शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

👉 जीव ईश्वर का ही अंश है

🔶 जीव ईश्वर का अंश है तो ईश्वर के समान शक्ति उसमें क्यों नहीं हैं? यह प्रश्न एक शिष्य ने गुरु से पूछा। गुरु ने विस्तार पूर्वक उत्तर दिया पर शिष्य की समझ में न आया शंका बनी ही रही।

🔷 एक दिन गुरु और शिष्य गंगा स्नान के लिये गये। शिष्य से कहा-एक लोटा गंगा जल भर लो। उसने भर लिया। घर आकर गुरु ने कहा-बेटा इस गंगा जल में नाव चलाओ। शिष्य ने कहा-नाव तो गंगाजी के बहुत जल में चलती हैं, इतने थोड़े जल में कैसे चल सकती हैं? गुरु ने कहा-यही बात जीव और ईश्वर के संबंध में है। जीव अल्प है। इसलिये उसमें शक्ति भी थोड़ी है। ईश्वर विभु है उसमें अनन्त शक्ति है। इसलिये दोनों की शक्ति और कार्य क्षमता न्यूनाधिक है। वैसे लोटे का जल भी गंगाजल ही था, इसी प्रकार जीव अल्प होते हुये भी ईश्वर का अंश ही है।

🔶 जीव अपने को जब ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त कर उसी में निमग्न हो जाता है तो उसमें भी ईश्वर जैसी शक्ति आ जाती है।

📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1961

👉 सफलता के लिए संलग्नता जरुरी है

🔶 एक आश्रम में एक शिष्य शिक्षा ले रहा था। जब उसकी शिक्षा पूरी हो गयी तो विदा लेने के समय उसके गुरु ने उससे कहा – वत्स, यहां रहकर तुमने शास्त्रो का समुचित ज्ञान प्राप्त कर लिया है, किंतु कुछ उपयोगी शिक्षा अभी शेष रह गई है। इसके लिए तुम मेरे साथ चलो।

🔷 शिष्य गुरु के साथ चल पड़ा। गुरु उसे आश्रम से दूर एक खेत के पास ले गए। वहां एक किसान अपने खेतों को पानी दे रहा था। गुरु और शिष्य उसे गौर से देखते रहे। पर किसान ने एक बार भी उनकी ओर आँख उठाकर नहीं देखा। जैसे उसे इस बात का अहसास ही ना हुआ हो कि उसके पास में कोई खड़ा भी है। कुछ देर बाद गुरु और शिष्य वहां से चल दिए।

🔶 वहाँ से आगे बढ़ते हुए उन्होंने देखा कि एक लुहार भट्ठी में कोयला डाले उसमें लोहे को गर्म कर रहा था। लोहा लाल होता जा रहा था। लुहार अपने काम में इस कदर मगन था कि उसने गुरु शिष्य की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया। कुछ देर बाद गुरु और शिष्य वहां से भी चल दिए।

🔷 फिर दोनों आगे बढ़े। आगे थोड़ी दूर पर एक व्यक्ति जूता बना रहा था। चमड़े को काटने, छीलने और सिलने में उसके हाथ काफी सफाई के साथ चल रहे थे। कुछ देर बाद गुरु ने शिष्य को वापस चलने को कहा।

🔶 शिष्य को कुछ समझ में नहीं आया | उसके मन में प्रश्न उठने लगे कि आखिर गुरु चाहते क्या हैं ? शिष्य के मन कि बात को भाँपते हुए गुरु ने उससे कहा – वत्स, मेरे पास रहकर तुमने शास्त्रों का अध्ययन किया लेकिन व्यवहारिक ज्ञान की शिक्षा बाकी थी। तुमने इन तीनों को देखा। ये अपने काम में संलग्न थे। अपने काम में ऐसी ही तल्लीनता आवश्यक है, तभी व्यक्ति को सफलता मिलेगी।

🔷 मित्रों इस कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि हमें अपने काम को इतनी ही तल्लीनता, संलग्नता, और एकाग्रता के साथ करना चाहिए।जब हम किसी काम को करे तो हमारे दिमाग में उस काम के अलावा कुछ नहीं होना चाहिए। तभी हमें सफलता मिल सकती है।

👉 आज का सद्चिंतन 31 August 2018

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 31 August 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (अन्तिम भाग)

👉 उत्कृष्टता के साथ जुड़ें, प्रतिभा के अनुदान पाएँ

🔶 लक्ष्य और उपक्रम निर्धारित कर लेने के उपरांत यह निर्णय करना अति सरल पड़ता है कि कौन अपनी मन:स्थिति और परिस्थिति के अनुसार, संपर्क परिकर की आवश्यकताओं को देखते हुए, किन क्रियाकलापों में हाथ डाले और प्रगति का एक-एक चरण उठाते हुए, अंतत: बड़े-से-बड़े स्तर का क्या कुछ कर गुजरे? यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि व्यक्ति अपने प्रभामंडल संपन्न क्षेत्र के साथ जुड़कर ही पूर्ण बनता है। अकेला चना तो कभी भी भाड़ फोड़ सकने में समर्थ नहीं होता। अपने जैसे विचारों के अनेक घनिष्टों को साथ लेकर और सहयोगपूर्वक बड़े कदम उठाना ही वह रीति-नीति है, जिसके सहारे अपनी और साथियों की प्रतिभा को साथ-साथ चार चाँद लगते हैं।
  
🔷 सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय परब्रह्म-परमात्मा प्रतिभाओं का पुंज है। उसके साथ संबंध जोड़ने पर संकीर्ण स्वार्थपरता में तो कटौती करनी पड़ती है पर साथ ही यह भी सत्य है कि अग्नि के साथ संबंध जोड़ने वाला ईंधन का ढेर, ज्योतिर्मय ज्वाल माल की तरह दमकने लगता है। उत्कृष्टता के साथ जुड़ने वालों में से किसी को भी यह नहीं कहना पड़ता कि उसे प्रतिभा परिकर के भाण्डागार में से किसी प्रकार की कुछ कम उपलब्धि हस्तगत हुई।
  
🔶 दिशा निर्धारित कर लेने पर मार्गदर्शक तो पग-पग पर मिल जाते हैं। कोई न भी मिले तो अपनी ही अंतरात्मा उस आवश्यकता की पूर्ति कर देती हो। प्रतिभा का धनी न कभी हारता है और न अभावग्रस्त रहने की शिकायत करता है। उसे किसी पर दोषारोपण करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती कि उन्हें अमुक ने सहयोग नहीं दिया या प्रगति पथ को रोके रहने वाला अवरोध अटकाया। प्रतिभा ही तो शालीनता और प्रगतिशीलता की आधारशिला है।
          
.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 55

👉 Scientific Basis of Gayatri Mantra Japa (Last Part)

🔶 Any one who sincerely and rightly performs the japa-sadhana of the Gayatri Mantra begins to gradually progress through the aforesaid four stages of psychological and spiritual refinement and attains the ultimate goal. His mind and intellect are transformed and illuminated with divine love, light and wisdom and he awakens to the supreme reality of truth, consciousness, bliss (sat-chita-anand) beyond the limits of time and space.

🔷 Material well-being and elimination of worldly problems accrue to the sadhak, but these are mere byproducts of the spiritual illumination. Nothing remains to be gained or aspired for thereafter. Everyone, without any constraint of caste, creed, gender or social status, is entitled to undertake this scientific experiment of japa-sadhana of Gayatri Mantra and be the recipient of divine grace. Notes:

1. Japa: Repeated rhythmic enunciation or chanting (of a mantra).
2. Sadhana: Devout spiritual endeavor aimed at self-realization.
3. Japa-sadhana: Japa accompanied by meditation and specific religious practices.

📖 Akhand Jyoti, Mar Apr 2003

👉 ईश्वर-भक्ति और जीवन-विकास (भाग 3)

🔶 ईश्वर-मुखी आत्माओं में जहाँ सूक्ष्म बुद्धि का विकास होता है और वे साँसारिक परिस्थितियों को साफ-साफ देखने लगते हैं वहाँ उनमें सर्वात्म-भाव भी जागृत होता है। इन्द्रियों से प्रतिक्षण उठने वाले विषयों के आकर्षणों में आनन्द की क्षणिक अनुभूति निरर्थक साबित हो जाती है जिससे शारीरिक शक्तियों का अपव्यय रुक जाता है। रुकी हुई शक्ति को आत्म कल्याण के किसी भी प्रयोजन में लगाकर उससे मनोवाँछित सफलतायें पाई जा सकती हैं। जिन लोगों ने संसार में बड़ी सफलतायें पाई हैं विश्वास के रूप में परमात्मा ने ही उन्हें वह मार्ग दिखाया और सुझाया है।

🔷 निष्काम कर्म में प्रत्येक कर्म परमात्मा को समर्पित करना बताया जाता है उसमें भी यही तथ्य काम करता है कि मनुष्य प्रतिक्षण प्रत्येक कार्य में परमात्मा का अनुग्रह और अनुकम्पा प्राप्त करे। ईश्वर निष्ठ व्यक्ति के अन्तःकरण में उसकी सफलता का विश्वास अपने आप पर बनता है और इस तरह वैभव-विकास की परिस्थितियाँ भी अपने आप बनती चली जाती हैं। भूल दर असल यह हुई कि कुछ लोगों ने साँसारिक कर्तव्य पालन को तिलाँजलि देकर आत्म-कल्याण के लिये पलायनवाद का एक नया रास्ता खड़ा कर दिया। इससे लोगों में मतिभ्रम हुआ अन्यथा परमात्मा स्वयं अनन्य ऐश्वर्य से सम्पन्न है वह भला अपने उपासक को क्यों उस से विमुख करने लगा?

