शनिवार, 3 दिसंबर 2016

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 36)


🌹 सभ्य समाज की स्वस्थ रचना
🔵 50. श्रम का सम्मान— श्रम का सम्मान बढ़ाया जाय। बौद्धिक श्रम करने वालों को धन और श्रम अधिक मिलता है और शारीरिक श्रमिकों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। इस दृष्टिकोण में परिवर्तन होना चाहिए। शारीरिक श्रम एवं श्रमिकों को भी उचित सम्मान मिले। राजा जनक ने हल जोतकर अपनी जीविका कमाने का आदर्श रखा था और नसीरुद्दीन बादशाह टोपियां सींकर तथा कुरान लिखकर अपना गुजारा करता था।

🔴 हमारे समाज में सफाई करने वाले, कपड़े बुनने वाले, जूता बनाने वाले, कपड़े धोने वाले, इमारतें चिनने वाले, बोझा ढोने वाले, मजूरी करने वाले लोग इसीलिए नीच और अछूत माने गये कि वे शारीरिक श्रम करते हैं। थोड़ा-सा अपना बोझ ले चलने में बेइज्जती अनुभव करना आज के शिक्षित एवं सम्पन्न कहे जाने वाले लोगों का स्वभाव बन गया है। ऐसे लोगों की स्त्रियां भोजन बनाने, बर्तन मांजने, झाड़ू लगाने, बिस्तर बिछाने जैसे कामों में बेइज्जती समझती और इन छोटे-छोटे कामों के लिए नौकर चाहती हैं। अमीर लोग जूतों और कपड़े पहनने काम तक नौकरों से कराते हैं। इस प्रकार की प्रवृत्तियां किसी भी समाज के पतन का करण होती हैं।

🔵 श्रम का सम्मान घटने से इस ओर लोगों की अरुचि हो जाती है। आरामतलबी को श्रेय मिले तो सभी वैसा बनना चाहेंगे। प्रगति से सहयोग मिलता है, पर उसको साकार रूप तो श्रम से ही मिलता है। इसलिए श्रमिक को प्रोत्साहन भी मिलना चाहिए और सम्मान भी। हम में से हर व्यक्ति को शारीरिक दृष्टि से भी श्रमिक जैसी अपनी स्थिति और मनोभूमि बनानी चाहिए। सामाजिक प्रगति का बहुत कुछ आधार ‘श्रम के सम्मान’ पर निर्भर है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

👉 *गृहस्थ-योग (भाग 23) 4 Dec*

🌹 *गृहस्थ योग से परम पद*

🔵 इन प्रश्नों की मीमांसा करते हुए पाठकों को यह बात भली प्रकार हृदयंगम कर लेनी चाहिए कि— पुण्य का पैसे से कोई सम्बन्ध नहीं है। पुण्य तो भावना से खरीदा जाता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में रुपयों की तूती नहीं बोलती वहां तो भावना की प्रधानता है। दम्भ, अहंकार, नामवरी, वाहवाही, पूजा, प्रतिष्ठा के प्रदर्शन के लिए धर्म के नाम पर करोड़ रुपये खर्च करने पर भी उतना पुण्य फल नहीं मिल सकता जितना कि आत्म-त्याग, श्रद्धा एवं सच्चे अन्तःकरण से रोटी का एक टुकड़ा देने पर प्राप्त होता है।

🔴 स्मरण रखिये—सोने की सुनहरी चमक और चांदी के मधुर चमचमाहट आत्मा को ऊंचा उठाने में कुछ विशेष सहायक नहीं होती। आत्मिक क्षेत्र में गरीब और अमीर का दर्जा बिल्कुल बराबर है, वहां उसके पास समान वस्तु है—समान साधन है। भावना हर अमीर गरीब को प्राप्त है, उसी की अच्छाई बुराई के ऊपर पुण्य-पाप की सारी दारोमदार है। घटनाओं का घटाटोप, चौंधिया देने वाला प्रदर्शन, बड़े-बड़े कार्यों के विराट आयोजन रंगीन बादलों से बने हुए आकाश चित्रों की भांति मनोरंजक तो हैं पर उनका अस्तित्व कुछ नहीं।

