गुरुवार, 27 अगस्त 2020

👉 अच्छा लड़ाका क्रोध नहीं करता

वर्ष की अंतिम प्रतियोगिता होने वाली थी मुर्गों की लड़ाई की, एक सम्राट भी अपने मुर्गे को लड़ाई में भेजना चाहता था। तो उसने एक बहुत बड़े झेन फकीर को बुलाया। क्योंकि उस झेन फकीर की बड़ी प्रसिद्धि थी कि उसे युद्ध में कोई हरा नहीं सकता। हराना तो दूर, उसके पास आकर लोग हारने को उत्सुक हो जाते थे। उसके पास हार कर प्रसन्न होकर लौटते थे। उसके साथ हार जाना बड़ी महिमा की बात थी। तो सम्राट ने सोचा कि यह फकीर अगर मुर्गे को तैयार कर दे।

फकीर को बुलाया। मुर्गा फकीर ले गया। तीन सप्ताह बाद सम्राट ने खबर भेजी, मुर्गा तैयार है? फकीर ने कहा, अभी नहीं। अभी तो दूसरे मुर्गे को देख कर वह सिर खड़ा करके आवाज देता है। सम्राट थोड़ा हैरान हुआ कि यह तो ठीक ही लक्षण है। क्योंकि लड़ना है तो सिर खड़ा करके आवाज न दोगे तो दूसरे मुर्गे को डराओगे कैसे?

खैर, कुछ देर और प्रतीक्षा की। फिर तीन सप्ताह बाद पुछवाया। फकीर ने कहा, अभी भी नहीं। अब पुरानी आदत तो जा चुकी है, लेकिन दूसरा मुर्गा आता है तो तन जाता है, तनाव भर जाता है। और तीन सप्ताह बीत गए। फिर पुछवाया। फकीर ने कहा कि अब थोड़ा-थोड़ा तैयार हो रहा है, लेकिन अभी थोड़ी देर है। अब दूसरा मुर्गा कमरे के भीतर आए तो खड़ा तो रहता है, लेकिन भीतर व्यथित हो जाता है, भीतर एक तनाव की रेखा खिंच जाती है। और तीन सप्ताह बाद फकीर ने कहा, अब मुर्गा बिलकुल तैयार है। अब वह ऐसे खड़ा रहता है जैसे न कोई आया, न कोई गया। और अब कोई फिक्र नहीं है। पर सम्राट ने कहा कि यह मुर्गा जीतेगा कैसे? उस फकीर ने कहा, तुम फिक्र ही मत करो; अब हारने की कोई संभावना ही न रही। दूसरे मुर्गे इसे देखते ही भाग खड़े होंगे। इसको लड़ना नहीं पड़ेगा। इसकी मौजूदगी काफी है।

और यही हुआ। जब प्रतियोगिता में मुर्गा खड़ा किया गया। तो दूसरे मुर्गों ने सिर्फ झांक कर उस मुर्गे को देखा; न तो उसने आवाज दी, क्योंकि वह कमजोरी का लक्षण है, वह भय का लक्षण है। भय को छिपाने के लिए वह जोर से कुकडूं कूं बोलता है। वह डरवाना चाहता है आवाज से, लेकिन खुद डरा हुआ है। न तो उस मुर्गे ने आवाज दी, न उस मुर्गे ने देखा। जैसे कुत्ते भौंकते रहते हैं और हाथी गुजर जाता है। ऐसे वह मुर्गा खड़ा ही रहा, जैसे पत्थर की मूर्ति हो। दूसरे मुर्गों ने देखा, उनको कंपकंपी छूट गई। क्योंकि यह तो बड़ा, यह तो मुर्गे जैसा मुर्गा ही नहीं है! इसके पास जाना तो खतरे से खाली नहीं है। वे भाग खड़े हुए। प्रतियोगिता में दूसरे मुर्गे उतर ही न सके।

