सोमवार, 9 अगस्त 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ४७)

ईश्वर ज्वाला है और आत्मा चिंगारी

यह तो सूक्ष्मता की चर्चा हुई। स्थूलता की—विस्तार की बात तो सोचते भी नहीं बनती। आंखों से दीखने वाले तारे अपनी पृथ्वी से करोड़ों प्रकाश वर्ष दूर हैं। प्रकाश एक सैकिण्ड में एक लाख छियासी हजार मील की चाल से चलता है। इस हिसाब से एक वर्ष में जितनी दूरी पार करली जाय वह एक प्रकाश वर्ष हुआ। कल्पना की जाय कि करोड़ों प्रकाश वर्ष में कितने मीलों की दूरी बनेगी। फिर यह तो दृश्य मात्र तारकों की बात है। अत्यधिक दूरी के कारण जो तारे आंखों से नहीं दीख पड़ते उनकी दूरी की बात सोच सकना कल्पना शक्ति से बाहर की बात हो जाती है। अपनी निहारिका में ही एक अरब सूर्य आंके गये हैं। उनमें से कितने ही सूर्य से हजारों गुने बड़े हैं। अपनी निहारिका जैसी अरबों, खरबों निहारिकाएं इस निखिल ब्रह्माण्ड में विद्यमान हैं। इस समस्त विस्तार की बात सोच सकना अपने लिए कितना कठिन पड़ेगा, यह सहज ही समझा जा सकता है।

अणु की सूक्ष्मता और ब्रह्माण्ड की स्थूलता की गइराई, ऊंचाई का अनुमान करके हम चकित रह जाते हैं। अपनी पृथ्वी के प्रकृति रहस्यों का भी अभी नगण्य-सा विवरण हमें ज्ञात हो सका है, फिर अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों की आणविक एवं रासायनिक संरचना से लेकर वहां की ऋतुओं, परिस्थितियों तक से हम कैसे जानकार हो सकते हैं। इस ग्रहों की संरचना एवं परिस्थितियां एक दूसरे से इतनी अधिक भिन्न हैं कि प्रत्येक ग्रह की एक स्वतन्त्र भौतिकी तैयार करनी होगी। हमें थोड़े से वैज्ञानिक रहस्य ढूंढ़ने और उपयोग में लाने के लिए लाखों वर्ष लगाने पड़े हैं फिर अगणित ग्रह-नक्षत्रों की—उनके मध्यवर्ती आकाश की स्थिति जानने के लिए जितना समय, श्रम एवं साधन चाहिए उन्हें जुटाया जा सकना अपने लिए कैसे सम्भव हो सकता है?

वह सृष्टि की सूक्ष्मता और स्थूलता की चर्चा हुई। इसके भीतर जो चेतना काम कर रही है उसकी दिशा धारायें तो और भी विचित्र हैं। प्राणियों की आकृति-प्रकृति की विचित्रता देखते ही बनती है। प्रत्येक की अभिरुचि एवं जीवनयापन पद्धति ऐसी है जिसका एक दूसरे के साथ कोई तालमेल नहीं बैठता। मछली का चिन्तन, रुझान, आहार, निर्वाह, प्रजनन, पुरुषार्थ, समाज आदि का लेखा-जोखा तैयार किया जाय तो वह नृतत्व विज्ञान से किसी भी प्रकार कम न बैठेगा। फिर संसार भर में मछलियों की भी करोड़ों जातियां—उपजातियां हैं और उनमें परस्पर भारी मित्रता पाई जाती है। इन सबका भी पृथक-पृथक शरीर शास्त्र, मनोविज्ञान, निर्वाह विधान एवं उत्कर्ष-अपकर्ष का अपने-अपने ढंग का विधि-विधान है। यदि मछलियों को मनुष्यों की तरह ज्ञान और साधन मिले होते तो उनने अपनी जातियों-उपजातियों का उतना बड़ा ज्ञान भण्डार विनिर्मित किया होता जिसे मानव विज्ञान से आगे न सही पीछे तो किसी भी प्रकार नहीं कहा जा सकता था। बात अकेली मछली की नहीं है।

