वर्य का अधिष्ठाता माना गया है। वह सर्वशक्तिमान् है। वेद उसे सर्वज्ञ, सर्वव्यापी बताते हैं। यह उसके गुण हैं अथवा शक्तियाँ। साँसारिक जीवन में उन्नति और विकास के लिये भी इन्हीं तत्वों की आवश्यकता होती है। बुद्धिमान, शक्तिमान् और ऐश्वर्यमान व्यक्ति बाजी मार ले जाते हैं। शेष अपने पिछड़ेपन, अभाव और दुर्दैव का रोना रोया करते हैं।

🔶 यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इन तीन तत्वों का विकास मनुष्य ईश्वर भक्ति से बड़ी सरलता से प्राप्त कर लेता है। कबीर निरक्षर थे किन्तु ईश्वर उपासना के उनकी सूक्ष्म बुद्धि का विकास हुआ था। विचार और चिंतन के कारण इनमें वह शक्ति आविर्भूत हुई थी जो बड़े-बड़े विद्यालयों के छात्रों, शिक्षकों को भी नहीं नसीब होती। कबीर अक्षर लिखना नहीं जानते थे किन्तु वह पंडितों के भी पंडित हो गये।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1967 अगस्त पृष्ठ 3
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1967/August/v1.3

👉 साहित्य से बढ़कर मधुर और कुछ नहीं

🔶 साहित्य से मुझे हमेशा बहुत उत्साह होता है। साहित्य-देवता के लिये मेरे मन में बड़ी श्रद्धा है। एक पुरानी बात याद आ रही है। बचपन में करीब 10 साल तक मेरा जीवन एक छोटे से देहात में ही बीता। बाद के 10 साल तक बड़ौदा जैसे बड़े शहर में बीते। जब मैं कोंकण के देहात में था, तब पिता जी कुछ अध्ययन और काम के लिये बड़ौदा में रहते थे। दिवाली के दिनों में अक्सर घर पर आया करते थे।

🔷 एक बार माँ ने कहा- “आज तेरे पिता जी आने वाले है, तेरे लिये मेवा-मिठाई लायेंगे।” पिताजी आए। फौरन मैं उनके पास पहुँचा और उन्होंने अपना मेवा मेरे हाथ में थमा दिया। मेवे को हम कुछ गोल-गोल लड्डू ही समझते थे। लेकिन यह मेवे का पैकेट गोल न होकर चिपटा-सा था। मुझे लगा कि कोई खास तरह की मिठाई होगी। खोलकर देखा, तो किताबें थीं। उन्हें लेकर मैं माँ के पास पहुँचा और उनके सामने धर दिया। माँ बोली-बेटा! तेरे पिताजी ने तुझे आज जो मिठाई दी है, उससे बढ़कर कोई मिठाई हो ही नहीं सकती।” वे किताबें रामायण और भागवत की कहानियों की थीं, यह मुझे याद है।

🔶 आज तक वे किताबें मैंने कई बार पढ़ीं। माँ का यह वाक्य मैं कभी नहीं भूला कि-”इससे बढ़कर कोई मिठाई हो ही नहीं सकती।” इस वाक्य ने मुझे इतना पकड़ रखा है कि आज भी कोई मिठाई मुझे इतनी मीठी मालूम नहीं होती, जितनी कोई सुन्दर विचार की पुस्तक! वैसे तो भगवान् की अनन्त शक्तियाँ हैं, पर साहित्य में उन शक्तियों की केवल एक ही कला प्रकट हुई है। भगवान् की शक्ति की यह कला कवियों और साहित्यिकों को प्रेरित करती है। कवि और साहित्यिक ही उस शक्ति को जानते हैं, दूसरों को उसका दर्शन नहीं हो पाता।

✍🏻 ~-विनोबा भावे
📖 अखण्ड ज्योति 1967 अगस्त पृष्ठ 1

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...