शनिवार, 27 नवंबर 2021

👉 परमात्मा की समीपता

परमात्मा के जितने ही समीप हम पहुँचते हैं उतनी ही श्रेष्ठताएँ हमारे अन्तःकरण में उपजती तथा बढ़ती हैं। उसी अनुपात से आन्तरिक शान्ति की भी उपलब्धि होती चलती है।
हिमालय की ठण्डी हवाएँ उन लोगों को अधिक शीतलता प्रदान करती हैं जो उस क्षेत्र में रहते हैं। इसी प्रकार आग की भट्टियों के समीप काम करने वालों को गर्मी अधिक अनुभव होती है। जीव ज्यों-ज्यों परमात्मा के निकट पहुँचता जाता है, त्यों-त्यों उसे उन विभूतियों का अपने में अनुभव होने लगता है जो उस परम प्रभु में ओत प्रोत हैं।
उपासना का अर्थ है—पास बैठना। परमात्मा के पास बैठने से ही ईश्वर उपासना हो सकती है। साधारण वस्तुएँ तथा प्राणी अपनी विशेषताओं की छाप दूसरों पर छोड़ते हैं तो परमात्मा के समीप बैठने वालों पर उन दैवी विशेषताओं का प्रभाव क्यों न पड़ेगा?

पुष्प वाटिका में जाते ही फूलों की सुगन्ध से चित्त प्रसन्न होता है। चन्दन के वृक्ष अपने समीपवर्ती वृक्षों को सुगन्धित बनाते हैं। सज्जनों के सत्संग से साधारण व्यक्तियों की मनोभावनाएँ सुधरती हैं, फिर परमात्मा अपनी महत्ता की छाप उन लोगों पर क्यों न छोड़ेगा जो उसकी समीपता के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

गुरुवार, 25 नवंबर 2021

👉 भावी सम्भावनायें और हमारा कर्त्तव्य

अगले दिन बहुत ही उलट-पुलट से भरे हैं। उनमें ऐसी घटनायें घटेंगी ऐसे परिवर्तन होंगे जो हमें विचित्र भयावह एवं कष्टकर भले ही लगें पर नये संसार की अभिनव रचना के लिए आवश्यक हैं। हमें इस भविष्यता का स्वागत करने के लिए-उसके अनुरूप ढलने के लिए-तैयार होना चाहिये। यह तैयारी जितनी अधिक रहे उतना ही भावी कठिन समय अपने लिये सरल सिद्ध होगा।

भावी नर संहार में आसुरी प्रवृत्ति के लोगों को अधिक पिसना पड़ेगा। क्योंकि महाकाल का कुठाराघात सीधा उन्हीं पर होना है। “परित्राणाय साधूनाँ विनाशायश्च दुष्कृताम्” की प्रतिज्ञानुसार भगवान को युग-परिवर्तन के अवसर पर दुष्कृतों का ही संहार करना पड़ता है। हमें दुष्ट दुष्कृतियों की मरणासन्न कौरवी सेना में नहीं, धर्म-राज की धर्म संस्थापना सेना में सम्मिलित रहना चाहिये। अपनी स्वार्थपरता, तृष्णा और वासना को तीव्र गति से घटाना चाहिए और उस रीति-नीति को अपनाना चाहिये जो विवेकशील परमार्थी एवं उदारचेता सज्जनों को अपनानी चाहिये।

संकीर्णताओं और रूढ़ियों की अन्य कोठरी से हमें बाहर निकलना चाहिए। अगले दिनों विश्व-संस्कृति, विश्व-धर्म, विश्व-भाषा, विश्व-राष्ट्र का जो भावी मानव समाज बनेगा उसमें अपनी-अपनी महिमा गाने वालों और अपनी ढपली अपना राग गाने वालों के लिये कोई स्थान न रहेगा। पृथकतावादी सभी दीवारें टूट जायेंगी और समस्त मानव समाज को न्याय एवं समता के आधार पर एक परिवार का सदस्य बन कर रहना होगा। जाति लिंग या सम्पन्नता के आधार पर किसी को वर्चस्व नहीं मिलेगा। इस समता के अनुरूप हमें अभी से ढलना आरम्भ कर देना चाहिये।

धन-संचय और अभिवर्धन की मूर्खता हमें छोड़ देना ही उचित है, बेटे पोतों के लिए लम्बे चौड़े उत्तराधिकार छोड़ने की उपहासास्पद प्रवृत्ति को तिलाँजलि देनी चाहिये क्योंकि अगले दिनों धन का स्वामित्व व्यक्ति के हाथ से निकल कर समाज, सरकार के हाथ चला जायगा। केवल शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार एवं सद्गुणों की सम्पत्ति ही उत्तराधिकार में दे सकने योग्य रह जायगी। इसलिए जिनके पास आर्थिक सुविधायें हैं वे उन्हें लोकोपयोगी कार्यों में समय रहते खर्च करदें ताकि उन्हें यश एवं आत्म-संतोष का लाभ मिल सके। अन्यथा वह संकीर्णता मधुमक्खी के छत्ते पर पड़ी डकैती की तरह उनके लिये बहुत ही कष्ट-कारक सिद्ध होगी।

लंका विजय में श्री राम के साथी रीछ-वानरों की तरह गिद्ध और गिलहरी की भाँति हमें युग-निर्माण योजना के महान अभियान में तत्परतापूर्वक संलग्न होना चाहिये। यह प्रयत्न एवं पुरुषार्थ नव युग के स्वागत की सच्ची अगवानी का महत्वपूर्ण आयोजन माना जायगा। विवेकशील और दूरदर्शी प्रबुद्ध व्यक्तियों को इस महत्वपूर्ण समय का उपयोग इसी दिशा में कदम उठाते हुए करना चाहिये। जो समय रहते अपने को बदल सकेंगे वस्तुतः वे ही शाँति और सन्तोष अनुभव करेंगे।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1967

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

भाईचारे का बर्ताव

यदि कोई भंगी हमारे पास भंगी के रूप में आता है, तो छुतही बिमारी की तरह हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं। परन्तु जब उसके सिर पर एक कटोरा पानी डालकर कोई पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना देता है और जब उसे पहनने को एक कोट मिल जाता है-- वह कितना ही फटा-पुराना क्यों न हो-- तब चाहे वह किसी कट्टर से कट्टर हिन्दू के कमरे के भीतर पहुँच जाय, उसके लिए कहीं रोक-टोक नहीं, ऐसा कोई नहीं, जो उससे सप्रेम हाथ मिलाकर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे! इससे अधिक विड्म्बना की बात क्या हो सकता है? 

आइए, देखिए तो सही, दक्षिण भारत में पादरी लोग क्या गज़ब कर रहें हैं। ये लोग नीच जाति के लोगों को लाखों की संख्या मे ईसाई बना रहे हैं। ...वहाँ लगभग चौथाई जनसंख्या ईसाई हो गयी है! मैं उन बेचारों को  क्यों दोष दूँ?  हें भगवान, कब एक मनुष्य दूसरे से भाईचारे का बर्ताव करना सीखेगा।


स्वामी विवेकानन्द     
 (वि.स.१/३८५)

👉 भक्तिगाथा (भाग ८७)

प्रभु कृपा से ही मिलता है महापुरुषों का संग

‘‘तब अपनी स्मृतिकथा सुनाकर हमें अनुगृहीत करें।’’ वातावरण में कई स्वरलहरियाँ एक साथ स्पन्दित हुईं। वशिष्ठ ने भी सभी की सहमति को स्वीकार कर कहना प्रारम्भ किया- ‘‘यह कथा महर्षि वाल्मीकि एवं देवर्षि नारद के आध्यात्मिक सम्मिलन से पूर्व की है। उस समय मैं किसी कार्यवश परमपिता ब्रह्मदेव से मिलने के लिए ब्रह्मलोक गया हुआ था। कमलासन पर विराजमान ब्रह्मदेव थोड़ा सा चिन्तित लग रहे थे। पास में ही माता सरस्वती भी विराजमान थी। भगवती सरस्वती के समीप ही मेरे अग्रज भ्राता सनक-सनन्दन आदि खड़े थे जिन्हें माता यदा-कदा स्नेह-वात्सल्य भाव से देख लेती थीं। ब्रह्मदेव की उस सभा में अन्य त्रैलोक्यपूजित महर्षि भी थे। परमपिता मुझे देखकर मेरा अभिवादन स्वीकार करते हुए बोले- तुम बड़े ही शुभ अवसर पर पधारे हो पुत्र! तुम्हारे लिए एक शुभ सूचना है और मेरे लिए एक समस्या है वत्स, जिसका समाधान होना है। मैंने विनीत स्वरों में उनसे कहा, पहले मुझे शुभ सूचना दें भगवन्, फिर यदि मुझे योग्य समझें तो समस्या से भी अवगत कराएँ?

मेरे इस कथन पर ब्रह्मदेव बोले- तो सुनो पुत्र! शुभ सूचना यह है कि तुम जिस कुल के पुरोहित हो, उस कुल में भगवान नारायण शीघ्र ही अवतार लेने वाले हैं। ब्रह्मदेव के इस कथन ने तो मुझे विह्वल कर दिया। खुशी से मेरे नेत्र भीग गए। मैं कुछ बोल न सका, बस अहोभाव से मैंने उन पूर्णपुरूष के प्रति कृतज्ञ भाव से हाथ जोड़ लिए। अब मेरी समस्या सुनो वत्स- थोड़ा रूककर ब्रह्मदेव बोले। अवश्य भगवन्। मैं अपनी प्रसन्नता के अतिरेक में परमपिता ब्रह्मदेव की समस्या वाली बात विस्मृत कर चुका था। उदार ब्रह्मदेव ने मेरी विस्मृति के अपराध को क्षमा करते हुए कहा- मेरी समस्या यह है कि प्रभु के इस अवतार की लीलाकथा कौन कहेगा? इस कार्य के लिए किसे निमित्त बनाया जाय? सृष्टिकर्त्ता होने के कारण यह दायित्व मेरा है।

ब्रह्मदेव की समस्या सचमुच ही विचारणीय थी। मुझे भी तत्काल कुछ सूझ नहीं पड़ा। उस समय मैंने बस सुमतिदायिनी माता सरस्वती को प्रणाम किया और भगवान नारायण का पावन स्मरण किया। प्रभुस्मरण के साथ ही मेरे मन में यह विचार आया कि भगवत्कथा तो वही कह सकता है जो भगवान का कृपापात्र हो। जो प्रभु का स्नेही हो, आत्मीय हो, उनका स्वजन हो। मेरे इस विचार की अभिव्यक्ति पर ब्रह्मदेव बोले- इस समय ऐसा धरा पर कौन है? मैंने इस पर कहा- हे पिताश्री! आपके इस प्रश्न का सही उत्तर यदि कोई दे सकता है तो वे स्वयं नारायण ही हैं। नारायण! नारायण!! नारायण!!! इस नाम का सुमधुर स्वर में तीन बार उच्चारण करके ब्रह्मदेव ने नेत्र मूंद लिए। और वे समाधि के सोपान चढ़ते हुए स्वयं क्षीरशायी पुराण पुरूषोत्तम के सम्मुख खड़े हो गए। थोड़ी देर बाद जब उन्होंने नेत्र खोले तो वह चकित-थकित किन्तु आश्वस्त थे।