🔶 ईश्वर उपासना से बौद्धिक सूक्ष्मदर्शिता की तरह अनवरत क्रिया-शीलता का भी उदय होता है। परिश्रम की आदत पड़ती है। पुरुषार्थ जगता है। इन वीरोचित गुणों के रहते हुये अभाव का नाम भी नहीं रह सकता । परमात्मा अपने भक्त को क्रियाशील बनाकर उसे संसार के अनेक सुख ऐश्वर्य और भोग प्रदान करता है। मनुष्य स्वयं बेवकूफी न करे तो वह चिरकाल तक उनका सुखोपभोग करता हुआ भी आत्म-कल्याण का लक्ष्य पूरा कर सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1967 अगस्त पृष्ठ 3
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1967/August/v1.3

गुरुवार, 30 अगस्त 2018

👉 हिम्मत से काम करो

🔷 तूफान में जब नाव डगमगाने लगी तो मल्लाह घबराये। उसमें सवार सीजर ने कहा-घबराओ मत, हिम्मत से काम करो। तुम्हारी नाव के साथ सीजर और उसका भाग्य भी सवार है, वह आसानी से नहीं डूब सकती।

👉 गरजो मत-बरसो

🔷 विद्वान् कार्लाइल ने अपने आत्म चरित्र में लिखा है वर्षा के दिनों में एक दिन अचानक हमारे पड़ोस में दुर्घटना पूर्ण मृत्यु हुई। लोग उस मौसम को कोस रहे थे। मैंने अनुमान लगाया कि उस आदमी की मौत बादलों के गर्जन से हुई। पर जब मैं बड़ा हुआ तब समझा कि मौत गर्जन से नहीं बिजली गिरने से होती है। तब से मैंने गरजना बन्द कर दिया और चमकने की तरकीब ढूँढ़ने लगा।

👉 सारी दुनियाँ ही स्कूल है



🔷 स्वामी रामतीर्थ जब छोटे थे, पड़ोस के गाँव के स्कूल में पढ़ने जाया करते थे। वे रास्ते में भी पुस्तकें पड़ते जाते थे। एक दिन एक किसान ने कहा-बेटा यहाँ खेतों में कोई स्कूल थोड़े ही है जो यहाँ भी पढ़ते हो। रामतीर्थ ने उत्तर दिया-काका जी मेरे लिये तो सारी दुनियाँ ही स्कूल है।

👉 साधना की शक्ति:-

🔷 वर्षों पुरानी बात है। एक राज्य में महान योद्धा रहता था। कभी किसी से नहीं हारा था। बूढ़ा हो चला था, लेकिन तब भी किसी को भी हराने का माद्दा रखता था। चारों दिशाओं में उसकी ख्याति थी। उससे देश-विदेश के कई युवा युद्ध कौशल का प्रशिक्षण लेने आते थे।

🔶 एक दिन एक कुख्यात युवा लड़ाका उसके गांव आया। वह उस महान योद्धा को हराने का संकल्प लेकर आया था, ताकि ऐसा करने वाला पहला व्यक्ति बन सके। बेमिसाल ताकतवर होने के साथ ही उसकी खूबी दुश्मन की कमजोरी पहचानने और उसका फायदा उठाने में महारत थी। वह दुश्मन के पहले वार का इंतजार करता। इससे वह उसकी कमजोरी का पता लगाता। फिर पूरी निर्ममता, शेर की ताकत और बिजली की गति से उस पर पलटवार करता। यानी, पहला वार तो उसका दुश्मन करता लेकिन आखिरी वार इस युवा लड़ाके का ही होता था।

🔷 अपने शुभचिंतकों और शिष्यों की चिंता और सलाह को नजरअंदाज करते हुए बूढ़े योद्धा ने युवा लड़ाके की चुनौती कबूल की। जब दोनों आमने-सामने आए तो युवा लड़ाके ने महान योद्धा को अपमानित करना शुरू किया। उसने बूढ़े योद्धा के ऊपर रेत-मिट्टी फेंकी। चेहरे पर थूका भी। बूढ़े योद्धा को गालियां देता रहा। जितने तरीके से संभव था, उतने तरीके से उसे अपमानित किया। लेकिन बूढ़ा योद्धा शांतचित्त, एकाग्र और अडिग रहा और उसके प्रत्येक क्रियाकलाप को पैनी नज़रों से देखता रहा।

🔶 युवा लड़ाका थकने लगा। अंतत: अपनी हार सामने देखकर वह शर्मिंदगी के मारे भाग खड़ा हुआ।

🔷 बूढ़े योद्धा के कुछ शिष्य इस बात से नाराज और निराश हुए कि उनके गुरु ने गुस्ताख युवा लड़ाके से युद्ध नहीं किया। उसे सबक नहीं सिखाया। इन शिष्यों ने गुरु को घेर लिया और सवाल किया, 'आप इतना अपमान कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं? आपने उसे भाग जाने का मौका कैसे दे दिया?’

🔶 महान योद्धा ने जवाब दिया, ‘यदि कोई व्यक्ति आपके लिए कुछ उपहार लाए, लेकिन आप लेने से इनकार कर दें। तब यह उपहार किसके पास रह गया?’देने वाले के पास ही न।

🔷 इसी प्रकार साधना में भी कई प्रकार की बाधाएं आएँगी उनसे लड़ने में अपनी शक्ति न गवाएं बल्कि कुछ समय मौन रहें साधना में निरन्तरता रखें सहज होने की कोशिश रखें । थोड़े ही समय बाद आप उन परिस्तिथियों से आगे निकल जायेंगे। और हमेशा विजयी ही रहेंगे। साधना से जो बड़ी बात अंदर पैदा होती है वो है असीम शांति जिसके सम्पर्क में आते ही बड़ी से बड़ी आसुरी शक्ति भी अपनी कोशिशें कर के थक जाती हैं और भाग जाती हैं या साधक के शरणागत हो जाती है बस जरूरत है धैर्य की और असीम शांति की।

🔶 अगर परिस्तिथिवश कभी लड़ना भी पड़े तो अंदर शांत रहते हुए पूरी परिस्तिथियों को देखते हुए लड़ो बिना क्रोध किये कोई भी शक्ति होगी आपके ऊपर प्रभाव न डाल सकेगी।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 August 2018

👉 आज का सद्चिंतन 30 Aug 2018

👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 42)

👉 उत्कृष्टता के साथ जुड़ें, प्रतिभा के अनुदान पाएँ

🔷 मेघ मंडल जब घटाटोप बनकर उमड़ते-गरजते हैं तो कृषि कर्मियों के मन आशा-उत्साह से भरकर बल्लियों उछलने लगते हैं इंद्र वज्र सौ-सौ बार झुककर उनकी सलामी देता है। अँधेरा आकाश प्रकाश से भर जाता है और मोर नाचते एवं पपीहे कूकते हैं। हरीतिमा उनकी प्रतीक्षा में मखमली चादर ओढ़े मुस्कराती पड़ी रहती है। यह मनुहार मेघों की ही क्यों होती है? खोजने पर पता चलता है कि वे संचित जलराशि समेट, अपने आपको अति विनम्र बनाकर उसे धरती पर बिखेर देते हैं।
  
🔶 प्रतिभा परिवर्धन के उद्दण्ड उपाय तो अनेक हैं। उन्हें आतंकवादी-अनाचारी तक अपनाते और प्रेत पिशाचों की तरह अनेक को भयभीत कर देते हैं, किंतु स्थिरता और सराहना उन्हीं प्रतिभावानों के साथ जुड़ी रहती है, जो शालीनता अपनाते और आदर्शों के प्रति अपने वैभव को उत्सर्ग करने में चूकते नहीं। ऐसे लोग शबरी, गिलहरी, केवट स्तर के ही क्यों न हों, अपने को अजर-अमर बना लेते हैं और अनुकरण करने के लिए अनेकों को आकर्षित करते हैं। उनकी चुंबकीय विलक्षणता न जाने क्या-क्या कहाँ-कहाँ से बटोर लाती है और बीज को वृक्ष बनाकर खड़ा कर देती हैं।
  
