शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

👉 इस संसार के यात्री

🔷 “ इस संसार के निवासी तूफान में फँसे हुए जहाज के उन यात्रियों के समान हैं, जिनके पास भोजन की सामग्री बहुत कम रह गई है। ईश्वर या प्रकृति ने हमको ऐसी स्थिति में डाल दिया है कि आपत्ति से बचने के लिए कम से कम भोजन करना और निरन्तर उद्योग करते रहना हमारे लिए अनिवार्य हो गया है। यदि हम में से कोई व्यक्ति ऐसा न करें और दूसरे के उस श्रम का उपभोग कर लें, जो सामान्य हित के लिए आवश्यक नहीं हैं, तो यह हमारे तथा हमारे महकारियों दोनों के लिए नाशकारी है। अपने आपको स्वाभाविक और न्यायोचित श्रम से बचाकर और उस का भार दूसरों के कन्धों पर लाद कर भी हम अपने को क्यों चोर और धोखेबाज नहीं समझते?”

✍🏻 टालस्टाय

👉 भक्त और भगवान

🔷 तीनों लोकों में राधा की स्तुति से देवर्षि नारद खीझ गए थे। उनकी शिकायत थी कि वह तो कृष्ण से अथाह प्रेम करते हैं फिर उनका नाम कोई क्यों नहीं लेता, हर भक्त ‘राधे-राधे’ क्यों करता रहता है। वह अपनी यह व्यथा लेकर श्रीकृष्ण के पास पहुंचे।

🔶 नारदजी ने देखा कि श्रीकृष्ण भयंकर सिर दर्द से कराह रहे हैं। देवर्षि के हृदय में भी टीस उठी। उन्होंने पूछा, ‘भगवन! क्या इस सिर दर्द का कोई उपचार है। मेरे हृदय
के रक्त से यह दर्द शांत हो जाए तो मैं अपना रक्त दान कर सकता हूं।’

🔷 श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, ‘नारदजी, मुझे किसी के रक्त की आवश्यकता नहीं है। मेरा कोई भक्त अपना चरणामृत यानी अपने पांव धोकर पिला दे, तो मेरा दर्द शांत हो सकता है।’

🔶 नारद ने मन में सोचा , ‘भक्त का चरणामृत, वह भी भगवान के श्रीमुख में। ऐसा करने वाला तो घोर नरक का भागी बनेगा। भला यह सब जानते हुए नरक का भागी बनने को कौन तैयार हो?’

🔷 श्रीकृष्ण ने नारद से कहा कि वह रुक्मिणी के पास जाकर सारा हाल सुनाएं तो संभवत: रुक्मिणी इसके लिए तैयार हो जाएं।

🔶 नारदजी रुक्मिणी के पास गए। उन्होंने रुक्मिणी को सारा वृत्तांत सुनाया तो रुक्मिणी बोलीं, ‘नहीं, नहीं! देवर्षि, मैं यह पाप नहीं कर सकती।’ नारद ने लौटकर रुक्मिणी की बात श्रीकृष्ण के पास रख दी।

🔷 अब श्रीकृष्ण ने उन्हें राधा के पास भेजा। राधा ने जैसे ही सुना, तत्काल एक पात्र में जल लाकर उसमें अपने दोनों पैर डुबोए। फिर वह नारद से बोली, ‘देवर्षि, इसे तत्काल श्रीकृष्ण के पास ले जाइए। मैं जानती हूं कि भगवान को अपने पांव धोकर पिलाने से मुझे रौरव नामक नरक में भी ठौर नहीं मिलेगा। पर अपने प्रियतम के सुख के लिए मैं अनंत युगों तक नरक की यातना भोगने को तैयार हूं।’ अब देवर्षि समझ गए कि तीनों लोकों में राधा के प्रेम के स्तुतिगान क्यों हो रहे हैं। उन्होंने भी अपनी वीणा उठाई और राधा की स्तुति गाने लगे।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 24 August 2018


👉 आज का सद्चिंतन 24 Aug 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 36)

👉 बड़े कामों के लिए वरिष्ठ प्रतिभाएँ

🔷 प्रतिभाओं को दुहरे मोरचे पर लड़ने का अभ्यास करना चाहिए। उनमें से एक है दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन और दूसरा है सत्प्रवृत्ति संवर्धन। इन प्रयासों का शुभारंभ अपने निज के जीवनक्रम से करके इन्हें परिवार में प्रचलित किया जा सकता है। इसके बाद पड़ोसियों, स्वजन-संबंधियों परिचित-घनिष्टों और उन सबको आलोक वितरण से लाभान्वित किया जा सकता है, जो अपने प्रभाव-परिचय क्षेत्र में आते हैं।
  