क्या हुआ भगवन्? पुत्र! प्रभु ने अपनी लीलाकथा के लिए एक दस्युकर्म में रत-रत्नाकर को चुना है। वह उन्हें अपना सहज स्नेही मानते हैं। प्रभु ने कहा है कि पहले रत्नाकर स्वयं राम नाम की महिमा से रूपान्तरित होकर दस्यु से ऋषि बनेंगे, फिर वह रामकथा कहेंगे। यही नहीं, उन्हें स्वयं महामाया भगवती सीता के धर्मपिता होने का सौभाग्य भी मिलेगा। आश्चर्य! महाआश्चर्य!! परम आश्चर्य!!! परम अविश्वसनीय किन्तु अटल विश्वसनीय। भला पूर्णब्रह्म परमेश्वर की वाणी मिथ्या भी कैसे हो सकती है। उसे होना भी नहीं था। इसके बाद जो घटनाक्रम घटित हुए उसे महर्षि पहले ही सुना चुके हैं। बस मुझे तो केवल इतना सुनाना था कि देवर्षि नारद तो बस भगवत्कृपा के संवाहक बनकर महर्षि वाल्मीकि से मिले थे क्योंकि भगवत्कृपा के बिना तो सन्त-महापुरूषों का सान्निध्य मिलता भी नहीं है। महर्षि तो सदा ही राम के अपने हैं।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १६३

👉 सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं भाग १

दो शब्द

आध्यात्मिक जीवन की प्रगति के लिए साधना का अवलम्बन एक अनिवार्य तथ्य है। जो लोग समझते हैं कि मन्दिर में जाकर दर्शन कर आने, एक दो माला जप लेने अथवा कुछ पूजा-पाठ कर लेने से वे आध्यात्मिक शक्ति और शांति प्राप्त कर लेंगे वे बड़े भ्रम में हैं। ऐसा करके भले ही वे अपने मन को समझा लें, पर वास्तविक अभ्यास के लिये इससे कुछ उच्च स्तर की साधना ही काम दें सकती है। वह साधना ऐसी होनी चाहिए, जिसमें परमात्मा के प्रति कुछ आन्तरिक झुकाव हो और हमारे व्यावहारिक जीवन पर भी उसका प्रभाव पड़े। अगर पूजा-पाठ और जप-ध्यान करते हुए भी हम निकृष्ट स्वार्थ-साधन में, सांसारिक भोगों के चक्कर में और अन्य लोगों के कष्टों के प्रति उदासीनता और उपेक्षा की प्रवृत्ति में पड़े रहें, तो समझ लेना चाहिए कि हम पूजा-उपासना-साधना की नकल ही कर रहे हैं, सच्ची साधना और उसके कायाकल्प करने वाले परिणामों से अभी दूर ही हैं।

प्रस्तुत पुस्तक इसी उद्देश्य से लिखी गई कि लोग पुराने ढंग की बाह्य पूजा-पद्धति के घटाक्षेप में संशोधन करे उसके समयानुकूल रूप को अपनावें और अपना बहुत-सा समय तथा शक्ति लम्बे-चौड़े विधि-विधानों में लगाने के बजाय उसका एक बड़ा भाग परमार्थ और परोपकार युक्त जीवन जीने में खर्च करें। यदि पाठक पुस्तक में बतलाये मार्ग दर्शन को अपनाकर अपने जीवन क्रम में उपयुक्त तथ्य का समावेश करेंगे तो उनको मालूम होगा कि सामान्य पूजा-पाठ करने पर भी उनके भीतर उस आध्यात्मिक शान्ति और शक्ति का उदय हो रहा है जो सच्चे धर्म तथा ईश्वरोपासना का अन्तिम लक्ष्य है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं

शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग ८७)

प्रभुकृपा से ही मिलता है महापुरुषों का संग

महर्षि वाल्मीकि के अनुभव में भव बिसर गया और भाव भीगते रहे। ऋषिश्रेष्ठ की अतीत कथा के बारे में यद्यपि सभी को पता था, परन्तु इन पलों में तो जैसे वह सजीव हो उठी। महर्षि के स्वरों के आरोह-अवरोह, उनके उन्नत ललाट पर बनने-मिटने वाली लकीरें और सबसे अधिक उनके सजल नेत्रों से छिटकने वाली प्रभा सभी के अन्तर्हृदय में उतर गयी। उन क्षणों में अन्तःकरण और पर्यावरण दोनों ही तीव्रता से स्पन्दित हो उठे। वातावरण में भक्ति से भीगे भावों का प्रबल ज्वार उभर उठा।

सबके हृदय में यह अनुभूति प्रगाढ़ हुई कि महापुरुषों का संग-जीवन को रूपान्तरित करता है और यह रूपान्तरण भी अजब-अनोखा होता है। लोककिंवदन्ती कहती है कि पारस का स्पर्श कुरूप लोहे को चमकता सुवर्ण बना देता है। परन्तु ऐसा अनोखा पारस भी अपना दीर्घ संग देकर किसी लौहखण्ड को पारस नहीं बना सकता। लौहखण्ड को रहने भी दें तो यह अपने संग से सुवर्ण अथवा हीरक को भी पारस में नहीं बदल सकता परन्तु सन्तों के सान्निध्य में यह आश्चर्य सहजता से घटित होता है।

सन्तों का संग, उनका सान्निध्य, अनगढ़ मनुष्य को भी महामानव, देवमानव ही नहीं, देवों के लिए भी पूज्य सन्त में परिवर्तित कर देता है। महर्षि वाल्मीकि के साथ यही अघटित, घटित हुआ था। आज महर्षि वाल्मीकि, देवर्षि नारद की भांति भावप्रवण भक्त, उदारचेता सन्त थे। समस्त ऋषिगण, देवगण, सिद्ध महापुरुष, तपस्वी उनके लोकोत्तर जप, ज्ञान, भक्ति के साक्षी थे। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ एवं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र तो उनके समकालीन ही थे। इन तीनों महान विभूतियों ने मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की लीलाओं को अपनी आँखों से निहारा था। इन्होंने अनगिन पल-क्षण-घड़ियाँ उन पूर्णब्रह्म परमेश्वर के साथ बितायी थीं। भगवान-भक्ति एवं भक्त के सतत सहचर्य को उन्होंने जी-भर जिया था।

आज फिर से हिमवान के आंगन वे सभी स्मृतियाँ पुनः सजीव हो रही थीं। हिमालय के जड़ कहे-समझे जाने वाले शैल-शिखर, सचेतन होकर इस अलौकिकता को निहार रहे थे। शीतल किन्तु सुरभित हवाओं में भी यही स्वर व्याप रहा था। हिमपक्षियों की कलरव ध्वनि में ऋषिश्रेष्ठ वाल्मीकि के अनुभवों के गीत ही गूंज रहे थे। मौन और मुखर भक्ति की अवर्णनीय प्रदीप्ति वहाँ चहुँ ओर प्रकीर्ण हो रही थी। सभी के मुख पर सन्तुष्टि के भाव थे, परन्तु ब्रह्मर्षि वशिष्ठ किंचित अन्तर्लीन थे। देवर्षि ने तनिक विस्मित होते हुए उन्हें देखा, फिर बोले- ‘‘आप किन्हीं विचारों में निमग्न हैं ब्रह्मर्षि?’’ ब्रह्मर्षि ने उत्तर दिया- ‘‘विचारों में ही नहीं, स्मृतियों में भी परन्तु इन स्मृतिकड़ियों के जुड़ने के पहले आप अपने सूत्र की नयी कड़ी जोड़ें।’’

‘‘जो आज्ञा ब्रह्मर्षि!’’- कहते हुए ब्रह्मपुत्र नारद ने अपने अग्रज वशिष्ठ का आदेश शिरोधार्य करते हुए माथा नवाया और कहा-
‘लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव’॥ ४०॥

उन भगवान् (श्रीहरि) की कृपा से ही (सन्तों-महापुरूषों का) सङ्ग भी मिलता है। देवर्षि के इस सूत्र को सुनकर ब्रह्मर्षि के होठों पर हल्की सी स्मित प्रकाशित हो उठी। इसे देखकर देवर्षि सहित अन्य ऋषिगण एवं देवगण विस्मित से हो गए। सभी के नयनों में उत्सुकता-जिज्ञासा सघन हो गयी। अन्तर्भावों के पारखी ब्रह्मपुत्र वशिष्ठ ने अपना दायां हाथ उठाते हुए आश्वस्ति स्वर में कहा- ‘‘आप सब विस्मय न करें, दरअसल मेरी स्मृतियों एवं देवर्षि के सूत्र में एक अनोखा सम्बन्ध है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १६१

रानी लक्ष्मी बाई


मोरोपंत और भागीरथी की, मणिकर्णिका दुलारी थी।
वाराणसी की वीर छबीली, मनु  दुर्गा अवतारी थी।।   

बाजीराव के राज सभा में, बचपन उनका बीता था।
शास्त्रों की ज्ञाता थीं उनको, प्रिय रामायण गीता था।।
दरबारी बचपन से थी तो, राज काज में दक्ष रहीं ।
प्रजाहित की समझ उसे थी, न्याय हेतु निष्पक्ष रहीं।।
शिवा थे आदर्श मनु के, समर भूमि फुलवारी थी।
वाराणसी की वीर छबीली, मनु दुर्गा अवतारी थी।।   

शस्त्र चलाना बचपन से ही, बड़े  चाव से सीखा था।
भाला बरछा तलवारों से, मनु से न कोई जीता था।।
तीर कमान समशीर सदा, हाथों में शोभा पाते थे।
बड़े बड़े योद्धा भी उनसे, लड़कर हार ही जाते थे।।
दुश्मन तो थर थर कापें थे, जब उनने हुंकारी थी।
वाराणसी की वीर छबीली, मनु दुर्गा अवतारी थी।।   

राव गंगाधर संग फेरे ले, अब झाँसी की रानी थी।
मनु से लक्ष्मी बाई बनी वो, आगे असल कहानी थी।
अंग्रेजों के हड़प नीति ने, झांसी को अवसाद दिया।
किया खजाना जब्त राज्य का, राजकोष बर्बाद किया।।  
झाँसी को रक्षित करने का, संकल्प लिए ये नारी थी।
वाराणसी की वीर छबीली, मनु दुर्गा अवतारी थी।।   

रणचंडी बन कूद पड़ी वह, अंग्रेजों से टकराई थी।
युद्ध भूमि में रण कौशल से, उनको धुल चटाई थी।।
हारी गयी अंग्रेजी सेना, कालपी ग्वालियर भी हारी।
झांसी की रानी काली बन, रिपुओं पर वो थी भारी।।
वीरगति को पायी रानी, वीरांगना अवतारी थी।
वाराणसी की वीर छबीली, मनु दुर्गा अवतारी थी।।   

