शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

👉 ‘उपासना’ की सफलता ‘साधना’ पर निर्भर है। (भाग 2)

🔷 रंगरेज कपड़ा रंगने की प्रक्रिया उसकी धुलाई से आरम्भ करता है। यदि मैला कपड़ा रंगने के लिए दिया जाये तो पहले उसे धोवेगा। धुले हुए कपड़े पर ही रंग चढ़ना या चढ़ाया जाना सम्भव होता है। उपासना को रंगाई कह सकते हैं और साधना को धुलाई। दोनों अन्योन्याश्रित हैं। इनमें प्रधान और गौण का वर्गीकरण करना हो तो साधना को प्रधान और उपासना को गौण मानना पड़ेगा। धुला वस्त्र बिना रंगे भी अपनी गरिमा बनाये रह सकता है पर मैला वस्त्र रंग को बर्बाद करेगा और रंगरेज को बदनाम। स्वयं तो उपहासास्पद बना ही रहेगा। मैले कपड़े पर रंग चढ़ाने की सूझ-बूझ भी भोंड़ी ही मानी जायेगी इस प्रकार का किया हुआ श्रम भी सार्थक न रहेगा।

🔶 आत्मिक प्रगति के पथिक आमतौर से यही भूल करते रहते हैं और असफलता का दोष उस पुण्य प्रक्रिया को देते हैं जिसे सही ढंग से अपनाने वाले सदा कृतकृत्य होते हैं। वस्तुतः यह भूल पथिकों की नहीं उनके मार्ग-दर्शकों की है जिन्होंने बहुमूल्य महंगी वस्तु को सस्ती बताकर लोगों को आकर्षित करने भर का ध्यान रखा और यह भूल गये कि अभीष्ट प्रतिफल न मिलने पर जो निराशा और अविश्वास भरी प्रतिक्रिया उत्पन्न होगी उसका क्या परिणाम होगा। सस्ते प्रलोभनों से भ्रमाया व्यक्ति आरम्भ में अति उत्साही हो सकता है पर उसकी निराशाजनक प्रतिक्रिया नास्तिकता के रूप में ही परिणत होकर रहेगी।

🔷 अध्यात्म तत्वज्ञान के मूल आधार से अपरिचित किन्तु उसकी ध्वजा उड़ाने वाले तथाकथित गुरु लोग औंधी सीधी पुस्तकें रचकर यह मिथ्या मान्यता फैलाते रहे हैं कि अमुक पूजा अर्चा करने से उन्हें पाप फल के दण्ड भुगतने की छूट मिल जायेगी। यह प्रतिपादन लोगों को बहुत ही आकर्षक लगता है। क्योंकि अनाचार अपनाने वाले प्रत्यक्षतः सदाचार परायण लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक भौतिक सुख सुविधायें प्राप्त कर लेते हैं। छल-छद्म का परिणाम अन्ततः बुरा ही क्यों न हो पर तत्काल तो उन हथकण्डों से लाभ मिल ही जाता है। पाप-पथ अपनाने वाले असुर-देवताओं से अधिक बलिष्ठ रहे हैं यह स्पष्ट है। पीछे भले ही उनकी दुर्गति हुई हो पर आरम्भिक लाभ तो उन्हें ही मिलता है। देवत्व प्राप्ति का आरम्भिक कार्य तप साधना की कष्टकर प्रक्रिया से आरम्भ होता है। लम्बी दूर तक उस मार्ग पर चलने के बाद ही देव पुरुष आनन्द उल्लास प्राप्त करते हैं। ऐसी दशा में तात्कालिक लाभ को प्रधानता देने वाले-अदूरदर्शी लोग कुमार्गगामिता के सहारे तुरन्त लाभान्वित होने की रीति-नीति अपनाते हैं, पर उन्हें यह खुटका बना रहता है कि कभी न कभी इन कुकर्मों का कष्टकारक प्रतिफल भोगना पड़ेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मई 1972 पृष्ठ 7

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1972/May/v1.7

👉 श्रद्धा और अहंकार

🔷 ये बात उस समय की है जब महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद पांडवो ने अश्मेघ यज्ञ किया! भगवान् श्रीकृष्ण जी ने कहा :- ये यज्ञ तब पूरा माना जायेगा जब इस धरा के सभी ऋषि यहाँ भोजन ग्रहण करेंगे और आसमान में घंटा बजेगा!

