गुरुवार, 20 जनवरी 2022

👉 सत्य के तीन पहलू

भगवान बुद्ध के पास एक व्यक्ति पहुँचा। बिहार के श्रावस्ती नगर में उन दिनों उनका उपदेश चल रहा था। शंका समाधान के लिए- उचित मार्ग-दर्शन  के लिए लोगों की भीड़ उनके पास प्रतिदिन लगी रहती थी।

एक आगन्तुक ने पूछा- क्या ईश्वर है? बुद्ध ने एक टक उस युवक को देखा- बोले, “नहीं है।” थोड़ी देर बाद एक दूसरा व्यक्ति पहुँचा। उसने भी उसी प्रश्न को दुहराया- क्या ईश्वर हैं? इस बार भगवान बुद्ध का उत्तर भिन्न था। उन्होंने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा- “हाँ ईश्वर है।” संयोग से उसी दिन एक तीसरे आदमी ने भी आकर प्रश्न किया- क्या ईश्वर है? बुद्ध मुस्कराये और चुप रहे- कुछ भी नहीं बोले। अन्य दोनों की तरह तीसरा भी जिस रास्ते आया था उसी मार्ग से वापस चला गया।

आनन्द उस दिन भगवान बुद्ध के साथ ही था। संयोग से तीनों ही व्यक्तियों के प्रश्न एवं बुद्ध द्वारा दिए गये उत्तर को वह सुन चुका था। एक ही प्रश्न के तीन उत्तर और तीनों ही सर्वथा एक-दूसरे से भिन्न, यह बात उसके गले नहीं उतरी। बुद्ध के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा- अविचल निष्ठा थी पर तार्किक बुद्धि ने अपना राग अलापना शुरू किया, आशंका बढ़ी। सोचा, व्यर्थ आशंका-कुशंका करने की अपेक्षा तो पूछ लेना अधिक उचित है।

आनन्द ने पूछा- “भगवन्! धृष्टता के लिए क्षमा करें। मेरी अल्प बुद्धि बारम्बार यह प्रश्न कर रही है कि एक ही प्रश्न के तीन व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न उत्तर क्यों? क्या इससे सत्य के ऊपर आँच नहीं आती?"

बुद्ध बोले- “आनन्द! महत्व प्रश्न का नहीं है और न ही सत्य का सम्बन्ध शब्दों की अभिव्यक्तियों से है। महत्वपूर्ण वह मनःस्थिति है जिससे प्रश्न पैदा होते हैं। उसे ध्यान में न रखा गया- आत्मिक प्रगति के लिए क्या उपयुक्त है, इस बात की उपेक्षा की गयी तो सचमुच  ही सत्य के प्रति अन्याय होगा। पूछने वाला और भी भ्रमित हुआ तो इससे उसकी प्रगति में बाधा उत्पन्न होगी।"

उस सत्य को और भी स्पष्ट करते हुए भगवान बुद्ध बोले-  "प्रातःकाल सर्वप्रथम जो व्यक्ति आया था, वह था तो आस्तिक पर उसकी निष्ठा कमजोर थी। आस्तिकता उसके आचरण में नहीं, बातों तक सीमित थी। वह मात्र अपने कमजोर विश्वास का समर्थन मुझसे चाहता था। अनुभूतियों की गहराई में उतरने का साहस उसमें न था। उसको हिलाना आवश्यक था ताकि ईश्वर को जानने की सचमुच ही उसमें कोई जिज्ञासा है तो उसे वह मजबूत कर सके इसलिए उसे कहना पड़ा- “ईश्वर नहीं है।”

"दूसरा व्यक्ति नास्तिक था। नास्तिकता एक प्रकार की छूत की बीमारी है जिसका उपचार न किया गया तो दूसरों को भी संक्रमित करेगी। उसे अपनी मान्यता पर अहंकार और थोड़ा अधिक ही विश्वास था। उसे भी समय पर तोड़ना जरूरी था। इसलिए कहना पड़ा- “ईश्वर है।” इस उत्तर से उसके भीतर आस्तिकता के भावों का जागरण होगा। परमात्मा की खोज के लिए आस्था उत्पन्न होगी। उसकी निष्ठा प्रगाढ़ है। अतः उसे दिया गया उत्तर उसके आत्म विकास में सहायक ही होगा।"

"तीसरा व्यक्ति सीधा-साधा, भोला था। उसके निर्मल मन पर किसी मत को थोपना उसके ऊपर अन्याय होता। मेरा मौन रहना ही उसके लिए उचित था। मेरा आचरण ही उसकी सत्य की खोज के लिए प्रेरित करेगा तथा सत्य तक पहुँचायेगा।”

