गुरुवार, 16 मार्च 2017

👉 आज का सद्चिंतन 17 March 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 17 March 2017


👉 सूक्ष्म शरीर से दिया आश्वासन

🔴 पति के रेल सेवा से मुक्त होने के बाद हमने अपना मकान लखनऊ में बनाया। गुरुदेव की कृपा से मकान बहुत शीघ्र ही बन गया। अपने द्वारा बनाए घर में रहने की इच्छा पूर्ण हुई। हम सब बहुत खुश थे। सारी व्यवस्था बन जाने के बाद गृह प्रवेश का कार्यक्रम गायत्री जयंती के दिन तय किया गया। गर्मी का मौसम था। तपिश काफी हो रही थी। दोपहर में लू भी काफी चल रही थी, लेकिन गायत्री जयंती का पर्व नजदीक था। इसलिए हम लोगों ने दिन रात मेहनत कर दिनांक २ जून १९९० को गृहप्रवेश का कार्यक्रम रखा। हम सभी लोग बहुत उत्साहित थे। गायत्री जयंती पर्व और गृहप्रवेश दोनों एक साथ होने से खुशी दोगुनी हो गई थी। कार्यक्रम यज्ञ संस्कार द्वारा बहुत ही अच्छे ढंग से हो गया था। आने जाने वाले परिचित व आस- पड़ोस के लोग जा चुके थे। सभी कार्य अच्छी तरह सम्पन्न होने के कारण हम बहुत प्रसन्न थे। गर्मी बहुत थी, किन्तु सभी के मन में खुशियों की ठण्डी- ठण्डी लहर दौड़ रही थी। शाम होते- होते हल्की- हल्की हवा भी बहने लगी। यज्ञीय ऊर्जा से वातावरण अभी भी सुगन्धित हो रहा था।

🔵 शाम के समाचार का समय था। रेडियो खोला गया। सभी लोग समाचार सुनने लगे। मुख्य समाचार में ही गुरु देव के ब्रह्मलीन होने का समाचार मिला। आनन्द का वह अवसर पलभर में शोक पूर्ण हो उठा। सभी के मन बहुत व्यथित और व्याकुल थे। मन में न जाने कितनी आशंकाएँ उठ रही थीं। आज गृहप्रवेश किया और हमारे गुरु देव नहीं रहे। पता नहीं यह घर भविष्य में क्या- क्या दिन दिखाएगा। दूसरी बात यह भी मन को रह- रह कर परेशान करती थी कि अब हमारी दुःख तकलीफ परेशानी कौन सुनेगा? जब- जब हमारे ऊपर मुसीबत आती थी, गुरु देव हम सबकी समस्या का समाधान करते थे। अब कहाँ जाएँगे समाधान के लिए? हजारों सवाल मन में उठ रहे थे। परेशान तो सभी लोग थे, लेकिन कोई भी किसी से बात नहीं कर रहा था। सभी शोक में डूबे थे। नींद नहीं आ रही थी। रात भी हो चुकी थी। सोचते- सोचते मुझे हल्की- सी झपकी आ गई।

🔴 मैंने स्वप्न देखा कि घर में जिस जगह पर यज्ञ हुआ था, उसी जगह पर यज्ञाग्नि प्रज्ज्वलित हो रही है। यज्ञ की लपटें ऊँची- ऊँची उठ रही हैं। परम पूज्य गुरु देव यज्ञ कुण्ड के चारों ओर धीरे- धीरे चक्कर लगा रहे हैं और मुझे समझा रहे हैं ‘‘तू इतनी चिन्ता क्यों कर रही है। मैं हूँ न तुम्हारे पास। मैं यहाँ हमेशा रहूँगा तू चिन्ता करना छोड़।’’ अचानक मेरी आँखें खुल गईं। आँखों के आगे बार- बार वही दृश्य आता रहा। मन में बहुत ग्लानि हुई कि मैं तो गुरु देव को केवल शरीर तक ही जानती थी। उसी दिन उनके विराट् स्वरूप का ज्ञान हुआ कि गुरु देव हर समय हर क्षण अपने बच्चों के साथ रहते हैं।