🔶 तब पांडवो ने सभी ऋषियों को भोजन करवाया परन्तु घंटा नहीं बजा, तब उन्होंने "भगवान् श्रीकृष्ण" जी से पूछा की कहाँ कमी रह गई! तब "भगवान् श्रीकृष्ण" जी ने अंतर्ध्यान हो कर देखाऔर कहा की:-

🔷 दूर एक जंगल में सुपच नाम के महामुनि बैठे है वो रह गए है इसलिये घंटा नहीं बजा! पांडवो ने दूत भेज कर महामुनि को भोजन के लिए निमंत्रण भेजा ऋषि सुपच ने दूत को कहा की उनको स्वयं आना चाहिए था और दूत को वापिस भेज दिया!

🔶 तब पांडवो ने स्वयं महामुन को भोजन के लिए निमंत्रण दिया! परन्तु ऋषि सुपच ने शर्त रखी की वे तब ही जायेंगे जब उन्हें १०० अश्वमेघ यज्ञो का फल मिलेगा पांडव परेशान हो कर वापिस आ गए सारी बात "भगवान् श्रीकृष्ण" जी को बताई!

🔷 जब ये बात द्रौपदी को पता लगी तो द्रौपदी ने कहा ये मेरे ऊपर छोड दो! तब द्रौपदी ने नंगे पैर कुए से पानी लाकर खाना पकाया और नंगे पैर चल कर ऋषि सुपच को बुलाने के लिए गई वहा ऋषि सुपच ने फिर वही शर्त बताई तो द्रौपदी ने कहा की मैंने आप जैसे किसी साधू से सुना है की..

🔶 जब कोई नंगे पैर आप जैसे किसी महान संत के दर्शन करने जाता है तो उसका एक एक कदम एक एक अश्वमेघ यज्ञ के बराबर है इस तरह आप अपने १०० अश्वमेघ यज्ञ का फल लेकर बाकि मुझे दे दे!

🔷 इस तरह मुनि सुपच जी द्रौपदी की बात सुनकर द्रोपदी के साथ आ गए जब उनको खाना परोसा गया तो उन्होंने पांडवो और सारी रानियों द्वारा बनाये गए खाने को मिला लिया और खाना शुरू कर दिया, ये सब देखकर द्रौपदी के मन आया की अगर एक एक करके खाते तो द्रौपदी द्वारा बनाये गए खाने के स्वाद का भी पता लगता की कितना स्वादिष्ट बना है!

🔶 इस दोरान ऋषि ने खाना समाप्त कर दिया परन्तु घंटा फिर भी नहीं बजा! तो पांडवो ने "भगवान् श्रीकृष्ण" जी से पूछा की अब क्या कमी रह गई?

🔷 "भगवान् श्रीकृष्ण" ने कहा की ये तो सुपच जी ही बतायेगे! इस पर ऋषिसुपच ने उन्हे जवाब दिया की ये तो द्रौपदी से पूछ लो की घंटा क्यों नहीं बजा!

🔶 इस तरह जब द्रौपदी को इस बात का अहसास हुआ तो उन्होंने सुपच जी से अपने अहंकार के लिए माफ़ी मांगी तो असमान में घंटा बजा और उनका यज्ञ पूरा हुआ!

🔷 इस वृतांत के ज़रिये संतो द्वारा बताया गया है की संत महात्मा स्वाद को महत्व न देकर श्रधा को देखते है और प्रभु से आत्मा के मिलाप में अहंकार सबसे बड़ा रोड़ा है....

