शुक्रवार, 13 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 47) :-- गुरु के स्वर को हृदय के संगीत में सुनें

🔴  भले ही अभी यह छिपा हो, ढंका हो और यहाँ अभी केवल शून्यता नजर आती हो, पर है यह अवश्य। इसके स्पर्श मात्र से हृदय श्रद्धा, आशा एवं प्रेम से भर उठेगा। स्थिति इसके उलट भी है, यदि हम अपने हृदय को श्रद्धा, आशा एवं प्रेम से से भर दें, तो भी यह दिव्य संगीत हमारे अन्तस में गुंजने लगेगा। ध्यान रहे यदि हमने भूल से पाप के पथ पर पाँव रख दिए तो फिर इस संगीत को कभी भी न सुना जा सकेगा। क्योंकि जो पाप पथ पर चलता है, वह अपने अन्तस की गहराइयों में कभी नहीं उतर पाता। वह अपने कानों को इस दिव्य संगीत के प्रति मूंद लेता है। अपनी आँखों को वह अपनी आत्मा के प्रकाश के प्रति अंधी कर लेता है। उसे अपनी वासनाओं में लिप्त रहना आसान जान पड़ता है।

🔵  तभी वह ऐसा करता है। दरअसल ऐसा व्यक्ति परम आलसी होता है। वह जीवन की ऊपरी पथरीली सतह को ही सब कुछ मान लेता है। उस बेचारे को नहीं मालुम कि जिन्दगी की इस पथरीली की जमीन के नीचे एक वेगवती धारा बह रही है। समस्त कोलाहल के अन्तस में सुरीला संगीत प्रवाहित हो रहा है। यह अविरल प्रवाह न तो कभी रुकता है और न कभी थमता है। सचमुच ही गहरा स्रोत मौजूद है, उसे खोज निकालो। तुम इतना जान लो कि तुम्हारे अन्दर निःसन्देह वह परम संगीत मौजूद है। उसे ढुंढने में लग जाओ, थको- हारो मत। यदि एक बार भी तुम उसे अपने में सुन सके, तो फिर तुम्हें यह संगीत अपने आस- पास के लोगों के अन्तस में झरता- उफनता नजर आएगा।

🔴  इस सूत्र में साधना का परम स्वर है। इसमें जो कहा गया है, जीवन की परिस्थितियाँ उससे एकदम उलट हैं। हमारे जीवन में संगीत नहीं कोलाहल भरा हुआ है। बाहर भी शोर है और अन्तस में भी शोर मचा हुआ है। चीख, पुकारों के बीच हम जी रहे हैं। ऐसे में जीवन के संगीत की बात अटपटी लगती है। लेकिन इस अटपटे पन के भीतर सच है। पर गहरे में उरतने की जरुरत है। गहरे में उतरा जा सके तो ऊपरी दुनियाँ को भी संवारा जा सकता है, सजाया जा सकता है। सन्त कबीर ने भी यही बात अपने दोहे में कही है-

जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठि।
मैं बपुरा बुढ़नडरा, रह किनारे बैठि॥
     
यानि कि जो खोजते हैं, वे पाते हैं। पर उन्हें गहरे में डुबकी लगानी पड़ती है। जो डुबने से डरते है, वे तो बस किनारे बैठे रह जाते हैं। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/gurua

👉 हम राजनीति में भाग क्यों नहीं लेते?



🔴 हम और हमारा संगठन राजनीति में क्यों प्रवेश नहीं करते, इसके सम्बन्ध में लोग हमें उलाहना देते और भूल सुधारने के लिये आग्रह करते हैं। वे जानते हैं कि हम शासन तंत्र में प्रवेश करने में बहुत दूर तक सफल हो सकते हैं। इसलिए उनकी और आतुरता आदि भी अधिक रहती हैं कितनी ही राजनैतिक पार्टियों द्वारा अपनी और आकर्षित करने और प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में सम्मिलित होने के लिए डोरे डाले जाते रहते हैं और उसके बदले ने हमें किस प्रकार सन्तुष्ट कर सकते हैं, इसकी पूछताछ करते रहते हैं यह सिलसिला मुद्दतों से चलता रहा है और जब तक हम विदाई नहीं ले लेते तब तक चलता ही रहेगा और हो सकता है कि यह परिवार वर्तमान क्रम से आगे बढ़ता रहा और सशक्त बनता रहा तो इस प्रकार के दबाव उस पर आगे भी पड़ते रहे।

🔵 इस संदर्भ में हमारा मस्तिष्क बहुत ही साफ है। शीशे की तरह उसमें पूर्ण स्वच्छता है। बहुत चिन्तन और मनन के बाद हम एक निष्कर्ष पर पहुँचें है और मनन के बाद हम एक निष्कर्ष पर पहुँचे है और बिना लाभ-लपेटे, दिपाव व दुराव के अपनी स्वतन्त्र नीति-निर्धारण करने में समर्थ हुए हैं हम सीधे राजनीति को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका संपादित करेंगे और यही अन्त तक करते रहेंगे। अपना संगठन यदि अपने प्रभाव और प्रकाश को सर्वथा तिरस्कृत नहीं कर देता तो उसे भी इसी मार्ग पर चलते रहना होगा।

🔴 भारत की वर्तमान राजनैतिक रीति नीतियों-शासन की गतिविधियों और तंत्र की कार्यप्रणाली पर आमतौर से सभी को असन्तोष है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की लम्बी अवधि में जो हो सकता था वह नहीं हुआ। तथाकथित आर्थिक प्रगति की बात भी विदेशी ऋण और युद्ध स्थिति तथा बढ़ती हुई बेकारी, गरीबों को देखते हुए खोखली है। नैतिक स्तर ऊपर से नीचे तक बुरी तरह गिरा है। विद्वेष और अपराधों कीक प्रवृत्ति बहुत पनपी है-गरीब अधिक गरीब बने है और अमीर अधिक अमीर। शिक्षा की वृद्धि के साथ-साथ जो सत्प्रवृत्तियाँ बढ़नी चाहिए थी, इस दिशा में चोर निराशा ही उत्पन्न हुई है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में देश की साख बढ़ी नहीं घटी है। मित्रों की संख्या घटती और शत्रुओं की संख्या बढ़ती जा रही है। शासन में कामचोरी और रिश्वतखोरी की प्रवृत्ति बहुत आगे बढ़ है और भी बहुत कुछ ऐसा ही हुआ है जो आँखों के सामने प्रकाश नहीं अँधेरा ही उत्पन्न करता है। अपनी इस राजनैतिक एवं प्रशासकीय असफलता पर हम में से हर कोई चिन्तित और दुखी है। स्वयं शासक वर्ग भी समय-समय पर अपनी इन असफलताओं की स्वीकार करते रहते हैं। जिन्हें अधिक क्षोभ है, वे उदाहरण प्रस्तुत करके शासनकर्त्ताओं की कटु शब्दों में भर्त्सना करते सुने जाते हैं और अमुक पार्टी को हटाकर अमुक पाटी के हाथ में शासन सौंपने की बात का प्रतिपादन करते हैं।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें पृष्ठ 3.92

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...