शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2019

👉 सच्ची सरकार

कन्धे पर कपड़े का थान लादे और हाट-बाजार जाने की तैयारी करते हुए नामदेव जी से पत्नि ने कहा- भगत जी! आज घर में खाने को कुछ भी नहीं है। आटा, नमक, दाल, चावल, गुड़ और शक्कर सब खत्म हो गए हैं। शाम को बाजार से आते हुए घर के लिए राशन का सामान लेते आइएगा।

भक्त नामदेव जी ने उत्तर दिया- देखता हूँ जैसी विठ्ठल जीकी कृपा।
अगर कोई अच्छा मूल्य मिला, तो निश्चय ही घर में आज धन-धान्य आ जायेगा।

पत्नि बोली संत जी! अगर अच्छी कीमत ना भी मिले, तब भी इस बुने हुए थान को बेचकर कुछ राशन तो ले आना। घर के बड़े-बूढ़े तो भूख बर्दाश्त कर लेंगे। पर बच्चे अभी छोटे हैं, उनके लिए तो कुछ ले ही आना।

जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा। ऐसा कहकर भक्त नामदेव जी हाट-बाजार को चले गए।

बाजार में उन्हें किसी ने पुकारा- वाह सांई! कपड़ा तो बड़ा अच्छा बुना है और ठोक भी अच्छी लगाई है। तेरा परिवार बसता रहे। ये फकीर ठंड में कांप-कांप कर मर जाएगा।दया के घर में आ और रब के नाम पर दो चादरे का कपड़ा इस फकीर की झोली में डाल दे।

भक्त नामदेव जी- दो चादरे में कितना कपड़ा लगेगा फकीर जी?

फकीर ने जितना कपड़ा मांगा, इतेफाक से भक्त नामदेव जी के थान में कुल कपड़ा उतना ही था। और भक्त नामदेव जी ने पूरा थान उस फकीर को दान कर दिया।

दान करने के बाद जब भक्त नामदेव जी घर लौटने लगे तो उनके सामने परिजनो के भूखे चेहरे नजर आने लगे। फिर पत्नि की कही बात, कि घर में खाने की सब सामग्री खत्म है। दाम कम भी मिले तो भी बच्चो के लिए तो कुछ ले ही आना।

अब दाम तो क्या, थान भी दान जा चुका था। भक्त नामदेव जी एकांत मे पीपल की छाँव मे बैठ गए।

जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा। जब सारी सृष्टि की सार पूर्ती वो खुद करता है, तो अब मेरे परिवार की सार भी वो ही करेगा।
और फिर भक्त नामदेव जी अपने हरिविठ्ठल के भजन में लीन गए।

अब भगवान कहां रुकने वाले थे। भक्त नामदेव जी ने सारे परिवार की जिम्मेवारी अब उनके सुपुर्द जो कर दी थी।

अब भगवान जी ने भक्त जी की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया।

नामदेव जी की पत्नी ने पूछा- कौन है?

नामदेव का घर यही है ना? भगवान जी ने पूछा।

अंदर से आवाज हां जी यही आपको कुछ चाहिये भगवान सोचने लगे कि धन्य है नामदेव जी का परिवार घर मे कुछ भी नही है फिर ह्र्दय मे देने की सहायता की जिज्ञयासा हैl

भगवान बोले दरवाजा खोलिये

लेकिन आप कौन?

भगवान जी ने कहा- सेवक की क्या पहचान होती है भगतानी? जैसे नामदेव जी विठ्ठल के सेवक, वैसे ही मैं नामदेव जी का सेवक हूl

ये राशन का सामान रखवा लो। पत्नि ने दरवाजा पूरा खोल दिया।फिर इतना राशन घर में उतरना शुरू हुआ, कि घर के जीवों की घर में रहने की जगह ही कम पड़ गई। इतना सामान! नामदेव जी ने भेजा है? मुझे नहीं लगता।पत्नी ने पूछा।