🔷 प्रतिभा परिष्कार का अजस्र लाभ उठाने के लिए इन दिनों स्वर्ण सुयोग आया है। युगसंधि की वेला में, जीवट वाले प्राणवानों की आवश्यकता अनुभव की गई है। अवांछनीयताओं से ऐसे ही पराक्रमी जूझते हैं और हनुमान, अंगद जैसे अनगढ़ होते हुए भी लंका को धराशायी बनाने के एवं रामराज्य का सतयुगी वातावरण बनाने के दोनों मोरचों पर अपनी समर्थ क्षमता का परिचय देते हैं। ऐसी परीक्षा की घड़ियाँ सदा नहीं आती। जो समय को पहचानते और बिना अवसर चूके अपने साहस का परिचय देते हैं, उन्हें प्रतिभा का धनी बनने में किसी अतिरिक्त अनुष्ठान करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। संयम और साहस का मिलन ही वरिष्ठता तक पहुँचा देता है। पुण्य और परमार्थ का राजमार्ग ऐसा है जिसे अपनाने पर वरिष्ठता का लक्ष्य हर किसी को मिल सकता है। आत्मसाधना और लोकसाधना दोनों एक ही लक्ष्य के दो पहलू हैं। जहाँ एक को सही रीति से अपनाया जाएगा, वहाँ दूसरा उसके साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ जाएगा। 
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 51

👉 Scientific Basis of Gayatri Mantra Japa (Part 9)

🔷 The energy locked up in the mantras is essentially spiritual in nature. The specific configurations of the Vedic Mantras are said to be derived from the subtle science of syllables and sound. The rishis, who had realized the cosmic and spiritual dimensions of the omnipresent eternal sound, had compiled these mantras. The consistency of the rhythm and amplitude of the mantras are therefore of vital importance. The prescribed modes and number of japas every day for specific sadhana are also enjoined accordingly. The sadhaka should follow these with due sincerity and punctuality. Sometime slow sometime fast speed or pitch of japa or performing the japa in a half-asleep or inconsistent way does not serve any purpose.

🔶 Sitting with erect spine and in a state of mental peace, regularity of timings for japa are essential prerequisites for steady and sure progress. Purity of the body and mind is another prerequisite for concentration of mind and proper meditation. It is advised to do the japa with the help of a rosary so that counting will also be automatic with the mechanical move of the hand on its beads with each complete chanting of the mantra, without disturbing the mental concentration.

🔷 The upanshu type japa is said to be the best for the beginners. Here, one chants the mantra so that his tongue and lips may move but the voice is inaudible. Once one has perfected the rhythmic chanting of the mantra he may check the timings of specified number of japas according to his natural frequency and may use a clock (alarm) instead of a rosary, as per his convenience.

📖 Akhand Jyoti, Mar Apr 2003

👉 ईश्वर-भक्ति और जीवन-विकास (भाग 2)

🔷 ध्रुव वेद-ज्ञानी न थे प्रह्लाद ब्रह्मोपदेशक थे, नानक की बौद्धिक मंदता सर्व विदित है। सूर और तुलसी जब तक साधारण व्यक्ति के तरीकों से रहे तब तक उनमें कोई विशेषता नहीं रही किन्तु जैसे ही उनमें भक्ति रूपी ज्योति का अवतरण हुआ अविद्या रूपी आवरण का अपसरण हो गया और काव्य की, विचार की ऐसी अविरल धारा बही कि काव्याकाश में “सूर सूर और तुलसी चन्द्रमा हो गये।”

🔶 जिन लोगों में ऐसी विलक्षणतायें पाई जाती हैं वह सब ईश्वर-चिन्तन का ही प्रभाव होती हैं चाहे वह ज्ञान और भक्ति पूर्व जन्मों की हो अथवा इस वर्तमान जीवन की ।
उपासना से चित्त-शुचिता, मानसिक सन्तुलन भावनाओं में शक्ति और पंचकोषों में सौमनस्य प्राप्त होता है वह बौद्धिक क्षमताओं के प्रसार से अतिरिक्त है। यह सभी गुण बुद्धि और विवेक का परिमार्जन करते हैं। दूर-दर्शन की प्रतिभा का विकास करते हैं। प्रारम्भ में वह केवल किसी वातावरण में घटित होने वाली स्थूल परिस्थितियों का ही अनुमान कर पाते हैं किन्तु जब भक्ति प्रगाढ़ होने लगती है तो उनकी बुद्धि भी इतनी सूक्ष्म और जागृत हो जाती है कि घटनाओं के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंग उन्हें ऐसे विदित हो जाते हैं जैसे कोई व्यक्ति कानों में सब कुछ चुपचाप बता गया हो ।

🔷 ईश्वर-भक्ति की प्रगाढ़ अवस्था भ्रमर और कीट जैसी होती है। भ्रमर कहीं से कीट को पकड़ लाता है फिर उसके सामने विचित्र गुँजार करता है। कीट उसमें मुग्ध होकर आकार परिवर्तन करने लगता है और स्वयं ही भ्रमर बन जाता है। ईश्वर उपासना में भी वह अचिन्त्य शक्ति है जो उपासक को उपास्य देवता से तदाकार करा देती है। गीता के 11 वें अध्याय श्लोक 54 में भगवान कृष्ण ने स्वयं इस बात की पुष्टि करते हुये लिखा है- “अनन्य भक्ति से ही मुझे लोग प्रत्यक्ष देखते हैं। भक्ति से ही मैं बुद्धि प्रवेश करने योग्य बनता हूँ।”

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1967 अगस्त पृष्ठ 3
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1967/August/v1.3

बुधवार, 29 अगस्त 2018

👉 गलत परम्परा न डालूँगा

🔷 सुकरात को प्राण दण्ड की आज्ञा सुनाई गई। वे जेल में बन्द थे। उनके परम शिष्य क्रीटो ने जेल इसे भाग निकलने का सारा प्रबन्ध कर दिया और कहा गुरुदेव अब यहाँ से चुपचाप भाग चलिये और अपना जीवन बचाइए। सुकरात ने ऐसा करने से स्पष्ट इंकार कर दिया। उनने कहा-राजकीय कानूनों का पालन करना प्रजा का धर्म है। यदि मैं इस प्रकार कानून की अवज्ञा करके अपने प्राण बचाने के लिये भाग चलूँ तो प्रजा में एक गलत परम्परा का जनम होगा।

👉 उत्कृष्टता का आत्मगौरव

🔶 एक लुहार बढ़िया हथौड़े बनाने के लिये प्रसिद्ध था। एक व्यक्ति उसके पास गया और कहा-जैसे हथौड़े आप बनाते हैं उससे भी अच्छा मेरे लिये बना दें, मैं उसकी अधिक कीमत देने को तैयार हूँ। लुहार ने उत्तर दिया-मान्यवर मैं उससे और अच्छा हथौड़ा नहीं बना सकता। यदि बना सकता होता तो पहले ही बना दिया होता। मैं हथौड़ों की उत्कृष्टता को अपनी उत्कृष्टता मानता हूँ और उसमें किसी प्रकार की कमी रहने देना पसन्द नहीं करता।

👉 सत्य को मजबूती से पकड़ो

🔶 भगवान बुद्ध जब मरने लगे तब उनने अपने शिष्यों को बुलाकर अन्तिम उपदेश दिया “तुम लोग अपने-अपने ऊपर निर्भर रहो। किसी दूसरे की सहायता की आशा न करो। अपने भीतर से ही अपने लिये प्रकाश उत्पन्न करो। सत्य की ही शरण में जाओ और उसे मजबूत हाथों से पकड़े रहो।”

👉 प्राण देकर बीज बचाये

🔶 यज्ञ की श्रेष्ठता उस्के बाह्य स्वरूप की विशालता में नहीं अन्तर की उत्कृष्ट त्याग वृत्ति में है। यज्ञ के साथ त्याग- बलिदान की अभूतपूर्व परम्परा जुड़ी हुई है। यही संस्कृति को धन्य बनाती है।

🔷 एक बार विदर्भ देश में जोर का अकाल पड़ा। एक गाँव में किसी के पास कुछ भी न बचा। उसी गाँव के एक किसान के पास एक कोठी भरा धान था। वह उससे कई महीने तक अपने परिवार का भरण- पोषण कर सकता था, लेकिन उसे ध्यान आया कि अगले वर्ष मौसम के समय खेतों में बोने के लिए बीज न मिलेगा तो फिर से सबको अकाल का सामना करना पड़ेगा। किसान ने उस धान के कोष को खाने में खर्च नहीं किया और सपरिवार सहर्ष मृत्यु की गोद में सो गया।

