बुधवार, 7 जुलाई 2021

👉 सच्चे साधकों की परीक्षा

असुरता इन दिनों अपने चरम उत्कर्ष पर हैं। दीपक की लौ जब बुझने को होती है तो अधिक तीव्र प्रकाश फेंकती और बुझ जाती है। असुरता भी जब मिटने को होती है तो जाते-जाते कुछ ना कुछ करके जाने की ठान लेती है। इन दिनों हो भी यही रहा है। असुर का अपने नए तेवर और नए हथियार के साथ आक्रमण करने पर उतारू है। यह भ्रम, अश्रद्धा, लांछन, लोकापवाद फैलाने तथा कोई आक्रमण करने या दुर्घटना उत्पन्न करने जैसे किसी भी रूप में हो सकता है। असुरता इस प्रकार के अपने षडयंत्रों को सफल बनाने में पूरी तत्परता के साथ लगी हुई है। उसका पूतना और ताड़का जैसा विकराल रूप देखने के लिए हम में से हरेक को तैयार रहना चाहिए।
             
समुद्र मंथन के समय सबसे पहले विष निकला था बाद में वारुणी, फिर धीरे-धीरे क्रमशः उसमें से रत्न निकलते गए। अमृत सबसे पीछे निकला था। गायत्री महायज्ञ की धर्म अनुष्ठान में भी पहले विष ही निकल रहा है ईष्यालु लोग विरोध और  विलगता करते हैं, आगे और भी अधिक करेंगे। यह इस बात की परीक्षा के लिए है कि आयोजन के कार्यकर्ताओं में किसकी निष्ठा सच्ची, किसकी झूठी है। जो दृढ़ निश्चय ही है वहीं अंत तक ठहरे तो उन्हें लाभ मिलेगा। उथले स्वभाव और बालबुद्धि वाले सहयोगी यदि हट जाएँ तो कोई हर्ज भी नहीं है। इस छाँट का काम निंदको द्वारा बड़ी सरलता से पूरा हो जाता है। दुर्बल मनो भूमि वाले लोग तनिक थी संदेहास्पद बात सुनकर भाग खड़े होते हैं भीड़ को हटाने की दृष्टि से यह पलायन उचित भी है।...........
                 
गायत्री आंदोलन के प्रभाव से अब साधकों की भीड़ भी बहुत बड़ी हो गई है इनमें उच्च श्रेणी की सच्चे साधकों की परीक्षा के लिए यह उचित भी है कि झूठे-सच्चे लोकापवाद फैलें। विवेकवान लोग इन निंदाओं का वास्तविक कारण ढूँढेंगे तो सच्चाई मालूम पड़ जाएगी और उनकी श्रद्धा पहले से भी दूनी- चौगुनी बढ़ जाएगी, और जो लोग दुर्बल आत्मा के है वे तलाश करने की झगडेमें ना पडकर सुनने मात्र से ही भाग खड़े होंगे। इस प्रकार दुर्बल आत्माओं की भीड़ सहज ही छूट जाएगी। असुरता के आक्रमणों से जहां यज्ञों में बड़ी और अड़चने पड़ती है वहाँ (1) संयोजक में दृढ़ता पुरुषार्थ का मुकाबला करने की शक्ति की अभिवृद्धि, (2) सच्चे धर्मप्रेमियों की सच्चाई जान लेने पर श्रद्धा का और अधिक विकास और (3) दुर्बल आत्माओं की अनावश्यक भीड़ की छँटनी यह यह तीन लाभ भी हैं।

📖 यज्ञ का ज्ञान विज्ञान, pg-5.8.
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Ramkrishna Paramhansa used to tell a beautiful story

Ramkrishna Paramhansa used to tell a beautiful story

A bird was flying with mouse in mouth and twenty or thirty birds were chasing him.

The bird was very worried "I am not doing anything to them, why are they chasing me?"

The other birds hit him hard, and in the conflict, in the struggle the bird opened his mouth and the mouse dropped.

Immediately the other bird opened his mouth and the mouse dropped. Immediately the other birds all flew towards the mouse;they all forgot about him.

They were not against him, they were also on the same trip - they wanted the mouse.

If people are hurting you without reason it is quiet possible you may be carrying the dead mouse !

Drop it and suddenly you will see that they have forgotten about you.

They are no longer concerned about you.

Ramkrishna dev use to conclude

People are never concerned about you they want the mouse.