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 10 Feb 2018


👉 आज का सद्चिंतन 10 Feb 2018


👉 हे मनुष्य! तुम महान हो!

🔶 तुम्हारा वास्तविक स्वरूप- तुम्हारे हिस्से में स्वर्ग की अगणित विभूतियाँ आई हैं न कि नर्क की कुत्सित। तुमको वही लेना चाहिये, जो तुम्हारे हिस्से में आया है। स्वर्ग तुम्हारी ही सम्पत्ति है। शक्ति तुम्हारा जन्म सिद्ध अधिकार है। तुमको केवल स्वर्ग में प्रवेश करना है तथा शक्ति का अर्जन करना है। स्वर्ग में सुख ही सुख है। वहाँ आत्मा को न तो किसी बात की चिन्ता रहती है और न किसी प्रकार की इच्छा। तूफान मचाने वाले विकारों की आसुरी लीला या भय के भूतों का लेश भी वहाँ नहीं है। वह ‘स्वर्ग’ इस संसार में ही है। वह तुम्हारे भीतर है। उसे खोजने का प्रयत्न करो, अवश्य तुम्हें प्राप्त हो जायगा।
  
🔷 संसार में फैले हुए पाप, निकृष्टता, भय, शोक तुम्हारे हिस्से में नहीं आये हैं। मोह, शंका, क्षोभ की तरंगें तुम्हारे मानस-सरोवर में नहीं उठ सकतीं क्योंकि विक्षोभ उत्पन्न करने वाली आसुरी प्रवृत्तियों से तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं। संशय तथा शंकाओं से दबकर तुम्हें इधर-उधर मारा नहीं फिरना है। क्षण-क्षण उद्विग्र तथा उत्तेजित नहीं होना है। शान्त तथा पवित्र आत्मा में क्लेश, भय, दु:ख शंका का स्पर्श कैसे हो सकता है? यदि तुम इन कुत्सित वस्तुओं को अपनाओगे तो अवश्य ही ये तुम्हारे गले पड़ेगें और तुम्हारे जीवन की, तुम्हारी महत्वाकांक्षा की इति श्री कर देंगे।
  
🔶 तुम्हारा मनुष्य होना ही इस बात का प्रमाण है कि तुम्हारी शक्ति अपरिमित है। संसार की ओर आँख उठाकर देखो! प्रकृति पर मनुष्य का आधिपत्य है, बड़े से बड़े पशु उसके इङ्गित पर नृत्य करते हैं। ऊँची से ऊँची वस्तु पर उसका पूर्ण आधिपत्य है। उससे शक्तिशाली प्राणी पृथ्वी पर दूसरा नहीं है।
  
🔷 तुझमें शारीरिक शक्ति का भण्डार है, तेरे हाथ, पाँव, छाती, पट्ठों में शक्ति इसीलिए दी गई है कि कोई तुझे दबा न सके, तेरी बराबरी न कर सके। मनुष्य में असीम सामथ्र्य विद्यमान है, शक्ति का वृहत् पुञ्ज भरा पड़ा है। तुझे किसी के आगे हाथ पसार कर माँगने की आवश्यकता नहीं है। तू ईश्वर का महान पुत्र है। ईश्वर की शक्ति का ही तेरे अन्दर प्रकाश है। तू ईश्वर को ही अपने भीतर से कार्य करने दे। ईश्वर को स्वयं प्रकाशित होने दे। ईश्वर जैसा ही बन कर रह। ईश्वर होकर खा, पी, और ईश्वर होकर ही साँस ले, तभी तू अपनी महान् पैतृक सम्पत्ति का स्वामी बन सकेगा।
  
🔶 मनुष्य जीवन दिव्य सत्ता की एक बहुमूल्य धरोहर है, जिसे सौंपते समय उसकी सत्पात्रता पर विश्वास किया जाता है। मनुष्य के साथ यह पक्षपात नहीं है वरन् ऊँचे अनुदान देने के लिए यह प्रयोग परीक्षण है। अन्य जीवधारी शरीर भर की बात सोचते और क्रिया करते हैं, किन्तु मनुष्य को स्रष्टा का उत्तराधिकारी युवराज होने के नाते अनेकानेक कत्र्तव्य और उत्तरदायित्व निबाहने पड़ते हैं। उसी में उसकी गरिमा और सार्थकता है। यदि पेट प्रजनन तक, लोभ, मोह तक उसकी गतिविधियाँ सीमित रहें तो उसे नर-पशु के अतिरिक्त और क्या कहा जायेगा?