🔵 सच्चे हृदय से किये हुए एक अत्यन्त छोटे और तुच्छ दीखने वाले कार्य का जितना महत्व है उतना दम्भपूर्ण किये हुए बड़े भारी आयोजन का किसी प्रकार नहीं हो सकता। ‘‘भावना की सच्चाई और सात्विकता के साथ आत्म-त्याग और कर्तव्य पालन’’ यही धर्म का पैमाना है। इस भावना से प्रेरित होकर काम करना ही पुण्य है। सद्भावना जितनी ही प्रबल होगी आत्म-त्याग उतना ही बड़ा होगा। पैसे वाला अपने पैसे को लगावेगा, जी खोलकर सत्कार्य में लगावेगा, इसी प्रकार गरीब के पास जो साधन हैं उसको ईमानदारी के साथ खर्च करेगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 23) 4 Dec

🌹 दुष्टता से निपटें तो किस तरह?
🔵  कोई समय था जब शासन, समाज, न्याय-व्यवस्था आदि का कोई उचित प्रबन्ध नहीं था। उस आदिमकाल में प्रतिद्वन्दियों से भी स्वयं ही भुगतना पड़ता था। यह पिछले काल की व्यवस्था थी, अब हम विकसित समाज में रह रहे हैं और यहां न्यायालयों का भी हस्तक्षेप है। अनीति की रोकथाम के लिए पुलिस का ढांचा बना हुआ है और आक्रमण किस स्तर का था? किन परिस्थितियों में बन पड़ा? इसका पर्यवेक्षण करने की गुंजाइश है, भले ही वह प्रक्रिया दोषपूर्ण हो और उसे सुधारने में समय लगे तो भी धैर्य रखना चाहिए और कानून अपने हाथ में लेने का बर्बर तरीका अपनाने की अपेक्षा, न्याय का निर्देश और समाजगत यश-अपयश के सहारे ही काम चला लेना चाहिए।

🔴  क्षमा का समर्थन यहां सिद्धांत के रूप में नहीं किया जा रहा है। किसी को अपने कृत्य पर वास्तविक पश्चात्ताप हो और भविष्य में वैसा न कर गुजरने का कोई स्पष्ट कारण हो तो क्षमा की भी अपनी उपयोगिता है, वह समर्थों द्वारा दुर्बलों पर किया गया अहसान है। किन्तु यदि आक्रान्त अपने को सबल समझकर आक्रामकता अपना रहा है तो क्षमा की बात करना दुष्ट की दुष्टता को बढ़ाना और संसार में अनीति का अधिक विस्तार होने की संभावना को अधिकाधिक प्रबल बनाना है। उसका उपचार क्षमा के नाम पर कायरता अपनाने से नहीं हो सकता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (अन्तिम भाग)

 
🌞  चौथा अध्याय
🌹  एकता अनुभव करने का अभ्यास

🔴  दीक्षितों को इस चेतना में जग जाने के लिए हम बार-बार अनुरोध करेंगे, क्योंकि 'मैं क्या हूँ?' इस सत्यता का ज्ञान प्राप्त करना सच्चा ज्ञान है। जिसने सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उसका जीवन प्रेम, दया, सहानुभूति, सत्य और उदारता से परिपूर्ण होना चाहिए। कोरी कल्पना या पोथी-पाठ से क्या लाभ हो सकता है? सच्ची सहानुभूति ही सच्चा ज्ञान है और सच्चे ज्ञान की कसौटी, उसका जीवन व्यवहार में उतारना ही हो सकता है।

🌹 इस पाठ के मंत्रः

🔵  1- मेरी भौतिक वस्तुएँ महान् भौतिक तत्त्व की एक क्षणिक झाँकी हैं।

🔴  2- मेरी मानसिक वस्तुएँ अविच्छिन्न मानस तत्त्व का एक खण्ड हैं।

🔵  3- भौतिक और मानसिक तत्त्व निर्बाध गति से बह रहे हैं, इसलिए मेरी वस्तुओं का दायरा सीमित नहीं। समस्त ब्रह्माण्डों की वस्तुएँ मेरी हैं।

🔴  4- अविनाशी आत्मा परमात्मा का अंश है और अपने विशुद्घ रूप में वह परमात्मा ही है।

🔵  5- मैं विशुद्घ हो गया हूँ, परमात्मा और आत्मा की एकता का अनुभव कर रहा हूँ।


🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://literature.awgp.org/book/Main_Kya_Hun/v4
 

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 4 Dec 2016


👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 4 Dec 2016


👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...