आनन्द का असमंजस दूर हुआ। साथ ही इस सत्य का अनावरण भी कि महापुरुषों द्वारा एक ही प्रश्न का उत्तर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न क्यों होता है? साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि सत्य को शब्दों में बाँधने की भूल कभी भी नहीं की जानी चाहिए।

👉 समय जरा भी बर्बाद न कीजिए (भाग १)

समय को सम्पत्ति कहा गया है। यह गलत भी नहीं है। समय का सदुपयोग करके ही लोग धनवान बनते हैं, विद्वान तथा कर्तृत्ववान बनते हैं। कभी किसी प्रकार भी एक क्षण खराब करना अपनी बड़ी हानि करना है।

जिस प्रकार समय का सदुपयोग लाभकारी होता है उसी प्रकार समय का दुरुपयोग हानिकारक होता है। खाली हाथ बैठा नहीं जा सकता। मनुष्य यदि कोई शारीरिक कार्य न करता हो तो उसके मानसिक तरंग दौड़ रहे होंगे। जिन विचारों के पीछे उद्देश्य नहीं होता, जिनके उपयोग की कोई योजना नहीं होती वे मन मस्तिष्क को विकृत कर देते हैं। फिजूल की कल्पनायें मन में इच्छाओं का जागरण कर देती हैं, ऐसी इच्छायें जिनका कोई स्पष्ट स्वरूप नहीं होता, यों ही मन में उमड़-घुमड़ कर मनुष्य को इधर-उधर लिए घूमती हैं। ऐसी इच्छाओं में काम-वितर्क जैसी विकृत इच्छायें ही अधिक होती हैं।

चौबीस घण्टों में ज्यादा से ज्यादा सामान्य लोग आठ-दस घण्टे ही काम किया करते हैं। बाकी का समय उनके पास बेकार ही रहता है। उस बेकार समय में आठ घण्टे के लगभग नहाने-धोने, सोने में निकल जाते हैं, तब भी उसके पास चार-छह घण्टे तक का समय बिल्कुल बेकार रहता है। इस समय में या तो लोग इधर-उधर मारे-मारे घूमते हैं या यार-दोस्तों के साथ गप मारते, ताश-चौपड़ या शतरंज खेलते हैं। बहुत लोग इसी समय में सिनेमा या स्वांग देखने  जाते हैं या घर में ही बैठ कर पत्नी से मुंह-जोरी या बच्चों पर शासन चलाते हैं, जिससे गृह-कलह होती है। घर का वातावरण खराब होता, बच्चों की हंसी-खुशी मिट जाती है। तात्पर्य यह है कि अपने खाली समय में लोग कुछ ऐसा ही काम किया करते हैं जिसका कोई लाभ तो होता ही नहीं उल्टे कोई हानि या बुराई ही पैदा होती है।

यदि मनुष्य शेष समय का सार्थक सदुपयोग करना सीख जाए तो बहुत-सी बुराइयों से बच जाय और कुछ लाभ भी उठा सकता है। समय का सदुपयोग ही उन्नति का मूल-मन्त्र है। स्त्रियों के पास तो पुरुषों से भी अधिक फालतू समय बचता है। भोजन बनाने खिलाने के उपरान्त उनके पास कोई काम नहीं रहता। काम से निपट कर या तो पड़ी-पड़ी अलसाया करती हैं, या सोया करती हैं अथवा दूसरी स्त्रियों के साथ बैठ कर बातें करेंगी। निन्दा और आलोचना-प्रत्यालोचना का प्रसंग चलायेंगी और कोई बहाना मिल जाने से लड़ाई-झगड़ा करेंगी। फालतू रहना झगड़े-फसाद को आमन्त्रित करना है। यदि पढ़ी-लिखी हुई तो मासिक पत्र-पत्रिकायें और उपन्यास वगैरह पढ़ती रहेंगी सो भी निरुद्देश्य। न ज्ञान के लिए, न स्वास्थ्य, मनोरंजन के लिए, केवल अपना यह फालतू समय काटने के लिये।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १०३)

