गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

👉 क्रोध हमारा आन्तरिक शत्रु है (अन्तिम भाग)

क्रोध के प्रेरक दो प्रकार के दुःख हो सकते है - अपना दुःख और पराया दुःख। जिस क्रोध के त्याग का उपदेश दिया जाता है वह पहले प्रकार का क्रोध है।”

क्रोध के द्वारा हम दूसरे व्यक्ति में भय का संचार करना चाहते है। यदि हम दूसरे को डराने में सफल हो जाते हैं और वह विनम्र होकर आत्मसमर्पण कर देता है, तब हमें विशेष प्रसन्नता होती है। यदि दूसरे व्यक्ति में भय उत्पन्न नहीं हो पाता, तो हमें अन्दर ही अन्दर एक प्रकार की गुप्त पीड़ा होती है। कभी-2 क्रोध दूसरे का गर्व चूर्ण करने के हेतु किया जाता है।

क्रोध असुरों की सम्पदा है। यदि हम क्रोध को काबू में न करेंगे तो तामसी, निराशापूर्ण और दुःखित दशा में पड़े रहेंगे। हमारे स्वभाव का राक्षसत्व ही प्रकट होगा। हम ईश्वर के राज्य में प्रवेश न पा सकेंगे। क्रोध के अधम विचारों से हमारी नैतिक, आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक अवनति होती है, अन्तःकरण के क्लेश बढ़ते हैं। क्रोध को मन में छिपाये रखने से प्रतिशोध, अतृप्ति, उद्वेग, शत्रु भाव, ईर्ष्या, असूया आदि विकार मन में उद्दीप्त होते हैं। छिपा हुआ क्रोध अनेक बार जटिल मानसिक रोगों का कारण बनता है। अनेक भावना ग्रन्थियाँ इसी शत्रुभाव की वजह से हमारे अन्तःप्रदेश में निर्मित होती है।

“क्रोधान्द्रवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रण्श्यति॥
-गीता
“अर्थात् क्रोध से अविवेक होता है, अविवेक से स्मरण में भ्रम हो जाता है, स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धिनाश होता है, बुद्धि के नष्ट होने से प्राणी नष्ट हो जाता है।”

.....समाप्त
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 18


All World Gayatri Pariwar Official  Social Media Platform

Shantikunj WhatsApp
8439014110

Official Facebook Page

Official Twitter

Official Instagram

Youtube Channel Rishi Chintan

Youtube Channel Shantikunjvideo

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 20 April 2023

उन्नति, विकास एवं प्रगति करना प्रत्येक व्यक्ति का परम पावन कर्त्तव्य है। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उसके जीवन में जड़ताजन्य अनेक दोष आ जायेंगे, जो इस प्रसन्न मानव जीवन को एक यातना में बदल देंगे। निराशा, चिंता, क्षोभ, ईर्ष्या, द्वेष आदि अवगुण प्रगति शून्य जड़ जीवन के ही फल हुआ करते हैं।

जहाँ वाचालता एक दुर्गुण है, वहां मौन एक रहना दैवी गुण है जिसका अपने में विकास करना ही चाहिए, किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि मनुष्य बिलकुल बात ही न करे। मौन रहने का मूल मन्तव्य यह है कि जितना आवश्यक हो उतना ही बोला जाये। अनावश्यक वार्तालाप न करना अथवा यों ही निरर्थक दिन भर हा-हा, हू-हू न करते रहना भी मौन ही है।

जीवन विकास के लिए यह जरूरी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी विशिष्टता को बढ़ाकर ऐसा विकास करे कि वह अपना, आश्रित परिजनों का जीवन उत्कृष्ट श्रेणी का बनाता हुआ मानवीय उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अग्रसर होता चले। इस जीवन की शान्ति ही पारलौकिक शान्ति है, इस जीवन का संतोष ही पारलौकिक संतोष है। इस जीवन का सुख ही पारलौकिक सुख है। इसलिए स्वर्ग पाना है तो इसी जीवन को स्वर्ग बना लो।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

All World Gayatri Pariwar Official  Social Media Platform

Shantikunj WhatsApp
8439014110

Official Facebook Page

Official Twitter

Official Instagram

Youtube Channel Rishi Chintan

Youtube Channel Shantikunjvideo

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...