उमेश यादव

बुधवार, 17 नवंबर 2021

👉 कर्म फल

पुराने समय में एक राजा था। वह अक्सर अपने दरबारियों और मंत्रियों की परीक्षा लेता रहता था। एक दिन राजा ने अपने तीन मंत्रियों को दरबार में बुलाया और तीनो को आदेश दिया कि एक एक थैला लेकर बगीचे में जायें और वहाँ से अच्छे अच्छे फल तोड़ कर लायें। तीनो मंत्री एक एक थैला लेकर अलग अलग बाग़ में गए। बाग़ में जाकर एक मंत्री ने सोचा कि राजा के लिए अच्छे अच्छे फल तोड़ कर ले जाता हूँ ताकि राजा को पसंद आये। उसने चुन चुन कर अच्छे अच्छे फलों को अपने थैले में भर लिया। दूसरे मंत्री ने सोचा “कि राजा को कौनसा फल खाने है?” वो तो फलों को देखेगा भी नहीं। ऐसा सोचकर उसने अच्छे बुरे जो भी फल थे, जल्दी जल्दी इकठ्ठा करके अपना थैला भर लिया। तीसरे मंत्री ने सोचा कि समय क्यों बर्बाद किया जाये, राजा तो मेरा भरा हुआ थैला ही देखेगे। ऐसा सोचकर उसने घास फूस से अपने थैले को भर लिया। अपना अपना थैला लेकर तीनो मंत्री राजा के पास लौटे। राजा ने बिना देखे ही अपने सैनिकों को उन तीनो मंत्रियों को एक महीने के लिए जेल में बंद करने का आदेश दे दिया और कहा कि इन्हे खाने के लिए कुछ नहीं दिया जाये। ये अपने फल खाकर ही अपना गुजारा करेंगे।

अब जेल में तीनो मंत्रियों के पास अपने अपने थैलो के अलावा और कुछ नहीं था। जिस मंत्री ने अच्छे अच्छे फल चुने थे, वो बड़े आराम से फल खाता रहा और उसने बड़ी आसानी से एक महीना फलों के सहारे गुजार दिया। जिस मंत्री ने अच्छे बुरे गले सड़े फल चुने थे वो कुछ दिन तो आराम से अच्छे फल खाता रहा रहा लेकिन उसके बाद सड़े गले फल खाने की वजह से वो बीमार हो गया। उसे बहुत परेशानी उठानी पड़ी और बड़ी मुश्किल से उसका एक महीना गुजरा। लेकिन जिस मंत्री ने घास फूस से अपना थैला भरा था वो कुछ दिनों में ही भूख से मर गया।

दोस्तों ये तो एक कहानी है। लेकिन इस कहानी से हमें बहुत अच्छी सीख मिलती है कि हम जैसा करते हैं, हमें उसका वैसा ही फल मिलता है। ये भी सच है कि हमें अपने कर्मों का फल ज़रूर मिलता है। इस जन्म में नहीं, तो अगले जन्म में हमें अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। एक बहुत अच्छी कहावत हैं कि जो जैसा बोता हैं वो वैसा ही काटता है। अगर हमने बबूल का पेड़ बोया है तो हम आम नहीं खा सकते। हमें सिर्फ कांटे ही मिलेंगे।

मतलब कि अगर हमने कोई गलत काम किया है या किसी को दुःख पहुँचाया है या किसी को धोखा दिया है या किसी के साथ बुरा किया है, तो हम कभी भी खुश नहीं रह सकते। कभी भी सुख से, चैन से नहीं रह सकते। हमेशा किसी ना किसी मुश्किल परेशानी से घिरे रहेंगे।

👉 भक्तिगाथा (भाग ८६)

दुर्लभ है महापुरुषों का संग

देवर्षि के इस सूत्र को सभी ने सुना। परन्तु महर्षि वाल्मीकि तो जैसे इसमें डूब गए। उन्हें याद आने लगे अपने वे पल, जिन्होंने उन्हें भक्त बना दिया था। इन स्मृतियों ने उन्हें थोड़ा विकल किया और पुलकित भी। इस विकलता भरी पुलकन के अहसास से उनकी आँखें भर आयीं। पर वह बोले कुछ नहीं, बस उन्होंने सूर्यदेव की ओर ताका और फिर शून्य में रम से गए। उन्हें इस तरह मौन होते देख ब्रह्मर्षि वशिष्ठ कहने लगे- ‘‘देवर्षि के इस सूत्र की व्याख्या आप करें।’’ वशिष्ठ के इस कथन के उत्तर में उन्होंने देवर्षि की ओर देखा। महर्षि वाल्मीकि को इस तरह अपनी ओर देखते हुए देखकर देवर्षि ने भी आग्रह किया- ‘‘अवश्य ऋषिश्रेष्ठ! इस सूत्र की व्याख्या आप करें। आपके मुख से इसकी व्याख्या सुनकर हम सभी अनुग्रहीत होंगे।’’

देवर्षि की यह बात सुनकर महर्षि वाल्मीकि मुस्कराए और कहने लगे- ‘‘अनुग्रहीत तो मैं हूँ देवर्षि। आपके संग ने, आपकी कृपा ने मुझे अनुग्रहीत किया। आज का यह महर्षि वाल्मीकि कभी दस्यु रत्नाकर हुआ करता था। इस अपकर्म को करते हुए जीवन के कितने वर्ष गुजर गए। तभी अचानक भगवान की अहैतुकी कृपा मुझ पर हुई और देवर्षि मिले। परन्तु मैं हतभाग्य इन्हें पहचान न सका। इनकी करूणा के उत्तर में मैंने इन्हें डराया, धमकाया, यहाँ तक कि एक वृक्ष से बांध दिया। परन्तु देवर्षि को तनिक भी क्रोध नहीं आया। वे तो बस मुस्कराते रहे, उनके नेत्रों से करूणा बरसती रही। इन्होंने तो बस इतना कहा, तुम यह सब क्यों करते हो? मैंने कहा- अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए। तब उस समय देवर्षि ने मुझसे कहा था- क्या तुम्हारे परिवार के स्वजन तुम्हारे इस कर्मफल के भी भागीदार होंगे? मैंने सहज ही कह दिया था- अवश्य।

लेकिन परमज्ञानी देवर्षि ने मुझसे कहा- ऐसे नहीं, तुम उन लोगों से पूछकर मुझे अपना उत्तर दो। देवर्षि को एक पेड़ से बांधकर मैं उनसे उत्तर पूछने गया। उनके जवाब पर मुझे हैरत और हैरानी हुई। क्योंकि सभी लोगों ने मुझे एक स्वर से मना करते हुए कहा- अपने कर्मफल का भोग तुम्हें स्वयं भोगना पड़ेगा। तुम्हारे कर्म को भला हम सब क्यों भोगेंगे? उनके इस उत्तर ने मुझे हैरानी में डाल दिया। मैं भागा-भागा देवर्षि की शरण में आया। उनके बन्धन खोले-क्षमा मांगी, और कहा- हे भगवान! आप मुझे मार्ग बतायें।

देवर्षि ने मुझे ‘राम’ नाम जपने का आदेश दिया परन्तु मैं अभागा, मुझे राम कहना ही न आया। पूर्व दस्युकर्म ने मुझे ‘मरा’ कहना अवश्य सिखाया था। देवर्षि ने कहा- कोई बात नहीं तुम यही जपो। देवर्षि के आदेश से मैंने ‘मरा’ का जप प्रारम्भ किया। मर्यादापुरुषोत्तम का यह ‘उल्टा नाम’ मेरे लिए अमोघ मन्त्र बन गया। ‘मरा’ कब ‘राम’ में परिवर्तित हुआ पता ही न चला। मैंने जप तो प्रारम्भ कर दिया, परन्तु पिछले कर्म भला कैसे पीछा छोड़ते? लोकनिन्दा, अपमान, तिरस्कार सभी कुछ चलता रहा। मेरे द्वारा दी गयी पीड़ा-यातनाएँ उलट कर मेरे पास आती रहीं परन्तु राम का नाम मेरी रक्षा करता रहा।

इस क्रम में सालों-साल बीत गए। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी सभी से बेखबर मैं बस राम-राम जपता रहा। कितनी बार कितने ही तरह की शारीरिक-मानसिक यातनाएँ मुझे मिलीं, मेरा मन घबराया, टूटा-बिखरा। हताशा-निराशा के बवण्डर आए, परन्तु कृपालु देवर्षि हर बार मुझे धीरज बंधाते रहे। उन्होंने मुझे बताया तुम धीरज खोए बिना बस प्रभु को पुकारते रहो। तुम्हारे जीवन का समस्त अंधकार प्रभु की कृपा के सामने तुच्छ है। देवर्षि की वाणी मेरा सदा सम्बल बनी रही। समय बीतता गया। साथ ही चंचल मन की लहरें थमती गयीं। अन्तः का सघन अन्धकार घटना प्रारम्भ हुआ। प्रकाश की क्षीण किरणें चमकीं। परिवर्तन का क्रम आरम्भ हुआ। राम रटन, भक्ति भजन बन गयी और एक दिन मेरी भावनाएँ-काव्य की पंक्तियाँ बन गयीं। मेरे स्वयं के इस परिवर्तन ने मुझे बता दिया, कि सचमुच ही महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य एवं अमोघ होता है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १५९

सोमवार, 15 नवंबर 2021

👉 जीवन साधना के त्रिविध पंचशील (अन्तिम भाग)

समाज निर्माणः-
    
(१) हममें से हर व्यक्ति अपने को समाज का एक अविच्छिन्न अंग मानें। अपने को उसके साथ अविभाज्य घटक मानें। सामूहिक उत्थान और पतन पर विश्वास करें। एक नाव में बैठे लोग जिस तरह एक साथ डूबते या पार होते हैं, वैसी ही मान्यता अपनी रहे। स्वार्थ और परमार्थ को परस्पर गूँथ दें। परमार्थ को स्वार्थ समझें और स्वार्थ सिद्धि की बात कभी ध्यान में आये तो वह संकीर्ण नहीं उदात्त एवं व्यापक हो। मिल जुलकर काम करने और मिल बाँटकर खाने की आदत डाली जाय।
    
(२) मनुष्यों के बीच सज्जनता, सद्भावना एवं उदार सहयोग की परम्परा चले। दान विपत्ति एवं पिछड़ेपन से ग्रस्त लोगों को पैरों पर खड़े होने तक के लिए दिया जाय। इसके अतिरिक्त उसका सतत प्रवाह सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए ही नियोजित हो। साधारणतया मुफ्त में खाना और खिलाना अनैतिक समझा जाय। इसमें पारिवारिक या सामाजिक प्रीति भोजों का जहाँ औचित्य हो, वहाँ अपवाद रूप से छूट रहे। भिक्षा व्यवसाय पनपने न दिया जाय। दहेज, मृतक भोज, सदावर्त धर्मशाला आदि ऐसे दान जो मात्र प्रसन्न करने भर के लिये दिये जाते हैं और उस उदारता के लाभ समर्थ लोग उठाते हैं, अनुपयुक्त माने और रोके जायें। साथ ही हर क्षेत्र का पिछड़ापन दूर करने के लिए उदार श्रमदान और धनदान को अधिकाधिक प्रोत्साहित किया जाय।
    