🔶 लोगों ने सोचा कि काफी अन्न होते हुए भी किसान परिवार क्यों मर गया। लेकिन उसकी वसीयत को पढ़कर सभी किसान की महानता पर हर्ष सें आँसू बहाने लगे। उसमें लिखा था, "मेरा समस्त अन्न खेतों में फसल बोने के समय गाँव में बीज के लिए बाँट दिया जाय। " वर्षा हुई और चारों ओर नई लहलहाती फसल से लग रहा था मानो किसान मरा नहीं अपितु असंख्यों जीवधारी के रूप में हरे-  भरे खेतों में लहलहाता फिर से धरती पर उतर आया हो।

📖 प्रज्ञा पुराण से

👉 आज का सद्चिंतन 29 Aug 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 29 August 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 41)

👉 उत्कृष्टता के साथ जुड़ें, प्रतिभा के अनुदान पाएँ

🔶 इन तथ्यों के प्रकटीकरण पर विश्वास करते हुए जो तदनुरूप अपनी गतिविधियों में परिवर्तन करेंगे, वे हर दृष्टि से नफे-ही-नफे में रहेंगे। आज का दृष्टिकोण जिसे घाटा बताता है, उपहासास्पद बताता है कल वैसी स्थिति न रहेगी। लोग वास्तविकता को अनुभव करेंगे और समय रहते अपनी भ्रांतियों को बदल लेंगे।
  
🔷 जीवंतों और जाग्रतों को इन दिनों युगचेतना अनुप्राणित किए बिना रह नहीं सकती। उन्हें ढर्रे का जीवन जीते रहने से ऊब उत्पन्न होगी और चेतना अंतराल में ऐसी हलचलों का समुद्र मंथन खड़ा करेगी, ऐसा कुछ करने के लिए बाधित करेगी, जो समय को बदलने के लिए अभीष्ट एवं आवश्यक है। साँप नियत समय पर केंचुली बदलता है। अब ठीक यही समय है कि प्राणवान, प्रज्ञावान अपना केंचुल बदल डालें। अपनी समग्र क्षमता सँजोकर दृष्टिकोण में ऐसा परिवर्तन करें, जिससे भावी क्रियाकलापों में ऐसे तत्त्वों का समावेश हो, जिन्हें अनुकरणीय-अभिनंदनीय माना जा सकें।

🔶 अंतराल में उत्कृष्ट उमंगें और क्रियाकलापों का, आदतों का, नये सिरे से ऐसा निर्धारण करें, जो युगशिल्पियों के लिए प्रेरणाप्रद बन सकें । आदर्शों को महत्त्व दें। यह न सोचें कि तथाकथित सगे संबंधी क्या परामर्श देते हैं? प्रह्लाद, विभीषण, भरत, मीरा आदि को कुटुंबियों का नहीं, आदर्शों का अनुशासन अपनाना पड़ा था। उच्चस्तरीय साहस के प्रकटीकरण का यही केंद्र बिंदु है कि जीवन को श्रेय साधना से ओत-प्रोत करके दिखाया जाए। यह प्रयोजन संयम और अनुशासन अपनाए जाने की अपेक्षा करता है। प्रचलन तो ढलान की ओर लुढ़कने का है। पानी नीचे की ओर बहता है, ऊपर से नीचे गिरता है। उत्कृष्टता की ऊँचाई तक उछलने के लिए शूरवीरों जैसा साहस दिखाना पड़ता है। इस प्रदर्शन को अभी टाल दिया जाए तो संभव है ऐसा अवसर फिर जीवन में आए ही नहीं।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 51

👉 Scientific Basis of Gayatri Mantra Japa (Part 8)

🔶 The fourth stage signifies a still higher state of spiritual maturity. With deeper and purer engagement in the japa of Gayatri Mantra, the sadhaka sees the light of his soul in the radiance of the subtle body of the sun  the cosmic center of this mantra. As this realization intensifies, he begins to experience, in deep trance, the unity of his soul with the cosmic soul (God). He then sees the identity of his soul as a reflection of the Brahm conveyed in the Vedant Philosophy as "Ayamatma Brahm", "Tatvamasi","Soahm", "Cidanandoaham", etc.

🔷 This state is referred to in the Shastras as samadhi, turiavastha or para siddhi - the state of ultimate beatitude, absolute bliss and supreme accomplishment. Japa-sadhana alone, if performed with sincerity, purity and intrinsic faith, leads to this state of eternal bliss and light. It is therefore referred to as the key to the deeper science of spirituality and also revered as a yajya.

🔶 Japa yajya alone is a complete source of ultimate self-realization. By the divine energy immanent in the Vedic Mantras, we can attain supramental knowledge and actualize the potentials that are otherwise unbelievable, unimaginable and unreachable. Understanding and attainment of such extrasensory faculties are yet beyond the scope of the modern scientific advancement. Japa is therefore not well recognized or practiced by many of the so-called scientifically progressive people.

🔷 We do see many of the erudite scholars, great scientists and elites engulfed in the sorrows, delusions and sufferings of the world despite their talents and resources; whereas there are some illiterate but spiritually elevated souls endowed with divine bliss and wisdom attained through sincere japa-sadhana of the Gayatri Mantra.

📖 Akhand Jyoti, Mar Apr 2003

👉 ईश्वर-भक्ति और जीवन-विकास (भाग 1)

🔶 प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि वह सुख पूर्वक जीवन जिये। सब का प्रेम और स्नेह प्राप्त करे। शक्ति और समृद्धि के पथ पर आगे बढ़ने की इच्छा किसकी नहीं होती। सर्वज्ञता की अभिलाषा भी ऐसे ही सब को होती है। यह दूसरी बात है कि यह सम्पूर्ण सौभाग्य किसी को मिले या न मिले । मिले भी तो न्यूनाधिक मात्रा में, जिससे किसी को सन्तोष हो किसी को न हो।

🔷 परमात्मा सम्पूर्ण ऐश्वर्य का अधिष्ठाता माना गया है। वह सर्वशक्तिमान् है। वेद उसे सर्वज्ञ, सर्वव्यापी बताते हैं। यह उसके गुण हैं अथवा शक्तियाँ। साँसारिक जीवन में उन्नति और विकास के लिये भी इन्हीं तत्वों की आवश्यकता होती है। बुद्धिमान, शक्तिमान् और ऐश्वर्यमान व्यक्ति बाजी मार ले जाते हैं। शेष अपने पिछड़ेपन, अभाव और दुर्दैव का रोना रोया करते हैं।

🔶 यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इन तीन तत्वों का विकास मनुष्य ईश्वर भक्ति से बड़ी सरलता से प्राप्त कर लेता है। कबीर निरक्षर थे किन्तु ईश्वर उपासना के उनकी सूक्ष्म बुद्धि का विकास हुआ था। विचार और चिंतन के कारण इनमें वह शक्ति आविर्भूत हुई थी जो बड़े-बड़े विद्यालयों के छात्रों, शिक्षकों को भी नहीं नसीब होती। कबीर अक्षर लिखना नहीं जानते थे किन्तु वह पंडितों के भी पंडित हो गये।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1967 अगस्त पृष्ठ 3
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1967/August/v1.3

👉 साहित्य से बढ़कर मधुर और कुछ नहीं

🔶 साहित्य से मुझे हमेशा बहुत उत्साह होता है। साहित्य-देवता के लिये मेरे मन में बड़ी श्रद्धा है। एक पुरानी बात याद आ रही है। बचपन में करीब 10 साल तक मेरा जीवन एक छोटे से देहात में ही बीता। बाद के 10 साल तक बड़ौदा जैसे बड़े शहर में बीते। जब मैं कोंकण के देहात में था, तब पिता जी कुछ अध्ययन और काम के लिये बड़ौदा में रहते थे। दिवाली के दिनों में अक्सर घर पर आया करते थे।

🔷 एक बार माँ ने कहा- “आज तेरे पिता जी आने वाले है, तेरे लिये मेवा-मिठाई लायेंगे।” पिताजी आए। फौरन मैं उनके पास पहुँचा और उन्होंने अपना मेवा मेरे हाथ में थमा दिया। मेवे को हम कुछ गोल-गोल लड्डू ही समझते थे। लेकिन यह मेवे का पैकेट गोल न होकर चिपटा-सा था। मुझे लगा कि कोई खास तरह की मिठाई होगी। खोलकर देखा, तो किताबें थीं। उन्हें लेकर मैं माँ के पास पहुँचा और उनके सामने धर दिया। माँ बोली-बेटा! तेरे पिताजी ने तुझे आज जो मिठाई दी है, उससे बढ़कर कोई मिठाई हो ही नहीं सकती।” वे किताबें रामायण और भागवत की कहानियों की थीं, यह मुझे याद है।

