शनिवार, 17 अप्रैल 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग ६)

पराम्बा के प्रति परमप्रेमरूपा है भक्ति
    
‘ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्’- चौबीस अक्षरों वाले इस गायत्री महामंत्र के समवेत उच्चारण से हिमालय का कण-कण गूँज उठा। सप्त ऋषियों सहित सभी महर्षियों एवं देवशक्तियों ने सन्ध्या वन्दन के पश्चात भगवान भुवन भास्कर को अर्घ्य अर्पित किया। अद्भुत छटा हो रही थी हिमशिखरों में उदित हो रहे सूर्य की। पहले अरुण आभा उदित होकर फैली और फिर भगवान सविता देव हिमाद्रि तुंग शृंगों से प्रकट हुए। सभी ने हाथ जोड़कर उनकी अभ्यर्थना करते हुए सिर नवाया। भगवान अंशुमाली ने भी अपनी सहस्र किरणों से सभी पर अपनी कृपादृष्टि की। सूर्यदेव के इस अपूर्व अनुदान से सभी रोमांचित हो उठे। प्रत्येक के अन्तस् में आह्लाद की हिलोर उठी और भक्ति की पुलकन से सात्विक रोमांच हो आया।
    
सभी की दृष्टि, भक्ति के परमाचार्य देवर्षि की ओर उठी। परम भागवत देवर्षि नारद निर्निमेष भाव से हिमशिखरों को निहारे जा रहे थे। उनके हृदय की प्रगाढ़ भावनाएँ आँखों में अश्रुबूँदों के रूप में चमक रही थीं। इस भावविह्वलता ने उनकी वाणी को जड़ीभूत कर दिया था। ब्रह्मर्षि वामदेव ने उन्हें टोका- ‘‘किस चिंतन ने आज आपको विह्वल कर दिया है-देवर्षि?’’ वामदेव के इस प्रश्न से देवर्षि की अंतर्मुखी चेतना बाह्य जगत् की ओर मुड़ी। शनैः-शनैः वह प्रकृतिस्थ हुए। उनके होठों पर हल्का स्मित झलका एवं मुखमण्डल पर भक्ति की सात्विक आभा छलकने लगी। उन्होंने सभी महर्षियों की ओर मुड़ते हुए कहा- ‘‘आज राजा हिमवान् के आँगन में युगों पुरानी स्मृतियाँ ताजी हो आयीं। बस माँ की याद हो आयी।’’
    
‘‘हाँ, देवर्षि!’’- महर्षि वशिष्ठ एवं अंगिरा लगभग एक साथ बोले- ‘‘आपकी पिछले जन्मों की माता ने ही तो आपको भक्ति की जन्मघुट्टी पिलायी थी, उन्हीं की प्रकाश किरण का अनुदान पाकर आज आप स्व-प्रकाशित हो रहे हैं।’’ ‘‘सो तो है महर्षिगण! भला उनकी कोख के संस्कारों को कैसे भुलाया जा सकता है। पर आज मेरी स्मृति व चिंतन का केन्द्र वे ममतामयी नहीं, बल्कि अहैतुक कृपामयी पराम्बा भगवती हैं, जो जन-जन की, सृष्टि के कण-कण की, हम सबकी, तिर्यक योनि वाले निम्न प्राणियों से लेकर देवों एवं महर्षियों की माँ हैं। जिनके एक अंश को धारण कर जननी माँ बनती है, जिनके परम प्रेम को  अनुभव कर जीव कृतार्थ एवं कृत्कृत्य हो जाता है।’’

‘‘उन्हीं के परम प्रेम की अनुभूति करते हुए मैंने भक्तिदर्शन का दूसरा सूत्र कहा है-
‘सा त्वस्मिन् परम प्रेम रूपा’॥ २॥
उनके प्रति परम प्रेमरूपा है-भक्ति।

