सोमवार, 7 नवंबर 2016
👉 तप से ही कल्याण होगा
🔴 “जिस प्रकार अग्नि में स्वर्ण को तपाने से उसके तमाम मल नष्ट हो जाते हैं, कान्ति अधिक आती है और मूल्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार जो सत्य-रूपी अग्नि में प्रवेश करते हैं, उनका केवल शारीरिक बल ही नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक बल भी अहर्निश वृद्धि को प्राप्त होता है। सच्चा तप निर्बल को सबल, निर्धन को धनी, प्रजा को राजा, शूद्र को ब्राह्मण, दैत्य को देवता, दास को स्वामी और भिक्षुक को दाता बना देता है। सच्चे तप का भाव उस देश-भक्त में है जो अपने देश एवं अपनी जाति के गौरव और प्रतिष्ठा, कीर्ति और मान, सम्पत्ति और ऐश्वर्य की वृद्धि और उन्नति के लिए दृढ़ इच्छा रखता है।
🔵 अनेक प्रकार के दुःखों, कष्टों और संकटों को सहन करने, कठिन से कठिन मेहनत और श्रम को उठाने और विघ्नों से मुकाबला करने के लिए उद्यत रहता है। सच्चे देश-प्रेमी और देशानुरागी कल्याण की इच्छा करते हुए तप का अनुष्ठान करके, आत्मा और मन को धर्माचरण-रूपी प्रचण्ड अग्नि में दग्ध करके, अपने और अपने देश की अपवित्रता, मलिनता और अन्य अशुद्धियों को दूर कर जाति को आरोग्यता एवं सुख-सम्पत्ति की योग्यता प्रदान करते हैं।
🔴 जिन देशानुरागी पुरुषों में तपश्चर्या नहीं, जो मुसीबतों, विघ्नों और आफतों का मुकाबला करने से घबराते हैं, जो द्वन्द्वों को सहन नहीं कर सकते, जो भूख और प्यास, सर्दी और गर्मी धूप और छाँह, कोमल और कठोर, मीठा और खट्टा आदि द्वन्द्वों के दास हैं, ये संसार-रूपी युद्ध-पोत में कदापि कृत-कृत्य नहीं हो सकते।”
🌹 -महामना मदन मोहन मालवीय
🌹 अखण्ड ज्योति जनवरी 1964 पृष्ठ 1
🔵 अनेक प्रकार के दुःखों, कष्टों और संकटों को सहन करने, कठिन से कठिन मेहनत और श्रम को उठाने और विघ्नों से मुकाबला करने के लिए उद्यत रहता है। सच्चे देश-प्रेमी और देशानुरागी कल्याण की इच्छा करते हुए तप का अनुष्ठान करके, आत्मा और मन को धर्माचरण-रूपी प्रचण्ड अग्नि में दग्ध करके, अपने और अपने देश की अपवित्रता, मलिनता और अन्य अशुद्धियों को दूर कर जाति को आरोग्यता एवं सुख-सम्पत्ति की योग्यता प्रदान करते हैं।
🔴 जिन देशानुरागी पुरुषों में तपश्चर्या नहीं, जो मुसीबतों, विघ्नों और आफतों का मुकाबला करने से घबराते हैं, जो द्वन्द्वों को सहन नहीं कर सकते, जो भूख और प्यास, सर्दी और गर्मी धूप और छाँह, कोमल और कठोर, मीठा और खट्टा आदि द्वन्द्वों के दास हैं, ये संसार-रूपी युद्ध-पोत में कदापि कृत-कृत्य नहीं हो सकते।”
🌹 -महामना मदन मोहन मालवीय
🌹 अखण्ड ज्योति जनवरी 1964 पृष्ठ 1
👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 22)
🌞 दूसरा अध्याय
🔴 हाँ, तो उपरोक्त ध्यानावस्था में होकर अपने सम्पूर्ण विचारों को 'मैं' के ऊपर इकट्ठा करो। किसी बाहरी वस्तु या किसी आदमी के सम्बन्ध में बिलकुल विचार मत करो। भावना करनी चाहिए कि मेरी आत्मा यथार्थ में एक स्वतंत्र पदार्थ है। वह अनन्त बल वाला अविनाशी और अखण्ड है। वह एक सूर्य है, जिसके इर्द-गिर्द हमारा संसार बराबर घूम रहा है, जैसे सूर्य के चारों ओर नक्षत्र आदि घूमते हैं। अपने को केन्द्र मानना चाहिए और सूर्य जैसा प्रकाशवान। इस भावना को बराबर लगातार अपने मानस लोक में प्रयत्न की कल्पना और रचना शक्ति के सहारे स्थिर करो।