🔵 तब से अब तक कुछ भी परेशानी होती है तो गुरु देव का आश्वासन याद आता है कि कुछ अनिष्ट नहीं होगा। गुरु देव की सूक्ष्म सत्ता हमारी रक्षा कर रही है।

🌹 सरस्वती श्रीवास्तव, लखनऊ, (उत्तर प्रदेश)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/subtel

👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 22)

🌹 परिष्कृत प्रतिभा, एक दैवी अनुदान-वरदान  

🔴 इंग्लैण्ड की एक महिला कैंसर रोग से बुरी तरह आक्रान्त थी। डॉक्टरों ने उसे जवाब दे दिया कि अब छ: महीने से अधिक जीने की गुञ्जाइश नहीं है। जिस मशीन से उपचार हो सकता था, वह करोड़ों मूल्य की थी, जिसे अपने यहाँ रखने में कोई डॉक्टर समर्थ नहीं था। रोगी महिला ने नए सिरे से नया विचार किया। जब छ: महीने में मरना ही है, तो अन्य अपने जैसे निरीहों के प्राण बचाने की कोशिश क्यों न करें? उसने टेलीविजन पर एक अपील की कि यदि तीन करोड़ रुपए का प्रबन्ध कोई उदारचेता कर सके, तो उस मशीन के द्वारा उस जैसे निराशों को जीवन-दान मिल सकता है। पैसा बरसा। उससे एक नहीं तीन मशीनें खरीद ली गई और इतना ही नहीं कैंसर का एक साधन-सम्पन्न अस्पताल भी बन गया। रोगिणी इन्हीं कार्यों में इतने दत्तचित्त और मस्त रही कि उसे अपने मरने की बात का स्मरण तक न रहा। कार्य पूरा हो जाने पर उसकी जाँच-पड़ताल हुई, तो पाया गया कि कैंसर का एक भी चिह्न उसके शरीर में बाकी नहीं रहा है।                      

🔵 अस्पताल की चारपाई पर पड़े-पड़े वाल्टेयर ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की थी। कालिदास और वरदराज की मस्तिष्कीय क्षमता कितनी उपहासास्पद थी, इसकी जानकारी सभी को है, पर वे जब नया उत्साह समेटकर नए सिरे से विद्या पढ़ने में जुटे, तो मूर्धन्य विद्वानों में गिने जाने लगे। व्यक्ति की अन्त:चेतना, जिसे प्रतिभा भी कहते हैं, इतनी सबल है कि अनेकों अभावों और व्यवधानों को रौंदती हुई, वह उन्नति के उच्च शिखर तक जा पहुँचने में समर्थ होती है। प्रतिभा वस्तुत: वह सम्पदा है, जो व्यक्ति की मनस्विता, ओजस्विता, तेजस्विता के रूप में बहिरंग में प्रकट होती है। यदि प्रसुप्त को उभारा जा सके, स्वयं को खराद पर चढ़ाया जा सके, तो व्यक्ति असम्भव को भी सम्भव बना सकता है। यह अध्यात्म-विज्ञान का एक सुनिश्चित सिद्धान्त एवं अटल सत्य है।        
   
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 सिंक्लेयर स्वस्थ हो गये कैसे?

🔵 'दि जंगल' और 'आयल' आदि प्रसिद्ध उपन्यासों के रचयिता डॉ० अप्टन सिंक्लेयर अमेरिका के विद्वान् लेखक थे। अपना साहित्यिक कार्य वे दिन के १४-१४ घंटे तक करते थे। पर्याप्त विश्राम और जीवन में मनोविनोद का अभाव होने के साथ ही उनकी दिनचर्या भी स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक थीं।

🔴 सिंक्लेयर यद्यपि शराब न पीते, चाय और तंबाकू आदि का प्रयोग न करते थे पर असंयम, समय पर भोजन न करना, जब करना तो भूख से अधिक कर जाना मिर्च-मसालों का उपयोग यह आदतें ही कौन-सी चाय तंबाकू के विष से कम थी। सिंक्लेयर का स्वास्थ्य गिरने लगा। आए दिन जुकाम, खॉसी और बुखार। उनकी साहित्यिक गतिविधियाँ ठप्प पड गई और सामान्य जीवन का भी चलाना कठिन हो गया। आदतें खराब कर लेने पर जो स्वास्थ्य पर दबाव किसी अन्य व्यक्ति पर हो सक्ता था सिंक्लेयर भी उस कष्ट से कैसे बच पाते ?

