शनिवार, 5 दिसंबर 2020

👉 असंम्भव कुछ नही:-

एक समय की बात है किसी राज्य में एक राजा का शासन था। उस राजा के दो बेटे थे – अवधेश और विक्रम। 

एक बार दोनों राजकुमार जंगल में शिकार करने गए। रास्ते में एक विशाल नदी थी। दोनों राजकुमारों का मन हुआ कि क्यों ना नदी में नहाया जाये। 

यही सोचकर दोनों राजकुमार नदी में नहाने चल दिए। लेकिन नदी उनकी अपेक्षा से कहीं ज्यादा गहरी थी। 

विक्रम तैरते तैरते थोड़ा दूर निकल गया, अभी थोड़ा तैरना शुरू ही किया था कि एक तेज लहर आई और विक्रम को दूर तक अपने साथ ले गयी।

विक्रम डर से अपनी सुध बुध खो बैठा गहरे पानी में उससे तैरा नहीं जा रहा था अब वो डूबने लगा था। 

अपने भाई को बुरी तरह फँसा देख के अवधेश जल्दी से नदी से बाहर निकला और एक लकड़ी का बड़ा लट्ठा लिया और अपने भाई विक्रम की ओर उछाला।

लेकिन दुर्भागयवश विक्रम इतना दूर था कि लकड़ी का लट्ठा उसके हाथ में नहीं आ पा रहा था।

इतने में सैनिक वहां पहुँचे और राजकुमार को देखकर सब यही बोलने लगे – अब ये नहीं बच पाएंगे, यहाँ से निकलना नामुमकिन है। 

यहाँ तक कि अवधेश को भी ये अहसास हो चुका था कि अब विक्रम नहीं बच सकता, तेज बहाव में बचना नामुनकिन है, यही सोचकर सबने हथियार डाल दिए और कोई बचाव को आगे नहीं आ रहा था। काफी समय बीत चुका था, विक्रम अब दिखाई भी नही दे रहा था.

अभी सभी लोग किनारे पर बैठ कर विक्रम का शोक मना रहे थे कि दूर से एक सन्यासी आते हुए नजर आये उनके साथ एक नौजवान भी था। थोड़ा पास आये तो पता चला वो नौजवान विक्रम ही था। 

अब तो सारे लोग खुश हो गए लेकिन हैरानी से वो सब लोग विक्रम से पूछने लगे कि तुम तेज बहाव से बचे कैसे?

सन्यासी ने कहा कि आपके इस सवाल का जवाब मैं देता हूँ – ये बालक तेज बहाव से इसलिए बाहर निकल आया क्यूंकि इसे वहां कोई ये कहने वाला नहीं था कि “यहाँ से निकलना नामुनकिन है”

इसे कोई हताश करने वाला नहीं था, इसे कोई हतोत्साहित करने वाला नहीं था। इसके सामने केवल लकड़ी का लट्ठा था और मन में बचने की एक उम्मीद बस इसीलिए ये बच निकला।

दोस्तों हमारी जिंदगी में भी कुछ ऐसा ही होता है, जब दूसरे लोग किसी काम को असम्भव कहने लगते हैं तो हम भी अपने हथियार डाल देते हैं क्यूंकि हम भी मान लेते हैं कि ये असम्भव है। हम अपनी क्षमता का आंकलन दूसरों के कहने से करते हैं।

आपके अंदर अपार क्षमताएं हैं, किसी के कहने से खुद को कमजोर मत बनाइये। सोचिये विक्रम से अगर बार बार कोई बोलता रहता कि यहाँ से निकलना नामुमकिन है, तुम नहीं निकल सकते, ये असम्भव है तो क्या वो कभी बाहर निकल पाता? कभी नहीं……. 

उसने खुद पे विश्वास रखा, खुद पे उम्मीद थी बस इसी उम्मीद ने उसे बचाया।

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ७८)

बड़ा गहरा है—प्राण व मन का नाता

जो योग साधना के मर्म को जानते हैं, उन्हें मालूम है कि प्राण प्रवाह को शुद्ध किये बिना साधना में सफलता सम्भव नहीं है। तपस्वी के तप, भक्त की भक्ति और योगी के योग से सबसे पहले प्राण निर्मल होते हैं। ऐसा होने पर ही इनकी साधना आगे बढ़ती है। प्राणों का मल वासना है। वर्तमान स्थिति में प्राण वासना से गंदले और धुँधले हैं। वासना के आवेग इन्हें प्रेरित, प्रवर्तित, परिवर्तित और उद्वेलित करते हैं। वासना इन्हें जिधर मोड़ती है, प्राण उधर ही मुड़ जाती है। साधना जीवन का यह ऐसा विकट सत्य है, जिसे प्रत्येक साधक अपनी साधना में कभी न कभी अनुभव करता है। जो साधक सावधान और जागरूक होते हैं, वे अपनी साधना के प्रारम्भ में ही इस समस्या का हल ढूँढ लेते हैं। जो इस सावधानी से चूक जाते हैं, उन्हें आगे चलकर भटकाव व पतन के महाव्यूह में फँसना पड़ता है।