(३) किसी मान्यता या प्रचलन को शाश्वत या सत्य न माना जाय, उन्हें परिस्थितियों के कारण बना समझा जाय। उनमें जितना औचित्य, न्याय और विवेक जुड़ा हो उतना ग्राह्य और जो अनुपयुक्त होते हुए भी परम्परा के नाम पर गले बंधा हो, उसे उतार फेंका जाय। समय- समय पर इस क्षेत्र का पर्यवेक्षण होते रहना चाहिये और जो असामयिक, अनुपयोगी हो उसे बदल देना चाहिये। इस दृष्टि से लिंग भेद, जाति भेद के नाम पर चलने वाली विषमता सर्वथा अग्राह्य समझी जाय।
    
(४) सहकारिता का प्रचलन हर क्षेत्र में किया जाय। अलग- अलग पड़ने की अपेक्षा सम्मिलित प्रयत्नों और संस्थानों को महत्त्व दिया जाय। संयुक्त परिवार से लेकर संयुक्त राष्ट्र, संयुक्त विश्व को लक्ष्य बनाकर चला जाय। विश्व परिवार का आदर्श कार्यान्वित करने का ठीक समय यही है। सभी प्रकार के विलगावों को निरस्त किया जाय। व्यक्ति की सुविधा की तुलना में समाज व्यवस्था को वरिष्ठता मिले। प्रशंसा ऐसे ही प्रयत्नों की हो जिन्हें सर्वोपयोगी कहा जाय। व्यक्तिगत समृद्धि, प्रगति एवं विशिष्टता को श्रेय न मिले। उसे कौतूहल मात्र समझा जाय।
    
(५) अवांछनीय मूढ़ मान्यताओं और कुरीतियों को छूत की बीमारी समझा जाय। वे जिस पर सवार होती है उसे तो मारती ही हैं, अन्यान्य लोगों को भी चपेट में लेती और वातावरण बिगाड़ती हैं। इसलिए उनका असहयोग, विरोध करने की मुद्रा रखी जाय और जहाँ सम्भव हो उनके साथ समर्थ संघर्ष भी किया जाय। समाज के किसी अंग पर हुआ अनीति का हमला समूचे समाज के साथ बरती गई दुष्टता माना जाय और उसे निरस्त करने के लिए जो मीठे- कड़ुवे उपाय हो सकते हों, उन्हें अपनाया जाय। अपने ऊपर बीतेगी तब देखेंगे, इसकी प्रतीक्षा करने की अपेक्षा कहीं भी हुए अनीति के आक्रमण को अपने ऊपर हमला माना जाय और प्रतिकार के लिए दूरदर्शितापूर्ण रणनीति अपनायी जाय।
   
व्यक्तिगत परिवार और समाज क्षेत्र के उपरोक्त पाँच- पाँच सूत्रों को उन- उन क्षेत्रों के पंचशील माना जाय और उन्हें कार्यान्वित करने के लिए जो भी अवसर मिले उन्हें हाथ से जाने न दिया जाय।

आवश्यक नहीं कि इस सभी का तत्काल एक साथ उपयोग करना आरम्भ कर दिया जाय। उनमें से जितने जब जिस प्रकार कार्यान्वित किये जाने सम्भव हों, तब उन्हें काम में लाने का अवसर भी हाथ से न जाने दिया जाय। किन्तु इतना काम तो तत्काल आरम्भ कर दिया जाये कि उन्हें सिद्धान्त रूप से पूरी तरह स्वीकार कर लिया जाये। आदर्शवादी महानता से गौरवान्वित होने वाले जीवन इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर जिये जाते हैं। अनुकरणीय प्रयास करने के लिए जिन्होंने भी श्रेय पाया है, उनने त्रिविधि पंचशीलों में से किन्हीं सूत्रों को अपनाया और अन्यान्यों द्वारा अपनाये जाने का वातावरण बनाया है।

.....समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 भक्तिगाथा (भाग ८५)

दुर्लभ है महापुरुषों का संग

महर्षि अंगिरा की वाक्य वीथियों में गुजरते हुए सभी के अन्तर्मन भक्तिसुधा में निमज्जित होते रहे। उनके विचारों में यह सतत स्पन्दित होता रहा कि भक्ति से न केवल भावनाएँ परिशोधित होती हैं, बल्कि सम्पूर्ण जीवन रूपान्तरित होता है। दस्यु दुर्दम्य हो या फिर कोई और, जिसके भी हृदय में भक्ति का अंकुरण हुआ, वहाँ रूपान्तरण के पुष्प खिले बिना नहीं रहते। इन विचार स्पन्दनों ने पहले से ही सुरभित एवं सुवासित हिमवान के आंगन को और भी सुरभित एवं सुवासित कर दिया। वहाँ एक मीठी सी सुगन्ध बिखर गयी जिसे हिमालय के श्वेत शिखर अपने में समेट लेने के लिए प्रयत्नशील हो गए। हिमालय का यह दिव्य क्षेत्र परम पावन एवं अति अलौकिक था और आज भी है। यह वह अतिगुह्य क्षेत्र है, जो स्वः महः जनः तपः आदि ऊर्ध्व लोकों को धरती से जोड़ता है। इसकी विशेषताएँ अनूठी एवं अनोखी हैं। यह सम्पूर्ण क्षेत्र सदा ही एक शक्तिशाली आध्यात्मिक चुम्बकत्व से आच्छादित रहता है। यही वजह है कि सामान्य जन यहाँ पहुँचकर भी नहीं पहुँच पाते हैं। उनकी दृष्टि इसे देखने एवं पहचानने में सदा असमर्थ रहती है।

यहीं इसी दिव्य भूमि में ऋषियों एवं देवों का भक्तिसमागम पिछले काफी समय से चल रहा था। अब तो इसकी चर्चा सुदूर लोकों में भी होने लगी थी। देव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, जनः एवं तपः लोकों के महर्षि भी यहाँ आने के लिए हमेशा उत्सुक रहते थे क्योंकि उन्हें यह ज्ञात था कि केवल भक्ति से ही मनुष्य को सम्पूर्ण शान्ति एवं परमतृप्ति मिलती है। आज भी यहाँ पर एक परम दुर्लभ विभूति के आने के संकेत मिल रहे थे। प्रातः उदीयमान सूर्य की अरूण किरणें उनके स्वागत में सुवर्ण वर्षा करने लगी थीं। वह देवों के लिए भी पूज्य थे। भक्तजन तो उन्हें अपना आदर्श मानते ही थे। उनका कठोर तप त्रिलोकविख्यात था। उन्होंने विश्व का सर्वप्रथम काव्य ग्रन्थ लिखा था। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने ऊर्ध्वलोकों से अपने आगमन के संकेत दिए थे। उनके आगमन के इन संकेतों ने सभी को एक अपूर्व प्रसन्नता एवं पुलकन दी थी। ब्रह्मर्षि वसिष्ठ एवं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र तो विशेष आनन्दित थे, क्योंकि इनकी अनेकों यादें उन महान् विभूति से जुड़ी थीं।

इन यादों के सघन होते ही सभी ने एक स्वर्णिम प्रकाशपुञ्ज को गगन से धरा पर अवतीर्ण होते देखा। इसकी प्रभा एवं प्रकाश के सामने उदय हो रहे भगवान भुवनभास्कर का प्रकाश मद्धम पड़ गया था। इस अनोखे प्रकाशपुञ्ज से बिखर रही प्रकाश रश्मियों के साथ एक दिव्य सुगन्ध चहुं ओर बिखर रही थी जिससे सभी के तन, मन एवं आत्मा स्नात हो रहे थे। थोड़े ही पलों में यह प्रकाशपुञ्ज मानवाकृति में बदल गया। उन गौरवर्णीय दिव्य महापुरुष की छवि अवर्णनीय थी। माथे पर श्वेत केशराशि लहरा रही थी। मुख पर श्वेत दाढ़ी-मूंछें उनकी आभा को गौरवपूर्ण बना रहे थे। उनके नेत्र तो जैसे तरल प्रकाश का स्रोत थे। उनकी सम्पूर्ण देहयष्टि एक अनोखे प्रकाश वलय से घिरी थी।

उन्हें सबसे पहले ब्रह्मर्षि वशिष्ठ एवं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने पहचाना। देवर्षि का उन्होंने स्वयं अभिवादन किया। प्रत्युत्तर में देवर्षि ने उन्हें हृदय से लगा लिया। महर्षियों में भी सर्वपूज्य वाल्मीकि को अपने बीच पाकर सभी आह्लादित थे। काफी समय तक सभी इस दैवी आनन्द में डूबे रहे। फिर परम तेजस्वी विश्वामित्र ने देवर्षि की ओर साभिप्राय देखा। उनकी दृष्टि के मर्म को  देवर्षि नारद ने तुरन्त पहचान लिया और मुस्कराते हुए उन्होंने सभी की ओर देखा। सभी की आँखों में नवीन भक्तिसूत्र के श्रवण की आतुर जिज्ञासा दिखी। देवर्षि ने भी बिना देर लगाए अपना नवीन भक्तिसूत्र उच्चारित किया-

‘महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च’॥३९॥
महापुरुषों का सङ्ग दुर्लभ, अगम्य और अमोघ है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १५७

शनिवार, 13 नवंबर 2021

👉 जीवन साधना के त्रिविध पंचशील (भाग ३)

परिवार निर्माणः-
    
(१) परिवार को अपनी विशिष्टताओं को उभारने का अभ्यास करने एवं परिपुष्ट बनाने की प्रयोगशाला, पाठशाला समझे। इस उद्यान में सत्प्रवृत्तियों के पौधे लगाये। हर सदस्य को स्वावलम्बी सुसंस्कारी एवं समाजनिष्ठ बनाने का भरसक प्रयत्न करें। इसके लिए सर्वप्रथम ढालने वाले साँचे की तरह आदर्शवान बने ताकि स्वयं कथनी और करनी की एकता का प्रभाव पड़े। स्मरण रहे साँचे के अनुसार ही खिलौने ढलते हैं। पारिवारिक उत्तरदायित्व में सर्वप्रथम है संचालक का आदर्शवादी ढाँचे में ढलना। दूसरा है माली की तरह हरे पौधे का शालीनता के क्षेत्र में विकसित करना।
    
(२) परिवार की संख्या न बढ़ायें। अधिक बच्चे उत्पन्न न करें। इसमें जननी का स्वास्थ्य, सन्तान का भविष्य, गृहपति का अर्थ सन्तुलन एवं समाज में दारिद्र्य, असन्तोष बढ़ता है। दूसरों के बच्चे को अपना मानकर उनके परिपालन से वात्सल्य कहीं अधिक अच्छी तरह निभ सकता है। लड़की- लड़कों में भेद न करें। पिछली पीढ़ी और वर्तमान के साथियों के प्रति कर्तृत्व पालन तभी हो सकता है, जब नये प्रजनन को रोकें। अन्यथा प्यार और धन प्रस्तुत परिजनों का ऋण चुकाने में लगने की अपेक्षा उनके लिए बहने लगेगा, जिनका अभी अस्तित्व तक नहीं है। इसलिए उस सम्बन्ध में संयम बरतें और कड़ाई रखें।
    