🔵 वे कुछ दिन जी० एच० कैलाग के बैटल क्रीक सैनिटोरियम में रहे, अच्छी-से-अच्छी दवाइयां की तत्काल तो कुछ आराम मिलता पर दवाओं की प्रतिक्रिया किसी अन्य रूप में फूट पडती। एक तरफ से अच्छे होते और दूसरी ओर नई बीमारी में जकड़ जाते। सिंक्लेयर का जीवन आफत का पुतला बन गया।

🔴 एक दिन उनकी एक महिला से भेंट हुई। यह स्त्री पहले गठिया, जुकाम अग्निमांद्य और नाडी-विकार से पीडित होने के कारण बिल्कुल निर्बल और कांतिविहीन थी, पर इस बार जब वह सिंक्लेयर से मिली तो ऐसी स्वस्थ और सौंदर्ययुक्त दिखाई दे रही थी जैसे इस जीवन में कभी रोग का शिकार हुई ही न हो।

🔵 सिंक्लेयर ने पूछा- ''देवी जी, आपके इस उत्तम स्वास्थ्य का रहस्य क्या है? तो उस भद्र महिला ने बताया- 'उपवास। मैने प्रारंभ में आठ दिन का उपवास किया। प्रारंभ में दो दिन कुछ कठिनाइ जान पड़ी पर तुरंत मुझे पता चला कि मेरे शरीर के दूषित तत्त्व टूट रहे है। कई दिन तक तबियत खराब रही। पसीना, भूक और शरीर से बदबू आती रही और जब उपवास तोडा तो सबसे निचली सतह से रक्त के तेज-कण निकलने लगे, रोग मिटने लगे, भूख बढने लगी। नया खून बढा, शरीर मे ताजगी आई। सौंदर्य और स्वास्थ्य उसी की देन है।''

🔴 सिंक्लेयर को मानो खोये हुए स्वास्थ्य को पाने का एक नया रास्ता मिल गया। उन्होंने पहला उपवास व्रत ११ दिन का रखा ग्यारहवें दिन संतरे का रस लेकर उपवास तोडा। उसके बाद अट्ठाइस दिन तक दुग्ध-कल्प किया। आहार में जब आए तो बिल्कुल हल्के अणुओं वाले खाद्य पदार्थ कुछ दिन तक लेते रहे। उपवास के नियमों का कडाई से पालन किया।

🔵 बारह दिन के उपवास में वजन १७ पौंड घट गया था, चिंतित हो उठे पर उस प्रयोग के मूर्तिमान् लाभ वे देख चुके थे, इसलिए घबराए नहीं। दस दिन के दुग्ध कल्प में उनका वजन २३ पौंड बढ गया और उसके बाद तो उनका शरीर ही चमकने लगा। इससे उन्हें इतनी प्रसत्रता हुई कि कुछ दिन तक अपना सारा ध्यान उपवास द्वारा आरोग्य की उपलब्धि पर केंद्रित रखा। अपने अनुभव बताते हुए वे लिखते हैं- उपवास को मैं अपने जीवन की निधि मानता हूँ मेरा विश्वास है कि छोटे रोग तो उपवास से ऐसे ही दूर किए जा सकते है कि दुबारा होने का डर ही न रहे।"

🔴 सिंक्लेयर के अनुभव का लाभ बाद में उनकी धर्मपत्नी ने भी उठाया। वे भी कमजजोरी, वजन की कमी व नाडी़ दौर्बल्य से बचीं। उपवास द्वारा कई महिलाओं ने भी लाभ उठाए।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 85, 86

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 38)

🌹 श्रेष्ठ व्यक्तित्व के आधार सद्विचार
🔴 इसी सन्दर्भ में एक गुरु ने अपने एक अविश्वासी शिष्य की शंका दूर करने के लिए उसे प्रायोगिक प्रमाण दिया—उन्होंने उस शिष्य को बड़े-बड़े सींगों वाला एक भैंस दिखाकर कहा कि इसका यह स्वरूप अपने मन पर अंकित करके और इस कुटी में बैठकर निरन्तर उसका ध्यान तब तक करता रहे जब तक वे उसे पुकारें नहीं। निदान शिष्य कुटी में बैठा हुआ बहुत समय तक उस भैंसे का और विशेष प्रकार से उसके बड़े-बड़े सींगों का स्मरण करता रहा। कुछ समय बाद गुरु ने उसे बाहर निकलने के लिए आवाज दी।