🔵 मानस लोक के आकाश में अपनी आत्मा को सूर्य रूप मानते हुए केन्द्र की तरह स्थित हो जाओ और आत्मा से अतिरिक्त अन्य सब चीजों को नक्षत्र तुल्य घूमती हुई देखो। वे मुझसे बँधी हुई हैं, मैं उनसे बँधा नहीं हूँ। अपनी शक्ति से मैं उनका संचालन कर रहा हूँ। फिर भी वे वस्तुएँ मेरी या मैं नहीं हूँ, लगातार परिश्रम के बाद कुछ दिनों में यह चेतना दृढ़ हो जाएगी।
🔴 वह भावना झूँठी या काल्पनिक नहीं है। विश्व का हर एक जड़-चेतन परमाणु बराबर घूम रहा है। सूर्य के आस-पास पृथ्वी आदि ग्रह घूमते हैं और समस्त मण्डल एक अदृश्य चेतना की परिक्रमा करता रहता है। हृदयगत चेतना के कारण रक्त हमारे शरीर की परिक्रमा करता रहता है। शब्द, शक्ति, विचार या अन्य प्रकार के भौतिक परमाणुओं का धर्म परिक्रमा करते हुए आगे बढ़ना है। हमारे आस-पास की प्रकृति का यह स्वाभाविक धर्म अपना काम कर रहा है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 हाँ, तो उपरोक्त ध्यानावस्था में होकर अपने सम्पूर्ण विचारों को 'मैं' के ऊपर इकट्ठा करो। किसी बाहरी वस्तु या किसी आदमी के सम्बन्ध में बिलकुल विचार मत करो। भावना करनी चाहिए कि मेरी आत्मा यथार्थ में एक स्वतंत्र पदार्थ है। वह अनन्त बल वाला अविनाशी और अखण्ड है। वह एक सूर्य है, जिसके इर्द-गिर्द हमारा संसार बराबर घूम रहा है, जैसे सूर्य के चारों ओर नक्षत्र आदि घूमते हैं। अपने को केन्द्र मानना चाहिए और सूर्य जैसा प्रकाशवान। इस भावना को बराबर लगातार अपने मानस लोक में प्रयत्न की कल्पना और रचना शक्ति के सहारे स्थिर करो।
🔵 मानस लोक के आकाश में अपनी आत्मा को सूर्य रूप मानते हुए केन्द्र की तरह स्थित हो जाओ और आत्मा से अतिरिक्त अन्य सब चीजों को नक्षत्र तुल्य घूमती हुई देखो। वे मुझसे बँधी हुई हैं, मैं उनसे बँधा नहीं हूँ। अपनी शक्ति से मैं उनका संचालन कर रहा हूँ। फिर भी वे वस्तुएँ मेरी या मैं नहीं हूँ, लगातार परिश्रम के बाद कुछ दिनों में यह चेतना दृढ़ हो जाएगी।
🔴 वह भावना झूँठी या काल्पनिक नहीं है। विश्व का हर एक जड़-चेतन परमाणु बराबर घूम रहा है। सूर्य के आस-पास पृथ्वी आदि ग्रह घूमते हैं और समस्त मण्डल एक अदृश्य चेतना की परिक्रमा करता रहता है। हृदयगत चेतना के कारण रक्त हमारे शरीर की परिक्रमा करता रहता है। शब्द, शक्ति, विचार या अन्य प्रकार के भौतिक परमाणुओं का धर्म परिक्रमा करते हुए आगे बढ़ना है। हमारे आस-पास की प्रकृति का यह स्वाभाविक धर्म अपना काम कर रहा है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 11)
🌹 युग-निर्माण योजना का शत-सूत्री कार्यक्रम
🔵 युग-निर्माण के लिये आवश्यक विचार-क्रान्ति का उपयोग यदि शरीर-क्षेत्र में किया जा सके तो हमारा बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य सुधर सकता है। बीमारियों से सहज ही पिण्ड छूट सकता है। आज अपने शरीर की जो स्थिति है कल से ही उसमें आशाजनक परिवर्तन आरम्भ हो सकता है। अस्वस्थता का कारण असंयम एवं अनियमितता ही है। प्रकृति के आदेशों का उल्लंघन करने के दण्ड स्वरूप ही हमें बीमारी और कमजोरी का कष्ट भुगतना पड़ता है। सरकारी कानूनों की तरह प्रकृति के भी कानून हैं।