महर्षि पतंजलि योग साधना के सभी रहस्यों के गहरे ज्ञानी हैं। इसीलिए वे अपने योग सूत्रों में साधकों व साधना की सभी उलझनों को एक-एक करके सुलझाते हैं। व्यवहार के परिमार्जन से संस्कारों के परिमार्जन की प्रक्रिया सुझाने के साथ महर्षि बताते हैं कि मंजिल तक पहुँचने के लिए राहें और भी हैं। महर्षि पतंजलि अध्यात्म विज्ञान के महान् वैज्ञानिक हैं और वे अपनी वैज्ञानिक अभिवृत्ति के अनुरूप नयी प्रक्रियाएँ व नयी तकनीकें विकसित करते हैं। इस नये सूत्र में उनकी एक नयी तकनीक का प्रस्तुतीकरण है-
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य॥ १/३४॥
शब्दार्थ- वा= अथवा, प्राणस्य = प्राणवायु को, प्रच्छर्दनविधारणाभ्याम् = बारम्बार बाहर निकालने व रोकने के अभ्यास से भी चित्त निर्मल होता है।
अर्थात्  बारी-बारी से श्वास बाहर छोड़ने और रोकने से भी मन शान्त होता है।
    
महर्षि अपने इस सूत्र में बड़ी अद्भुत बात कहते हैं-वे बताते हैं कि प्राण व मन का जोड़ गहरा है। कहीं गहरे में प्राणों में मन घुला हुआ है, ठीक इसी तरह से प्राण भी मन में घुले हुए हैं। श्वास और विचार गहरे में एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। जब हमारे विचारों की गुणवत्ता में परिवर्तन आता है, तो श्वास भी परिवर्तित हो जाती है। विचारों में क्रोध का उद्वेलन हो या कामुकता का ज्वार उठे, तो श्वास की लय बदले बिना नहीं रहती। इसी तरह यदि विचारों में गहरी शान्ति, समरसता व सामंजस्य हो तो श्वास की लय भी सुरीली हो जाती है। इस सत्य व सिद्धान्त के आधार पर ही हठयोग में प्राणायाम का सम्पूर्ण विधान रचा गया है।  हठयोग कहता है कि प्राण को यदि साध लिया जाय, तो मन अपने आप ही सध जायेगा। महर्षि अपने सूत्रों व प्रयोगों में हठयोग की जटिलता तो नहीं बताते, परन्तु प्राणशोधन की आवश्यकता अवश्य बताते हैं। वे कहते हैं कि यदि श्वास के आवागमन को लयबद्ध किया जाय, तो चित्त भी लयबद्ध हो जायेगा।
    
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १३४
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 समीक्षा और निराकरण

अपने गुण, कर्म, स्वभाव में जो त्रुटियाँ हों उन पर अपने आलोचक या विरोधी की दृष्टि से निरीक्षण करते रहना चाहिए। जब तक अपने प्रति पक्षपात की दृष्टि रहती है तब तक दोष एक भी सूझ नहीं पड़ता, पर जब निष्पक्ष आलोचक की दृष्टि से देखते हैं तो खुर्दबीन के शीशे की तरह अगणित त्रुटियाँ अपने में दिखाई देने लगती हैं। त्रुटियों को सुधारते और अच्छाइयों बढ़ाते चलना प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का आवश्यक कर्त्तव्य है। अपने में कोई अच्छे गुण भी हो सकते हैं और यह भी हो सकता है कि उनका विकास अभी पूरी तरह न हो पाया हो। इस विकास के लिए भी हमें सतत प्रयत्न करना चाहिए। आदत में सम्मिलित हुई कई बुराइयाँ यदि आरम्भ में ही पूर्णतया छोड़ सकना संभव न हो तो उनकी मात्रा दिन−दिन घटाते चलना शुरू कर देना चाहिए। जैसे बीड़ी पीने की आदत पड़ी हुई है और एक दिन में 10 बीड़ी पीते हैं तो हर महीने एक बीड़ी घटाते चलिये तो दस महीने में पूर्णतया छोड़ने की प्रक्रिया भी बन सकती है। अच्छा तो यही है कि एक बार पूरा मनोबल एकत्रित करके उन्हें झटके के साथ उखाड़ कर फेंक दिया जाय पर जिनसे इतना न बन पड़े, वे धीरे−धीरे भी सुधार के मार्ग पर चल सकते हैं।

अच्छाइयाँ भी हर मनुष्य में होती हैं। उनको समझना चाहिए और उन पर प्रसन्न होना चाहिए। जिस प्रकार बुराइयों को ढूँढ़कर उन पर क्षुब्ध होना, घृणा करना, हानियों की संभावना पर विचार करते रहना और उन्हें त्यागने के लिए नित्य एक कदम बढ़ाते चलना आवश्यक है उसी प्रकार अपनी अच्छाइयों को ढूँढ़ना, उन पर संतोष अनुभव करना और उन्हें बढ़ाते चलने के लिए आगे और भी अधिक बड़े कदम उठाने का प्रयत्न करते रहना आवश्यक है। हर आदमी में बुराइयाँ और अच्छाइयाँ अपने−अपने ढंग की होती है और अलग−अलग प्रकार की। इसलिए हर व्यक्ति को अपनी शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलताओं को स्वयं ही ढूँढ़ना चाहिए और उनके घटाने का कार्यक्रम स्वयं ही बनाना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...