भक्त स्वयं तरता है और औरों को भी तारता है

गायत्री महाविद्या के महाविज्ञान के अन्वेषक ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने महर्षि कहोड़ से कहा- ‘‘हे ऋषिप्रवर! भक्ति और भक्त किसी भी विज्ञान एवं वैज्ञानिक से श्रेष्ठ हैं क्योंकि विज्ञान एवं वैज्ञानिक तो बस जीवन एवं जगत की छुट-पुट समस्याओं का समाधान करते हैं परन्तु भक्ति एवं भक्त तो जीवन एवं जगत के तारनहार हैं। वह न केवल स्वयं को बल्कि सम्पूर्ण प्राणियों को भवसागर से पार लगाते हैं।’’ महर्षि विश्वामित्र के इस कथन ने देवर्षि नारद को उत्साहित किया। वह प्रसन्न हो उठे। उन्होंने कहा- ‘‘हे ब्रह्मर्षि! आप सत्य कहते हैं। भक्ति एवं भक्त दोनों ही दुर्लभ हैं। यह जहाँ और जिसको सुलभ हो, वह स्थान एवं वह व्यक्ति धन्य हो जाता है। आज हम सब भी धन्य एवं कृतार्थ हैं- क्योंकि महर्षि कहोड़ आज यहाँ हैं, जिनका प्रकाश हम सभी के अन्तःकरण को प्रकाशित कर रहा है।’’

इतना कहकर देवर्षि कुछ पलों के लिए मौन रहे, फिर बोले- ‘‘यदि आप सब अनुमति दें, तो मैं अपने अगले भक्तिसूत्र का उच्चार करूँ।’’ देवर्षि नारद के इस कथन ने ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के साथ महर्षि कहोड़ को भी उत्साहित किया। उत्साहपूरित होकर महर्षि कहोड़ ने कहा- ‘‘हे देवर्षि नारद! मैं तो आपके सूत्रों का ही श्रवण करने यहाँ आया हूँ। आप जैसे परम भगवद्भक्त से भक्ति की बात सुनकर मैं स्वयं को कृतार्थ अनुभव करूँगा।’’ ऋषि कहोड़ के इतना कहने पर ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने कहा- ‘‘आप अपना सूत्र कहें देवर्षि, क्योंकि मेरा विश्वास है कि आप अपने सूत्र के सत्य एवं तत्त्व को वेदमाता गायत्री के परम भक्त महर्षि कहोड़ के व्यक्तित्व में साकार एवं चरितार्थ होता अनुभव करेंगे।’’
‘‘आपके विश्वास में मेरा विश्वास भी सम्मिलित है ब्रह्मर्षि।’’ इतना कहने के साथ देवर्षि नारद ने कहा-
‘स तरति स तरति स लोकांस्तारयति’॥ ५०॥
वह तरता है, वह तरता है, वह लोगों को तार देता है।

‘‘अद्भुत! विलक्षण!! किन्तु सर्वथा सत्य!!!’’ इसे सुनकर अनेकों के मुख से बरबस निकल पड़ा। हाँ! ऋषि कहोड़ अवश्य मौन बने रहे। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का हर्षातिरेक उनके मुख पर छलक आया। उन्होंने कहा- ‘‘देवर्षि!  ऋषि कहोड़ की भक्ति का और उन पर उड़ेले जा रहे भगवती वेदमाता के अनुराग का मैं स्वयं साक्षी हूँ। यदि आप अनुमति दे तो मैं कुछ कहूँ।’’ ‘‘अवश्य भगवन्! यह आपकी हम सभी पर कृपा होगी’’।

देवर्षि के कथन का समर्थन अन्य ऋषिगणों ने भी किया। सभी की बातें सुनकर ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने कहा- ‘‘तप, योग, ध्यान, ज्ञान आदि जितनी भी आध्यात्मिक साधनाएँ हैं, वे सभी जीवन में सत्त्वगुण को बढ़ाने वाली हैं परन्तु फिर भी इनमें कहीं न कहीं, रजस का प्रभाव बना रहता है। फिर भले ही यह कितना ही कम क्यों न हो परन्तु भक्त एवं भक्ति की श्रेणी अलग है। यह शुद्धतम सत्त्व है, यह न तो तमस की छाया है और न ही रजस का कोई प्रभाव। उल्टे एक परम आश्चर्य यहाँ घटित होता है। वह आश्चर्य यह है कि यदि भक्ति एवं भक्त अपने में यदि सत्य हो तो उनके स्पर्श एवं सान्निध्य मात्र से रजस एवं तमस भी सत्त्व की शुद्धता में रूपान्तरित हो जाते हैं। यही कारण है कि भक्त न केवल स्वयं को तारता है बल्कि लोक के सभी प्राणियों को तारने का कारण बनता है और ऐसा करने के लिए उसे कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं रहती है। उसका स्पर्श एवं सान्निध्य ही इसके लिए पर्याप्त है। इसी से जीवों के जीवन का स्वतः रूपान्तरण हो जाता है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १९७

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...