शनिवार, 30 सितंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 30 Sep 2023

🔷 बातों से नहीं काम से ही किसी की निष्ठा परखी जाती है और जो निष्ठावान् हैं उनको दूसरों का हृदय जीतने में सफलता मिलती है। हमारे लिए भी हमारे निष्ठावान् परिजन ही प्राणप्रिय हो सकते हैं। लोक सेवा की कसौटी पर जो खरे उतर सकें, ऐसे ही लोगों को परमार्थी माना जा सकता है। आध्यात्मिक पात्रता इसी कसौटी पर परखी जाती है।

🔶 सच्चा तप निर्बल को सबल, निर्धन को धनी, प्रजा को राजा, शूद्र को ब्राह्मण, दैत्य को देवता, दास को स्वामी और भिक्षुक को दाता बना देता है। सच्चे तप का भाव उस देश-भक्त में है जो अपने देश एवं अपनी जाति के गौरव और प्रतिष्ठा, कीर्ति और मान, सम्पत्ति और ऐश्वर्य की वृद्धि और उन्नति के लिए दृढ़ इच्छा रखता है। अनेक प्रकार के दुःखों, कष्टों और संकटों को सहन करने, कठिन से कठिन मेहनत और श्रम को उठाने और विघ्नों से मुकाबला करने के लिए उद्यत रहता है।        
                                                
🔷 कर्मफल को और अपने कर्म को ईश्वरीय सत्ता पर छोड़ देना जीवन का एक बहुत बड़ा समाधान है। अपने कर्म और उसके अच्छे, बुरे, अनुकूल, प्रतिकूल परिणामों का बोझा उठाये रखने वाला आदमी चैन, सुख, शान्ति, सन्तोष अनुभव नहीं कर सकता। उसकी स्थिति समुद्री लहर में पड़े उस दुर्बल मनुष्य जैसी हो जाती है जो कभी इधर कभी उधर थपेड़े खाता रहता है और हाँफता रहता है। कर्म और कर्मफल का ईश्वर को समर्पण कर देने पर मनुष्य एक बहुत बड़े बोझ से मुक्त हो जाता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 पतन नहीं उत्थान का मार्ग अपनायें

पालतू पशुओं के बंधन में बँधकर रहना पड़ता है, पर मनुष्य को यह सुविधा प्राप्त है कि स्वतन्त्र जीवन जियें और इच्छित परिस्थितियों का वरण करें। 

उत्थान और पतन के परस्पर विरोधी दो मार्गों में से हम जिसको भी चाहें अपना सकते हैं। पतन के गर्त में गिरने की छूट है। यहाँ तक कि आत्महत्या पर उतारू व्यक्ति को  भी बलपूर्वक बहुत दिन तक रोके नहीं रखा जा सकता। 

यही बात उत्थान के सम्बन्ध में भी है। वह जितना चाहे उतना ऊँ चा उठ सकता है। पक्षी उन्मुक्त आकाश में विचरण करते, लम्बी दूरी पार करते, सृष्टि के सैन्दर्य का दर्शन करते हैं। पतंग भी हवा के सहारे आकाश चूमती है। आँधी के सम्पर्क में धूलिकण और तिनके तक ऊँची उड़ानें भरते हैं। फिर मनुष्य को उत्कर्ष की दिशाधारा अपनाने से कौन रोक सकता है?

आश्चर्य है कि लोग अपनी क्षमता और बुद्धिमत्ता का उपयोग पतन के गर्त में गिरने लिए करते हैं। यह तो अनायास भी हो सकता है। ढेला फेंकने पर नीचे गिरता है और बहाया हुआ पानी नीचे की दिशा में बहाव पकड़ लेता है।

दूरदर्शिता इसमें है कि ऊँचा उठने की बात सोची और वैसी योजना बनाई जाय। जिनके कदम इस दिशा में बढ़ते हैं, वे नर पशु न रहकर महामानव बनते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

शुक्रवार, 29 सितंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 29 Sep 2023

तुम सब हमारी भुजा बन जाओ, हमारे अंग बन जाओ, यह हमारे मन की बात है। अब तुम पर निर्भर है कि तुम कितना हमारे बनते हो? समर्पण का अर्थ है दो का अस्तित्व मिट कर एक हो जाना। तुम भी अपना अस्तित्व मिटाकर हमारे साथ मिला दो व अपनी क्षुद्र महत्त्वाकांक्षा को हमारी अनन्त आध्यात्मिक महत्त्वाकांक्षाओं में विलीन कर दो। जिसका अहं जिन्दा है, वह वेश्या है। जिसका अहं मिट गया वह पवित्र है। देखना है कि हमारी भुजा, आंख, मस्तिष्क बनने के लिए तुम कितना अपने अहं को गला पाते हो?

