मंगलवार, 15 सितंबर 2020

👉 मानव-जीवन का श्रृंगार

एक बार श्रीरंग अवधूतजी से एक भक्त ने प्रश्न किया: ‘‘महाराज! हमें श्रेय के दर्शन क्यों नहीं होते और अश्रेय के तो बार-बार होते हैं?’’

श्रीरंगजी बोले: ‘‘वेदशास्त्र और सद्गुरु-संतों का सेवन किये बिना ही श्रेय के दर्शन?’’

‘‘हम तो बहुत वर्षों से वेदशास्त्रों की बातें, कथाएँ आदि सुनते आ रहे हैं परंतु हमें कोई लाभ नहीं हो रहा है। अब तो हम थक गये हैं।’’

श्रीरंगजी: ‘‘भाई ! भगवद्भाव अनुभवगम्य वस्तु है। उसका अनुसरण करते हुए पुरुषार्थ करो तो ही उसका भाव मिलता है। सारी पृथ्वी को खोद डालो, उसमें से गुलाब, मोगरे की सुगंध मिलेगी ही नहीं। फिर आप कहोगे कि पृथ्वी में अमाप पुरुषार्थ करके देख लिया परंतु उसमें तो गुलाब, मोगरे की सुगंध है ही नहीं। मूल बात को समझनेवाला यदि कोई व्यक्ति दो गमले लाये और उसमें मिट्टी भरकर मोगरा व गुलाब के पौधे लगाये। उसमें से सुगंधित पुष्प सामने देखोगे तो तुम्हें विश्वास होगा कि सभी प्रकार के तत्त्व पृथ्वी में ही हैं। उन्हें प्रकट करने के लिए पहले उनका रूपक बनाना पड़ता है। जैसे इन मोगरा-गुलाब की सुवास को पृथ्वी से प्रकट करने के लिए उनके पौधे अथवा बीज हों तो तत्त्व द्वारा प्रकट होते हैं, ऐसे ही वेदशास्त्रों और संतों का सेवन अर्थात् वेदशास्त्रों का स्वाध्याय करो और संतों का सान्निध्य-लाभ लो, सेवा करो व उनके उपदेश के अनुसार आचार-व्यवहार करो। इसके द्वारा अपने भीतर के अशुभ संस्कारों को निर्मूल करो। गुरुगम्य जीवन बनाओ। फिर श्रेय के दर्शन की बात करना।’’

एक बार श्रीरंगजी ने अपने शिष्य को आज्ञा की:‘‘सिद्धपुर में नदी के किनारे ऐसी जगह घास की कुटिया बनाओ जहाँ किसी भी दिशा से लोग गाड़ियाँ लेकर नहीं आ सकें। मुझे पता है कि जीवन का सारा समय तो लोक-संग्रह में दे दिया पर अंतिम पलों के तो हमें खुद ही मालिक होना चाहिए। अंतिम लक्ष्य तो निर्गुण ही होना चाहिए।’’

श्रीरंगजी के मुख से ऐसी बात सुनते ही सारे भक्तों की आँखों से आँसुओं की धाराएँ बहने लगीं। तब महाराजजी उन्हें शांत करते हुए बोले: "मैं कहीं आता-जाता नहीं हूँ। पामरता त्यागो, वीरता का अनुभव करो। मानव-जीवन के क्षण बहुत महँगे हैं, फिर भी उनका मूल्य समझ में नहीं आता। कितनी सारी वनस्पतियों का तत्त्वसार शहद है। इससे वह हर प्रकार की मिठासों में प्रधान है और उत्पत्ति की दृष्टि से भी बहुत कीमती है। तो महामूल्यवान शरीर की कीमत कितनी। यदि मानव-देह इतनी ज्यादा कीमती है तो उसे ऐसे-वैसे नष्ट क्यों कर दें?’’

भक्त ने पूछा: ‘‘स्वामीजी! ऐसे मूल्यवान मानव-जीवन का श्रृंगार क्या है?’’