🔷 लोभ-मोह के साथ अहंकार जुड़ जाने पर तो बात और भी अधिक बिगड़ती है। महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उभरी अहमन्यता अनेकों प्रकार के कुचक्र रचतीं और पतन पराभव के गर्त गिरती हैं। अहंता से प्रेरित व्यक्ति अनाचारी बनता है और आक्रामक भी। ऐसी दशा में उसका स्वरूप और भी भंयकर हो जाता है। दुष्ट दुरात्मा एवं नर पिशाच स्तर की आसुरी गतिविधियाँ अपनाता है। इस प्रकार मनुष्य जीवन जहाँ श्रेष्ठ-सौभाग्य का प्रतीक था, वहाँ वह दुर्भाग्य और दुर्गति का कारण ही बनता है। इसी को कहते हैं वरदान को अभिशाप बना लेना। दोनों ही दिशाएँ हर किसी के लिए खुली हैं। जो इनमेें से जिसे चाहता है उसे चुन लेता है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप जो है।   

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 ध्यानयोग की सफलता शान्त मनःस्थिति पर निर्भर है (भाग 3)

🔶 ध्यान भूमिका की साधना में शरीर को ढीला और मन को खाली रखना चाहिए। इसके लिए शिथिलीकरण मुद्रा तथा उन्मनी मुद्रा का अभ्यास करना पड़ता है। शिथिलीकरण का स्वरूप यह है कि देह को मृतक-निष्प्राण मूर्छित, निद्रित, निश्चेष्ट स्थिति में किसी आराम कुर्सी या किसी अन्य सहारे की वस्तु से टिका दिया जाय और ऐसा अनुभव किया जाय मानो शरीर प्रसुप्त स्थिति में पड़ा हुआ है। उसमें कोई हरकत हलचल नहीं हो रही है। यह मुद्रा शरीर को असाधारण विश्राम देती और तनाव दूर करती है। ध्यानयोग के लिए यही स्थिति सफलता का पथ प्रशस्त करती है।

🔷 मन मस्तिष्क को ढीला करने वाली उन्मनी मुद्रा यह है कि इस समस्त विश्व को पूर्णतया शून्य रिक्त अनुभव किया जाय। प्रलय के समय ऊपर नील आकाश, नीचे नील जल स्वयं अबोध बालक की तरह कमल पत्र पर पड़े हुए तैरना अपने पैर का अँगूठा अपने मुख से चूसना, इस प्रकार का प्रलय चित्र बाज़ार में भी बिकता है। मन को शान्त करने की दृष्टि से यह स्थिति बहुत ही उपयुक्त है संसार में कोई व्यक्ति, वस्तु , हलचल, समस्या, आवश्यकता है ही नहीं, सर्वत्र पूर्ण नीरवता ही भरी पड़ी है- यह मान्यता प्रगाढ़ होने पर मन के लिए भोगने, सोचने, चाहने का कोई पदार्थ या कारण रह ही नहीं जाता।