हृदय में आदिशक्ति माँ जगदम्बा का स्मरण करते हुए देवर्षि का कण्ठ रूँध आया था। उन्होंने बड़ी श्रद्धा से दोनों हाथ जोड़े और ‘‘माँ! माँ!! परम प्रेममयी माँ!!!’’ कहकर सब ओर माथा नवाते हुए प्रणाम किया और भावविह्वल स्वर में बोले- ‘‘धन्य है देवात्मा हिमालय, जिन्हें जगदम्बा ने अपने पिता होने का गौरव दिया। धन्य है इनके राज्य में रहने वाले लोग जो उनके भाई-बहिन बने।’’ भावों का तीव्र वेग बह रहा था और देवर्षि नारद कह रहे थे- ‘‘माता सती ने जब दक्ष यज्ञ में स्वयं की देह विसर्जित की थी, तब से सभी के मन में जिज्ञासा थी कि वे लीलामयी कब, कहाँ, किस रूप में अवतरित होंगी। और वे प्रेममयी आयीं, पर्वतकन्या पार्वती बनकर।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १७

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६)

👉 प्रत्यक्ष लगने पर भी सत्य कहां

चन्द्रमा हमसे ऊंचा है पर यदि चन्द्रतल पर जा खड़े हों तो प्रतीत होगा कि पृथ्वी ऊपर आकाश में उदय होती है। सौर मण्डल से बाहर निकल कर कहीं आकाश में हम जा खड़े हों तो प्रतीत होगा कि पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण ऊपर नीचे जैसे कोई दिशा नहीं है। दिशाज्ञान सर्वथा अपेक्षाकृत है। दिल्ली, लखनऊ से पश्चिम में बम्बई से पूर्व में, मद्रास से उत्तर में और हरिद्वार से दक्षिण में है। दिल्ली किस दिशा में है यह कहना किसी की तुलना अपेक्षा से ही सम्भव हो सकता है वस्तुतः वह दिशा विहीन है।

समय की इकाई लोक व्यवहार में एक तथ्य है। घण्टा मिनट के सहारे ही दफ्तरों का खुलना बन्द होना रेलगाड़ियों का चलना रुकना—सम्भव होता है। अपनी सारी दिनचर्या समय के आधार पर ही बनती है। पर समय की मान्यता भी असंदिग्ध नहीं है। सूर्योदय या सूर्यास्त का समय वही नहीं होता जो हम देखते या जानते हैं। जब हमें सूर्य उदय होते दीखता है उससे प्रायः 8।। मिनट पहले ही उग चुका होता है। उसकी किरणें पृथ्वी तक आने में इतना समय लग जाता है। अस्त होता जब दीखता है, उससे 8।। मिनट पूर्व ही वह डूब चुका होता है। आकाश में कितने ही तारे ऐसे हैं जो हजारों वर्ष पूर्व अस्त हो चुके पर वे अभी तक हमें चमकते दीखते हैं। यह भ्रम इसलिये रहता है कि उनका प्रकाश पृथ्वी तक आने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। जब वे वस्तुतः अस्त हुये हैं उसकी जानकारी अब कहीं इतनी लम्बी अवधि के पश्चात हमें मिल रही है। सौर मण्डल के अपने ग्रहों के बारे में भी यही बात है, वे पंचांगों में लिखे समय से बहुत पहले या बाद में उदय तथा अस्त होते हैं।

जो तारा हमें सीध में दीखता है आवश्यक नहीं कि वह उसी स्थिति में है। प्रकाश की गति सर्वथा सीधी नहीं है। प्रकाश भी एक पदार्थ है और उसकी भी तोल है। एक मिनट में एक वर्ग मील जमीन पर सूर्य का जितना प्रकाश गिरता है उसका वजन प्रायः एक ओंस होता है। पदार्थ पर आकर्षण शक्ति का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। तारों का प्रकाश सौर मण्डल में प्रवेश करता है तो सूर्य तथा अन्य ग्रहों के आकर्षण के प्रभाव से लड़खड़ाता हुआ टेढ़ा तिरछा होकर पृथ्वी तक पहुंचता है। पर हमारी आंखें उसे सीधी धारा में आता हुआ ही अनुभव करती हैं। हो सकता है कि कोई तारा सूर्य या किसी अन्य ग्रह की ओट में छिपा बैठा हो पर उसका प्रकाश हमें आंखों की सीध में दीख रहा हो। इसी प्रकार ठीक सिर के ऊपर चमकने वाला तार वस्तुतः उस स्थान से बहुत नीचा या तिरछा भी हो सकता है। इस प्रकाश दिशा ही नहीं समय सम्बन्धी मान्यताएं भी निर्भ्रान्त नहीं हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...