🔶 आज तक वे किताबें मैंने कई बार पढ़ीं। माँ का यह वाक्य मैं कभी नहीं भूला कि-”इससे बढ़कर कोई मिठाई हो ही नहीं सकती।” इस वाक्य ने मुझे इतना पकड़ रखा है कि आज भी कोई मिठाई मुझे इतनी मीठी मालूम नहीं होती, जितनी कोई सुन्दर विचार की पुस्तक! वैसे तो भगवान् की अनन्त शक्तियाँ हैं, पर साहित्य में उन शक्तियों की केवल एक ही कला प्रकट हुई है। भगवान् की शक्ति की यह कला कवियों और साहित्यिकों को प्रेरित करती है। कवि और साहित्यिक ही उस शक्ति को जानते हैं, दूसरों को उसका दर्शन नहीं हो पाता।

✍🏻 ~-विनोबा भावे
📖 अखण्ड ज्योति 1967 अगस्त पृष्ठ 1

मंगलवार, 28 अगस्त 2018

👉 तृष्णा

🔶 एक व्यापारी था, वह ट्रक में चावल के बोरे लिए जा रहा था। एक बोरा खिसक कर गिर गया। कुछ चीटियां आयीं 10-20 दाने ले गयीं, कुछ चूहे आये 100-50 ग्राम खाये और चले गये, कुछ पक्षी आये थोड़ा खाकर उड़ गये, कुछ गायें आयीं 2-3 किलो खाकर चली गयीं, एक मनुष्य आया और वह पूरा बोरा ही उठा ले गया।

🔷 अन्य प्राणी पेट के लिए जीते हैं, लेकिन मनुष्य तृष्णा में जीता है। इसीलिए इसके पास सब कुछ होते हुए भी यह सर्वाधिक दुखी है।
आवश्यकता के बाद इच्छा को रोकें, अन्यथा यह अनियंत्रित बढ़ती ही जायेगी, और दुख का कारण बनेगी।✍🏻

चौराहे पर खड़ी जिंदगी,
नजरें दौड़ाती हैं... 👀
काश कोई बोर्ड दिख जाए
जिस पर लिखा हो... ✍🏻😌🙏🏻

"सुकून..
0. कि.मी." 

👉 बड़प्पन का व्यावहारिक मापदण्ड

🔷 एक राजा थे। बन-विहार को निकले। रास्ते में प्यास लगी। नजर दौड़ाई एक अन्धे की झोपड़ी दिखी। उसमें जल भरा घड़ा दूर से ही दीख रहा था।

🔶 राजा ने सिपाही को भेजा और एक लोटा जल माँग लाने के लिए कहा। सिपाही वहाँ पहुँचा और बोला- ऐ अन्धे एक लोटा पानी दे दे। अन्धा अकड़ू था। उसने तुरन्त कहा- चल-चल तेरे जैसे सिपाहियों से मैं नहीं डरता। पानी तुझे नहीं दूँगा। सिपाही निराश लौट पड़ा। इसके बाद सेनापति को पानी लाने के लिए भेजा गया। सेनापति ने समीप जाकर कहा अन्धे! पैसा मिलेगा पानी दे।

🔷 अन्धा फिर अकड़ पड़ा। उसने कहा, पहले वाले का यह सरदार मालूम पड़ता है। फिर भी चुपड़ी बातें बना कर दबाव डालता है, जा-जा यहाँ से पानी नहीं मिलेगा।

🔶 सेनापति को भी खाली हाथ लौटता देखकर राजा स्वयं चल पड़े। समीप पहुँचकर वृद्ध जन को सर्वप्रथम नमस्कार किया और कहा- ‘प्यास से गला सूख रहा है। एक लोटा जल दे सकें तो बड़ी कृपा होगी।’

🔷 अंधे ने सत्कारपूर्वक उन्हें पास बिठाया और कहा- ‘आप जैसे श्रेष्ठ जनों का राजा जैसा आदर है। जल तो क्या मेरा शरीर भी स्वागत में हाजिर है। कोई और भी सेवा हो तो बतायें।

🔶 राजा ने शीतल जल से अपनी प्यास बुझाई फिर नम्र वाणी में पूछा- ‘आपको तो दिखाई पड़ नहीं रहा है फिर जल माँगने वालों को सिपाही सरदार और राजा के रूप में कैसे पहचान पाये?’

🔷 अन्धे ने कहा- ‘वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के वास्तविक स्तर का पता चल जाता है।’

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 28 August 2018


👉 आज का सद्चिंतन 28 Aug 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 40)

👉 उत्कृष्टता के साथ जुड़ें, प्रतिभा के अनुदान पाएँ

🔷 दुर्दांत रावण का अंत होना था, तो दो तापसी युवक ही उस विशाल परिकर को धराशायी करने में समर्थ हो गए। दुर्धर्ष हिरण्यकश्यपु हारा और प्रह्लाद का सिक्का जम गया। समय आने पर, किसी दिग्भ्रांत करने वाले झाड़ -झंखारों के जंगल को दावानल बनकर नष्ट करने में एक चिनगारी भी पर्याप्त हो सकती है। प्रलय की चुनौती जैसी ताड़का को राम ने और पूतना को कृष्ण ने बचपन में ही तो धराशायी कर दिया था। महाकाल का संकल्प यदि युग परिवर्तन का तारतम्य इन्हीं दिनों बिठा ले, तो किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
  
🔶 निकट भविष्य की कुछ सुनिश्चित संभावनाएँ ऐसी हैं, जिनमें हाथ डालने वाले सफल होकर ही रहेंगे। अर्जुन की तरह नियति द्वारा पहले से ही मारे गए विपक्षियों का हनन करके अनायास ही श्रेय और प्रेम का दुहरा लाभ प्राप्त करेंगे। इसी माहौल में उन्हें प्रतिभा परिवर्धन का वह लाभ भी मिल जाएगा, जिसके आधार पर मूर्द्धन्य युगशिल्पियों में उनकी गणना हो सके।
  
🔷 अगले दिनों प्रचलित दुष्प्रवृत्तियों में से अधिकांश अपनी मौत मरेंगी, जिस प्रकार शीत ऋतु में मक्खी-मच्छरों का प्रकृति परंपरा के अनुसार अंत हो जाता है। अंधविश्वास, मूढमान्यताएँ, रूढ़ियाँ अंधपरंपराएँ, दूरदर्शी विवेकशीलता का उषाकाल प्रकट होते ही, उल्लू-चमगादड़ों की तरह अपने कोटरों में जा घुसेंगी। संग्रही और अपव्ययी जिस प्रकार आज अपना दर्प दिखाते हैं, उसके लिए तब कोई आधार शेष न रहेगा। संग्रही, आलसी और लालची तब भाग्यवान होने की दुहाई न दे सकेंगे। एक और भी बड़ी बात यह होगी कि चिरकाल से उपेक्षित नारी वर्ग न केवल अपनी गरिमा को उपलब्ध करेगा, वरन् उसे नर का मार्गदर्शन-नेतृत्व करने का गौरव भी मिलेगा। पिसे हुए, पिछड़े हुए ग्राम उभरेंगे और उन सभी सुविधाओं से संपन्न होंगे, जिनके लिए उस क्षेत्र के निवासियों को आज शहरों की ओर भागना पड़ता है। समता और एकता के मार्ग में अड़े हुए अवरोध एक-एक करके स्वयं हटेंगे और औचित्य के विकसित होने का मार्ग साफ करते जाएँगे। सम्मान वैभव को नहीं, उस वर्चस्व को मिलेगा जो आदर्शों के लिए उत्सर्ग करने का साहस सँजोता है। पाखंड का कुहासा पिछले दिनों कितना ही सघन क्यों न रहा हो, अगले दिनों उसके लंबे समय तक पैर जमाए रहने की कोई संभावना नहीं है।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 50

👉 Think High, Aim High

🔶 You may get clay toys with ease. But it’s not so easy to find gold. The tendencies of mind are often downwards and naturally drag it towards harmful actions and sins. However, it requires substantial efforts and zeal to carry out something worth, auspicious and beneficial. For example, the natural flow of water is from higher to lower levels, but the use of powerful pumps etc is required to take it upwards.

🔷 Sensual passions, ignorance-driven ambitions, untoward thoughts are hidden enemies that delude the mind of giving ‘pleasure’ but enslave it in a vicious trap. Likewise the gravitational force of the earth, they also have some kind of power of attraction, which pulls more and more tendencies and thoughts of similar
kind.

🔶 But, the same is true of positive, sane thoughts, aspirations and determination as well; they also attract the likes and create more powerful field of attraction. Once we awaken the will and vigilance to think wisely and practice restraining the accumulated passions, we will begin to experience the transforming effects. Unchecked accumulation of negative thoughts and vices sooner or later leads to decline, anxiety, despair and sinful sufferings. We should therefore be careful and watch and control our thoughts from this very moment.