‘‘ब्रह्मचर्य, मौन-व्रत, सत्य और मीठी वाणी, मित भाषण, मिताहार, सत्य दर्शन, सत्य श्रवण, सत्य विचार और निष्काम कर्म - ये सारे मानव-जीवन के व्रत हैं किंतु ‘भगवत्प्रेम’ ही मानव-जीवन का श्रृंगार है।’’

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग २६)

कल्पना में भी है अक्षय ऊर्जा का भंडार

जीवन जागृति का संदेश देने के पश्चात् समाधिपाद के नवें सूत्र में योग सूत्रकार महर्षि तीसरी वृत्ति का खुलासा करते हुए कहते हैं-
शब्द ज्ञानानुयाती वस्तु शून्यो विकल्पः॥ १/९॥
  
अर्थात् शब्दों के जोड़ से हर एक का परिचय है। हम सभी अपने जीवन के क्षणों को कल्पनाओं से सँवारते रहते हैं। कई बार ये कल्पनाएँ हमारे अतीत से जुड़ी होती हैं और कई बार हम इन कल्पनाओं के धागों से अपने भविष्य का ताना-बाना बुनते हैं। हम में से बहुसंख्यक कल्पना करने के इतने आदी हो चुके हैं कि मन ठहरने का नाम ही नहीं लेता। किसी भी कार्य से उबरते ही कल्पनाओं के हिडोंले में झूलने लगता है। भाँति-भाँति की कल्पनाएँ, रंग-बिरंगी और बहुरंगी कल्पनाएँ, कभी-कभी तो विद्रूप और भयावह कल्पनाएँ चाहे-अनचाहे हमारे मन को घेरे रहती हैं। कभी हम इनकी सम्मोहकता में खो जाते हैं, तो कभी इनकी भयावहता के समक्ष हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। स्थिति यहाँ तक है कि कल्पना रस हमारा जीवन रस बन चुका है।
  
कल्पना रस में डूबे और विभोर रहने के बावजूद हमने इसे ठीक तरह से पहचाना नहीं है। परम पूज्य गुरुदेव इस सम्बन्ध में कहा करते थे- कल्पनाएँ सदा ही कोरी और खोखली नहीं होती, इन्हें ऊर्जा व शक्ति के स्रोत के रूप में भी अनुभव किया जा सकता है। जो योगी ऐसा कर पाते हैं, वे ही सही ढंग से मन की विकल्प वृत्ति का सदुपयोग करना जानते हैं। कैसे किया जाय यह सदुपयोग? इस प्रश्न का पहला बिन्दु है कि कल्पना में निहित शक्ति को उसकी सम्भावनाओं को पहचानिये। यह समस्त सृष्टि ब्रह्म की कल्पना ही तो है, हम सब उसके सनातन अंश हैं। ऐसी स्थिति में हमारी कल्पनाओं में भी सम्भावनाओं के अनन्त बीज छुपे हैं।
  
कल्पना में समायी शक्ति की सम्भावनाओं पर विश्वास करने के बाद दूसरा बिन्दु है-कल्पनाओं की दिशा। गुरुदेव का कहना था हमें सदा ही विधेयात्मक कल्पनाएँ करनी चाहिए, क्योंकि निषेधात्मक कल्पनाएँ हमारी अन्तःऊर्जा को नष्ट करती हैं, जबकि विधेयात्मक कल्पनाएँ हमारे अन्तःकरण को विशद् ब्रह्माण्ड की ऊर्जा  धाराओं से जोड़ती हैं। उसे ऊर्जावान् और शक्तिसम्पन्न बनाती है। इस तकनीक का तीसरा बिन्दु है - कल्पनाओं को अपनी अभिरुचि के अनुसार अन्तः भावनाओं अथवा विवेकपूर्ण विचार से जोड़ना। इस प्रक्रिया के परिणाम बड़े ही सुखद और आश्चर्यजनक होते हैं। अन्तः भावनाओं  से संयुक्त होकर कल्पना कला को जन्म देती है, जबकि विवेकपूर्ण विचार से जुड़कर कल्पना शोध की सृष्टि करती है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ४९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 आज की महानतम आवश्यकता