आज दुनिया में पार्टियां तो बहुत हैं, पर किसी के पास कार्यकर्त्ता नहीं हैं। लेबर सबके पास है, पर समर्पित कार्यकर्त्ता जो सांचा बनता है व कई को बना देता है अपने जैसा, कहीं भी नहीं है। हमारी यह दिली ख्वाहिश है कि हम अपने पीछे कार्यकर्त्ता छोड़ कर जाएं। इन सभी को सही अर्थों में डाई एक सांचा बनना पड़ेगा तथा वही सबसे मुश्किल काम है। रॉ मैटेरियल तो ढेरों कहीं भी मिल सकता है, पर डाई कहीं-कहीं मिल पाती है। श्रेष्ठ कार्यकर्त्ता श्रेष्ठतम डाई बनाता है। तुम सबसे अपेक्षा है कि अपने गुरु की तरह एक श्रेष्ठ सांचा बनोगे।          
                                                  
अपना मन सभी से मिलाओ। मिल-जुलकर रहो, अपना सुख बांटो-दुःख बंटाओ। यही सही अर्थों में ब्राह्मणत्व की साधना है। साधु तुम अभी बने नहीं हो। मन से ब्राह्मणत्व की साधना करोगे, तो पहले ब्राह्मण बनो तो साधु अपने आप बन जाओगे। सेवा बुद्धि का, दूसरों के प्रति पीड़ा का, भाव सम्वेदना का विकास करना ही साधुता को जगाना है। आशा है, तुम इसे अवश्य पूरा करोगे व हमारी भुजा, आंख व पैर बन जाने का संकल्प लोगे, यही आत्मा की वाणी है, जो तुमसे कुछ कराना चाहती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 पितरों को श्रद्धा दें, वे शक्ति देंगे

मरने के बाद क्या होता है? इस प्रश्न के उत्तर में विभिन्न धर्मों में विभिन्न प्रकार की मान्यताएं हैं। हिन्दूधर्म शास्त्रों में भी कितने ही प्रकार से परलोक की स्थिति और वहां आत्माओं के निवास का वर्णन किया है। इन मत भिन्नताओं के कारण सामान्य मनुष्य का चित्त भ्रम में पड़ता है कि इन परस्पर विरोधी प्रतिपादनों में क्या सत्य है क्या असत्य?

इतने पर भी एक तथ्य नितान्त सत्य है कि मरने के बाद भी जीवात्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता वरन् वह किसी न किसी रूप में बना ही रहता है। मरने के बाद पुनर्जन्म के अनेकों प्रमाण इस आधार पर बने रहते हैं कि कितने ही बच्चे अपने पूर्व जन्म के स्थानों सम्बन्धियों और घटनाक्रमों का ऐसा परिचय देते हैं जिन्हें यथार्थता की कसौटी पर कसने में यह विवरण सत्य ही सिद्ध होता है। अपने पूर्व जन्म से बहुत दूर किसी स्थान पर जन्मे बच्चे का पूर्व जन्म के ऐसे विवरण बताने लगना, जो परीक्षा करने पर सही निकलें, इस बात का प्रमाण बताता है कि मरने के बाद पुनः जन्म भी होता है।

मरण और पुनर्जन्म के बीच के समय में जो समय रहता है उसमें जीवात्मा क्या करता है? कहां रहता है? आदि प्रश्नों के सम्बन्ध में भी विभिन्न प्रकार के उत्तर हैं पर उनमें भी एक बात सही प्रतीत होती है कि उस अवधि में उसे अशरीरी किन्तु अपना मानवी अस्तित्व बनाये हुए रहना पड़ता है। जीवन मुक्त आत्माओं की बात दूसरी है। वे नाटक की तरह जीवन का खेल खेलती हैं और अभीष्ट उद्देश्य पूरा करने के उपरान्त पुनः अपने लोग को लौट जाती हैं।

इन्हें वस्तुओं, स्मृतियों, घटनाओं एवं व्यक्तिओं का न तो मोह होता है और न उनकी कोई छाप इन पर रहती है। किन्तु सामान्य आत्माओं के बारे में यह बात नहीं है। वे अपनी अतृप्त कामनाओं, विछोह, संवेदनाओं, राग-द्वेष की प्रतिक्रियाओं से उद्विग्न रहती हैं। फलतः मरने से पूर्व वाले जन्मकाल की स्मृति उन पर छाई रहती है और अपनी अतृप्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने के लिए ताना-बाना बुनती रहती हैं। पूर्ण शरीर न होने से वे कुछ अधिक तो नहीं कर सकतीं, पर सूक्ष्म शरीर से भी वे जिस-तिस को अपना परिचय देती हैं। इस स्तर की आत्माएं भूत कहलाती हैं। वे दूसरों को डराती या दबाव देकर अपनी अतृप्त अभिलाषाएं पूरी करने को सहायता करने के लिए बाधित करती हैं।