📖 Akhand Jyoti,April 1940 Page 11

👉 Scientific Basis of Gayatri Mantra Japa (Part 7)

🔷 Nothing can then stop his march towards self-awakening. Human ego-centered false self and its gross appearance is only a vehicle for the manifestation of his soul. This world of mirage is not his true home. He is guided by divine grace on his journey back to his real home- the realm of eternal light. Just, as the puppet show would be absurdly haphazard if even a few threads that control its movements are broken or loosened, as the young kid is orphaned and becomes helpless due to the sudden demise of his parents, as the house becomes dark in the night if its electrical power supply is cut, similarly the soul, the individual self, suffers an illusory, ignorant, and evanescent existence if its subliminal linkage with divinity is broken.

🔶 We are way-lost children in the wilderness of this illusory phenomenon; groping for the sunlit path leading us back home. Finding this sunlit path and reestablishment of this lost connection with the source by awakening of the true inner consciousness is the third factor of japa-sadhana. In the powers of japa, the inner self awakens and recognizes its soul-identity; the soul too recalls its divine nature.

🔷 As this retrieval of lost memory progresses, it ponders upon its origin more deeply and gets anxious to unite with the source. This intensifies the reactivation of its sublime connection with the divine self. It calls upon the divine Mother (Gayatri) to save and protect it from illusions, diversions and pitfalls of the worldly cycle. This stage purifies the sadhaka's gross and subtle bodies; his mind now gets educed and illuminated by positive and righteous aspirations. His personality is gradually suffused with nobility.

📖 Akhand Jyoti, Mar Apr 2003

👉 उद्देश्य ऊँचा रखें

🔶 मिट्टी के खिलौने जितनी आसानी से मिल जाते हैं, उतनी आसानी से सोना नहीं मिलता। पापों की ओर आसानी से मन चला जाता है, किंतु पुण्य कर्मों की ओर प्रवृत्त करने में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पानी की धारा नीचे पथ पर कितनी तेजी से अग्रसर होती है, किन्तु अगर ऊँचे स्थान पर चढ़ाना हो, तो पंप आदि लगाने का प्रयत्न किया जाता है।

🔷 बुरे विचार, तामसी संकल्प, ऐसे पदार्थ हैं, जो बड़ा मनोरंजन करते हुए मन में धॅस जाते हैं और साथ ही अपनी मारकशक्ति को भी ले आते हैं। स्वार्थमयी नीच भावनाओं का वैज्ञाननिक विश्लेषण करके जाना गया है कि वे काले रंग की छुरियों के समान तीक्ष्ण एवं तेजाब की तरह दाहक होती हैं। उन्हें जहाँ थोड़ा-सा भी स्थान मिला कि अपने सदृश और भी बहुत-सी सामग्री खींच लेती हैं। विचारों में भी पृथ्वी आदि तत्त्वों की भाँति खिंचने और खींचने की शक्ति होती है। तदनुसार अपनी भावना को पुष्ट करने वाले उसी जाति के विचार उड़-उड़ कर वहीं एकत्रित होने लगते हैं।

🔶 यही बात भले विचारों के संबंध में है। वे भी अपने सजातियों को अपने साथ इकट्ठे करके बहुकुटुंबी बनने में पीछे नहीं रहते। जिन्होंने बहुत समय तक बुरे विचारों को मन में स्थान दिया है, उन्हें चिंता, भय और निराशा का शिकार होना ही पड़ेगा। 

📖 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 1940 पृष्ठ-11

👉 यह समय युगपरिवर्तन का

🔷 मित्रो ! सुदामा बगल में दबी चावल की पोटली देना नहीं चाहते थे, सकुचा रहे थे, पर उनने उस दुराव को बलपूर्वक छीना और चावल देने की उदारता परखने के बाद ही द्वारिकापुरी को सुदामापुरी में रूपांतरित किया। भक्त और भगवान् के मध्यवर्ती इतिहास की परंपरा यही रही है। पात्रता जाँचने के उपरांत ही किसी को कुछ महत्त्वपूर्ण मिला है। जो आँखें मटकाते, आँसू बहाते, रामधुन की ताली बजाकर बड़े-बड़े उपहार पाना चाहते, हैं, उनकी अनुदारता खाली हाथ ही लौटती है। भगवान् को ठगा नहीं जा सकता है । वे गोपियों तक से छाछ प्राप्त किए बिना अपने अनुग्रह का परिचय नहीं देते थे। जो गोवर्धन उठाने में सहायता करने के हिम्मत जुुटा सके, वही कृष्ण के सच्चे सखाओं में गिने जा सके।

🔶 यह समय युगपरिवर्तन जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य का है। इसे आदर्शवादी कठोर सैनिकों के लिए परीक्षा की घड़ी कहा जाए, तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं समझी जानी चाहिए। पुराना कचारा हटता है और उसके  स्थान पर नवीनता के उत्साह भरे सरंजाम  जुटते हैं। यह महान् परिवर्तन  की-महाक्रांति की वेला है। इसमें  कायर, लोभी, डरपोक और भाँड़  आदि जहाँ-तहाँ छिपे  हों तो उनकी ओर घृणा व तिरस्कार की दृष्टि डालते हुए उन्हें अनदेखा भी किया जा सकता है। यहाँ तो प्रसंग हथियारों से सुसज्जित सेना का चल रहा है। वे ही यदि समय को महत्त्व व आवश्यकता को न समझते हुए, जहाँ-तहाँ मटरगस्ती करते फिरें और समय पर हथियार न पाने के कारण  समूची सेना को परास्त होना पड़े तो ऐसे व्यक्तियों पर तो हर किसी का रोष ही बरसेगा, जिनने आपातस्थिति में भी प्रमाद बरता और अपना तथा अपने देश के गौरव को मटियामेट करके रख दिया।

✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञावतार की विस्तार प्रक्रिया पृष्ठ-२३

सोमवार, 27 अगस्त 2018

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 27 August 2018


👉 आज का सद्चिंतन 27 Aug 2018


👉 जिस मरने से जग डरे, सो मेरे आनन्द

🔶 प्रसिद्ध क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल को जब फाँसी की सजा सुनाई गई, तो उनके आँखे डबडबा गईं। माँ बोली, "राम, देश की आजादी के लिए तेरे जैसे बलिदानी बेटे को जन्म देने के लिए मैं स्वयं को धन्य मानती थी। पर तेरी आँखो के आँसुओं ने मुझे निराश कर दिया। मैं तो सोच रही थी कि मेरा बेटा हँसते-हँसते फाँसी के तख्ते पर चढे़गा, पर…….."।

🔷 वीर बिस्मिल ने बीच में ही टोकते हुए कहा, "माँ, भले ही दूसरे लोग 'मृत्यु' शब्द सुनते ही भय से काँप उठते हो, पर मैं उनके समान कायर नहीं हूँ। तुमने मुझे उन्हीं के जैसा कैसे मान लियी? मैंने तुम जैसी वीर माता के कोख से जन्म लिया है। ऐसा पुत्र फाँसी की पूर्वसन्ध्या पर मुझे विदा करने तुम्हें आया देख और तेरी आँखों में हर्ष और उमंग की झलक पाकर मेरी आँखों से खुशी के आँसू निकल आए। माँ मैं वचन देता हूँ कि अगले जन्म में भी तुम्हारी ही कोख से जन्म लूँगा।" इतिहास साक्षी है कि मृत्यु से अभय यह वीर सपूत फाँसी के फन्दे पर हँसते-हँसते झूल गया।

👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 39)

👉 उत्कृष्टता के साथ जुड़ें, प्रतिभा के अनुदान पाएँ

🔶 प्रतिभा किसी पर आसमान से नहीं टपकती। उसे पुरुषार्थपूर्वक, मनोबल के सहारे अर्जित करना पड़ता है। अब तक के प्रतिभाशालियों के प्रगतिक्रम पर दृष्टिपात करने से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि अपनाए गये काम में उल्लास भरी उमंगें उमड़ती रहीं, मानसिक एकाग्रता के साथ तन्मयता जुटाई गई, पुरुषार्थ को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अवरोधों से जूझा गया तथा प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलकर अपनी प्रखरता का परिचय दिया गया। सफलताएँ इसी आधार पर मिलती हैं। सफलता मिलने पर हौसले बुलंद होते हैं। दूने उत्साह से काम करने को जी करता है। इस प्रयास में प्रतिभा विकसित होती है और परिपक्व भी बनती है, उत्कर्ष यही है। अभ्युदय का श्रेय इसी आधार पर आँका जाता है। इक्कीसवीं सदी प्रतिभावानों की क्रीड़ास्थली होगी। उन्हीं के द्वारा वह कर दिखाया जाएगा जो असंभव नहीं तो कष्टसाध्य तो कहा ही जाता रहा है।
  
🔷 हवा का रुख पीठ पीछे हो तो गति में अनायास ही तेजी आ जाती है। वर्षा के दिनों में बोया गया बीज सहज ही अंकुरित होता है और उस अंकुर को पौधे के रूप में लहलहाते देर नहीं लगती। वसंत में मादाएँ गर्भधारण के कीर्तिमान बनाती हैं। किशोरावस्था बीतते-बीतते जोड़ा बनाने की उमंग अनायास ही उभरने लगती है। वातावरण की अनुकूलता में, उस प्रकार के प्रयास गति पकड़ते हैं और प्राय: सफल भी होते हैं।
  