Their problem is not you the mouse you are carrying. They also want the mouse...

They also want bite in the flesh...They have to push you away to get it..

Once you are in a position they aspire to then be prepared to be pushed and pulled.

So drop the mouse or it would be snatched.

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ३७)

ईश्वर की सच्चिदानन्दमय सत्ता

विश्व अस्तित्व की इकाइयां मानी गई है, (1) ईश्वर, (2) जीव, (3) प्रकृति। ईश्वर तीन गुण वाला है। सत्, चित, आनन्द। यह तीन उसके गुण हैं। सत् अर्थात् अस्तित्व युक्त। जो है, था, जो रहेगा, उस अविनाशी तत्व को सत् कहते हैं। चित् अर्थात् चेतना। जिसमें सोचने, विचारने, निर्णय करने एवं भावाभिव्यक्ति युक्त होने की विशेषताएं हैं उसे चित् कहेंगे। आनन्द—अर्थात् सुख, सन्तोष और उल्लास का समन्वय। ईश्वर अस्तित्ववान है, चैतन्य है तथा आनन्दानुभूति में पूरा है। इसलिये उसे सच्चिदानन्द कहते हैं।

जीवन के दो गुण हैं—सत् और चित्। वह अस्तित्ववान है। ईश्वर से उत्पन्न अवश्य है पर लहरों की तरह उसकी स्वतन्त्र सत्ता भी है और वह ऐसी है कि सहज ही नष्ट नहीं होती। मुक्ति में भी उसका अस्तित्व बना रहता है और निर्विकल्प, सविकल्प स्थिति में सारूप्य, सायुज्य, सालोक्य, सामीप्य का आनन्द अनुभव करता है। प्रलय में सब कुछ सिमट कर एक में अवश्य इकट्ठा हो जाता है फिर भी वह आटे की तरह एक दीखते हुये भी जीव कणों की स्वतन्त्र सत्ता बनी रहती है। मूर्छा, स्वप्न, सुषुप्ति, तुर्या एवं समाधि अवस्था में भी मूलसत्ता यथावत् रहती है। मरणोत्तर जीवन तो रहता ही है। इस प्रकार जीव की सत्—अस्तित्ववान स्थिति अविच्छिन्न रूप से बनी रहती है।

जीव का दूसरा गुण है—चित्। चेतना उसमें रहती ही है। यह चेतना ही उसका ‘स्व’ है। अहंता—ईगो—सैल्फ—आत्मानुभूति इसी को कहते हैं। तत्वज्ञानियों से लेकर अज्ञानियों तक में यह स्थिति सदैव पाई जायगी। ईश्वर में आनन्द परिपूर्ण है। जीव उसकी खोज में रहता है, उसे प्राप्त करने के लिये विविध प्रयास करता है। और न्यूनाधिक मात्रा में, भले बुरे रूप में उसी की प्राप्ति के लिये लालायित और यत्नशील रहता है।

प्रकृति में एक ही गुण है, सत्। उसका अस्तित्व है। अणु परमाणुओं के रूप में—दृश्य और अदृश्य प्रक्रिया के साथ जगत की सत्ता के रूप में प्रकृति को देखा जा सकता है। ईश्वर और जीव दोनों का क्रिया-कलाप इस प्रकृति प्रक्रिया के साथ ही गतिशील रहता है। महाप्रलय में प्रकृति सघन होकर—पंच तत्वों की अपेक्षा एक महातत्व में विलीन हो जाती है। इस प्रकार जब कभी इस विश्व ब्रह्माण्ड की लय प्रलय होगी तब ईश्वर के सत् तत्व में प्रकृति लीन हो जायगी जीवन चित् में घुल जायेगा और उसका अपना अतिरिक्त गुण आनन्द, यथावत्—बना रहेगा।

महासृष्टि के आरम्भ का क्रम भी यही है। तत्वदर्शियों के अनुसार ब्रह्म में स्फुरणा होती है एक से बहुत होने की। वह अपने को अंश रूप में विभक्त करके एक से अनेक बनता है और जीव सत्ता का अस्तित्व विनिर्मित होता है। स्फुरणा द्वारा जीवन की उत्पत्ति के बाद उसकी दूसरी उमंग आगे आती है। वह है—इच्छा। आनन्द को निराकारिता को साकारिता में परिणत करने के लिये पदार्थ की आवश्यकता होती है। इच्छा का प्रतिफल ही आवश्यकता, आविष्कार और आविर्भाव के रूप में सामने आता है। यह प्रकृति है। स्फुरणा से जीव और इच्छा से प्रकृति का निर्माण करके ब्रह्म साक्षी और दृष्टा के रूप में सर्वत्र विद्यमान रहता है और इस जगत की सारी प्रक्रिया की स्वसंचालित पद्धति को बनाकर अपने क्रिया कर्तृत्व का आनन्द लेता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ६०
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ३७)