भूतों के अनुभव प्रायः डरावने और हानिकारक ही होते हैं। पर जो आत्माएं भिन्न प्रकृति की होती हैं, वे डराने, उपद्रव करने से विरत ही रहती हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति भवन में समय-समय पर जिन पितरों के अस्तित्व अनुभव में आते रहते हैं उनके आधार पर यह मान्यता बन गई है कि वहां पिछले कई राष्ट्रपतियों की प्रेतात्माएं डेरा डाले पड़ी हैं। इनमें अधिक बार अपने अस्तित्व का परिचय देने वाली आत्मा अब्राहमलिंकन की है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य


गुरुवार, 28 सितंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 28 Sep 2023

🔶 किसी को दोषी बताकर अपने को और निराश न करें। परिस्थितियों से समझौता करें और उन्हें अनुकूल बनायें। कुछ रास्ते बन्द हो जाने पर भी कुछ खुले रहते हैं। ऐसा नहीं है कि सारे रास्ते ही बन्द हो जाये। जब आप नयापन खोजेंगे तो आशा की नई किरण फूटने लगेगी। जीवन में प्रतिद्वन्द्व न जगायें, किसी से घृणा न करें, प्रेमपूर्ण व्यवहार रखें। हर्बर्ट स्वूप लिखता है, सफलता का रहस्य तो मैं नहीं बता सकता, मगर असफलताओं का रहस्य जरूर बता सकता हूँ। वह है हर किसी को खुश करने की कोशिश।’ जीवन को आवश्यक कार्यों में व्यक्त रखें और अनावश्यक कार्यों में उलझकर व्यस्त रहने का रोना न रोयें। आशावादी बनकर अपने जीवन और जन-जीवन की प्रेरणा श्रोत बनें।

🔷 जीवन में कई बार अनपेक्षित परिस्थितियाँ आती हैं, जिनके कारण अपने प्रति विश्वास डगमगाने लगता है और व्यक्ति उन परिस्थितियों में किंकर्तव्य विमूढ़ होकर उपलब्ध साधनों का उपयोग करने में संकोच करने लगता है अथवा यह सोचने लगता है कि वह इन साधनों के योग्य नहीं है। इस सम्बन्ध में एक विचारक का कथन है कि, ‘दुनिया के कई लोग अपने आपको उन सौभाग्यशाली लोगों से अलग समझते हैं जो महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कर चुके हैं। ऐसा सोचना कितना हानिकारक हैं, इसका अनुमान सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि ऐसे विचार मात्र व्यक्ति को कई ऊँचाइयों पर पहुँचने से रोक देते हैं। अपने आपको बौना समझने वाला व्यक्ति देवता कैसे बन सकता है ?”    
                                              
🔶 इसमें कोई सन्देह नहीं कि कोई भी व्यक्ति केवल उतनी ही सफलताएँ प्राप्त कर सकता है या उतनी ही उपलब्धियाँ अर्जित कर सकता है, जितनी कि वह चाहता है, चाहने को तो लोग न जाने क्या-क्या चाहते, न जाने क्या-क्या आकाँक्षाएँ और इच्छाएँ रखते हैं, पर वैसा चाहना और बात है तथा उसका फलित होना और बात। लोग चाहते हैं कि उसे पास खूब सम्पत्ति जमा हो, पर सौ में से दस प्रतिशत भी सच्चे मन से यह नहीं चाहते कि वे सम्पन्न बनें। उन्हें विश्वास ही नहीं होता कि वे संपन्न भी बन सकते हैं। कोई व्यक्ति दरिद्रता से छुटकारा पाना चाहता है तो उसे दरिद्रता में वैसी ही घुटन अनुभव करना चाहिए जैसी कि डूबने वाला व्यक्ति पानी में डूबते समय करता है, पर वैसी घुटन कहाँ अनुभव होती है ?