भगवान जी ने कहा- हाँ भगतानी! आज नामदेव का थान सच्ची सरकार ने खरीदा है। जो नामदेव का सामर्थ्य था उसने भुगता दिया। और अब जो मेरी सरकार का सामर्थ्य है वो चुकता कर रही है। जगह और बताओ।सब कुछ आने वाला है भगत जी के घर में।

शाम ढलने लगी थी और रात का अंधेरा अपने पांव पसारने लगा था।

समान रखवाते-रखवाते पत्नि थक चुकी थीं। बच्चे घर में अमीरी आते देख खुश थे। वो कभी बोरे से शक्कर निकाल कर खाते और कभी गुड़। कभी मेवे देख कर मन ललचाते और झोली भर-भर कर मेवे लेकर बैठ जाते। उनके बालमन अभी तक तृप्त नहीं हुए थे।

भक्त नामदेव जी अभी तक घर नहीं आये थे, पर सामान आना लगातार जारी था।

आखिर पत्नी ने हाथ जोड़ कर कहा- सेवक जी! अब बाकी का सामान संत जी के आने के बाद ही आप ले आना। हमें उन्हें ढूंढ़ने जाना है क्योंकी वो अभी तक घर नहीं आए हैं।

भगवान जी बोले- वो तो गाँव के बाहर पीपल के नीचे बैठकर विठ्ठल सरकार का भजन-सिमरन कर रहे हैं। अब परिजन नामदेव जी को देखने गये।

सब परिवार वालों को सामने देखकर नामदेव जी सोचने लगे, जरूर ये भूख से बेहाल होकर मुझे ढूंढ़ रहे हैं।

इससे पहले की संत नामदेव जी कुछ कहते उनकी पत्नी बोल पड़ीं- कुछ पैसे बचा लेने थे।
अगर थान अच्छे भाव बिक गया था, तो सारा सामान संत जी आज ही खरीद कर घर भेजना था क्या?
भक्त नामदेव जी कुछ पल के लिए विस्मित हुए। फिर बच्चों के खिलते चेहरे देखकर उन्हें एहसास हो गया, कि जरूर मेरे प्रभु ने कोई खेल कर दिया है।

पत्नि ने कहा अच्छी सरकार को आपने थान बेचा और वो तो समान घर मे भैजने से रुकता ही नहीं था। पता नही कितने वर्षों तक का राशन दे गया।
उससे मिन्नत कर के रुकवाया- बस कर! बाकी संत जी के आने के बाद उनसे पूछ कर कहीं रखवाएँगे।

भक्त नामदेव जी हँसने लगे और बोले- ! वो सरकार है ही ऐसी।
जब देना शुरू करती है तो सब लेने वाले थक जाते हैं।
उसकी बख्शीश कभी भी खत्म नहीं होती।
वह सच्ची सरकार की तरह सदा कायम रहती है।

👉 आज का सद्चिन्तन Today Thought 4 Oct 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prerak Prasang 4 Oct 2019


👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ७२)

👉 संयम है प्राण- ऊर्जा का संरक्षण, सदाचार ऊर्ध्वगमन

अभी कुछ दिनों पूर्व साइकोन्यूरो इम्यूनोलॉजी के क्षेत्र में एक प्रयोग किया गया। यह प्रयोग दो विशिष्ट वैज्ञानिकों आर. डेविडसन और पी. एरिकसन ने सम्पन्न किया। इस प्रयोग में उन्होंने चार सौ व्यक्तियों को लिया। इसमें से २०० व्यक्ति ऐसे थे, जिनकी अध्यात्म के प्रति आस्था थी जो संयमित एवं सदाचार परायण जीवन जीते थे। इसके विपरीत २०० व्यक्ति इनमें इस तरह के थे जिनका विश्वास भोगविलास में था, जो शराबखानों व जुआघरों में अपना समय बिताते थे। जिनकी जीवनशैली अस्त- व्यस्त थी। इन दोनों तरह के व्यक्तियों का उन्होंने लगातार दस वर्षों तक अध्ययन किया।