(३) संयम और सज्जनता एक तथ्य के दो नाम हैं। परिवार में ऐसी परम्पराएँ प्रचलित करें जिसमें इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम का अभ्यास आरम्भ से ही करते रहने का अवसर मिले। घर में चटोरेपन का माहौल न बनाया जाये। भोजन सात्विक बने और नियत समय पर सीमित मात्रा में खाने का ही अभ्यास बने। कामुकता को उत्तेजना न मिले, सभी की दिनचर्या निर्धारित रहे। समय के साथ काम और मनोयोग जुड़ा रहे। किसी को आलस्य- प्रमाद की आदत न पड़ने दी जाय और न कोई आवारागर्दी अपनाये व कुसंग में फिरे। फैशन और जेवर को बचकाना, उपहासास्पद माना जाय, केश विन्यास और अश्लील, उत्तेजक पोशाक कोई न पहनें और न जेवर आभूषणों से लदें। नाक, कान छेदने और उनके चित्र- विचित्र लटकन लटकाने का पिछड़ेपन का प्रतीत फैशन कोई महिला न अपनाये।
    
(४) पारिवारिक पंचशीलों में श्रमशीलता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, शालीन शिष्टता और उदार सहकारिता की गणना की गयी है। इन पाँच गुणों को हर सदस्य के स्वभाव में कैसे सम्मिलित किया जाय। इसके लिए उपदेश देने से काम नहीं चलता, ऐसे व्यावहारिक कार्यक्रम बनाने पड़ते हैं, जिन्हें करते रहने से वे सिद्धान्त व्यवहार में उतरें।
    
(५) उत्तराधिकार का लालच किसी के मस्तिष्क में नहीं जमने देना चाहिए, वरन् हर सदस्य के मन मे यह सिद्धान्त जमना चाहिए कि परिवार की संयुक्त सम्पदा में उसका भरण- पोषण, शिक्षण एवं स्वावलम्बन सम्भव हुआ है। इस ऋण को चुकाने में ही ईमानदारी है। बड़ों की सेवा और छोटों की सहायता के रूप में यह ऋण हर वयस्क स्वावलम्बी को चुकाना चाहिए। कमाऊ होते ही आमदनी जेब में रखना और पत्नी को लेकर मनमाना खर्च करने के लिए अलग हो जाना प्रत्यक्ष बेईमानी है। उत्तराधिकार का कानून मात्र कमाने में असमर्थों के लिए लागू होना चाहिए, न कि स्वावलम्बियों की मुफ्त की कमाई लूट लेने के लिए। अध्यात्मवाद और साम्यवाद दोनों ही इस मत के हैं कि पूर्वजों की छोड़ी कमाई को असमर्थ आश्रित ही तब तक उपयोग करें जब तक कि वे स्वावलम्बी नहीं बन जाते।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

सोमवार, 8 नवंबर 2021

👉 जीवन साधना के त्रिविध पंचशील (भाग २)

व्यक्तित्व का विकास
    
(१) प्रातः उठने से लेकर सोने तक की व्यस्त दिनचर्या निर्धारित करें। उसमें उपार्जन, विश्राम, नित्य कर्म, अन्यान्य कामकाजों के अतिरिक्त आदर्शवादी परमार्थ प्रयोजनों के लिए एक भाग निश्चित करें। साधारणतया आठ घण्टा कमाने, सात घण्टा सोने, पाँच घण्टा नित्य कर्म एवं लोक व्यवहार के लिए निर्धारित रखने के उपरान्त चार घण्टे परमार्थ प्रयोजनों के लिए निकालना चाहिए। इसमें भी कटौती करनी हो, तो न्यूनतम दो घण्टे तो होने ही चाहिये। इससे कम में पुण्य परमार्थ के, सेवा साधना के सहारे बिना न सुसंस्कारिता स्वभाव का अंग बनती है और न व्यक्तित्व का उच्चस्तरीय विकास सम्भव होता है।
    
(२) आजीविका बढ़ानी हो तो अधिक योग्यता बढ़ायें। परिश्रम में तत्पर रहें और उसमें गहरा मनोयोग लगायें। साथ ही अपव्यय में कठोरता पूर्वक कटौती करें। सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त समझें। अपव्यय के कारण अहंकार, दुर्व्यसन, प्रमाद बढ़ने और निन्दा, ईर्ष्या, शत्रुता पल्ले बाँधने जैसी भयावह प्रतिक्रियाओं का अनुमान लगायें। सादगी प्रकारान्तर से सज्जनता का ही दूसरा नाम है। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह ही अभीष्ट है। अधिक कमाने वाले भी ऐसी सादगी अपनायें जो सभी के लिए अनुकरणीय हो। ठाट- बाट प्रदर्शन का खर्चीला ढकोसला समाप्त करें।
    
(३) अहर्निश पशु प्रवृत्तियों को भड़काने वाले विचार ही अन्तराल पर छाये रहते है। अभ्यास और समीपवर्ती प्रचलन मनुष्य को वासना, तृष्णा और अहंकार की पूर्ति में निरत रहने का ही दबाव डालता है। सम्बन्धी मित्र परिजनों के परामर्श प्रोत्साहन भी इसी स्तर के होते हैं। लोभ, मोह और विलास के कुसंस्कार निकृष्टता अपनाये रहने में ही लाभ तथा कौशल समझते हैं। ऐसी ही सफलताओं को सफलता मानते हैं। इसे एक चक्रव्यूह समझना चाहिये। भव- बन्धन के इसी घेरे से बाहर निकलने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिये। कुविचारों को परास्त करने का एक ही उपाय है- प्रज्ञा साहित्य का न्यूनतम एक घण्टा अध्ययन अध्यवसाय। इतना समय एक बार न निकले तो उसे जब भी अवकाश मिले, थोड़ा- थोड़ा करके पूरा करते रहना चाहिये।
    
(४) प्रतिदिन प्रज्ञायोग की साधना नियमित रूप से की जाय। उठते समय आत्मबोध, सोते समय तत्त्वबोध। नित्य कर्म से निवृत्त होकर जप, ध्यान। एकान्त सुविधा का चिन्तन- मनन में उपयोग। यही है त्रिविध सोपानों वाला प्रज्ञायोग। यह संक्षिप्त होते हुए भी अति प्रभावशाली एवं समग्र है। अपने अस्त- व्यस्त बिखराव वाले साधना क्रम को समेटकर इसी केन्द्र बिन्दु पर एकत्रित करना चाहिये। महान के साथ अपने क्षुद्र को जोड़ने के लिए योगाभ्यास का विधान है। प्रज्ञा परिजनों के लिए सर्वसुलभ एवं सर्वोत्तम योगाभ्यास ‘प्रज्ञा योग’ की साधना है। उसे भावनापूर्वक अपनाया और निष्ठा पूर्वक निभाया जाय।
    
(५) दृष्टिकोण को निषेधात्मक न रहने देकर विधेयात्मक बनाया जाय। अभावों की सूची फाड़ फेंकनी चाहिये और जो उपलब्धियाँ हस्तगत है, उन्हें असंख्य प्राणियों की अपेक्षा उच्चस्तरीय मानकर सन्तुष्ट भी रहना चाहिये और प्रसन्न भी। इसी मनःस्थिति में अधिक उन्नतिशील बनना और प्रस्तुत कठिनाइयों से निकलने वाला निर्धारण भी बन पड़ता है। असन्तुष्ट, खिन्न, उद्विग्न रहना तो प्रकारान्तर से एक उन्माद है, जिसके कारण समाधान और उत्थान के सारे द्वार ही बन्द हो जाते है।
   
कर्तृत्व पालन को सब कुछ मानें। असीम महत्त्वाकाँक्षाओं के रंगीले महल न रचें। ईमानदारी से किये गये पराक्रम से ही परिपूर्ण सफलता मानें और उतने भर से सन्तुष्ट रहना सीखें। कुरूपता नहीं, सौन्दर्य निहारें। आशंकाग्रस्त, भयभीत, निराश न रहें। उज्ज्वल भविष्य के सपने देखें। याचक नहीं दानी बने। आत्मावलम्बन सीखें। अहंकार तो हटाएँ पर स्वाभिमान जीवित रखें। अपना समय, श्रम, मन और धन से दूसरों को ऊँचा उठायें। सहायता करे पर बदले की अपेक्षा न रखें। बड़प्पन की तृष्णाओं को छोड़े और उनके स्थान पर महानता अर्जित करने की महत्त्वाकांक्षा सँजोये। स्मरण रखें, हँसते- हँसाते रहना और हल्की- फुल्की जिन्दगी जीना ही सबसे बड़ी कलाकारिता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 भक्तिगाथा (भाग ८४)

भगवत्कृपा के स्रोत हैं- भक्ति और भक्त

देवर्षि के ये कुछ वाक्य सभी के भावों में प्रकाश रेखाओं की भांति उतर गए। काफी देर तक कोई कुछ नहीं बोला। फिर महर्षि अंगिरा ने इस मौन को अपने शब्दों से बेधा एवं बींधा। वे बोले- ‘‘मैं अपने युग में ऐसे ही एक भगवद्भक्त महापुरुष की अलौकिक कृपा का साक्षी रहा हूँ। यदि आप सब अनुमति दें तो मैं वह कथा सुनाऊँ।’’ ब्रह्मर्षि अंगिरा, सभी उनके तप के महासामर्थ्य से सुपरिचित थे। मंत्रविद्या के तो जैसे वह परमाचार्य थे। ऋषियों, देवों एवं सिद्धों के समुदाय में से सभी को पता था कि महर्षि अंगिरा अपने अमोघ मन्त्रों के प्रभाव से विधि के अकाट्य विधान को भी काटने में समर्थ हैं। उनका ज्ञान अश्रुतपूर्व है। ऐसे परमादरणीय महर्षि को सुनने के लिए सभी उत्सुक थे बल्कि अब तो सभी में यह जिज्ञासा भी जाग उठी थी कि भला ऐसे कौन से महामानव हुए हैं, जिन्होंने अग्नि की भांति महातेजस्वी एवं परम तपस्वी सभी पराविद्याओं के ज्ञाता इन महर्षि अंगिरा को भी प्रभावित किया था।

इधर महर्षि कह रहे थे कि ‘‘यह घटना त्रेतायुग की है। उस समय मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के पूर्वज महाराज दिलीप का शासन था। ब्रह्मर्षि अंगिरा के इस कथन ने ऋषिश्रेष्ठ वशिष्ठ को भी सचेत एवं सचेष्ट किया। महाराज दिलीप के सुशासन में सभी सुखी थे परन्तु उन दिनों सुदूर ग्रामीण अंचल में एक दस्यु ने भारी उपद्रव मचा रखा था। उसका नाम था दुर्दम्य। जैसा नाम, वैसा ही गुण। वह सचमुच ही दुर्दमनीय था। उसके आतंक-अत्याचार एवं क्रूरता ने सभी को पीड़ित कर रखा था। उस ग्रामीण अंचल के लोक उससे किसी भी तरह पीछा छुड़ाना चाहते थे पर यह सम्भव नहीं दिख रहा था। उन्हीं दिनों उस ग्रामीण क्षेत्र में महर्षि शिरीष नाम के सन्त पधारे। सरल, सौम्य, भगवद्भावों से सर्वथा परिपूर्ण इन महर्षि को अपने सान्निध्य में पाकर गांवों के सरल भोले लोग आह्लादित हो गए। उन्होंने महर्षि से निवेदन किया कि वे उन्हीं के गांव में रह जाएँ। वहाँ की प्राकृतिक सुरम्यता, ग्रामीण जनों का यह निश्छल आचरण देखकर सन्त शिरीष ने भी उनकी बात मान ली। परन्तु उन्होंने यह अवश्य कहा कि गांव से बाहर रहेंगे। भला गांव के लोगों को इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी?