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 कर्त्तव्य पालन का अविरल आनन्द

समराँगण की लीला में तलवार आनन्द पाती है, तीर अपनी उड़ान और सनसनाहट में मजा लेता है। पृथ्वी इस आकाश में अपना अन्धाधुन्ध चक्कर लगाने के आनन्द में विभोर है, सूर्यनारायण अपने जगमगाते वैभव में तथा अपनी सनातन गति में सदा सम्राट्-सदृश आनन्द का भोग कर रहा है, तो फिर सचेतन यन्त्र, तू भी अपने नियत कर्म को करने का आनन्द उठा।

तलवार अपने बनाये जाने की माँग नहीं करती, न अपने उपयोगकर्ता के कार्य में बाधा ही डालती है, और टूट जाने पर विलाप भी नहीं करती। बनाए जाने में एक प्रकार का आनन्द है, प्रयुक्त किए जाने में भी एक आनन्द है। इसी के सम आनन्द की तू खोज कर।

क्योंकि तूने यन्त्र को कार्यकर्ता और स्वामी समझने की भूल की है और क्योंकि तू अपनी अज्ञानमयी इच्छा के कारण, अपनी निजी उपयोगिता का विचार करना पसंद करता है, तुझे दुःख और यातनाएँ झेलनी पड़ती हैं, बार-बार लाल दहकती हुई भट्टी के नरक में घुसना पड़ता है, और यह जब तक कि तू अपना मनुष्योचित पाठ पूरा नहीं कर लेगा।

✍🏻 योगी अरविन्द
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1967 पृष्ठ 1
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1967/April/v2.1

बुधवार, 27 सितंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 27 Sep 2023

🔷 आत्म-विश्वासी भाग्य को अपने पुरुषार्थ का दास समझता है तथा उसे अपना इच्छानुवर्ती बना लेता है। इसके लिए आवश्यकता केवल इस बात की है कि उचित मूल्याँकन किया जाए और आत्मविश्वास को सुदृढ़। यदि अपना उचित मूल्याँकन किया जाये तो वह निष्कर्ष अपनी प्रतिभा का स्पर्श पाते ही जीवन्त हो उठता है तथा व्यक्ति बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को लाँघ सकता है। नैपोलियन को अपने विजय अभियान में जब आल्पस् पर्वत पार करने का अवसर आया तो लोगों ने उसे बहुत समझाया कि आज तक आल्पस् पर्वत कोई भी पार नहीं कर सका है और इस तरह की चेष्टा करने वाले को मौत के मुँह में जाना पड़ा है। उन व्यक्तियों को नैपोलियन ने यही उत्तर दिया था कि मुझे मौत के मुंह में जाना मंजूर है, पर आल्पस् से हार मानना नहीं और इस निश्चय के सामने आल्पस् को झुकना ही पड़ा।

🔶 स्मरण रखा जाना चाहिए और विश्वास किया जाना चाहिए कि इस संसार में मनुष्य के लिए न तो कोई वस्तु या उपलब्धि अलभ्य है तथा न ही कोई व्यक्ति किसी प्रकार अयोग्य है। अयोग्यता एक ही है और वह है अपने आपको प्रति अविश्वास। यदि अपना उचित मूल्याँकन किया जाये तो कोई भी बाधा मनुष्य को उसके लक्ष्य तक पहुँचने से नहीं रोक सकती।  
                                              
🔷 अपने कार्यकारी जीवन में लोग कई तरह की अशुभ आशंकाओं से आतंकित रहते हैं। रोजगार ठीक से चलेगा या नहीं, कहीं व्यापार में हानि तो नहीं हो जाएगी, नौकरी से हटा तो नहीं दिया जायगा, अधिकारी नाराज तो नहीं हो जाएंगे जैसी चिन्ताएँ लोगों के मन मस्तिष्क पर हावी होने लगती हैं तो वह जो काम हाथ में होता है उसे भी सहज ढंग से नहीं कर पता। इन अशुभ आशंकाओं के करते रहने से मन में जो स्थाई गाँठ पड़ जाती है उसकी का नाम भय है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 क्षणिक अस्तित्व पर इतना अभिमान

अमावस की रात में दीप ने देखा-न चाँद और न कोई ग्रह नक्षत्र न कोई तारा-केवल वह एक अकेला संसार को प्रकाश दे रहा है। अपने इस महत्व को देख कर उसे अभिमान हो गया।

संसार को सम्बोधित करता हुआ अहंकारपूर्वक बोला-मेरी महिमा देखो, मेरी ज्योति-किरणों की पूजा करो, मेरी दया-दयालुता का गुणगान करो मैं तुम सबको राह दिखाता हूँ, प्रकाश देता हूँ इस प्रगाढ़ अन्धकार में तुम सब मेरी कृपा से ही देख पर रहे हो। मुझे मस्तक नवाओ, प्रणाम करो।

दीप के इस अहंकारोक्ति का उत्तर और किसी ने तो दिया नहीं, पर जुगनू से न रहा गया बोला-ऐ दीप! क्षणिक अधिकार पाकर इतना अभिमान, एक रात के अस्तित्व पर यह अहंकार केवल इस रात ठहरे रहो। प्रभात में तुमसे मिलूँगा तब तुम अपनी वास्तविकता से अवगत हो चुके होगे!

📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1967 पृष्ठ 22


मंगलवार, 26 सितंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 26 Sep 2023

यदि आप से कहा जाय कि आप इस संसार के सबसे बड़े सबसे अमीर और शक्तिशाली पिता के पुत्र हैं, तो आप मन ही मन क्या सोचेंगे? आप अपने को असीम शक्तियों का मालिक पाकर हर्ष के उल्लसित हो उठेंगे। आप अपने भाग्य को सराहेंगे? दूसरे आपको अपने सामने क्षुद्र प्रतीत होंगे। आप हमारी बात मानिये, अपने को ईश्वर का पुत्र होना स्वीकार कर लीजिए। बस, आप उन तमाम सम्पदाओं के स्वामी बन जायेंगे, जो आपके पिता में हैं। पुत्र में पिता के सब गुण आने अवश्यम्भावी हैं। ईश्वर के पुत्र होने के नाते आप भी असीम शक्तियों और देवी सम्पदाओं के मालिक बन जायेंगे। ईश्वर के अटूट भण्डार के अधिकारी हो जायेंगे।

दुखों के निवारण के लिए लोग प्रायः विचार किया करते हैं। अनेक लोग इसी के लिए जप-तप, पूजा, प्रार्थना आदि का सहारा लेते हैं। पर इसमें न तो सब लोगों को सफलता मिलती है और न इसका परिणाम स्थायी ही होता है। वास्तव में सुख और दुख ऊपरी चीज नहीं है वरन् उसका संबन्ध हमारे आत्मा और अन्तरात्मा से है। अगर हमारे अन्तःकरण में शाँति है तो हमें संसार की अधिकाँश बातें और परिस्थितियाँ सुख रूप ही जान पड़ेंगी और अगर मन में अशाँति अथवा असंतोष है तो राजमहल का जीवन भी घोर यंत्रणादायक प्रतीत होगा इसलिये जो लोग स्थायी सुख और शाँति के इच्छुक हैं उनको आत्मा के स्वरूप को जानने और उसकी वाणी को सुनने का प्रयत्न करना चाहिये।
                                              
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने को एक जीता जागता यज्ञ बनावे। हम कोई भी दूषित, अपवित्र, विकृत और अपूर्ण वस्तु भगवान को अर्पण नहीं कर सकते। हमको यह समझ लेना चाहिये कि भगवान का मंदिर पवित्र है और हम स्वयं ही वह मंदिर हैं। उसमें से हमें एक ऐसे चरित्र का निमार्ण करना है जो बड़ी बड़ी कठिनाइयों में भी उज्ज्वल रहे। अगर ऐसा नहीं किया जायगा तो जीवन ऐसी निरर्थक और ऊटपटाँग घटनाओं का एक संग्रह बन जायगा जिनका कोई विशेष उद्देश्य नहीं है। ऐसे जीवन से कोई लाभ नहीं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आत्म शुद्धि कीजिये

जब मनुष्य दिन रात यही सोचने लगता है कि मेरी बातों का प्रभाव दूसरों पर पड़े, तो क्या वह ऐसा करने से अपनी मर्यादा के बाहर नहीं जाता है? मनुष्य केवल इतना ही क्यों न सोचें कि मेरा कर्त्तव्य क्या है! और मैं उसका कहाँ तक सच्चाई के साथ पालन कर रहा हूँ। जो सच्चा कर्त्तव्यपरायण है, उसका प्रभाव अपने साथियों पर और दूसरों पर क्यों न पड़ेगा? पर यदि नहीं पड़ता है, क्या यह अपना दोष नहीं हैं? अवश्य, अपने कर्त्तव्यपरायणता में कमी है? अवश्यमेव अपनी तपस्या अधूरी है। और तपस्या क्या है? अप विचार और उच्चार के अनुसार आचार। सोचना चाहिये कि यदि मैं ऐसा क्रियावान् हूँ फिर मेरे बिना कहे ही मेरे साथ कर्त्तव्यपरायण बनने का उद्योग करेंगे।