🔴 जिस प्रकार राज्य के कानूनों को तोड़ने वाले अपराधी जेल की यातना भोगते हैं वैसे ही प्रकृति के कानूनों की अवज्ञा कर स्वेच्छाचार बरतने वाले व्यक्ति बीमारियों का कष्ट सहते हैं और अशक्त, दुर्बल बने रहते हैं। पूर्व जन्मों के प्रारब्ध दण्ड स्वरूप मिलने वाले तथा प्रकृति प्रकोप, महामारी, सामूहिक अव्यवस्था, दुर्घटना एवं विशेष परिस्थिति वश कभी-कभी संयमी लोगों को भी शारीरिक कष्ट भोगने पड़ते हैं, पर 90 प्रतिशत शारीरिक कष्टों में हमारी बुरी आदतें और अनियमितता ही प्रधान कारण होती हैं।
🔵 सृष्टि के सभी जीव-जन्तु निरोग रहते हैं। अन्य पशु और उन्मुक्त आकाश में विचरण करने वाले पक्षी यहां तक कि छोटे-छोटे कीट-पतंग भी समय आने पर मरते तो हैं, पर बीमारी और कमजोरी का कष्ट नहीं भोगते। जिन पशुओं को मनुष्य ने अपने बन्धन में बांधकर अप्राकृतिक रहन-सहन के लिए जितना विवश किया है उतनी अस्वस्थता का त्रास उन्हें भोगना पड़ता, अन्यथा रोग और दुर्बलता नाम की कोई वस्तु इस संसार में नहीं है। उसे तो हम स्वेच्छाचार बरत कर स्वयं ही बुलाया करते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 युग-निर्माण के लिये आवश्यक विचार-क्रान्ति का उपयोग यदि शरीर-क्षेत्र में किया जा सके तो हमारा बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य सुधर सकता है। बीमारियों से सहज ही पिण्ड छूट सकता है। आज अपने शरीर की जो स्थिति है कल से ही उसमें आशाजनक परिवर्तन आरम्भ हो सकता है। अस्वस्थता का कारण असंयम एवं अनियमितता ही है। प्रकृति के आदेशों का उल्लंघन करने के दण्ड स्वरूप ही हमें बीमारी और कमजोरी का कष्ट भुगतना पड़ता है। सरकारी कानूनों की तरह प्रकृति के भी कानून हैं।
🔴 जिस प्रकार राज्य के कानूनों को तोड़ने वाले अपराधी जेल की यातना भोगते हैं वैसे ही प्रकृति के कानूनों की अवज्ञा कर स्वेच्छाचार बरतने वाले व्यक्ति बीमारियों का कष्ट सहते हैं और अशक्त, दुर्बल बने रहते हैं। पूर्व जन्मों के प्रारब्ध दण्ड स्वरूप मिलने वाले तथा प्रकृति प्रकोप, महामारी, सामूहिक अव्यवस्था, दुर्घटना एवं विशेष परिस्थिति वश कभी-कभी संयमी लोगों को भी शारीरिक कष्ट भोगने पड़ते हैं, पर 90 प्रतिशत शारीरिक कष्टों में हमारी बुरी आदतें और अनियमितता ही प्रधान कारण होती हैं।
🔵 सृष्टि के सभी जीव-जन्तु निरोग रहते हैं। अन्य पशु और उन्मुक्त आकाश में विचरण करने वाले पक्षी यहां तक कि छोटे-छोटे कीट-पतंग भी समय आने पर मरते तो हैं, पर बीमारी और कमजोरी का कष्ट नहीं भोगते। जिन पशुओं को मनुष्य ने अपने बन्धन में बांधकर अप्राकृतिक रहन-सहन के लिए जितना विवश किया है उतनी अस्वस्थता का त्रास उन्हें भोगना पड़ता, अन्यथा रोग और दुर्बलता नाम की कोई वस्तु इस संसार में नहीं है। उसे तो हम स्वेच्छाचार बरत कर स्वयं ही बुलाया करते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 हमारी युग निर्माण योजना भाग 10
🌹 युग की वह पुकार जिसे पूरा होना ही है
🔵 यह सोचना उचित नहीं कि इतने बड़े संसार में 25 लाख व्यक्ति नगण्य हैं, उनके सुधरने से क्या बनने वाला है? परिवार के प्रत्येक सदस्य को यह विचारधारा दस अन्य व्यक्तियों तक प्रसारित करते रहने की शपथपूर्वक प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है। उसके पास जो ‘अखण्ड ज्योति’ मासिक एवं ‘युग-निर्माण’ पात्रिक पत्रिकाएं पहुंचती हैं, उन्हें स्वयं ही पढ़ना पर्याप्त नहीं होता, वरन् कम से कम दूसरे दस को उन्हें पढ़ाने या सुनाने की भी व्यवस्था करनी पड़ती है।