🔶 दिव्यदर्शी अंत: स्फुरणा के आधार पर यह अनुभव करते हैं कि समय के परिवर्तन की ठीक यही वेला है। नवयुग के अरुणोदय में अब अधिक विलंब नहीं है। जनमानस वर्तमान अवांछनीयताओं से खीझ और ऊब उठा है। उसकी आकुलता, आतुरता के साथ वह दिशा अपना रही है, जिस पर चलने से घुटन से मुक्ति मिल सके और चैन की साँस लेने का अवसर मिल सके। साथ ही विश्व वातावरण ने भी अपना ऐसा निश्चय बनाया है कि अनौचित्य को उलटकर औचित्य को प्रतिष्ठित करने में अनावश्यक विलंब न किया जाए। उथल-पुथल के ऐसे चिह्न प्रकट हो रहे हैं जो बताते हैं कि नियति की अवधारणा-सदाशयता की ज्ञानगंगा का अवतरण, आज की आवश्यकता के अनुरूप इन्हीं दिनों बन पड़ना सुनिश्चित है।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 49

👉 Scientific Basis of Gayatri Mantra Japa (Part 6)

🔶 The second step in the sadhana is to assimilate in practice what has been learnt. Observation and analysis of the lower self cluttered with impurities is of no avail unless it is coupled with simultaneous attempts at cleansing out and refinement. Japa-sadhana helps in developing the inner strength and determination towards self-cleansing and self-refinement. The advanced spiritual masters affirm that the japa of Gayatri Mantra brings about rapid removal of ingrained vices and evil tendencies. Progress in this direction further accelerates inner purification, as it deepens the sadhaka's meditation and thus reinforces the linkage of the sadhaka's higher inner self with the indwelling divinity which the mantra invokes. During this process one experiences ups and downs in the mental and emotional domains.

🔷 The baser instincts and tendencies accumulated during innumerable births of the fallen soul in different forms before the present life are not easy to be uprooted and thrown out. These kusamskaras, coupled with the ignorance-driven ego, struggle hard to obstruct the process of inner purification in the initial phases.

🔶 However, with the continuity of the japa- sadhana the devotee realizes that he is not the body but the eternal soul and therefore gains the light and courage to fight and eliminate all the hurdles in the path of self-realization. He consciously and gladly undergoes the prescribed austerities to loosen the hold of internal evils and passions. He understands that only the path of selfless service leads to true happiness, and that spiritual life is far more superior to life wasted in the pursuit of materialistic success and power.

📖 Akhand Jyoti, Mar Apr 2003

👉 First Give, Then Gain

🔶 Great personalities always appeal and motivate people in their contact to give something for noble causes. They themselves sacrifice everything they had. This is what makes them great. Thorough  pondering over this fact has taught me that there is no religious duty greater than giving or sacrificing (for others’ welfare), which we can do any time (provided we have the will and attitude). There is no better mode than renunciation (of selfish possessions and attachments) for elimination of evil tendencies and untoward accumulation in the mind.

🔷 If you want to acquire precious knowledge, attain people’s respect, achieve something great, then first learn to give what best you can for the society, for altruistic service. Donate your talents, intellect, time, labor, wealth, whatever potentials or resources you have for the betterment of the world…; you will get manifold of that in return… Gautam Buddha had renounced the royal throne; Gandhi had left the brilliant career, wealth, comforts… As the world has witnessed, what they were rewarded in return was indeed immeasurable, immortal…

🔶 It is worth recalling the beautiful verse of renowned poet Rabindranath Tagore here, which says – He spread his hands open and asked for something… I took out a tiny piece of grain from my bag and kept on His palm. At the end of the day, I found a golden piece of same size in my bag. I cried – why didn’t I empty my bag for Him, which would have transformed me, the poor man into a King of Wealth?

📖 Akhand Jyoti, March. 1940

👉 पहले दो, पीछे पाओ

🔶 यह प्रश्न विचारणीय है कि महापुरुष अपने पास आने वालों से सदैव याचना ही क्यों करता है? मनन के बाद मेरी निश्चित धारणा हो गई कि त्याग से बढ़कर प्रत्यक्ष और तुरंत फलदायी और कोई धर्म नहीं है। त्याग की कसौटी आदमी के खोटे-खरे रूप को दुनिया के सामने उपस्थित करती है। मन में जमे हुए कुसंस्कारों और विकारों के बोझ को हलका करने के लिए त्याग से बढ़कर अन्य साधन हो नहीं सकता।

🔷 आप दुनिया से कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, विद्या, बुद्धि संपादित करना चाहते हैं, तो त्याग कीजिए। गाँठ में से कुछ खोलिए। ये चीजें बड़ी महंगी हैं। कोई नियामक लूट के माल की तरह मुफ्त नहीं मिलती। दीजिए, आपके पास पैसा, रोटी, विद्या, श्रद्धा, सदाचार, भक्ति, प्रेम, समय, शरीर जो कुछ हो, मुक्त हस्त होकर दुनिया को दीजिए, बदले में आप को बहुत मिलेगा। गौतम बुद्ध ने राजसिंहासन का त्याग किया, गाँधी ने अपनी बैरिस्टरी छोड़ी, उन्होंने जो छोड़ा था, उससे अधिक पाया।

🔶 विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी एक कविता में कहते हैं, ``उसने हाथ पसार कर मुझ से कुछ माँगा। मैंने अपनी झोली में से अन्न का एक छोटा दाना उसे दे दिया। शाम को मैंने देखा कि झोली में उतना ही छोटा एक सोने का दाना मौजूद था। मैं फूट-फूट कर रोया कि क्यों न मैंने अपना सर्वस्व दे डाला, जिससे मैं भिखारी से राजा बन जाता।’’

📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1940 पृष्ठ 9
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1940/March/v1.9

👉 शांति और सौन्दर्य अपने ही अन्दर निहित

🔶 उनसे प्यार करो, जिन्हें लोग पतित, गर्हित और हेय समझते हैं। जिन्हें केवल निन्दा और भर्त्सना ही मिलती है। जो अपने ऊपर लदे हुए पिछड़ेपन के कारण न किसी के मित्र बन पाते हैं और न जिन्हें कोई प्यार करता है। प्यार करने योग्य वही लोग हैं, जिन्हें स्नेह- सद्भाव देकर तुम अपने को गौरवान्वित करोगे। मांगो मत, चाहो मत, देकर ही अपने को गौरवान्वित अनुभव करो।

🔷 उन्हें देखने के लिए मत दौड़ो, जिनकी त्वचा चमकीली और गठन में सुन्दरता भरी है। ऐसा तो तितलियाँ और भौंरे भी कर सकते हैं। तुम उन्हें निहारो जो दरिद्रता और रुग्णता की चक्की में पिसकर कुरूप लगने लगे हैं। अभावों के कारण जिनकी अस्थियाँ उभर रही हैं और आँखों की चमक छिन गयी है। निराश दिलों में आशा का संचार करके तुम अपने को धन्य अनुभव करोगे।

🔶 कोलाहल और क्रंदन के साथ जुड़ी हुई विपन्नताओं को देखकर न डरो और न भागो। वरन् वह करो, जिससे अशान्ति को निरस्त और शान्ति को प्रशस्त कर सको। शांति पाने के लिए न एकान्त ढूँढ़ो और न उद्यानों में भटको। वह तो तुम्हारे अन्दर है और तब प्रकट होती है जब तुम कोई ऐसा काम करते हो, जिससे अनीतियों और भ्रांतियों का  निराकरण हो सके। सत्प्रयत्नों के साथ ही शांति जुड़ी हुई है।

✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य

शनिवार, 25 अगस्त 2018

👉 सभी जीवों में शिव की सेवा करो

🔷 जो शिव की सेवा करना चाहता है, उसे पहले उनकी सन्तानों - विश्व के प्राणियों की सेवा करनी होगी। शास्त्रों में कहा है कि जो भगवान के दासों की सेवा करता है वही भगवान का सर्वश्रेष्ठ दास है। यह बात सदा ध्यान में रखनी होगी। निःस्वार्थपरता ही धर्म की कसौटी है। जिसमें जितनी अधिक निःस्वार्थपरता है, वह उतना ही अध्यात्मिक और उतना ही शिव के समीप है। चाहे वह विद्वान हो गया मूर्ख, शिव का सामीप्य दूसरों की अपेक्षा उसे ही प्राप्त है, चाहे उसे इसका ज्ञान हो या न हो। और इसके विपरीत यदि कोई स्वार्थी है, तो चाहे अपनी शक्ल चीते जैसी क्यों न बना ली हो, शिव से वह बहुत दूर है।