भगवान में अनुराग का नाम है भक्ति
    
‘‘अद्भुत हैं आप और आपके द्वारा सम्पन्न पूजा! यह तो भक्ति का अनूठा आयाम है’’, महर्षि क्रतु जो सभी ब्रह्मर्षियों के पूज्य थे, बोल पड़े।

इस पर देवर्षि कुछ पलों के मौन के बाद मुखर हो बोले-
‘पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः’॥ १६॥
पाराशर के पुत्र व्यास के अनुसार भगवान की पूजा आदि में अनुराग होना भक्ति है।
    
फिर अपने ही सूत्र की व्याख्या में देवर्षि ने कहा-‘‘प्रभु तो सर्वव्यापी और अनन्त हैं। पर भक्त उन्हें अपनी भावनाओं में बाँधता है-पूजा की प्रक्रिया से। वह परमात्मा को प्रतिस्थापित करता है-मूर्ति में, चित्र में। वह उन प्रभु को आमंत्रित करता है। वह उनसे कहता है कि इसमें आओ और विराजो। क्योंकि तुम तो हो निराकार, कहाँ और कैसे तुम्हारी आरती उतारूँ मैं? हाथ मेरे छोटे हैं, तुम छोटे बनो। तुम तो हो विराट्, कहाँ धूप-दीप सजाऊँ? मैं छोटा और सीमित हूँ, तुम मेरी सीमा के भीतर आ जाओ। तुम्हारा तो कोई ओर-छोर नहीं-कहाँ नाचूँ? किसके सामने गीत गाऊँ? तुम इस मूर्ति में बैठो।’’
    
ऐसा कहते हुए देवर्षि की वाणी भावों से भीग गयी और वह चुप हो गये। ऐसा लग रहा था जैसे कि उन्हें किसी की स्मृतियों ने घेर लिया है। उनकी यह चुप्पी गंधर्व विश्वावसु से सही न गयी। वह विनीत स्वर में बोले-‘‘हम सब पर कृपा करके अपने भावों को प्रकट करें।’’ उत्तर में देवर्षि अपने भावों की गहनता से उबरते हुए बोले-‘‘हमें चण्डाल पुत्र ‘सुगना’ की कथा याद आ रही है। यदि आप सब अनुमति दें तो मैं उस परम भगवद्भक्त की भक्तिगाथा कहूँ।’’ ‘‘अवश्य देवर्षि!’’, परम तेजस्वी अग्निशिखा की भाँति प्रज्वलित अंगिरा कह उठे-‘‘धन्य है वह सुगना जो चण्डाल होते हुए भी अभी तक अपनी भक्ति के कारण आपकी स्मृतियों में बना हुआ है।’’
    
‘‘वह था ही कुछ ऐसा भक्तिपरायण। उसके पिता भारत की धरती पर बहने वाली पवित्र गोदावरी के किनारे एक छोटे से गाँव में रहते थे। उस समय उस प्रदेश में महापराक्रमी राजा इन्द्रादित्य का शासन था। जो महावीर होने के साथ अनन्य भगवद्भक्त भी थे। उन्होंने स्थान-स्थान पर कई देवमंदिर बनवाये थे। उन्हीं के द्वारा बनवाया एक मंदिर सुगना के गाँव में भी था जिसमें गाँव के एक वृद्ध ब्राह्मण पूजा किया करते थे। बालक सुगना भी जब-तब मंदिर के सामने से गुजरता और ब्राह्मण देवता की इस पूजा प्रक्रिया को छिप-छिप करके देख लेता। उसे पुजारी ब्राह्मण के द्वारा बोले गये संस्कृत के मंत्र तो समझ में नहीं आते थे, परन्तु भगवान के श्रीविग्रह पर पुष्प चढ़ाना-नैवेद्य अर्पित करना, उनकी आरती उतारना उसे बहुत ही भाता।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ७१

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...