🔶 अबोध बालक के मन में कल्पनाओं की घुड़दौड़ की कोई गुँजाइश नहीं रहती। अपने पैर के अँगूठे में से निसृत अमृत का जब आप ही परमानन्द उपलब्ध हो रहा है तो बाहर कुछ ढूँढ़ने खोजने की आवश्यकता ही क्या रही? इस उन्मनी मुद्रा में आस्था पूर्वक यदि मन जमाया जाय तो उसके खाली एवं शान्त होने की कोई कठिनाई नहीं रहती। कहना न होगा कि शरीर को ढीला और मन को खाली करना ध्यानयोग के लिए नितान्त आवश्यक है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि ध्यानयोग का चुम्बकत्व ही आत्मा और परमात्मा की प्रगाढ़ घनिष्ठता को विकसित करके द्वैत को अद्वैत बनाने में सफल होता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग जितना गहरा होगा उतना ही परस्पर लय होने की-सम्भावना बढ़ेगी इस एकता के आधार पर ही बिन्दु को सिन्धु बनने का अवसर मिलता है। जीव के ब्रह्म बनने का अवसर ऐसे ही लय समर्पण पर एकात्म भाव पर निर्भर रहता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1973 पृष्ठ 50
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1973/March/v1.50

👉 व्यवहार में औचित्य का समावेश करें (भाग 3)

🔷 अनगढ़ दुराग्रहियों के प्रति वैसा भाव रखा जाय जैसा रोगियों के प्रति रखा जाता है। मनोविकारग्रस्त या चरित्रभ्रष्ट व्यक्ति वस्तुतः एक प्रकार के रोगी ही हैं। उनके प्रति दृष्टिकोण ठीक उसी प्रकार का अपनाना चाहिए। बीमारियों या पागलों का इलाज तो कुशल चिकित्सक करते हैं पर उनके प्रति विद्वेष नहीं रखते। आवश्यकता पड़ने पर पागलों के हाथ-पैर भी बाँध देते हैं और सड़े फोड़ों में गहरा नश्तर भी लगाते हैं। उपदंश प्रायः वेश्यागमन से होता है। जिगर खराब करने में मद्यपान प्रधान कारण देखा गया है। कैन्सर की धूम्रपान से संगति बैठती है। डाकू भी किसी मुठभेड़ में घायल होते हैं। सेंध लगाते समय हाथ पैर तुड़वा लेने वाले चोरों की भी अस्पताल में भर्ती होती है। डाक्टर को इतनी फुरसत कहाँ जो इन कुकर्मियों का लेखा-जोखा रखे और घृणा-तिरस्कार के झंझट में पड़कर अपना सन्तुलन बिगाड़े। उसे उतना ही ध्यान रहता है कि व्याधिमुक्त करने के उत्तरदायित्व का निर्वाह किया जाय। क्षमा करने या दण्ड देने की बात वह शासन तन्त्र के जिम्मे छोड़ देता है।

🔶 अनगढ़ों के प्रति विज्ञजनों को चिकित्सक जैसा व्यवहार करना चाहिए। न तो उतना क्षमाशील बना जाय जिसमें पानी में बहने वाले बिच्छू को बार-बार निकालने और डंक-त्रास सहने जैसा अतिवाद अपनाया गया हो। साँप को दूध पिलाने पर हानि ही हानि है। दुष्टता की छूट मिलने पर वह चौगुनी उद्दण्डता बरतने पर उतारू होती है। इसलिए उपचार से विमुख नहीं होना चाहिए। न्यायाधीश यदि क्षमा करने की नीति अपनाये तो दुष्ट-दुरात्माओं से किसी सज्जन को जीवित बचा सकना कठिन है।

🔷 कर्तव्य के नाते सत्परामर्श तो हर किसी को हर स्थिति में देना चाहिए, किन्तु यह नहीं सोचना चाहिए कि कहना मान ही लिया जायेगा। हो सकता है कि श्रेष्ठ जनों की श्रेष्ठता हमसे ऊँचे स्तर की हो और अपने परामर्श व्यावहारिकता और सुविधा को ध्यान में रखकर दिये गये हों, जबकि आदर्शवादिता की कसौटी लाभ-हानि से कहीं ऊँची उठी होती है और उसमें उच्चस्तरीय निर्धारण एवं अनुकरणीय परम्परा का परिपोषण ही प्रधान होता है। इसके लिए आवश्यकतानुसार अपना विनम्र परामर्श इन्हें इस आशा से दिया जा सकता है कि कदाचित् इसका कोई भाग उन्हें अनुकूल पड़े। सूझबूझ की दृष्टि से कई बार बालक भी कोई ऐसी बात कह सकते हैं जो बड़ों के ध्यान में न आई हो, इसलिए परामर्श देने में और कुछ न सही, अपना मन तो हलका होता ही है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 How to live our life? (Part 1)