🔶 अपने स्वभाव में अनेक ऐसी आदतें सम्मिलित हो सकती हैं, जो अखरती तो नहीं, पर लकड़ी में लगे घुन की तरह निरंतर खोखला करने में अनवरत रूप से लगी रहती हैं। इनसे निपटने के लिए मोरचाबंदी यही से आरंभ करनी चाहिए। सबसे बुरी किंतु सर्वाधिक प्रचलित कुटेव एक है-वह है आलस्य। चोरी अनेक तरह की है, किंतु अपने आपको और अपने सगे-संबंधियों को सबसे अधिक हानि पहुँचाने वाली है कामचोरी। इसमें प्रतीत भर ऐसा होता है कि हम आराम से रह रहे हैं, मजे के दिन काट रहे हैं, पर सच बात यह है कि इस कुटेव के कारण आदमी दिन-दिन अनुपयोगी, अनगढ़, अयोग्य, अक्षम, अशक्त होता जाता है। प्रगति की समस्त संभावनाएँ आलसी को दूर से ही नमस्कार करके उलटे पैरों लौट जाती हैं।
  
🔷 यह समझा जाना चाहिए कि पसीने की हर बूँद मोती होती है। जीवन की बहुमूल्य शृंखला क्षणों के छोटे-छोटे कणों से मिलकर बनी है। समुन्नत वे रहे हैं जिन्होंने समय का मूल्य समझा और उसकी हर इकाई का श्रेष्ठतम एवं क्रमबद्ध व्यस्त उपयोग करने का तारतम्य बिठाया। जो आलस्य-प्रमाद में उसे गँवाते रहते हैं, धीमी गति और ढीले तारतम्य से उसे ज्यों-त्यों करके काटते रहते हैं, वे किसी प्रकार अपनी मौत के दिन पूरे भर कर पाते हैं। उन्हें और तो कुछ मिलना ही क्या था, प्रतिभा परिवर्धन के सहज लाभ तक से वे वंचित रह जाते हैं। यह दुर्घटना अपने या अपने किसी प्रिय पात्र के जीवन में घटने न पाए, इसका विशेष सतर्कतापूर्वक ध्यान रखे जाने की आवश्यकता है। लंबे समय के भारी और कठिन काम करने वालों को बीच-बीच में थोड़ा सुस्ताने की आवश्यकता अवश्य पड़ती है। पर उसकी पूर्ति थोड़ी देर के लिए काम या मन बदलने भर से पूरी हो जाती है। हृदय, जन्म के दिन से लेकर मृत्युपर्यंत धड़कता रहता है। इसी अवधि में वह कुछ क्षणों का विश्राम भी ले लेता है। हमारे भी काम और विश्राम के बीच इसी प्रकार का तालमेल बिठाया जाना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 46

👉 Scientific Basis of Gayatri Mantra Japa (Part 3)

🔷 Mahatma Gandhi referred to it as the basis of the world religion of the future. The structure of Gayatri Mantra is in perfect tune with the science of cosmic sound. It will not be possible for us to analyse its sonic pattern and the resonance of its subtle vibrations in this small article. We shall mainly elucidate the major steps of psychological elevation and evolution of a sadhaka as consciousness by the japa of this mantra. Japa is a scientific process of inward orientation of mind.

🔶 The japa of the Gayatri Mantra enables a harmonious linkage and flow of the individual consciousness (of the sadhaka) with the cosmic consciousness. If a beginner understands the psychological impact of mantra-japa or has intrinsic faith in it then meditating as per the requirement of the japa-sadhana will not be difficult for him. With prior conditioning of the mind, the rhythmic process of japa also helps in controlling its waywardness.

🔷 Once this stage of training of the mind is over, the progress of meditation and hence the japa-sadhana moves quite smoothly and at an uninterrupted pace. In terms of mental and emotional enlightenment, japa (japa- sadhana) involves the following:
(i) Training of repeating the same mantra;
(ii) Recognition of imbibing the inspirations of what has been repeated;
(iii) Recollection and Contemplation of recalling the mental connection during meditation and reestablishing the broken links with the inner self;
(iv) Retention of Deepening the faith (in the mantra) and sincerity to the level of inner experience and intrinsic emotions.