🔵 शिष्य ने ज्यों ही खड़े होकर दरवाजे में शिर डाला कि अटक कर रुक गया। ध्यान करते-करते उसके सिर पर उसी भैंसे की तरह बड़े-बड़े सींग निकल आये थे। उसने गुरु को अपनी विपत्ति बतलाई और कृपा करने की प्रार्थना की। तब गुरु ने उसे फिर आदेश दिया कि वह कुछ समय उसी प्रकार अपने स्वाभाविक स्वरूप का चिन्तन करे। निदान उसने ऐसा किया और कुछ समय में उसके सींग गायब हो गये।

🔴 आख्यान भले ही सत्य न हो किन्तु उसका निष्कर्ष अक्षरशः सत्य है कि मनुष्य जिस बात का चिंतन करता रहता है, जिन विचारों में प्रधानतया तन्मय रहता है वह उसी प्रकार का बन जाता है।

🔵 दैनिक जीवन के सामान्य उदाहरणों को ले लीजिए। जिन बच्चों को भूतप्रेतों की काल्पनिक कहानियां तथा घटनायें सुनाई जाती रहती हैं वे उनके विचारों में घर कर लिया करती हैं, और जब कभी वे अंधेरे उजाले में अपने उन विचारों से प्रेरित हो जाते हैं तो उन्हें अपने आस-पास भूत-प्रेतों का अस्तित्व अनुभव होने लगता है जबकि वास्तव में वहां कुछ होता नहीं है। उन्हें परछाइयों तथा पेड़-पौधों तक में भूतों का आकार दिखलाई देने लगता है। यह उनके भूतात्मक विचारों की ही अभिव्यक्ति होती है जो उन्हें दूर पर भूतों के आकार में दिखलाई देती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 16)

🌹 आत्मबल से उभरी परिष्कृत प्रतिभा
🔵 कठिनाइयों को निरस्त करने वाला साहस अपने आप में ईश्वरीय अनुग्रह है। राजनीतिक, सामाजिक एवं बौद्धिक क्रांतिकारियों की सफलताएँ उनके साहस के साथ जुड़ी हैं। दुस्साहसियों में नेपोलियन जैसे मनुष्यों की गणना प्राय: होती रहती है। इंग्लैण्ड के ऊपर जब जर्मनी की बेतहाशा बमबारी हो रही थी और उस देश के पराजित होने का अंदेशा नागरिकों के मन पर बुरी तरह छाया हुआ था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री ने एक नारा दिया था-वी फॉर विक्ट्री। यह नारा घर-घर पर अंकित कर दिया गया और जनता में नये सिरे से उत्साह जगाया गया कि जीतेगा अंतत: इंग्लैण्ड ही।    

🔴 इन दोनों से जनजीवन में नया मनोबल उभरा और उसके सहारे उभरते पराक्रम ने इंग्लैण्ड की हारती बाजी को जिताकर दिखाया। दुष्प्रयोजनों के लिये तो लुटेरे-हत्यारे भी साहस दिखाते रहते हैं, पर ऊँचे उद्देश्यों के लिये जब भी साहस उभरता है, तब उसके पीछे साधनों की कमी होते हुए भी मनोबल का ऐसा प्रचण्ड प्रवाह उभरता है, जिसके सहारे पराजय विजय में बदल जाती है। ऐसा सत्साहस प्राय: दैवी ही होता है। क्षुद्रस्तर के प्राणी तो स्वार्थसिद्धि की लड़ाई ही लड़ते देखे गये हैं। मुहल्लों में कुत्तों जैसी लड़ाई होती तो कहीं भी देखी जाती है।     