उन सबने मिलकर गांव के बाहर शिव मन्दिर में उनकी व्यवस्था कर दी। महात्मा शिरीष वेदमाता गायत्री के अनुरक्त भक्त थे। वह ब्रह्ममुहूर्त से लेकर मध्याह्न बेला तक गायत्री साधना करते थे। दिन में एक समय थोड़ा कुछ फल-फूल खाकर, सायं प्रदोष बेला में भगवान शिव का नित्यार्चन, अभिषेक आदि करते। रात्रि महानिशा में पुनः भगवती गायत्री की साधना चतुष्पाद सहित करते। दिन में थोड़े समय के लिए आगन्तुक जनों से मुलाकात करते। महर्षि के इस तपस्वी जीवन को देखकर सभी आनन्दित थे, ग्रामीणजन सन्त शिरीष के सत्संग से एक ओर जहाँ आनन्दित थे, वहीं दस्यु दुर्दम्य की धमकियों से भयभीत। जब भी वे इसकी चर्चा उनसे करते, तो वह उन्हें यह कहकर चुप करा देते कि आदिशक्ति जगन्माता की कृपा पर भरोसा रखो। यह सन्तवाणी उन्हें आश्वस्ति तो देती, फिर भी चिन्ता तो थी ही।

इन्हीं दिनों पता नहीं कैसे दैवसंयोगवश दस्यु दुर्दम्य बुरी तरह से अस्वस्थ हो गया। गांव के लोगों ने समझा कि यह सब उसके बुरे कर्मों का कुफल है। किसी ने उससे मिलना भी उचित नहीं समझा परन्तु सन्त शिरीष उसे अपने पास शिवमन्दिर ले आए। उनकी अहर्निश चलने वाली साधना में यह सेवासाधना भी जुड़ गयी। अपने आयुर्वेद ज्ञान से वह उसकी चिकित्सा करते, साथ ही स्वयं उसके लिए भोजन पकाते। गांववालों में से कोई भी उनके पास भी नहीं जाना चाहता था। उन सब ने ऋषि शिरीष को मना भी किया। परन्तु जब वे किसी भी तरह से न माने तो उन सबने सोचा महात्मा शिरीष तपस्वी सन्त हैं, उनसे हठ करना ठीक नहीं है। परन्तु दुर्दम्य के लिए उनके मन में भारी आक्रोश था। परन्तु इस सबसे अछूते महात्मा शिरीष उसकी दिन-रात सेवा किये जा रहे थे। उनकी चिकित्सा एवं सेवा के परिणाम से वह कुछ महीनों में स्वस्थ हो गया। महर्षि के सान्निध्य एवं सेवा से उसके अन्तःकरण में प्रायश्चित्त के स्वर फूटने लगे। हालांकि महर्षि ने उससे इस बारे में कुछ नहीं कहा था। हाँ, जब वह पूर्णतया स्वस्थ हो गया तो उन्होंने यह अवश्य कहा- अब तुम चाहो तो यहाँ से जा सकते हो। दुर्दम्य ने पूछा- परन्तु यदि मैं आपके पास रहना चाहूँ तो? उत्तर में सन्त शिरीष ने मातृवत स्नेह से कहा- अवश्य रह सकते हो पुत्र।

महर्षि की भक्तिभावना ने उसमें आश्चर्यजनक बदलाव किया। अब तो वह भी गायत्री साधना सीख गया, सेवा में उसकी अभिरुचि होने लगी। जब उसके बदलाव की खबरें गांव के लोगों को मिलतीं, तो वे समझते कि यह उसका ढोंग है। परन्तु थोड़े समय के बाद उसके बदलाव ने उन्हें भी आश्चर्य में डाल दिया। इधर कभी दस्यु रहे दुर्दम्य ने जब उनसे पूछा कि मेरे विगत कर्मों का क्या प्रायश्चित्त है? तो सन्त शिरीष ने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- पुत्र! यदि तुम कुछ कर सकते हो तो बस अपनी निन्दा, अपमान एवं तिरस्कार को धैर्यपूर्वक सहन करो, साथ ही अपने विरोधियों की सेवा करने का प्रयत्न करो। यही तुम्हारा तप है, तुम्हारा प्रायश्चित्त है।

दुर्दम्य ने उनकी बातों को श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया। वह ग्रामीणजनों का तिरस्कार, दुत्कार सहकर भी उनकी सेवा करने का प्रयत्न करने लगा। कुछ सालों के प्रयास से उनका तिरस्कार, विश्वास में बदलने लगा। उन सबने महसूस किया कि दस्यु दुर्दम्य सचमुच ही अब भक्त दुर्दम्य बन गया है। महर्षि अंगिरा के इस कथाक्रम से पुलकित होते हुए ब्रह्मर्षि वशिष्ठ उत्साह से बोले- ‘‘महाराज दिलीप से यह चर्चा मैंने भी सुनी थी। हाँ ब्रह्मर्षि! मैंने स्वयं उन आदिशक्ति जगन्माता गायत्री के भक्त शिरीष के सान्निध्य को, चमत्कार को देखा है। सचमुच भक्त का स्पर्श स्वयं भगवान के स्पर्श से किंचित न्यून नहीं।’’ ब्रह्मर्षि अंगिरा की इस भक्तिकथा ने सभी को एक अनूठे भावलोक में पहुँचा दिया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १५६

शुक्रवार, 5 नवंबर 2021

👉 जीवन साधना के त्रिविध पंचशील (भाग १)

साधना चाहे घर पर की जाय अथवा एकान्तवास में रहकर, मनःस्थिति का परिष्कार उसका प्रधान लक्ष्य होना चाहिए। साधना का अर्थ यह नहीं कि अपने को नितान्त एकाकी अनुभव कर वर्तमान तथा भावी जीवन को नहीं, मुक्ति- मोक्ष को, परलोक को लक्ष्य मानकर चला जाय। साधना विधि में चिन्तन क्या है, आने वाले समय को साधक कैसा बनाने और परिष्कृत करने का संकल्प लेकर जाना चाहता है, इसे प्रमुख माना गया है। व्यक्ति, परिवार और समाज इन तीनों ही क्षेत्रों में बँटे जीवन सोपान को व्यक्ति किस प्रकार परिमार्जित करेंगे, उसकी रूपरेखा क्या होगी, इस निर्धारण में कौन कितना खरा उतरा इसी पर साधना की सफलता निर्भर है।
   
कल्प साधना में भी इसी तथ्य को प्रधानता दी गयी है। एक प्रकार से यह व्यक्ति का समग्र काया कल्प है, जिसमें उसका वर्तमान वैयक्तिक जीवन, पारिवारिक गठबंधन तथा समाज सम्पर्क तीनों ही प्रभावित होते हैं। कल्प साधकों को यही निर्देश दिया जाता है कि उनके शान्तिकुञ्ज वास की अवधि में उनकी मनःस्थिति एकान्त सेवी, अन्तर्मुखी, वैरागी जैसी होनी चाहिए। त्रिवेणी तट की बालुका में माघ मास की कल्प साधना फूस की झोपड़ी में सम्पन्न करते हैं। घर परिवार से मन हटाकर उस अवधि में मन को भगवद् समर्पण में रखते हैं। श्रद्धा पूर्वक नियमित साधना में संलग्न रहने और दिनचर्या के नियमित अनुशासन पालने के अतिरिक्त एक ही चिन्तन में निरत रहना चाहिये, कि काया कल्प जैसी मनःस्थिति लेकर कषाय- कल्मषों की कीचड़ धोकर वापस लौटना है। इसके लिए भावी जीवन को उज्ज्वल भविष्य की रूपरेखा निर्धारित करने का ताना- बाना बुनते रहना चाहिये।
   
व्यक्ति, परिवार और समाज के त्रिविध क्षेत्रों में जीवन बंटा हुआ हैं, इन तीनों को ही अधिकाधिक परिष्कृत करना इन दिनों लक्ष्य रखना चाहिये। इस सन्दर्भ में त्रिविध पंचशीलों के कुछ परामर्श क्रम प्रस्तुत हैं। भगवान बुद्ध ने हर क्षेत्र के लिए पंचशील निर्धारित किये थे। प्रज्ञा साधकों के लिए उपरोक्त तीन क्षेत्र के लिए इस प्रकार हैं:-

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 भक्तिगाथा (भाग ८३)

भगवत्कृपा के स्रोत हैं- भक्ति और भक्त

भगवत्कृपा के स्रोत हैं- भक्ति और भक्त। इस सच की अनुभूति सभी के अन्तःकरण में प्रकाशित हो उठी। सप्तर्षियों के साथ देवगण, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर एवं महर्षियों का समुदाय पुलकित हो उठा। उन्हें यह प्रगाढ़ता से अनुभव हुआ कि भक्ति जीवन को रूपान्तरित करने वाला रसायन है। इससे मानव जीवन दिव्य एवं पावन बनता है। देवर्षि ने भक्तिगाथा के जो कथासूत्र बुने थे, उनमें अनगिन मन सहजता से गुंथ गए। कृषक पति-पत्नी की भक्तिकथा ने सभी के चिन्तन को एक नवीन दिशा दी। वे सोचने लगे लगे कि भक्ति सचमुच ही असम्भव को सहज सम्भव बना देती है। इस भक्ति का निर्मल स्रोत है भक्त, जिसके माध्यम से भगवत्कृपा का अजस्र स्रोत प्रवाहित होता है। भक्ति एवं भक्त दोनों ही ऐसे माध्यम हैं- जिनसे भगवान की कृपा का स्पर्श पाया जा सकता है। प्रभु के पावन स्पर्श की, उनके सान्निध्य की अनुभूति पायी जा सकती है। भक्तों का सान्निध्य भी भगवान के सान्निध्य से कहीं कम नहीं है क्योंकि भगवान तो सदा ही अपने भक्तों के अन्तःकरण में विराजते हैं।