📖 Akhand Jyoti, Mar Apr 2003

👉 परिजनों से गुरुदेव की आशा और अपेक्षा (भाग 1)

🔷 अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य के नाम संदेश देते हुए गुरु देव ने कहा-प्रत्येक परिजन को पेट और प्रजनन की पशु प्रक्रिया से ऊँचे उठकर उन्हें दिव्य जीवन की भूमिका सम्पादित करने के लिये कुछ सक्रिय कदम बढ़ाने चाहिएं। मात्र सोचते विचारते रहा जाय और कुछ किया न जाय तो काम न चलेगा। हममें से प्रत्येक को अधिक ऊँचा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और कर्तव्य में ऐसा हेर-फेर करना चाहिए जिसके आधार में परमार्थ प्रयोजनों को अधिकाधिक स्थान मिल सके। उपलब्ध विभूतियों और सम्पदाओं को अपने शरीर और अपने परिवार के लिए सीमित नहीं कर लेना चाहिए वरन् उनका एक महत्व पूर्ण अंश लोक मंगल के लिये नियोजित करना चाहिए।

🔶 हर एक को यह समझ लेना चाहिए कि दृष्टिकोण के परिष्कार गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता और परमार्थ प्रयोजनों में तत्परता अपनाये बिना कभी किसी की आत्मिक प्रगति सम्भव नहीं। ईश्वर उपासना और साधनात्मक गति विधियाँ अपनाने का प्रभाव परिणाम भी इन्हीं सत्प्रवृत्तियों का विकास होना चाहिए अन्यथा वह जप भजन भी एक चिह्न पूजा बनकर रह जायगा और उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा।

🔷 उपासना एवं जीवन साधना का श्रेष्ठ किन्तु सरल रूप क्या हो सकता है इसकी चर्चा पिछले पृष्ठों पर हो चुकी है। उस दिशा में एक-एक कदम हर किसी को उठाना चाहिये और ‘इन दोनों गति विधियों को अपने जीवन क्रम में अविच्छिन्न रूप से सम्मिलित कर लेना चाहिए।

🔶 गुरु देव ने कहा-प्रत्येक जागृत आत्मा को क्रमबद्ध रूप से इस संगठन सूत्र में आबद्ध हो जाना चाहिए। युग-निर्माण परिवार की नियमित सदस्यता स्वीकार कर लेनी चाहिए और भावनात्मक नव निर्माण के लिए एक घण्टा समय और दस पैसा (उस समय के हिसाब से, आज के समय में एक रुपया) जैसे प्रतीकात्मक अनुदान को नियमित रूप से बिना किसी ढील-पोल के आरम्भ कर देना चाहिए। इस क्रम में व्यतिरेक न आने पाये इसलिए ‘ज्ञान घट’ की स्थापना आवश्यक है। उस बन्धन के सहारे नियमितता टूटने नहीं पायेगी और परिवार की सदस्यता के साथ आत्मिक प्रगति का क्रम यथावत् चलता रहेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 माता भगवती देवी शर्मा
📖 अखण्ड ज्योति, मई 1972 पृष्ठ 43
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1972/May/v1.43

👉 आत्मविजेता ही विश्व विजेता

🔷 साधना से तात्पर्य है ‘आत्मानुशासन’। अपने ऊपर विजय प्राप्त करने वाले को सबसे बढ़कर योद्धा माना गया है। दूसरों पर आक्रमण करना सरल है। बेखबर लोगों पर हमला करना तो और भी सरल है। इसलिए आक्रमणकारियों को योद्धा कहने का औचित्य कम ही है।

🔶 असली शत्रु हमारे कुसंस्कार हैं, जो पशु प्रवृत्तियों के रूप में अन्तरंग की उत्कृष्टता को दबाये बैठे रहते हैं और उत्कृष्टता की दृष्टि में एक कदम बढ़ाने की तैयारी करते ही भारी  अड़चन बनकर द्वार रोकते हैं। इनसे निपटना कम बहादुरी का काम नहीं है।

🔷 घुन लकड़ी को और विषाणु स्वास्थ्य को चौपट करते हैं। व्यसन और दुर्गुण ही मनुष्य को नीचे गिराते हैं। और उसके अभ्युदय का कोई प्रयास सफल नहीं होने देते।

🔶 यदि हम अपने असली शत्रुओं को समझ पायें और उनकी जड़ों को उखाड़ पायें, तो समझना चाहिए कि परम पुरुषार्थ कर गुजरने में सफलता पाई। ऋषि- मनीषी इसलिये बार- बार यह कहते आये हैं- अपने को जानो ,, अपने आपे को पहचानो, देखो और सुनने का प्रयास करो। इसका भावार्थ यही है कि अपने अन्दर क्या है? हमसे अच्छा कौन जान सकता है? दूसरों के दोष देखना सरल है, अपने दोष देख पाना सबसे कठिन। जो ऐसा आत्मपरिष्कार कर लेता है- ऐसा आत्मविजेता ही विश्वविजेता कहलाता  है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...