लाओत्से कहता है, "अच्छा लड़ाका क्रोध नहीं करता।' यह लक्षण है योद्धा का कि वह क्रोध न करे, कि वह उत्तप्त न हो जाए, कि उसका मन ज्वरग्रस्त न हो, कि वह ऐसा शांत बना रहे जैसे बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया हो।

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १३)

सावधान! बड़ा बेबस बना सकता है मन

परम पूज्य गुरुदेव महर्षि पतंजलि के बारे में कहा करते थे कि वे अद्भुत हैं। वे साधक को तपाने में, उससे साधना कराने में विश्वास करते हैं। उनका इधर-उधर की कहानियाँ-किस्से सुनाने में कतई विश्वास नहीं है। बहलाने-फुसलाने में उनका कोई यकीन नहीं है। एक प्रसंग में गुरुदेव के सामने जब इस सूत्र की चर्चा चली, तो उन्होंने कहा- ‘अब यहीं देखो कैसी दो टूक बात कह दी उन्होंने। साधकों के सामने बिलकुल बात साफ कर दी कि या तो साक्षी भाव को उपलब्ध कर अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाओ या फिर वृत्तियों के साथ तादात्म्य करके भटकते रहो। इन दो के अलावा कोई तीसरी सच्चाई नहीं हो सकती। जान सको तो जानो, मान सको तो मानो।’
  
गुरुदेव कहा करते थे, पतंजलि के सूत्र तो साधकों के लिए भेजे गए टेलीग्राम हैं। इनमें इधर-उधर का एक भी फालतू  शब्द नहीं है। कभी-कभी तो एक सूत्र पूरा वाक्य तक नहीं है। वह तो अल्पतम सारभूत है। ये सूत्र ऐसे हैं, जैसे कोई तार करने जाय और वहाँ बेकार के अनावश्यक शब्द काट दे। तार का मतलब ही यही है, कम से कम शब्दों में सम्पूर्ण सन्देश कह दिया जाय। तार की जगह अगर पत्र लिखा जाता, तो शायद दस पन्नें भरने के बावजूद बातें पूरी न हो पाती। लेकिन एक तार में, दस शब्दों में वह केवल पूरा ही नहीं होता, बल्कि पूरे से भी थोड़ा अधिक होता है। वह सीधी हृदय पर चोट करता है। उसमें सारतम होता है।
  
इसी प्रसंग में गुरुदेव ने यह भी बताया कि उनकी मार्गदर्शक सत्ता ने भी उनसे बड़ी सीधी-सपाट भाषा में एकदम थोड़े शब्दों में कहा था, साधना करनी है, तो इन्द्रिय सुखों से मुँह मोड़ना होगा। एकदम रूखी-सूखी जिन्दगी जीनी होगी। ये बातें बताकर वह थोड़ा रूके, फिर कहने लगे- यह तो बाद में पता चला कि इस रूखे-सूखे पन में आनन्द की अनन्तता समायी है। बस यही बात महर्षि पतंजलि के बारे में है। वह बहुत ही रूखी-सूखी धरती पर ले चलेंगे, मरुस्थल जैसी भ्ूामि पर। लेकिन मरुस्थल का अपना सौन्दर्य है। उसमें वृक्ष नहीं होते, उसमें नदियाँ नहीं होती, लेकिन उसका एक अपना विस्तार होता है। किसी जंगल की तुलना उससे नहीं की जा सकती। जंगलों का अपना सौन्दर्य है, पहाड़ियों का अपना सौन्दर्य है, नदियों की अपनी सुन्दरताएँ हैं। मरुस्थल की अपनी विराट् अनन्तता है। हाँ, इस राह पर चलने के लिए हिम्मत की जरूरत है। पतंजलि का हर सूत्र साधकों के साहस के लिए चुनौती है। उनके विवेक को सावधान रहने की चेतावनी है।
  