भक्त-भक्ति एवं भगवान की ये विचारकड़ियाँ अनायास ही गुंथती-जुड़ती रहीं। देवर्षि नारद द्वारा उच्चारित भक्तिसूत्र सभी की अन्तर्चेतना में प्रकाश किरणों की तरह जगमगाते रहे। इस बीच स्वयं देवर्षि मौन रहे। सप्तर्षियों में सभी के लिए समादरणीय महर्षि पुलह ने देवर्षि के मुख की ओर देखा, पर बोले कुछ नहीं। हालांकि उनकी दृष्टि में एक नेह भरा आह्लाद था। सम्भवतः वह भक्ति के नए सूत्र को सुनना चाहते थे। महर्षि पुलह की इन विचारविथियों ने अन्य महर्षिजनों को भी छुआ। उनके भाव भी स्पन्दित हुए और तब ब्रह्मर्षि मरीचि ने सभी की वाणी को शब्द देते हुए कहा, ‘‘देवर्षि हम सभी आपके नए सूत्र का सत्योच्चार सुनने के लिए उत्सुक हैं। आप भक्तिकथा की नयी कड़ी से हम सभी को कृतार्थ करें।’’ ब्रह्मर्षि मरीचि के इस कथन समाप्ति के साथ ही एक हिमपक्षी की मधुर ध्वनि वातावरण में स्पन्दित हुई। कुछ ऐसे कि जैसे उसने भी अपनी वाणी से ब्रह्मर्षि मरीचि के कथन का अनुमोदन किया हो।

उत्तर में देवर्षि के अधरों पर एक मीठी सी स्मित रेखा झलकी। और उन्होंने अपने हृदय कोष से नए सूत्र रत्न को प्रकाशित किया-
‘मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा’॥ ३८॥

‘परन्तु (प्रेमाभक्ति का साधन) मुख्यतया (भगवद्भक्त) महापुरुषों की कृपा से अथवा भगवत्कृपा के लेशमात्र से होता है।’ भक्त महापुरुषों का संग, सदा ही भगवत्कृपा की पारसमणि की भांति होता है, जिसका तनिक सा स्पर्श भी रूपान्तरण करने में समर्थ है। इस अमोघ सामर्थ्य को सभी अनुभवी जानते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १५५

गुरुवार, 4 नवंबर 2021

👉 दिया धरती का, ज्योति आकाश की

दीपावली पर दीये जलाते समय दीये के सच को समझना निहायत जरूरी है। अन्यथा दीपावली की प्रकाशपूर्ण रात्रि के बाद केवल बुझे हुए मिट्टी के दीये हाथों में रह जाएँगे। आकाशीय-अमृत ज्योति खो जाएगी। अन्धेरा फिर से सघन होकर घेर लेगा। जिन्दगी की घुटन और छटपटाहट फिर से तीव्र और घनी हो जाएगी। दीये के सच की अनुभूति को पाए बिना जीवन के अवसाद और अन्धेरे को सदा-सर्वदा के लिए दूर कर पाना कठिन ही नहीं नामुमकिन भी है।
    
दीये का सच दीये के स्वरूप में है। दीया भले ही मरणशील मिट्टी का हो, परन्तु ज्येाति तो अमृतमय आकाश की है। जो धरती का है, वह धरती पर ठहरा है, लेकिन ज्योति तो निरन्तर आकाश की ओर भागी जा रही है। ठीक दीये की ही भाँति मनुष्य की देह भी मिट्टी ही है, किन्तु उसकी आत्मा मिट्टी की नहीं है। वह तो इस मिट्टी के दीये में जलने वाली अमृत ज्योति है। हालांकि अहंकार के कारण वह इस मिट्टी की देह से ऊपर नहीं उठ पाती है।
    
मिट्टी के दीये में मनुष्य की जिन्दगी का बुनियादी सच समाया है। ‘अप्प दीपो भव’ कहकर भगवान् बुद्ध ने इसी को उजागर किया है। दीये की माटी अस्तित्त्व की प्रतीक है, तो ज्योति चेतना की। परम चेतना परमात्मा की करूणा ही स्नेह बनकर वाणी की बातों को सिक्त किए रहती है। चैतन्य ही प्रकाश है, जो समूचे अस्तित्त्व को प्रभु की करूणा के सहारे सार्थक करता है।
    
मिट्टी सब जगह सहज सुलभ और सबकी है, किन्तु ज्योति हर एक की अपनी और निजी है। केवल मिट्टी भर होने से कुछ नहीं होता। इसे कुम्भकार गुरु के चाक पर घूमना पड़ता है। उसके अनुशासन के आँवे में तपना पड़ता है। तब जाकर कहीं वह सद्गुरु की कृपा से परमात्मा की स्नेह रूपी करुणा का पात्र बनकर दीये का रूप ले लेती है। ऐसा दीया, जिसमें आत्म ज्योति प्रकाशित होती है। दीपावली पर दीये तो हजारों-लाखों जलाये जाते हैं, पर इस एक दीये के बिना अन्धेरा हटता तो है, पर मिटता नहीं। अच्छा हो कि इस दीपावली में दीये के सच की इस अनुभूति के साथ यह एक दीया और जलाएँ, ताकि इस मिट्टी के देह दीप में आत्मा की ज्योति मुस्करा सके।

✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ ११३

स्व प्रकाश का प्रेरणा पर्व दीपावली

भारतीय संस्कृति में पर्वों त्योहारों का विशेष महत्त्व है। पर्वों के साथ उल्लासमय क्रिया-काण्ड  एवं प्रेरक सूत्र दोनों समाए हैं। कर्मकाण्ड और उससे जुड़ी प्रेरणाएँ ये दोनों स्कूटर के दो चक्के के समान हैं। अँधे और पंगे की जोड़ी की तरह दोनों के सम्यक् तालमेल से ही लक्ष्य तक पहुँचा जा  सकता है। दीपावली की प्रेरणाएँ की जीवन को दिशाबोध कराती है।
    
दीपावली को पर्वों का राजा कह सकते हैं। भगवान् राम  राष्ट्र के आध्यात्मिक उत्थान अनौचित्य के विनाश तथा औचित्य की स्थापना के लिए राज्य सुख त्याग कर चौदह वर्षों का वनवास स्वीकार किये थे। जब वे असुरता के प्रतीक रावण पर विजय प्राप्त कर अयोध्या लौटे, तब उनका स्वागत दीपमालाओं से सजाकर किया गया। कहते हैं कि तभी से लोग दीपावली मनाते आ रहे हैं। आज भी समाज में धर्म के नाम पर वितण्डा फैलाने वाले रावणों, राजनीति के नाम पर राष्ट्र का शोषण करने वाले जरासंधों, कंसों, दुर्योधनों तथा राष्ट्र की अस्मिता का अपहरण करने वाले दुःशासनों की बाढ़ है। हम सबको इनके उन्मूलन के लिए समर्पित भाव से अपनी प्रतिभा, पुरुषार्थ, धन तथा समय सब कुछ न्यौछावर करना चाहिए, ताकि इतिहास हमें भी दीप मालिका सजाकर याद करे।
    
विशेषकर आज के भौतिकवादी युग में जब लोगों की वृत्ति भोगवादी होती जा रही है, लोग बिना कष्ट-कठिनाई सहन किये ऊँची सफलताएँ हस्तगत करना चाहते हो, वहाँ दीपावली के दीपक का महत्त्व बढ़ जाता है। दीपक स्वयं जलता है, कष्ट सहता है और संसार को प्रकाश देता है। हम भी यदि सफलता हस्तगत करना चाहते हैं, अपने भीतर बाहर को प्रकाशित करना चाहते हैं, तो दीपक की भाँति जलना पड़ेगा, तपना पड़ेगा, कठिनाइयों को चुनौती के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा। कविवर गुप्त जी के शब्दों में-
    
जितने कष्ट कण्टकों में हैं, उनका जीवन सुमन खिला।
गौरव गंध उन्हें उतना ही, यत्र-तत्र-सर्वत्र मिला॥
    
आशावादिता का सबसे सशक्त प्रतीक भी है दीपक। अंधकार चाहे जितना सघन क्यों न हो, नन्हा-सा दीपक उसे सदा चुनौती देता एवं अस्तित्व रहते तक उस पर विजय प्राप्त करता है। हमें भी समाज में व्याप्त अनाचार, अनैतिकता, घूसखोरी, भ्रष्टाचार, आतंकवादी जैसी विसंगतियों से न  घबराते हुए दीपक बनकर इनसे जूझना चाहिए। यदि हम एक सच्चे दीपक बन गये, तो निश्चय ही  अपने चारों ओर व्याप्त अंधकार पर विजय प्राप्त कर सकेंगे। हमें देखकर और भी प्रेरित होंगे, तब दीप से दीप चलते चले जाएँगे और जिधर चल पड़ेगे कारवाँ चल पड़ेगा। सामयिक कवि श्री वीरेश्वर उपाध्याय ने शब्दों में कहें तो-
जीवन पथ जो कण्टकमय हो, अंधकारों का घोर प्रलय हो, किन्तु साधना एक यही बस, पग प्रति पग गतिमान चाहिए। माँ बस यह वरदान चाहिए।
    
दीपावली लक्ष्मी का पर्व है। युग निर्माण योजना मिशन के संस्थापक पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ने धन को माँ के दूध की संज्ञा देते हुए कहा है कि हम लक्ष्मी को माँ समझकर अपने जीवन को विकसित, सामर्थ्यवान बनाने के लिए उपयोग करें, न कि भोग विलास तथा ऐशोआराम के लिए। हम इस पर्व में लेखा-जोखा तो करते हैं, वर्ष भर के लाभ-हानि का विचार भी करते हैं, किन्तु यहीं तक सीमित न रहकर हमें अर्थ के संयमित उपभोग की प्रेरणा भी लेनी चाहिए। ईशोपनिषद् में उपनिषद्कारों ने यही प्रेरणा दी है-
ईशावास्यामिदं सर्वं यत्किंचजगत्यांजगत।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृदः कस्य स्विद्धनम्॥
    
वस्तुतः दीपावली प्रकाश का पर्व है। युगों से हम इसे मानते आ रहे हैं, किन्तु उक्त संकल्पों एवं प्रेरणाओं के अभाव में हमारी दीपावली प्राणहीन होती जा रही है। पूजा-पाठ करना, दीपक जलाना आदि श्रद्धा एवं उत्साह प्रकट करने के सारे उपक्रम निरर्थक हो जाते हैं यदि हमारे अन्दर अंधकार से जूझने की प्रेरणा नहीं उभरी। अतः इस पर्व पर हम सब संकल्प लें, दीपक बनने का, प्रकाश स्तंभ बनने का, मील का पत्थर बनने का तभी दीपावली पर्व सार्थक होगा।  हर संकल्वान व्यक्ति को नेपोलियन के ये शब्द Nothing is impossible हमेशा याद रखना चाहिए।
शैल दीदी पण्ड्या

सोमवार, 1 नवंबर 2021

👉 स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान और प्रज्ञा केन्द्र (अन्तिम भाग)