🔵 अगले दिनों प्रतिभाओं को युगपरिवर्तन के लिये ऐसा कुछ पराक्रम करना पड़ेगा, जिसे अभूतपूर्व और ऐतिहासिक कहा जा सके; क्योंकि इतने व्यापक क्षेत्र में इतने बड़े और इतने कष्टसाध्य परिवर्तन प्रस्तुत करने का अवसर कदाचित् पृथ्वी पर पहली बार ही मिला है। राजाओं और सामंतों की सेना अपने साधकों के बल पर लड़कर हारती और जीतती रही है, पर ऐसा प्रथम अवसर है, जब अधिकांश राजा-प्रजा का विकृत चिंतन और चरित्र नये सिरे से अभ्यास से पूर्व ही उत्कृष्टता की दिशा में ढाला गया है और उसके लिये वरिष्ठ प्रतिभाओं को आगे बढ़कर बुद्ध के धर्म-चक्र प्रवर्तन जैसी भूमिका निभाने के लिये सामूहिक रूप से समुद्यत होना पड़ेगा।

🔴 इसके लिये दैवी अनुदान आवश्यक है। यदि वह न बन पड़े तो मौसम की प्रतिकूलता की बड़ी सैन्यसज्जा को आगे बढ़ने से रोक देती है। फिर इतने बड़े अभियान में तो साधन-रहित वर्ग के लिये छोटी-छोटी कठिनाइयाँ ही प्रगति का पथ अवरुद्ध कर सकती हैं; उल्टे संकट खड़े कर सकती हैं। पीछे की हवा हो तो पैदल अथवा वाहन सरलतापूर्वक तेज दौड़ लेते हैं, जबकि सामने की तेज हवा हा दबाव पथ में पग-पग पर रोकथाम करता है।      
   
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞     🌿🌞     🌿🌞

👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 20)

🌹 प्रगति के कदम-प्रतिज्ञाएँ

🔴 दो कदम जीवन की उन्नति और प्रगति के लिए हैं। उनमें से एक- एक कदम उसी समय बढ़ा लेना चाहिए   

🔵 १- पाप घटाएँ- विचार करना चाहिए कि हमारे शारीरिक- मानसिक और आध्यात्मिक पाप क्या- क्या हैं? और जो पाप अब तक हम करते रहे हैं? उनमें से एक पाप को छोड़ ही देना चाहिए।  

🔴 शारीरिक पापों में मैं हमेशा ऐसे तीन पापों को प्रमुखता देता रहा हूँ। एक पाप- मांस खाना। मांस खाना मनुष्यता के विरुद्ध है। हृदयहीन मनुष्य ही मांस खा सकता है। हृदयवान व्यक्ति और दयावान व्यक्ति मांस नहीं खा सकता है। इसीलिए मांस खाना छोड़ना चाहिए। दूसरे पाप भी इसी तरह के हैं, जो मनुष्य को खोखला बनाते हैं। मनुष्य को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्थिति से कमजोर करते हैं, आदमी को इससे कुछ फायदा नहीं है। नशे की बात और माँसाहार की बात, व्यभिचार की बात, स्त्रियों को पतिव्रता होना चाहिए और पुरुषों को पत्नीव्रत होना चाहिए।

🔵 शारीरिक पाप ! शारीरिक पापों में समय का दुरुपयोग करना और आलसी आदमी के तरीके से पड़ा रहना। आलस्य एक बहुत बुरे किस्म का पाप है। इससे समाज का उत्पादन घटता है, मनुष्य की क्षमताएँ नष्ट होती है और समय का अपव्यय होता है। एक- एक साँस और एक- एक क्षण भगवान् ने जो हमको जीवन हीरे और मोतियों के तरीके से दिया है, उन्हें हम पैरों के तले रौंद डालते हैं और हम आलसी के तरीके से जीते हैं और समय का अपव्यय करते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Diksha/d.2

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 77)

🌹 मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग

🔴 गायत्री परिवार का संगठन करने के निमित्त, महापुरश्चरण की पूर्णाहुति के बहाने हजार कुण्डीय यज्ञ मथुरा में हुआ था। उसके सम्बन्ध में यह कथन अत्युक्तिपूर्ण नहीं है कि इतना बड़ा आयोजन महाभारत के उपरांत आज तक नहीं हुआ।