🔷 We all are here in this world for the purpose of fulfilling our duties. We are expected to live happily and in good manner but mean time not to be so busy in it that objectives of life are neglected for we will die if we allow this world to trap us.
                                           
🔶 You would have heard the story of SIMBUN, a monkey found in Africa.  It is said that hunters succeed in killing that monkey in exchange of just a handful of gram. Grams are kept in metal-pitchers which appeal SIMBUN monkey. SIMBUN comes to eat that gram and in attempt to it gets his hands into the pitcher but cannot draw out his hands for he had grabbed grams in his fist. He desires to take out his fist, also cries and apply force but could not take out. He even does not dare to leave the gram so that he could take out his hand, this situation invites the hunter to come and kill the monkey in order to obtain the skin of monkey for commercial use. I and you are almost in same situation as that of African monkey SIMBUN.
                                             
🔷 We are seen trapped like those monkeys with grips of fulfilling avarices, longings and egos just to destroy the wealth of life which we are not expected to do. We should do something to save our life. We have to get rid of our timidity because by doing so we do not loose but earn even more.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 गायत्री परिवार का उद्देश्य — पीड़ा और पतन का निवारण (भाग 18)

🔶 मित्रो! हमें छोटे-बड़े सभी आयोजनों में बहुत सफलतायें मिलती रही हैं, जन सहयोग मिलता रहा है। एक बार एक सहस्रकुण्डीय यज्ञ में हमने तीस-चालीस हजार रुपया खर्च कर डाला। हमारे पास कानी-कौड़ी भी नहीं थी, पर न जाने कहाँ से सब कुछ आता हुआ चला गया। न जाने कहाँ से व्यवस्था होती चली गयी। हमको यकीन था कि कोई महाशक्ति हमारे पीछे बैठी है। इसी तरह जब हमको विदेश जाना पड़ा तो किराये-भाड़े में चालीस-पचास हजार रुपये खर्च हो गये। उस समय हमारे पास रुपये-पैसों की दिक्कत थी और दूसरी बहुत सी दिक्कतें थीं, लेकिन हम जानते थे कि हम अकेले नहीं हैं और हमारे पास बहुत जबरदस्त बैंकिंग है।

🔷 मित्रो! आप यकीन रखना कि यह सब आपके लिए भी सुरक्षित है, लेकिन शर्त केवल यही है कि आपको अपने को स्वयं सही सिद्ध करना होगा। अगर आप स्वयं सही सिद्ध न हो सके, तो ये जो बैंकिंग है, फिर आपको उसकी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। फिर आपको यह आशा नहीं करनी चाहिए कि कहीं से कोई ऐसा समर्थन, बैंकिंग और सहायता आपको मिलेगी। अगर आप सही व्यक्ति होंगे और पूरी ईमानदारी से काम करते हुए चले जायेंगे, तो हम आपको यह आशीर्वाद दे करके विदा करते हैं कि आप यह पायेंगे कि आप समर्थ हो करके गये हैं। फिर आपके क्रियाकलापों का कोई सहयोगी न हो, ऐसी बात नहीं है। हम यहाँ से आपकी सहायता करेंगे और यहाँ से आपका समर्थन करेंगे और हम आपको आगे बढ़ायेंगे।