~ रामकृष्ण परमहंस

👉 चाबी बन जाओ

🔷 किसी गाँव में एक ताले वाले की दुकान थी,ताले वाला रोजाना अनेकों चाबियाँ बनाया करता था। ताले वाले की दुकान में एक हथौड़ा भी था, वो हथौड़ा रोज देखा करता कि ये चाभी इतने मजबूत ताले को भी कितनी आसानी से खोल देती है।

🔶 एक दिन हथौड़े ने चाभी से पूछा कि मैं तुमसे ज्यादा शक्तिशाली हूँ, मेरे अंदर लोहा भी तुमसे ज्यादा है और आकार में भी तुमसे बड़ा हूँ लेकिन फिर भी मुझे ताला तोड़ने में बहुत समय लगता है और तुम इतनी छोटी हो फिर भी इतनी आसानी से मजबूत ताला कैसे खोल देती हो।

🔷 चाभी ने मुस्कुरा के ताले से कहा कि तुम ताले पर ऊपर से प्रहार करते हो और उसे तोड़ने की कोशिश करते हो लेकिन मैं ताले के अंदर तक जाती हूँ, उसके अंतर्मन को छूती हूँ और घूमकर ताले से निवेदन करती हूँ और ताला खुल जाया करता है।

🔶 वाह! कितनी गूढ़ बात कही है चाभी ने कि मैं ताले के अंतर्मन को छूती हूँ,और वो खुल जाया करता है।

🔷 इसीलिये हम और आप कितने भी शक्तिशाली हो या कितनी भी हम और आपके पास ताकत हो, लेकिन जब तक हम और आप लोगों के दिल में नहीं उतरेंगे, उनके अंतर्मन को नहीं छुएंगे तब तक कोई आपकी इज्जत नहीं करेगा।

🔶 हथौड़े के प्रहार से ताला खुलता नहीं बल्कि टूट जाता है, ठीक वैसे ही अगर हम और आप शक्ति के बल पर कुछ काम करना चाहते हैं, तो आप सामान्यत: नाकामयाब रहेंगे क्योंकि शक्ति के द्वारा आप किसी के दिल को छू नही सकते है।

तो
"चाबी बन जाओ, सबके दिल की चाबी"

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 26 August 2018


👉 आज का सद्चिंतन 26 Aug 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 38)

👉 बड़े कामों के लिए वरिष्ठ प्रतिभाएँ

🔷 निजी जीवन में प्रतिभा परिष्कार का शुभारंभ आलस्य और प्रमाद से निपटने को वरीयता देेकर करना चाहिए। छोटे काम सहायकों से कराते हुए बड़े-कठिन और वजनदार कार्यों का दायित्व अपने कंधों पर ओढ़ना चाहिए। हलके काम तलाश करने और किसी प्रकार मौज-मजे में समय काटने की आदत मनुष्य को आजीवन अनगढ़ ही बनाए रहती है। जो अपने हिस्से के काम के साथ-साथ समूचे संबद्ध क्षेत्र के हर पक्ष के उतार-चढ़ावों का ध्यान रखते हैं और संबद्ध व्यक्तियों को उसमें सुधार के आवश्यक परामर्श प्रस्ताव के रूप में नम्रतापूर्वक देते रहते हैं, वस्तुत: उन्हीं को सूत्र संचालक समझा जाता है। ऐसे लोग अहंकारी और आग्रही नहीं होते। आदेश भी नहीं देते। अपने प्रस्ताव इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं, जिसमें अपने अहंकार की, विशेषज्ञ होने की गंध न आती हो और दूसरों पर आक्षेप या दोषारोपण भी न लदता हो। सत्परामर्श की ही नहीं, तिरस्कारपूर्ण आदेश की भी अवहेलना होती है, कारण कि इसमें दूसरों के स्वाभिमान को चोट जो लगती है।
  
🔶 कोल्हू का बैल भी अपने नियत काम में लगा रहता है। विशेषता उसकी है, जो संबद्ध परिकर के हर पक्ष पर ध्यान रखता है। संभावनाओं की कल्पना करता है और शतरंज की गोटियों की तरह सतर्कतापूर्वक बाजी जीतने वाली चाल चलता रहता है। व्यवस्थापक ऐसे ही लोग बन पाते हैं और वे न केवल अपने काम की, वरन् समूचे संबद्ध का  सुनियोजन कर सकने की क्षमता सिद्ध करते हुए, अगले दिनों अधिक ऊँची श्रेणी का दायित्व सौंपे जाने का श्रेय उपलब्ध करते हैं। व्यावहारिक क्षेत्र का धर्मात्मा ऐसे ही लोगों को कहना चाहिए। अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि दार्शनिक-नैतिक सद्गुण तो प्रथम कक्षा में उत्तीर्ण होने के उपरांत ही सफलतापूर्वक संचित किए जा सकते हैं। आरंभ तो निजी जीवन में उत्साह भरी व्यस्तता अपनाने से होता है।

🔷 परिवार क्षेत्र में प्रतिभाशालियों द्वारा, व्यवस्था संबंधी प्रयोग करना सरल पड़ता है। परिवार के सदस्यों से निरंतर संपर्क रहता है, उनके साथ आत्मीयता भरा बंधन भी रहता है, इसलिए अनुशासन पालने के लिए उन्हें अनुरोध एवं आग्रह के आधार पर अधिक अच्छी तरह सुनियोजित किया जा सकता है। इसी अभ्यास को जब व्यवसाय या समाज क्षेत्र में प्रयुक्त किया जाता है, तो उन्हें बड़े क्षेत्र की बड़ी सफलता का श्रेय भी अधिक मिलता है और व्यक्तित्व में प्रतिभा परिवर्धन का लाभ भी अनवरत रूप से मिलता चला जाता है।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 48

👉 Scientific Basis of Gayatri Mantra Japa (Part 5)

🔷 The same is true about the impact of japa too; the effects of the mantra-vibrations cannot be felt without rhythmic repetition. The "dhi" element of the Gayatri Mantra refers to prayer for the awakening of intellect. Just uttering it once or twice cannot have the desired effect. Our mind is like a barren, uneven, hard landscape, which frustrates all attempts at its calming and refinement. In order to make the seed of sadhana germinate and sprout, the field of mind needs to be cleared, ploughed and irrigated with the help of japa; one has to peep inside and identify, mercilessly uproot and throw out the debris of accumulated evil tendencies. Sowing the seeds of virtues is not possible without this cleaning of deep rooted negativities. Japa can also be likened to cleaning, sharpening and glazing. Its repeated friction and subtle pressure calms down and cleanses the mind so that it could clearly reflect glow of the spirit.

🔶 Every devotee of Gayatri should therefore perform japa everyday for a fixed number of times at a fixed place, during fixed intervals of time. The arbitrary mode of excessive watering on some days and keeping the land dry on the others does not serve the purpose of proper irrigation of field. The same is true of the training of mind by japa. Regularity, sincerity, patience and consistency should be observed in this practice, as far as possible. This should also be continued over a long duration depending upon the sadhaka's inherent tendencies and mentality- till the dawn of the rays of success in the sadhana.

📖 Akhand Jyoti, Mar Apr 2003

👉 बड़प्पन की सही कसौटी

🔷 वैभव के आधार पर बड़प्पन आँकने की प्रथा इस संसार में है। जिनके पास जितनी संपदा, शिक्षा एवं चतुरता है, उसी अनुपात से उसके बड़प्पन का मूल्य आँका जाता है। बलिष्ठता और प्रतिभा भी उसी वर्ग में आती है, जो दूसरों पर अपनी छाप छोड़ती है तथा धाक जमाती है। लोग उग्रता, आतंकवाद, दुष्टता और हानि पहुंचाने की शाक्ति को देखते हुए भी डरते हैं, मान देते हैं।

🔶 बड़प्पन के मूल्यांकन की यह सभी कसौटियाँ ओछी तथा खोटी हैं। इनके सहारे हम किसी व्यक्ति का सही मूल्यांकन नहीं कर सकते। कसौटी ही खोटी हो, तो सोने और पीतल का अन्तर कैसे जाना जाय?

🔷 व्यक्तित्व की वास्तविक ऊँचाई उसकी सुसंस्कारिता के आधार पर आँकी जानी चाहिए। देखा जाना चाहिए कि किसने अपने आप में गुण, कर्म, स्वभाव के क्षेत्र में कितनी उत्कृष्टता अपनाई है और निजी चरित्र तथा दूसरों के साथ सद्व्यवहार में किस सीमा तक अपनी विशिष्टता अपनाई है।

🔶 जो अपने को जितना संयत, सज्जन और अनुशासित बना सका, वह उतना ही महान् है। धर्म- चिह्नो या प्रचलनों से कोई धर्मात्मा नहीं बनता। जिसने आदर्शांे के प्रति अपनी निष्ठा जिस सीमा तक परिपक्व की है, वस्तुतः उसी का बड़प्पन सफल और सराहनीय है।

✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...