🔴 इस प्रकार अपने 25 लाख व्यक्ति दस-दस से सम्बन्धित रहने के कारण 25 करोड़ व्यक्तियों तक यह प्रकाश पहुंचाते रहते हैं। इनमें से निश्चित रूप से कुछ योजना के विधिवत् सदस्य बढ़ेंगे ही—अखण्ड-ज्योति परिवार में सम्मिलित होंगे ही। फिर उन्हें भी दस नये व्यक्तियों तक यह प्रकाश पहुंचाने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होना पड़ेगा। इस तरह प्रचार परम्परा की यह पीढ़ी—एक से दस—एक से दस में गुणित होती हुई पांच-छह छलांगों में सारे विश्व में अपना प्रभाव प्रस्तुत कर सकेगी और जो अभियान आरम्भ किया गया है, उस स्वप्न को साकार रूप में प्रस्तुत कर सकेगी।
🔵 ‘युग-निर्माण योजना’ इसी अभाव की पूर्ति का एक विनम्र प्रयास है। इसका प्रारम्भ बहुत ही छोटे रूप में किया जा रहा है और आशा यह की जा रही है कि जिस तरह एक छोटा बीज अपने आपको गला कर विशाल वृक्ष के रूप में परिणत होता है और उस वृक्ष पर लगने वाले फलों में रहने वाले बीज सहस्रों अन्य बीजों की उत्पत्ति का कारण बन जाते हैं। उसी प्रकार यह शुभारम्भ बहुत छोटे रूप में किया जा रहा है, पर विश्वास यह किया जा रहा है कि यह तेजी से बढ़ेगा और इसका प्रकाश समस्त विश्व को—समस्त मानव जाति का—समस्त प्राणियों को प्राप्त होगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 यह सोचना उचित नहीं कि इतने बड़े संसार में 25 लाख व्यक्ति नगण्य हैं, उनके सुधरने से क्या बनने वाला है? परिवार के प्रत्येक सदस्य को यह विचारधारा दस अन्य व्यक्तियों तक प्रसारित करते रहने की शपथपूर्वक प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है। उसके पास जो ‘अखण्ड ज्योति’ मासिक एवं ‘युग-निर्माण’ पात्रिक पत्रिकाएं पहुंचती हैं, उन्हें स्वयं ही पढ़ना पर्याप्त नहीं होता, वरन् कम से कम दूसरे दस को उन्हें पढ़ाने या सुनाने की भी व्यवस्था करनी पड़ती है।
🔴 इस प्रकार अपने 25 लाख व्यक्ति दस-दस से सम्बन्धित रहने के कारण 25 करोड़ व्यक्तियों तक यह प्रकाश पहुंचाते रहते हैं। इनमें से निश्चित रूप से कुछ योजना के विधिवत् सदस्य बढ़ेंगे ही—अखण्ड-ज्योति परिवार में सम्मिलित होंगे ही। फिर उन्हें भी दस नये व्यक्तियों तक यह प्रकाश पहुंचाने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होना पड़ेगा। इस तरह प्रचार परम्परा की यह पीढ़ी—एक से दस—एक से दस में गुणित होती हुई पांच-छह छलांगों में सारे विश्व में अपना प्रभाव प्रस्तुत कर सकेगी और जो अभियान आरम्भ किया गया है, उस स्वप्न को साकार रूप में प्रस्तुत कर सकेगी।
🔵 ‘युग-निर्माण योजना’ इसी अभाव की पूर्ति का एक विनम्र प्रयास है। इसका प्रारम्भ बहुत ही छोटे रूप में किया जा रहा है और आशा यह की जा रही है कि जिस तरह एक छोटा बीज अपने आपको गला कर विशाल वृक्ष के रूप में परिणत होता है और उस वृक्ष पर लगने वाले फलों में रहने वाले बीज सहस्रों अन्य बीजों की उत्पत्ति का कारण बन जाते हैं। उसी प्रकार यह शुभारम्भ बहुत छोटे रूप में किया जा रहा है, पर विश्वास यह किया जा रहा है कि यह तेजी से बढ़ेगा और इसका प्रकाश समस्त विश्व को—समस्त मानव जाति का—समस्त प्राणियों को प्राप्त होगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 सुनिये ही नहीं समझिये भी
एक पण्डित किसी को भागवत की कथा सुनाने जाया करते थे। वे बड़े प्रकाण्ड विद्वान थे। शास्त्रज्ञ थे। राजा भी बड़ा भक्त और निष्ठावान था। पण्डित कथ...