करोड़ों प्रकार के जल-जन्तु हैं उनकी जीवनयापन प्रक्रिया एक दूसरे से अत्यधिक भिन्न है। जलचरों से आगे बढ़ा जाय तो थलचरों और नभचरों की दुनिया सामने आती है। कृमि-कीटकों से लेकर हाथी तक के थलचर—मच्छर से लेकर गरुड़ तक के नभचरों की आकृति-प्रकृति भिन्नता भी देखते ही बनती है। उनके आचार-विचार, व्यवहार, स्वभाव एक दूसरे से अत्यधिक भिन्न हैं। व्याघ्र और शशक की प्रकृति की तुलना की जाय तो उनके बीच बहुत थोड़ा सामंजस्य बैठेगा। अन्यथा उनकी निर्वाह पद्धति में लगभग प्रतिकूलता ही दृष्टिगोचर होगी। इन असंख्य प्राणियों की जीवन-पद्धति के पीछे जो चेतना तत्व काम करता है उसकी रीति-नीति कितनी भिन्नता अपने में संजोये हुए है यह देखकर जड़ प्रकृति की विचित्रता पर जितना आश्चर्य होता था। चैतन्य में भी कहीं अधिक हैरानी होती है। कहना न होगा कि सर्वव्यापी ईश्वरीयसत्ता के ही यह क्रिया कौतुक हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ७४
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ४७)

भक्तों के वश में रहते हैं भगवान

ऋषि अघोर के शब्दों की छुअन ने सभी के भावों को भिगो दिया। हर एक को यह अनुभव हो रहा था कि स्मरण हृदय से हो, समर्पण सम्पूर्ण हृदय का हो तो भक्ति प्रकट होती है। इन अनुभूति के पलों को सभी आत्मसात कर रहे थे तभी हिमालय के शुभ्र श्वेत शिखरों पर हिम पक्षियों की कलरव ध्वनि सुनायी पड़ी। इस मधुर गीत माला के साथ हिमशिखरों से बहते जलप्रपात ने अपना संगीत पिरोया। नीरव शान्त प्रकृति ने भी इस वातावरण को सुरम्य बनाने के लिए अपना अपूर्व योगदान दिया। चहुँ ओर हर्ष उल्लास, उत्साह की लहर दौड़ गयी। भक्ति की पावन सलिला तो वैसे भी सबके अन्तस में बह रही थी। इसकी पवित्रता की अनुभूति ने वहाँ भावसमाधि जैसा कुछ कर दिया था। यह स्थिति पता नहीं कब तक रहती लेकिन इसी बीच महर्षि देवल ने धीर स्वरों में कहा-‘‘अब देवर्षि अगले सूत्र का उच्चार करें।’’
    
देवर्षि जो अब तक नारायण के पादपद्मों के ध्यान में लीन थे, उनके होठों पर हल्का सा स्मित उभरा। एक पल के लिए उनके नेत्र शून्य अन्तरिक्ष में जा टिके, जैसे कि वह कुछ खोजने की चेष्टा कर रहे हैं। यह सब कुछ ऐसा भी था, जैसे कि वह बिखरी कड़ियों को जोड़ने की चेष्टा कर रहे हों। फिर मधुर स्वरों में उन्होंने उच्चारित किया-  
‘यथा ब्रजगोपिकानाम्’॥१२॥
जैसे ब्रज गोपिकाओं की भक्ति।
    
ऐसा कहते हुए देवर्षि नारद फिर से भाव समाधि में डूब गए। ब्रज का पावन स्मरण गोपियों का सौम्य, सुन्दर और पावन व्यक्तित्व- फिर बाबा नन्द एवं माता यशोदा और भी बहुत कुछ, देवर्षि के स्मृति सरोवर में अनेकों उर्मियाँ उठती-गिरती रहीं।
    
‘‘देवर्षि अपने स्मृति रस का पान हमें भी कराइए’’- ब्रह्मर्षि क्रतु के स्वरों में अनुरोध और जिज्ञासा दोनों ही थे। उन्हें मालूम था कि देवर्षि नारद तो भगवान् नारायण के अनन्य अनुरागी हैं। जब भी परात्पर प्रभु धरा पर अवतरित होते हैं, नारद अवश्य ही अपने आराध्य की लीलाओं का रस पान करने के लिए उन्हीं के आस-पास रहते हैं, इसलिए भक्ति के इन परमाचार्य के पास प्रभु लीलाओं के स्मरण व स्मृति का जो दुर्लभ कोष है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है। जो वह सहज में दे सकते हैं, लुटा सकते हैं, वह और कोई कभी भी, कहीं नहीं दे सकता। भगवान नारायण की इन अवतार लीलाओं में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाकथा तो सब तरह से अद्भुत है। इसमें भक्ति के सभी रस जैसे सम्पूर्णतया स्वयं ही समाविष्ट हो गए हैं।
    
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ८९

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...