यदि विनोद पूर्ण व्यंग, स्नेह पूर्ण उपालम्भ और मधुर आलोचना से मेरा साथी सजग नहीं होता है और अपने कर्त्तव्य यथावत पालन नहीं करता है तो फिर कठोर वचन उसके लिये बेकार हैं। कठोर वचन कहने की अपेक्षा मैं अपनी आत्मशुद्धि, और आत्म-ताड़ना का उद्योग क्यों न करूं। संसार में जो दोष और बुराई हैं, मेरी ही बुराई का प्रतिबिम्ब मात्र है। मुझे अपनी इस जिम्मेदारी को खूब समझ लेना चाहिये। मेरी आत्म-शुद्धि बढ़ती हो, और दूसरों की सेवा करने की वृत्ति दृढ़ होती हो, तो यह हद दर्जे की नम्र और सचाई है। यदि दूसरों से सेवा लेने की वृत्ति बढ़ती हो, अपने बड़प्पन का भाव तीव्र होता हो, तो यह अवश्य अहंकार और पाखण्ड है।

📖 अखण्ड ज्योति- मार्च 1944 पृष्ठ 17

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1944/March/v1.17

सोमवार, 25 सितंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 25 Sep 2023

सामाजिक ढर्रे जब बहुत पुराने हो जाते हैं, तब उनमें जीर्णता और कुरूपता उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है। इसे सुधारा और बदला जाना चाहिए। समय की प्रगति से जो पिछड़ जाते हैं, समय उन्हें कुचलते हुए आगे बढ़ जाता है। ऋतु परिवर्तन के साथ आहार-विहार की नीति भी बदलनी पड़ती है। युग की माँग और स्थिति को देखकर हमें सोचना चाहिए कि वर्तमान की आवश्यकताएँ हमें क्या सोचने और करने के लिए विवश कर रही हैं। विचारशीलता की यही माँग है कि आज की समस्याओं को समझा जाय और सामयिक साधनों से उन्हें सुलझाने का प्रयत्न किया जाय।

उपासना का आरम्भ कहाँ से किया जाय? इसका उदाहरण किसी स्कूल में जाकर देखा जा सकता है। वहाँ नये छात्रों का वर्णमाला, गिनती, सही उच्चारण, सही लेखन आदि से शिक्षण आरम्भ किया जाता है और पीछे प्रगति के अनुसार ऊँची कक्षाओं में चढ़ाया जाता है। स्नातक बनने के उपरान्त ही अफसर बनने की प्रतियोगिता में प्रवेश मिलता है और जो उस कसौटी पर खरे उतरते हैं उन्हें प्रतिभा के अनुरूप ऊँचे दर्जे के दायित्व सौंपे जाते हैं।
                                              
अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करने वाले को व्रतशीलता की दीक्षा लेनी पड़ती है। व्रत का अर्थ मात्र आहार क्रम में न्यूनता लाना नहीं है वरन् यह भी है कि सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए संकल्पवान होना, औचित्य को अपनाये रहने में किसी दबाव या प्रलोभन से अपने को डगमगाने न देना। श्रेष्ठता के मार्ग से किसी भी कारण विचलित न होना। जो दृढ़तापूर्वक ऐसी व्रतशीलता का निर्वाह करते हैं उन्हें अपने चारों ओर ईश्वर की सत्ता ज्ञान चक्षुओं से विद्यमान दीख पड़ती है। उन्हें किसी शरीरधारी की छवि चर्म चक्षुओं से देखने में न वास्तविकता प्रतीत होती है न आवश्यकता।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

रविवार, 24 सितंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 24 Sep 2023

अपूर्णता से पूर्णता की ओर का प्रयाण क्रम निर्धारित करना और उस पर अनवरत क्रम से चलने पर ही अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँच सकना सम्भव हो सकता है। भटकन में शान्ति और क्लान्ति ही पल्ले पड़ती है। पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग एक ही है- महानता को दृढ़तापूर्वक पकड़े रहना। अविचल निष्ठा के साथ अनवरत क्रम से उस पर चलते रहना। अनुसरण वन्य पशुओं के द्वारा विनिर्मित पगडण्डियों का नहीं, वरन् उस राजमार्ग का होना चाहिए जो सुनिश्चित संकल्प लेकर आगे बढ़े और विश्वास को अविचल रखकर अनवरत क्रम से आगे बढ़े हैं। लक्ष्य तह पहुँचने का एक ही उपाय है सदुद्देश्यों की दिशा में अवरोधों को लाँघते हुए अपनी प्रयाण साधना को अखण्ड क्रम से जारी रखना।

उत्तरदायित्वों को जो बोझ मानकर उपेक्षा करता है। उस अच्छे परिणामों से वंचित रह जाना पड़ता है। प्रत्येक मानव की आजीविका कमाने में शर्म, संकोच का भाव नहीं रखना चाहिये। आत्म-निर्भरता तो जीवनोत्कर्ष के पथ पर अग्रसर करती है। परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाने का अद्भुत गुण मनुष्य में है। इसलिये अपने प्रत्येक कार्य की पूरी शक्ति से करना चाहिये। प्रत्येक कार्य ईश्वर का है, अतः उसे आत्म समर्पित भाव से करना चाहिये। कार्य में सद्भावना का प्रभाव उज्ज्वल चरित्र निर्माण के विकास के लिये होता है। कार्य करने का सौंदर्य, रुचिकर ढंग सफलता की निशानी है। कार्य की श्रेष्ठता में जीवन की श्रेष्ठता निहित है।
                                              