स्वाध्याय क्रम के पैर जमते ही सभी प्रज्ञा संस्थानों को उपरोक्त कार्य पद्धति हाथ में लेनी चाहिए। उसके लिए साधन जुटाने चाहिए। हर प्रज्ञा संस्थान को स्वाध्याय शुभारंभ करके अग्रिम चरणों में सृजनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम हाथ में लेने होंगे, इसके लिए दस सूत्री योजना की चर्चा होती रही है, उनमें से चार तो ऐसे है जिन्हें छोटे प्रज्ञा संस्थान भी अपने न्यूनतम ३० सदस्यों की परिधि में कार्यान्वित कर सकते हैं। प्रौढ़ शिक्षा, बाल संस्कार शाला, व्यायाम शाला, खेलकूद, तुलसी आरोपण, हरीतिमा संवर्धन। शादियों में दहेज और धूमधाम का विरोध इन चार कार्यक्रमों में जन- जन को भागीदार बनाने का कार्य स्वाध्याय मंडलों को अपने तीस सदस्यों के परिवार से आरंभ करना चाहिए। इन कार्यक्रमों के सहारे यह छोटे संगठन भी अपनी गौरव गरिमा का परिचय देंगे। जन- जन का समर्थन सहयोग प्राप्त करेंगे और बीज से वृक्ष, चिनगारी से दावानल का नया उदाहरण बनेंगे।
   
स्वाध्याय के दो और सत्संग के चार चरण मिलकर छः बनते हैं। अगले दिनों हर मंडल को पर्व आयोजनों, नवरात्रि सत्रों और वार्षिकोत्सवों की व्यवस्था बनानी होगी। इन सब कार्यों के लिए, साधन जुटाने के लिए पैसों की जरूरत पड़ती रहेगी। इसका सरल और स्थायी रूप ज्ञानघट ही हो सकते हैं। प्रज्ञा परिवार को सदस्यता के लिए एक घण्टा समयदान और बीस पैसे की अंशदान नित्य नियमित रूप से करते रहने की शर्त है। ऐसे सच्चे प्रज्ञा परिवार विनिर्मित करने चाहिए जो बातों के बताशे ही न बनाते रहे, वरन् श्रद्धा का प्रमाण परिचय देने वाला भाव भरा अनुदान भी प्रस्तुत करें। बीस पैसे वाले ज्ञानघट पुरुषों के और एक मुट्ठी अनाज वाले धर्मघट महिलाओं के द्वारा चलें, तो प्रज्ञा संस्थानों को अगले दिनों जो कतिपय नये उपकरण खरीदने तथा नये कार्यक्रम चलाने होंगे, उनके लिए समयानुसार पैसा मिलता रहेगा। इस न्यूनतम अनिवार्य अंशदान के अतिरिक्त उदार मना परिजनों से कुछ अधिक खर्च करने की बात भी गले उतारनी चाहिए। ताकि स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान साहित्य पढ़ाने के प्रथम चरण तक ही न सीमित रहे। वर्ण माला और गिनती पहाड़ा ही न रटता रहे। अन्ततः इन छोटे संगठनों को विकसित होना है। हर सदस्य को एक से पाँच की विकास विस्तार प्रक्रिया को कार्यान्वित करना है। नवजात शिशु तो खिलौनों से खेलता और गोदी में चढ़ता रहता है, पर समय बीतने पर वह किशोर और प्रौढ़ भी तो बनता है। तदनुसार उसकी गतिविधियाँ भी भारी भरकम बनती चली जाती है।
   
स्वाध्याय मंडल प्रज्ञा संस्थान की समर्थता पाँच साथियों का सहयोग प्राप्त करने और तीस का कार्यक्षेत्र बनाने की विधि व्यवस्था पर अवलम्बित माना गया है। किसी भी प्रतिभाशाली के लिए इतने संगठन और योजना चला सकना कठिन नहीं पड़ना चाहिए। इतने पर भी यह हो सकता है कि कोई नितान्त व्यस्त, संकोची, रुग्ण, अविकसित, असमर्थ एवं महिलाओं की तरह प्रतिबंधित होने की स्थिति में संगठन क्रम न चला सके। उन्हें भी मन मसोस कर बैठने की आवश्यकता नहीं है। उनके लिए एकाकी प्रयत्न से चल सकने वाली प्रज्ञा केन्द्र व्यवस्था का प्रावधान रखा गया है। इसमें संगठित प्रयत्न के बिना भी एकाकी प्रयास से काम चल सकता है। ऐसे लोग बीस पैसे के स्थान पर अपनी तथा कुटुम्बियों की ओर से चालीस पैसा प्रतिदिन की व्यवस्था करे। और उतने भर से हर महीने प्रकाशित होने वाली तीस फोल्डर पुस्तिकाएँ मँगाये और परिवार पड़ोस के बारह व्यक्तियों को उन्हें पढ़ाते सुनाते रहें। इस प्रकार भी प्रज्ञापीठ संस्थान वाली प्रक्रिया का एकाकी स्तर पर निर्वाह हो जाता है। इस आधार पर घरेलू प्रज्ञा पुस्तकालय बनता और बढ़ता रह सकता है।
   
स्मरण रहे प्रज्ञा संस्थानों और प्रज्ञा केन्द्र द्वारा पढ़ाने के लिए खरीदा गया साहित्य उन्हीं की पूँजी के रूप में उन्हीं के पास रहता है। कोई चाहे तो लागत से थोड़े कम मूल्य में किसी भी दिन कहीं भी बेच भी सकता है। अस्तु यह दान नहीं सम्पदा संचय है। ऐसी सम्पदा जिसे सोने चाँदी की तुलना में कहीं अधिक श्रेयस्कर एवं सत्परिणाम उत्पन्न करने वाली कहा जा सकता है। हर विचारशील को अपने निजी परिवार को सुसंस्कारी बनाने के लिए इस संचय को करना ही चाहिए।
   
प्रज्ञा केन्द्र, प्रज्ञा संस्थान, प्रज्ञापीठ के गठन का कोई भी स्वरूप क्यों न हो, उसे चलाने वाले अनायास ही विचारशीलों के सम्पर्क में आते हैं, उनके साथ घनिष्ठता स्थापित करते, सहानुभूति अर्पित करते और मित्रता करते हैं। यह उपलब्धि आरंभ में तो कम महत्त्व की दीखती है, पर जब आने वाले समय में उन मित्रों के सहयोग से विपत्ति निवारण और प्रगति लाभ के सुयोग बनते है तब प्रतीत होता है कि इस सेवा साधना में जो श्रम समय एवं पैसा लगा, वह अनेक गुना होकर वापिस लौटने लगा। विचारशीलों की सद्भावना एवं घनिष्ठता उपलब्ध करने वाले प्रकारान्तर से सुखद वर्तमान एवं उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करते और अनुदान का प्रतिदान हाथों हाथ प्राप्त करते हैं।

.....समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 भक्तिगाथा (भाग ८२)

👉 भक्ति के अपूर्व सोपान हैं-श्रवण और कीर्तन

देवर्षि भी बिना क्षण गवाएँ कहने लगे- ‘‘आज मेरी स्मृतियों में जिस भक्त का बिम्ब उभरा है, उनकी कहीं कोई चर्चा नहीं है। न शास्त्रों ने उनके बारे में कुछ कहा है और न ही कोई पुराणकथाएँ उनकी कोई बात करती हैं। विशेषताओं के किन्हीं विशेषणों से उनका कोई भी वास्ता नहीं है। बस उनकी विशेषता अगर कहीं थी तो वह उनके हृदय में थी। मैं यहाँ जिन भक्त की चर्चा कर रहा हूँ, वह एक सामान्य से गांव में सामान्य से कृषक थे। उन दिनों उनके परिवार में अनगिन परेशानियाँ थीं। वह स्वयं भी बिस्तर पर बीमार लेटे थे। राह चलते मेरी दृष्टि उन पर और उनके परिवार पर गयी। मैंने सहज स्वभाववश उनके द्वार पर पहुँच कर नारायण नाम का नामोच्चार किया। मेरी वाणी को सुनकर उनकी पत्नी द्वार पर आयी। उसके मुख पर दुर्भाग्य की कालिमा के साथ पीड़ा की कड़वाहट घुली थी।

मेरी ओर उसने विचित्र दृष्टि से देखा। उसकी इस दृष्टि में कई सकारात्मक-नकारात्मक भाव एक साथ घुले थे। पर मैंने इस सबकी परवाह किए बिना उससे कहा- देवी! मैं तुम्हारे पति से मिलता चाहता हूँ। वह बिना कुछ बोले द्वार से एक तरफ हट गयी। मैं भीतर गया। उसका पति आंगन में लेटा था। दीर्घकालीन बीमारी ने उसे असमय बूढ़ा कर दिया था। उसने एक क्षीण-सी दृष्टि मेरी ओर डाली। पीड़ा से उसकी आँखें तो छलकीं पर कण्ठ से एक भी शब्द न निकला। मैंने ही उससे पूछा- भद्र! मैं तो बस तुम्हें नारायण का नाम सुनाने आया हूँ। अगर हो सके तो इस नाम का सतत उच्चार करो। ऐसा करके मैं वहाँ से चल दिया। पर उस व्यक्ति ने न जाने किन शुभ संस्कारोंवश मेरी बात मान ली। इस घटना को गुजरे कई साल गुजर गए। एक बार पुनः मेरा उधर से जाना हुआ। संयोगवश या भगवत्कृपावश, मैं पुनः उसके द्वार पर पहुँचा। उसके द्वार पर कुछ उत्सव जैसा था। कई लोग एकत्रित होकर भगवन्नाम संकीर्तन कर रहे थे। पूछने पर पता चला कि यहाँ पर प्रत्येक एकादशी को ऐसा होता है और आज एकादशी जो है।

तब की और उस दिन की परिस्थितियों में भारी अन्तर था। वह किसान और उसकी पत्नी मुझे घर के अन्दर ले गये। उन्होंने मुझे बिठाकर जलपान कराया। और अपने आपबीती सुनाने लगे और बोले- जब पिछली बार आपने मुझे नारायण नाम का स्मरण करने के लिए था तो मैंने पता नहीं किन संस्कारोंवश आपकी बात मान ली। जब तक मुझे होश रहता मैं भावभरे मन से प्रभुनाम लेता रहता। इस नामरटन ने मेरे देह-मन एवं प्राणों का शोधन शुरू कर दिया। बीमारी पता नहीं कहाँ गयी। पत्नी के स्वभाव में भी परिवर्तन आ गया। स्वस्थ होने पर मैं काम-काज करने लगा, तो घर की स्थिति भी बदल गयी। फिर तो मैंने नारायण नाम का नुस्खा औरों को भी देना प्रारम्भ कर दिया। इस तरह कीर्तन की शुरूआत हो गयी।

इस श्रवण एवं कीर्तन भक्ति ने मेरे साथ न जाने कितनों के जीवन बदल दिए। यह ऐसा सच है कि जिसे मेरे साथ बहुतों से अनुभव किया। और अब तो बस मेरा जीवन श्रवण एवं कीर्तन भक्ति का पर्याय बन गया। घर-परिवार में रहकर भगवान की भक्ति का इससे अच्छा उपाय भला और क्या है? इससे सब कुछ स्वतः मिल जाता है, घर-परिवार का सुख एवं मन की शान्ति। भगवत्कृपा से जीवन के दुःख कब सुखों में बदल जाते हैं पता ही नहीं चलता।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १५३

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...