युग-निर्माण का महान कार्य आज की प्रचण्ड आवश्यकता है। जिस खंडहर स्थिति में हमारे शरीर, मन और समाज के भग्नावशेष पड़े हैं उन्हें उसी दशा में पड़े रहने देने की उपेक्षा जिन्हें सन्तोष दे सकती है उन्हें ‘जीवित मृत’ ही कहना पड़ेगा। आज बेशक ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक है, जिन्हें अपने काम से काम, अपने मतलब से मतलब—रखने की नीति पसंद है। पर ऐसे लोगों का बीज नष्ट नहीं हुआ है जो परमार्थ की महत्ता समझते हैं और लोकहित के लिए, विश्व-मानव के उत्कर्ष के लिए यदि उन्हें कुछ प्रयत्न या त्याग करना पड़े तो उसके लिए भी इनकार न करेंगे।

युग-निर्माण जैसी युग की पुकार सर्वथा अनसुनी, नितान्त उपेक्षित पड़ी रहे और उसके लिए कोई अपनी प्रसन्नता, अभिरुचि प्रकट न करे और कोई उसमें कुछ हाथ न बटावे अभी इतने आत्मिक पतन का जमाना नहीं आया है। नष्ट−भ्रष्ट स्वास्थ की पीड़ा से तड़पते हुए रुग्ण मनुष्यों को निरोग और दीर्घजीवी देखने के लिए—क्या किसी की आँखें उत्सुक नहीं? दुर्बुद्धि और दुराचार में डूबे हुए नर-पिशाच की तरह मानसिक अशान्ति की नारकीय ज्वाला में जलते हुए लोगों को सज्जनता, सद्भावना, स्नेह और सत्कर्मों में संलग्न रहकर शान्ति एवं सन्तोष के साथ मुसकराते हुए देखने के लिए क्या किसी का मन न हुलसेगा?

द्वेष, असहयोग, अविवेक, अन्धविश्वास एवं उच्छृंखलता के वातावरण को हटाकर स्नेह, सहयोग, न्याय, विवेक, व्यवस्था एवं अनुशासन से सुसम्पन्न सभ्य-समाज की स्थापना किसे प्रिय न लगेगी? यह तीनों ही बातें उत्तम, महत्वपूर्ण एवं आवश्यक हैं। किन्तु इनका प्रस्तुत होना तभी संभव है जब इसके लिए हम प्रयत्न करें। स्वार्थ में सिर से पैर तक उलझा हुआ मनुष्य इस प्रकार के निस्वार्थ कामों में तभी रुचि ले सकता है जब उसमें परमार्थ भावना जगे। विश्वास किया जाना चाहिए कि हमारे ऋषि रक्त में अभी परमार्थ भावना बिलकुल निस्वत्व नहीं हुई है। वह मूर्छित पड़ी है, उद्बोधन मिलने पर वह जग सकती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 Believe in yourself

If you wish that others should believe in you, the easiest and best way is that first you believe in yourself. There are many people who are considered irresponsible and unscrupulous; no one believes them; they are upbraided everywhere. Such people normally don’t have faith in themselves. Their faces, expressions and speech clearly indicate that they don’t believe in themselves.

People in the external world label us the way we present ourselves to them. When misery, poverty, incapability, disappointment, weakness, etc are expressed through our behavior, conduct and character, people consider us to be miserable, poor, incapable, disappointed, weak, etc and treat us accordingly. Those who meet the challenges of life courageously and confidently are surely able to achieve their objectives. God helps those who help themselves.

Whatever task is in your hands, try to accomplish it with full attention. Believe fully in your ability, wisdom and competence. Focus your entire energy and aim at accomplishing your target. Discard inferiority complex and laziness and learn to do the work in hand with seriousness, enthusiasm and confidence. Always keep in mind that only self-confident persons are successful in this world.

✍🏻 Pt Shriram Sharma Acharya

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...