शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 12)


सभी में गुरु ही है समाया

इस सूत्र को वही समझ सकते हैं, जो अपने गुरुदेव के प्रेम में डूबे हैं। जो इस अनुभव के रस को चख रहे हैं, वे जानते हैं कि जब प्रेम गहरा होता है तो प्रेम करने वाले खो जाते हैं, बस प्रेम ही बचता है। जब भक्त अपनी पूरी लीनता में होता है, तो भगवान् और भक्त में कोई फासला नहीं होता। अगर फासला हो तो भक्ति अधूरी है, सच कहें तो भक्ति है ही नहीं। वहाँ भक्त और भगवान् परस्पर घुल- मिल जाते हैं। दोनों के बीच एक ही उपस्थिति रह जाती है। ये दोनों घोर लीन हो जाते हैं और एक ही अस्तित्व रह जाता है। प्रेम और भक्ति में अद्वैत ही छलकता एवं झलकता है।

सच यही है कि सारा अस्तित्व एक है और हममें से कोई उस अस्तित्व से अलग- थलग नहीं है। हम कोई द्वीप नहीं है, हमारी सीमाएँ काम चलाऊ हैं। हम किन्हीं भी सीमाओं पर समाप्त नहीं होते। सच कहें तो कोई दूसरा है ही नहीं तो फिर दूसरे के साथ जो घट रहा है, वह समझो अपने ही साथ घट रहा है। थोड़ी दूरी पर सही, लेकिन घट अपने ही साथ रहा है।

भगवान् महावीर, भगवान् बुद्ध अथवामहर्षी पतंजलि ने जो अहिंसा की महिमा गायी, उसके पीछे भी यही अद्वैत दर्शन है। इसका कुल मतलब इतना ही है कि शिष्य होते हुए भी यदि तुम किसी को चोट पहुँचा रहे हो, या दुःख पहुँचा रहे हो अथवा मार रहे हो तो दरअसल तुम गुरु घात या आत्म घात ही कर रहे हो, क्योंकि गुरुवर की चेतना में तुम्हारी अपनी चेतना के साथ समस्त प्राणियों की चेतना समाहित है।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/alls
अहंकार छोड़ें अहंभाव अपनाएं (भाग 3)

किसी का रंग गोरा हो- छवि सुन्दर हो, तो उसके इतराने के लिये यह भी बहुत है। फिर उसके नखरे देखते ही बनते हैं। छवि को सजाने में ऐसा लगा रहता है मानो शृंगार का देवता वही हो। अन्य लोग उसे अष्टावक्र की तरह काले कुरूप दीखते हैं और कामदेव का अवतार अपने में ही उतरा दीखता है। उसकी इस विशेषता को लोग देखें तो- समझें तो-सराहें तो यही धुन हर घड़ी लगी रहती है।

तरह तरह के वेश विन्यास, शृंगार सज्जा की ही उधेड़बुन छाई रहती है। दर्पण को क्षण भर के लिए छोड़ने को भी जी नहीं करता। यह रूप का प्रदर्शन करने की प्रवृत्ति भिन्न लिंग वालों को आकर्षित करने की ओर बढ़ती है। पुरुष स्त्रियों के सामने और स्त्रियाँ पुरुषों के सामने इस तरह बन-ठन कर निकलते हैं जिससे उन्हें ललचाई आँखों से देखा जाय। वर्तमान शृंगारिकता इसी ओछेपन को लेकर बढ़ रही है और उसकी प्रतिक्रिया मानसिक व्यभिचार से आरम्भ होकर शारीरिक व्यभिचार में परिणत हो रही है। अहंकार की यह रूप परक प्रवृत्ति उस सुसज्जा शृंगारी को ऐसे जाल-जंजाल में फँसा देती है जिससे वह अपनी प्रतिष्ठा और शालीनता गँवाकर विपत्ति ही मोल लेता है।

धन का अहंकार ऐसे ठाट-बाट खड़े करता है जिससे उसकी अमीरी सबको विदित हो। मोटर, बँगले, जेवर, वस्त्र ठाट-बाट का इतना बवण्डर जमा कर लिया जाता है जिसके बिना आसानी से काम चलता रह सकता था। विवाह शादियों में लोग अन्धाधुन्ध पैसा फूँकते हैं। उसके पीछे अपनी अमीरी का विज्ञापन करने के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं होता।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई 1972 पृष्ठ 15-16
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/July.15
 

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...