अध्ययन की इस प्रक्रिया में उन्होंने देखा कि जो व्यक्ति संयम, सदाचार पूर्वक जीते हैं, वे बीमार कम होते हैं। उनमें मानसिक उत्तेजना, उद्वेग एवं आवेग बहुत कम होते हैं। ऐसे व्यक्ति प्रायः तनाव, दुश्चिंता से मुक्त होते हैं। यदि इन्हें कोई बीमारी हुई भी तो ये बहुत जल्दी ठीक हो जाते हैं। चाट लगने पर या ऑपरेशन होने पर उनकी अपेक्षा इनके घाव जल्दी भर जाते हैं। इसके विपरीत असंयमित एवं विलासी मनोभूमि वालों की स्थिति इनसे ठीक उलटा पायी गयी। इनकी जीवनी शक्ति नष्ट होते रहने के कारण इन्हें कोई न कोई छोटी- मोटी बीमारियाँ हमेशा घेरे रहती हैं। छूत की बीमारियों की सम्भावना इनमें हमेशा बनी रहती है। तनाव, दुश्चिंता, उत्तेजना, आवेग तो जैसे इनका स्वभाव ही होता है। कोई बीमारी होने पर अपेक्षाकृत ये जल्दी ठीक नहीं होते। एक ही बीमारी इन्हें बार- बार घेरती रहती है। चोट लगने या ऑपरेशन होने पर इनके घाव भरने में ज्यादा समय लगता है। इस स्थिति को एक दशक तक परखते रहने पर डेविडसन व एरिकसन ने यह निष्कर्ष निकाला कि संयम- सदाचार से व्यक्ति में प्रतिरोधक क्षमता में असाधारण वृद्धि होती है। इसी कारण उनमें शारीरिक व मानसिक रोगों की सम्भावना कम रहती है। यदि किसी तरह से कोई रोग हुआ भी तो इनसे छुटकारा जल्दी मिलता है।

इस क्रम में इस वैज्ञानिक दृष्टि की अपेक्षा आध्यात्मिक दृष्टि कहीं ज्यादा गहरी व सूक्ष्म है। हमने परम पूज्य गुरुदेव के जीवन में इस सत्य की अनुभूति पायी है। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में उन्होंने तो केवल अपने संकल्प से अनगिनत लोगों को रोग मुक्त किया। पर अखण्ड ज्योति संस्थान के निवास काल में रोग निवारण की इस प्रक्रिया को वे थोड़े अलग ढंग से सम्पन्न करते थे। इसके लिए वे रोगी का पहना हुआ कपड़ा माँगते थे, और उसके प्राणों के सूक्ष्म परमाणुओं का परीक्षण आध्यात्मिक रीति से करते थे। बाद में स्थिति के अनुरूप उसकी चिकित्सा करते थे।

ऐसे ही एक बार उनसे गुजरात के देवेश भाई ने अपने किसी रिश्तेदार के बारे में उन्हें लिखा। ये रिश्तेदार कई बुरी आदतों का शिकार थे। हालाँकि इनका स्वास्थ्य काफी अच्छा था। गुरुदेव ने देवेश भाई से इनका पहना हुआ कपड़ा मँगाया। कपड़े के आध्यात्मिक परीक्षण के बाद उन्होंने देवेश भाई को चिट्ठी लिखी कि तुम्हारे इन रिश्तेदार के जीवन के दीये का तेल चुक गया है और अब शीघ्र ही इनकी ज्योति बुझने वाली है। गुरुदेव के इस पत्र पर देवेश भाई को यकीन ही नहीं हुआ। क्योंकि ये रिश्तेदार तो पर्याप्त स्वस्थ थे। देवेश भाई गुरुदेव की इस चिट्ठी को लेकर सीधे मथुरा पहुँचे। सामने मिलने पर भी गुरुदेव ने अपनी उन्हीं बातों को फिर से दुहराया। सभी को अचरज तो तब हुआ जब ये रिश्तेदार महोदय पंद्रह दिनों बाद चल बसे। इस पर गुरुदेव ने उन्हें पत्र लिखकर कहा- यदि जीवनीशक्ति बिल्कुल भी न बची हो और संयम- सदाचार की अवहेलना के कारण जीवन के पात्र में छेद ही छेद हैं; तो आध्यात्मिक चिकित्सा असम्भव है। आध्यात्मिक चिकित्सा के लिए आध्यात्मिक जीवनशैली को अपनाना बेहद जरूरी है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ १०१

👉 मेरे सदगुरु के दरबार में...