🔵 उसकी कुछ रहस्यमयी विशेषताएँ ऐसी थीं, जिनके सम्बन्ध में सही बात कदाचित् ही किसी को मालूम हो। एक लाख नैष्ठिक गायत्री उपासक देश के कोने-कोने से आमंत्रित किए गए। वे सभी ऐसे थे जिनने धर्मतंत्र से लोक शिक्षण का काम हाथों-हाथ सँभाल लिया और इतना बड़ा हो गया जितना कि भारत के समस्त धार्मिक संगठन मिलकर भी पूरे नहीं होते। इन व्यक्तियों से हमारा परिचय बिल्कुल न था, पर उन सबके पास निमंत्रण पत्र पहुँचे और वे अपना मार्ग व्यय खर्च करके भागते चले आए। यह एक पहेली है, जिसका समाधान ढूँढ़ पाना कठिन है।

🔴 दर्शकों की संख्या मिलाकर दस लाख तक प्रतिदिन पहुँचती रही। इन्हें सात मील के घेरे में ठहराया गया था। किसी को भूखा नहीं जाने दिया। किसी से भोजन का मूल्य नहीं माँगा गया। अपने पास खाद्य सामग्री मुट्ठी भर थी। इतनी जो एक बार में बीस हजार के लिए भी पर्याप्त न होती, पर भण्डार अक्षय हो गया। पाँच दिन के आयोजन में प्रायः ५ लाख से अधिक खा गए। पीछे खाद्य सामग्री बच गई जो उपयुक्त व्यक्तियों को बिना मूल्य बाँटी गई, व्यवस्था ऐसी अद्भुत रही, जैसी हजार कर्मचारी नौकर रखने पर भी नहीं कर सकते थे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/mathura

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 78)

🌹 हमारे दृश्य जीवन की अदृश्य अनुभूतियाँ

🔴 साधना के तीसरे चरण में प्रवेश करते हुए- ''आत्मवत सर्वभूतेषु'' की किरणें फूट पड़ीं। मातृवत पर दारेषु और परद्रव्येषु लोष्ठवत की साधना अपने काय कलेवर तक सीमित थी। दो आँखों में पाप आया तो तीसरी विवेक की आँखे खोलकर उसे डराकर भगा दिया। शरीर पर कड़े प्रतिबन्ध लगा दिये और वैसी परिस्थितियाँ बनने की जिनमें आशंका रहती है उनकी जड़ काट दी, तो दुष्ट व्यवहार असम्भव हो गया। मातृवत परदारेषु की साधना बिना अड़चन के सध गई। मन ने सिर्फ आरम्भिक दिनों में ही हैरान किया। शरीर ने सदा हमारा साथ दिया।      

🔵 मन ने जब हार स्वीकार कर ली तो वह हताश होकर हरकतों से बाज आ गया। पीछे तो वह अपना पूरा मित्र और सहयोगी ही बन गया। स्वेच्छा से गरीबी कर लेने- आवश्यकताएँ घटाकर अन्तिम बिन्दु तक ले जाने और संग्रह की भावना छोड़ने से ''परद्रव्य'' का आकर्षण चला गया। पेट भरने के लिए, तन ढकने के लिए जब स्व- उपार्जन ही पर्याप्त था तो ''परद्रव्य'' के अपहरण की बात क्यों सोची जाय ?? जो बचा, जो मिला- सो देते बाँटते ही रहे। बाटने और देने की चस्का जिसे लग जाता है, जो उस अनुभूति का आनन्द लेने लगता है उसे संग्रह करते बन नहीं पड़ता।

🔴 फिर किस प्रयोजन के लिए परद्रव्य का पाप कमाया जाय ?? गरीबी का, सादगी का अपरिग्रही ब्राह्मण जीवन अपने भीतर एक असाधारण आनन्द, सन्तोष और उल्लास भरे बैठा है। इतनी अनुभूति यदि लोगों को हो सकी होती तो शायद ही किसी का मन परद्रव्य की पाप पोटली सिर पर लादने को करता। अपरिग्रही कहने भर से नहीं वरन उसका अनुदान देने की प्रतिक्रिया अन्त:करण पर कैसी अनोखी होती है, उसे कोई कहाँ जानता है ?? पर अपने को तो यह दिव्य विभूतियों का भण्डार अनायास ही हाथ लग गया। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books/sunsaan_ke_shachar/hamare_drash_jivan

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...