आत्म-विश्वास और परिश्रम के बल पर जीवन को सार्थकता प्रदान की जा सकती है। भाग्य का निर्माणक मनुष्य स्वयं है। ईश्वर निर्णयकर्ता और नियामक है। मनुष्य परिश्रम से चाहे तो अपने भाग्य की रेखाओं को बना सकता है- परिवर्तित कर सकता है। हैनरी स्ल्यूस्टर कहता है कि- ‘‘जिसे हम भाग्य की कृपा समझते हैं, वह और कुछ नहीं। वास्तव में हमारी सूझ-बूझ और कठिन परिश्रम का फल है।” विश्वास रखें परिश्रम और आत्म-विश्वास एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। दोनों मिलकर के ही लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ हो पाते हैं। संकल्प करें-बाधाओं को हमेशा हँस-हँस स्वीकार करना है। डर कर मार्ग से हटाना नहीं है। लक्ष्य विहीन नहीं होना है। हमेशा गतिमान रहना है-गतिहीन नहीं होना है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

शनिवार, 23 सितंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 23 Sep 2023

🔷 आपको कोई काम निरुत्साह से, लापरवाही से, बेमन से नहीं करना चाहिए यदि मन की ऐसी वृत्ति रखोगे तो जल्दी उन्नति नहीं कर सकते। सम्पूर्ण चित्त, मन, बुद्धि आत्मा उस काम में लगा होना चाहिये। तभी आप उसे योग या ईश्वर पन कह सकते हो। कुछ मनुष्य हाथों से काम करते हैं और उनका मन कलकत्ते के बाजार में होता है, बुद्धि दफ्तर में होती है और आत्मा स्त्री या पुत्र में संलग्न रहती है। यह बुरी आदत है। आपको कोई भी काम हो उसे योग्य सन्तोषप्रद ढंग से करना चाहिये। आपका आदर्श यह होना चाहिये कि एक समय में एक ही काम अच्छे ढंग से किया जाये।

🔶 लगातार असफलता होने से आपको साहस नहीं छोड़ना चाहिए असफलता के द्वारा आपको अनुभव मिलता है। आपको वे कारण मालूम होंगे जिनसे असफलता हुई है और भविष्य में उनसे बचने के लिये सचेत रहोगे। आपको बड़ी-बड़ी होशियारी से उन कारणों से रक्षा करनी होगी। इन्हीं असफलताओं की कमजोरी में से आपको शक्ति मिलेगी। असफल होते हुए भी आपको अपने सिद्धान्त, लक्ष्य, निश्चय और साधन का दृढ़ मति होकर पालन और अनुसरण करना होगा। आप कहिये “कुछ भी हो मैं अवश्य पूरी सफलता प्राप्त करूंगा, मैं इसी जीवन में- नहीं नहीं, इसी क्षण आत्म साक्षात्कार करूंगा। कोई असफलता मेरे मार्ग में रुकावट नहीं डाल सकती।”

🔷 प्रयत्न और कोशिश आपकी ओर से होनी चाहिये भूखे मनुष्य हो आप ही खाना पड़ेगा। प्यासे को पानी पीना ही पड़ेगा। आध्यात्मिक सीढ़ी पर आपको हर एक कदम अपने अपने आप ही रखना होगा। इस बात को भली प्रकार स्मरण रखिये। साहसी बनो। यद्यपि बेरोजगार हो कुछ खाने को नहीं हो, तन पर वस्त्र भी न होवे तब भी सदा प्रसन्न रहो। आपका यथार्थ स्वभाव सच्चिदानन्द है। यह बाह्य नाशवान स्थूल शरीर तो माया का ही कार्य हैं मुस्कुराओ, सीटी बजाओ, हँसो कूदो और आनन्द में मग्न होकर नाचो।
                                        
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 परिशोधन प्रगति का प्रथम चरण