मेरे सदगुरु के दरबार में "द" शब्द वाली वस्तु "स" शब्द में बहुत ही जल्दी बदलती है...!

जैसे दुःख बदल जाता है सुख में------

दुविधा बदल जाती है सुविधा में ------

दुर्गुण बदल जाते हैं सद्गुण में ------

दुर्बलता बदल जाती है सबलता में----

दरिद्रता बदल जाती है संपन्नता में------

दुर्विचार बदल जाते हैं सद्विचार में-----

दुर्व्यव्हार बदल जाता है सद्व्यव्हार में-------

दुष्परिणाम बदल जाते हैं सुपरिणाम में------

दुराचार बदल जाता है सदाचार में---

दाग बदल जाते हैं साख में----

दुर्भावना बदल जाती है सद्भावना में ------

और
कुसंग बदल जाते हैं सत्संग में..!!

👉 उत्तरदायित्व समझें और निवाहें-

पुनर्गठन के साथ साथ सदस्यों को कुछ निश्चित उत्तरदायित्व सौंपे गये है। पत्रिकाएँ मँगाने वालों से अनुरोध किया गया है कि वे उन्हें स्वयं तो ध्यान से पढ़े ही, साथ ही दस नहीं तो न्यूनतम पाँच अन्य व्यक्तियों को भी पढ़ाने या सुनाने का भाव भरा श्रमदान तो करते ही रहें। हर सदस्य ज्ञान यज्ञ में इतना तो योगदान करे ही, ताकि हर अंक से कई व्यक्ति लाभ उठायें और मिशन का सन्देश अधिक क्षेत्र में फैलता चला जाय।

जो अंशदान करने का व्रत ले चुके है, उन्हें न्यूनतम 10 पैसा (आज १ रुपया) एवं एक घण्टा समय नित्य बचाकर मिशन के प्रसार में लगाना चाहिए। अपने संपर्क क्षेत्र में झोला पुस्तकालय चलाना इसका सर्वश्रेष्ठ ढंग है। विचारशील व्यक्तियों की सूची तैयार कर ली जाय। किस दिन किस के यहाँ जाना है ? यह क्रम बना लिया जाय। ज्ञान घट के संचित धन से मिशन का साहित्य खरीदा जाय, पुरानी पत्रिकाओं पर कवर लगाकर उनका भी उपयोग किया जाय।

इतने से ही घर घर ज्ञान सिंचन का क्रम चल सकता है। घर बैठे, बिना मूल्य नव जीवन देने वाली ज्ञान गंगा का लाभ भला कौन न उठायेगा? जरूरत इतनी भर है कि साहित्य जबरदस्ती थोपा न जाय, उसका महत्व समझाते हुए, पाठक की रुचि जगाते हुए उसे पढ़ने का अनुरोध किया जाय। जैसे जैसे रुचि बढ़े वैसे वैसे अधिक महत्त्वपूर्ण साहित्य देने का सिलसिला चलाया जाय।