पतंजलि बिलकुल साफ तौर पर कहते हैं कि यदि आपको, हमको, मनुष्य मात्र को यदि भटकन, उलझन, तनाव, चिन्ता, दुःख, पीड़ा, अवसाद से सम्पूर्ण रूप से मुक्ति पानी है, तो साक्षी भाव को उपलब्ध होने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं है। क्योंकि अन्य अवस्थाओं में तो मन की वृत्तियों के साथ तादात्म्य बना ही रहेगा। मनुष्य की प्रकृति ही ऐसी है। यह बात किसी एक पर, किसी व्यक्ति विशेष पर लागू नहीं होती। बात तो सारे मनुष्यों के लिए कही गयी है। मानव प्रकृति की बनावट व बुनावट की यही पहचान है। साक्षी के अतिरिक्त दूसरी सभी अवस्थाओं में मन के साथ तादात्म्य बना रहता है।
  
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ २८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 धर्म के नाम पर पाखण्ड

अगणित कुरीतियाँ हमें घेरे हुए हैं। स्वास्थ्य सुधार के लिए, शिक्षा के लिए, मनोरंजन के लिए, दूसरों की भलाई के लिए, आत्मकल्याण के लिए हम कुछ कर नहीं पाते। आधी से अधिक कमाई उन व्यर्थ की बातों में बर्बाद हो जाती है जिनका कोई प्रयोजन नहीं, कोई लाभ नहीं, कोई परिणाम नहीं। धर्म के नाम पर हमारे मनों में जो उच्चकोटि की भावनाएँ उठती हैं दान देने की जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उनका लाभ ज्ञान और धर्म बढ़ाने वाले, पीड़ित और पतितों को राहत देने वाले कार्यों की वृद्धि के रूप में विकसित होना चाहिए था पर होता इससे सर्वथा विपरीत है।

काल्पनिक सब्ज बाग दिखाकर संडे-मुसंडे लाल-पीले कपड़े पहनकर लोगों को ठगते रहते हैं। भोले लोग समझते हैं धर्म हो गया, पुण्य कमा लिया, पर वास्तविकता ऐसी कहाँ होती है। धूर्त लोगों को गुलछर्रे उड़ाने के लिए दिया हुआ धन भला धर्म कैसे हो जाएगा? पुण्य कर्म कैसे माना जाएगा? जिसका परिणाम न तो ज्ञान की सत्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि हो और न पीड़ितों को कोई राहत मिले, वह कार्य पाखंड ही रहेगा, धर्म नहीं। आज धर्म के नाम पर पाखंड का बोलबाला है और भोली जनता अपनी गाढ़ी कमाई का अरबों रुपया उसी पाखंड पर स्वाहा कर देती है।

पाखण्डों पर खर्च होने वाला समय और धन यदि उपयोगी कार्यों में लगे तो उसका कितना बड़ा सत्परिणाम उत्पन्न हो। मृत्युभोज, पशुबलि, बालविवाह, नींच-ऊँच, स्याने, दिवाने, भूत पलीत, कन्या विक्रय, स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले गन्दे गीत, पर्दा, होली में कीचड़ उछालना, दिवाली पर जुआ खेलना आदि अगणित ऐसी कुरीतियाँ हमारे समाज में प्रचलित हैं, जिनके कारण अनेक रोगों से ग्रसित रोगी की तरह हम सामाजिक दृष्टि से दिन-दिन दुर्बल होते चले जा रहे हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 Due to bad karma, fallen ascetic became demons

Ravana was a wise man. Through his austerities he had acquired great capabilities. In spite of all this, due to his abominable behavior, God himself had to take birth on the planet to kill him. Example of Bhasmasur, illustrates that even after having reached a high spiritual state, without any compellations, due to ill state of mind one digs a hole for himself. Similarly, great powerful fighters like Hiranyaksh and Hiranyakashyapu had to die due to evil state of mind and behavior. 

Durga killed Shumbh-Nishumbh, Madhukaitabh and Mahishasur. Parshuramji killed Sahasrabahu and Shri Krishna killed Vanasur. Bhim killed Jarasandh. Shoorpnakha used to tease Rishis performing austerities in Khardooshan forest. Tadka used to disturb the yagyas. Bali had out thrown his younger brother and kept his wife with him. Ram and Lakshman killed all of them and ended their tyranny.

Pragya Puran Part 1

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...