🔶 मित्रो! हम आपकी हर तरह से सहायता करेंगे और हर तरफ सफलता देंगे, शर्त केवल एक ही है कि आप अपने स्थान पर सही बने हुए रहें। अगर आप अपने स्थान पर सही नहीं रहेंगे, तो हमारी सहायता आपसे टक्कर खा करके वापस हमारे पास आती जायेगी। फिर आप वह काम करने में समर्थ न हो सकेंगे, जो हम आपसे कराना चाहते हैं और जिम्मेदारियाँ आप लेकर के जा रहे हैं, उसको भी आप पूरा नहीं कर सकेंगे। आप अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्यों को ध्यान में रखकर जायें। कहाँ क्या सफलता मिली और कहाँ नहीं मिली, इस पर बहुत धन मत देना। आप अपना स्वयं का कर्तव्य पूरा कर लेना।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 37)

👉 गुरु कृपा ने बनाया महासिद्ध
🔷 गुरुदेव भगवान् के महिमामय स्वरूप के अन्य रहस्यमय आयामों को प्रकट करते हुए भगवान् सदाशिव आदिमाता जगदम्बा से कहते हैं-

तस्यै दिशे सततमञ्जलिरेष आर्ये प्रक्षिप्यते मुखरितो मधुपैर्बुधैश्च।
जागर्ति यत्र भगवान् गुरुचक्रवर्ती विश्वोदयप्रलयनाटकनित्यसाक्षी॥ ५१॥
श्रीनाथादिगुरुत्रयं गणपतिं पीठत्रयं भैरवं सिद्धौघं बटुकत्रयं पदयुगं दूतीक्रमं मण्डलम्।
विरान् द्व्यष्ट-चतुष्क-षष्टि-नवकं-वीरावलीपञ्चकं श्रीमन्मालिनिमंत्रराजसहितं वन्दे गुरोर्मण्डलम्॥ ५२॥

🔶 गुरुतत्त्व के रहस्य को प्रकट करने वाले इन महामंत्रों में अनेक तरह की साधनाओं के रहस्यों का गूढ़ संकेतों में वर्णन है। भगवान् भोलेनाथ की वाणी शिष्यों के समक्ष इस रहस्य को प्रकट करती है कि गुरुदेव भगवान् में साधना, साध्य एवं सिद्धि के सारे मर्म समाए हैं। गुरुदेव सृष्टि में चल रहे उत्पत्ति एवं प्रलय रूप नाटक के नित्य साक्षी हैं। वे ही सम्पूर्ण सृष्टि के चक्रवर्ती स्वामी हैं। ऐसे गुरुदेव भगवान् जिस दिशा में भी विराज रहे हों, उसी दिशा में विद्वान् शिष्य को मन्त्रोच्चारपूर्वक सुगन्धित पुष्पों की अञ्जलि समर्पित करनी चाहिए॥ ५१॥

🔷 श्री गुरुदेव ही परमगुरु एवं परात्पर गुरु हैं। उनमें तीनों नाथ गुरु आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ एवं गोरक्षनाथ समाये हैं। उन्हीं में भगवान् गणपति का वास है। उन परम प्रभु में तंत्र साधना के तीनों रहस्य-मय पीठ-कामरूप, पूर्णगिरि एवं जालंधर पीठ स्थित हैं। मन्मथ आदि अष्ट भैरव, सभी महासिद्धों के समूह, तंत्र साधना में सर्वोच्च कहा जाने वाला विरंचि चक्र उन्हीं में है। स्कन्दादि बटुकत्रय, योन्याम्बादि दूतीमण्डल, अग्निमण्डल, सूर्यमण्डल, सोममण्डल आदि मण्डल, प्रकाश व विमर्श के युगल पद के रहस्य उन्हीं में हैं। दशवीर, चौसठ योगिनियाँ, नवमुद्राएँ, पंचवीर तथा अ से क्ष तक सभी मातृकाएँ एवं मालिनीयंत्र गुरुदेव के चेतनामण्डल में ही स्थित हैं। सभी तत्त्वों से युक्त गुरु मण्डल को मेरा बारम्बार प्रणाम है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 61

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...