संपर्क क्षेत्र में झोला पुस्तकालय चलाने के लिए बहुत समय से आग्रह किया जाता रहा है। जिनने नव निर्माण की विचारधारा का महत्व समझा वे आलस्य, प्रमाद के संकीर्ण अहंकार को आड़े नहीं आने देते वरन् इस परमार्थ में तत्पर रहते हुए आत्म गौरव एवं आन्तरिक सन्तोष का अनुभव करते हैं। ज्ञान के कर्म में परिणत होने का यह प्रथम चरण है कि ज्ञान यज्ञ को-विचार क्रांति को समर्थ बनाने के लिए अपने समय एवं साधन का नियमित अनुदान प्रस्तुत करते रहा जाय। झोला पुस्तकालय चलाने के लिए ज्ञान घट की स्थापना और एक घण्टा समय तथा दस पैसा नित्य का अनुदान देना, देखने में कितना ही सरल एवं स्वल्प क्यों न हो, पर हमारे सन्तोष के लिए उतना भी बहुत है। ऐसे व्रतधारी कर्मनिष्ठ परिजनों से आज नहीं तो कल हम बड़ी बड़ी आशाएँ करना आरम्भ कर सकते हैं। उनका दर्जा स्वभावतः ऊँचा है। मात्र ज्ञान का शुभारम्भ है। कर्म के साथ संयुक्त हो जाने पर उस बीज को वृक्ष बनाने का आश्वासन देने वाला अंकुर कह सकने में हमें किसी प्रकार का संकोच नहीं है।

दस पैसा (आज १ रुपया) और एक घण्टे की न्यूनतम शर्त भावनापूर्वक पूरी करने वालों का स्तर निश्चित रूप से विकसित होता चलेगा। अपने अन्दर बढ़ते हुए देवत्व की प्रखरता के आधार पर वे दिव्य प्रयोजन के लिए क्रमशः बड़े अनुदान प्रस्तुत करने का गौरव प्राप्त कर सकेंगे। माह में एक दिन की आय तथा प्रतिदिन 4 घण्टे का समय देना और अन्ततः कर्मयोगी वानप्रस्थ के स्तर तक पहुँच जाना उन्हीं के लिए सम्भव हो सकेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई १९७७ पृष्ठ ५३
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1977/July/v1.53

👉 ‼ चिन्तन ‼

संसार क्षणभंगुर है, संसार में चारों ओर देखो यहां, वहां, जहां, तहां देखो जितने भी  पदार्थ इन चर्म चक्षुओं के एवं पांच इंद्रियों के अनुभव में आने वाले पदार्थ है, सभी पदार्थ नश्वर, क्षणभंगुर है, जिन नाशवान पदार्थों को यह मानव अपना मान बैठता है, चाहे वह मां हो, चाहे पिता हो, चाहे भाई-बहन हो, चाहे कुटुंब-परिवार हो चाहे गाड़ी, घोड़ा मकान, दुकान हो चाहे जमीन, जायदाद हो चाहे धन, रुपया, पैसा हो चाहे पत्नी, पुत्र हो यह सब नाशवान है, और जब इन नाशवान पदार्थों के प्रति यह मानव मेरा-मेरा करके उसके प्रति गाड़ा मोह कर लेता है, यह मोह इस भव को ही नहीं भव-भावन्तर को भी बिगाड़ने में समर्थ हो जाता है, यह मानव प्राणी इन पदार्थों को वर्तमान में अपना मानता ही है, अगले भव क्या भव-भवान्तर के लिए भी अपना मानने को तैयार है, लेकिन आप देखो आपके सामने से ही जब आपके मां-बाप, दादा-दादी आदि पदार्थ जिन्हें आप अपना मान लेते है, जब नाश को प्राप्त होते हैं, मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उस समय आपको कितना कष्ट होता है, और आप कुछ समय के लिए नहीं भव-भवान्तर के लिए कर्मों का बंद कर लिया करते हैं, इसी प्रकार से संसार असार है, नाशवान है, क्षण-भंगुर है, संसार में रहकर भी प्राणी अपनी बुद्धि-विवेक का प्रयोग कर सत मार्ग को स्वीकार कर देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति करते हुए, आराधना करते हुए अपने आत्म तत्व को पहचाने, वह नाशवान नहीं है, ऐसी अमर आत्मा को, अपनी आत्मा को जानने का पहचानने का प्रयास करें यही मनुष्य पर्याय का सार है।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...