पत्थर का कोयला एक विशेष स्तर पर पहुँचकर हीरे की उपमा पा लेता है। यों उसका अनगढ़ प्रयोग करने वाले अँगीठी में जलाकर भी कमरे में रख लेते हैं और भोर होने से पूर्व ही विषैली गैस के कारण मर चुके होते हैैं। जबकि हीरा उपलब्ध करने वाले सुसम्पन्न भाग्यवान बनते हैं। लोहा, रांगा, सीसा, अभ्रक जैसे सामान्य खनिजों काबजारू मूल्य तुच्छ होता है, पर उन्हें जब भस्म रासायन बनाकर ग्रहण किया जाता है, तो वे संजीवनी बूटी का काम करते और मंहगे मूल्य पर बिकते हैं। पीने का पानी भाप बनाकर जब डिस्टिल्ड वाटर बना लिया जाता है, तब उसकी गणना औषधियों में होती है, उसे कई रासायनिक क्रियाओं एवं सम्मिश्रणों में प्रयुक्त किया जाता है। 

मानव समुदाय पर भी यही बात लागू होती है। वे भी यों तो गलीकूचों में भीड़ लगाते और गंदगी फैलाते देखे जाते हैं, पर उन्हें सुसंस्कारिता की साधना द्वारा महान् बना लिया जाता है, तो फिर वे ऋषि- देवता कहाते और अपनी नाव पर चढ़ाकर असंख्यों को पार करते हैं। यह स्तर को निखारने और ऊँचा उठाने की महत्ता है कि निरुपयोगी धूलि भी इस विशेष प्रक्रिया से गुजरने के उपरान्त अणु शक्ति बनती और अपनी प्रचण्ड क्षमता का परिचय देती है। हर व्यक्ति जन्मता तो साधारण मनुष्य के रूप में ही है।

कालान्तर में उसकी जीवन साधना ही उसे वह श्रेय दिलाती है, जिसे मानवी गरिमा के अनुरूप माना जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जन्म- जन्मान्तरों के संस्कारों की  अपनी महत्ता है। वे प्रसुप्त बीजांकुरों के रूप में विद्यमान तो रहते हैं,पर जो उन्हें कुरेदता- उभारता है, वह निश्चित ही अपनी स्थिति से ऊंचा उठते हुए महामानव का पद पाता है।

अपना परिशोधन, तप- प्रक्रिया द्वारा संस्कारीकरण तथा साधना उत्पादनों के माध्यम से भाव संस्थान का उदात्तीकरण ही वे सोपान हैं, जिन्हें पार करते हुए यह पद प्राप्त होता है। किसी समझौते की इसमें कोई गुंजायश नहीं। 

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

शुक्रवार, 22 सितंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 22 Sep 2023

आप दूसरों की सेवा करते समय बीज या निराशा, विरक्ति तथा उदासी के भावों को कभी मन में भी न लाया करें। सेवा में ही आनन्दित होकर सेवा किया करें। दूसरों के सेवा करने के लिए सदा प्रस्तुत रहा करें। सेवा करने के अवसर को ढूँढ़ा करें। एक भी अवसर न चूके। सेवा करने का अवसर स्वयं बना दिया करें।

हमारे मन में दो प्रकार के विचार आते हैं- एक उद्वेगयुक्त और दूसरे शान्त। भय, क्रोध, शोक लोभ आदि मनोवेगों से पूरित विचार उद्वेगयुक्त विचार हैं और जिसके विचारों में मानसिक उद्वेगों का अभाव रहता है उन्हें शान्त विचार कहा जाता है। हम साधारणतः विचारों के बल को उससे सम्बन्धित उद्वेगों से ही नापते हैं। जब हम देखते हैं कि कोई व्यक्ति क्रोध में आकर कोई बात कह रहा है तो हम समझते हैं कि वह व्यक्ति अवश्य ही कुछ कर दिखावेगा। पर क्रोधातुर व्यक्ति से उतना अधिक डरने का कारण नहीं जितना कि शान्त मन के व्यक्ति से डरने का कारण है। भावावेश में आने वाले व्यक्तियों के निश्चय सदा डावाँडोल रहते हैं। भावों पर विजय प्राप्त करने वाले व्यक्ति के निश्चय स्थिर रहते हैं। वह जिस काम में लग जाता है उसे पूर्ण करके दिखाता है।

उद्वेगपूर्ण विचार वैयक्तिक होते हैं उनकी मानसिक शक्ति वैयक्तिक होती है शान्त विचार वृहद मन के विचार हैं उनकी शक्ति अपरिमित होती है। मनुष्य जो निश्चय शान्त मन से करता है उसमें परमात्मा का बल रहता है और उसमें अपने आपको फलित होने की शक्ति होती है। अतएव जब कोई व्यक्ति अपने अथवा दूसरे व्यक्ति के लिये कोई निश्चय करता है और अपने निश्चय में अविश्वास नहीं करता तो निश्चय अवश्य फलित होता है। शान्त विचार सृजनात्मक और उद्वेगपूर्ण विचार प्रायः विनाशकारी होते हैं।
                                          
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...